Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

महामहिम वनवासी समुदाय की प्रतिनिधि हैं या आदिवासी समुदाय की?

हालांकि अब एक राष्ट्रपति के तौर पर द्रौपदी मुर्मू पूरे देश की प्रतिनिधि होंगी लेकिन यह सवाल मूल में होना चाहिए कि क्या भारतीय गणराज्य के सर्वोच्च पद पर आसीन होने जा रहीं श्रीमती मुर्मू खुद के बारे में उन्हीं के राजनैतिक दल और उसकी मातृ संस्था द्वारा गढ़ी गयी छवि को लेकर सजग हैं।
Draupadi Murmu

आज़ादी के पचहत्तर सालों के बाद भारतीय गणराज्य को पहली दफा एक ‘वनवासी’ महिला राष्ट्राध्यक्ष के रूप में मिली हैं। यह हिंदुस्तान के इस विशाल और विविधतता से पूर्ण लोकतन्त्र का गौरव है। यह हिन्दुस्तानी समवेशी जनतंत्र का मुजाहिरा है। यह एक सकारात्मक परिघटना है जिसका पूरी उदारता से स्वागत किया जाना चाहिए।

नव निर्वाचित राष्ट्रपति से आदिवासी समुदायों के हितों में कुछ किए जाने और उससे भी बढ़कर भारतीय गणराज्य जो पूरी सजगता से उनके खिलाफ काम करते आ रहा है उस पर नियंत्रण लगाने की उम्मीदें करना और उन्हें देश का सर्वोच्च दफ्तर संभालने से पहले ही इन उम्मीदों के बोझ से लाद देने के अतिरिक्त उत्साह से अभी बचा जाना चाहिए।

ऐसा तो नहीं है कि उन्हें देश में आदिवासी समुदायों की परिस्थितियों का अंदाज़ा नहीं है। खुद एक आदिवासी बाहुल्य राज्य से आती हैं और राष्ट्रपति चुने से पहले एक आदिवासी बाहुल्य राज्य की राज्यपाल रहीं हैं। इस देश की सांवैधानिक व्यवस्था में राज्यों के राज्यपाल आदिवासी समुदायों के लिए न केवल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि ही होते हैं बल्कि उनके अभिभावक भी होते हैं। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू राज्यपाल भी रही हैं और अब राष्ट्रपति बन चुकी हैं।

हालांकि इसे उनकी विनम्रता या सहजता ही कहा जाएगा कि ओडीशा सरकार में दो-दो बार मंत्री पद को सुशोभित करने और एक बार एक राज्य कि राज्यपाल मनोनीत हो जाने के बावजूद उन्होंने अपने मूल गाँव के लिए बिजली या स्वच्छ पानी की व्यवस्था न होने की शिकायत तक न की। ज़रूर उनके हाथ में अपने गाँव में इन बुनियादी सुविधाओं को पहुंचाने की ताक़त और ज़िम्मेदारी रही होगी लेकिन इसे निर्दोष विनम्रता ही कहा जाएगा कि उन्होंने इन छोटी मोटी सुविधाओं के लिए अपने पद और ताक़त का उपयोग या दुरुपयोग नहीं किया।

आदिवासी समाज के इसी स्वार्थरहित रवैये और जीवन दर्शन के कसीदे पढ़कर पढ़कर भारतीय गणतन्त्र ने अपने प्रभुत्व या वर्चस्व को न केवल विस्तार दिया बल्कि दिनों दिन ऐसे समुदायों में अपनी गहरी पैठ और स्वीकार्यता भी बनाई कि आज ये समुदाय सरकार द्वारा दिये जा रहे राशन पर आश्रित हो चुके हैं।

आज जिन्हें आदिवासी बाहुल्य इलाके कहा जाता है औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश हुकूमत इन्हें अपने शासन से बाहर यानी एक्सक्लुडेड मानती आयी है। ऐसे इलाकों में ब्रिटिश हुकूमत को लूट के मौके तलाशने में हमेशा हताशा हाथ आयी। इसकी वजह इन समुदायों द्वारा इस हुकूमत के प्रति घनघोर विद्रोह ही रहा। हालांकि ऐसे सभी इलाके समान रूप से विद्रोही नहीं थे लेकिन एक खौफ का सामना ब्रिटिश हुकूमत को करना पड़ा। जब देश के संविधान में ऐसे इलाकों को शामिल किया गया तब इन्हें विशिष्ट दर्जा देते हुए संविधान की पाँचवीं अनुसूची में जगह दी गयी।

पाँचवीं और छठवीं अनुसूचियाँ संविधान के अभिन्न हिस्से हैं। इन इलाकों में स्व-राज की अवधारणा के अनुरूप शासन-व्यवस्था बनाई गयी। इस व्यवस्था की निगहबानी की ज़िम्मेदारी देश की सर्वोच्च संस्था राष्ट्रपति के सुपुर्द की गयी जिसे राज्यों में निभाने का दायित्व राष्ट्रपति के प्रतिनिधि यानी राज्यपालों को सौंपी गयी। राज्यपालों को सक्रियता बरतने के लिए यह प्रभार एक अच्छा अवसर देता है लेकिन इसकी जहमत प्राय: किसी राज्यपाल ने नहीं निभाई है। इसकी वजह यह है कि राज्यपाल की तमाम योग्यता सत्ताधारी दल द्वारा अपनी विचारधारा के प्रति वफादारी है और अंतत: यह राष्ट्रपति की कृपा के अधीन है। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू इस लिहाज से हर तरह से योग्य हैं जो आज की व्यावहारिक राजनीति की छत्रछाया में सांवैधानिक पदों के लिए ज़रूरी है।

लेख की शुरुआत में ही लिखा गया है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और इसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इस उप महाद्वीप के मूल निवासी समुदायों को न तो अंतरराष्ट्रीय जगत में मान्य शब्द इंडेजीनियस यानी मूल निवासी ही मानती है और न ही इस शब्द के हिन्दी स्थापन्न शब्द आदिवासी शब्द को ही तवज्जो देती है। इन संज्ञाओं के स्थान पर वह जंगलों में बसे लोगों और समुदायों को अपने पौराणिक और मिथकीय महकाव्यों से संदर्भ लेते हुए वनवासी ही मानती है। जिनका उद्धार हिन्दू मिथकों के अनुसार अवतार लिए भगवानों के द्वारा होना है। ये चरित्र चाहे श्रीराम के वनवास के दौरान उन्हें मिले जामवंत, सुगरें, अंगद और खुद हनुमान हों या महाभारत में मिली हिडिंबा या घटोत्कच्छ हों। इनके लिए असुर एक सामुदायिक पहचान नहीं है बल्कि वह देवता के बरक्स रची गयी एक शैतानी शक्ति है।

ऐसे में यह सवाल मूल में होना चाहिए कि क्या भारतीय गणराज्य के सर्वोच्च पद पर आसीन होने जा रहीं श्रीमती द्रौपदी मुर्मू खुद के बारे में उन्हीं के राजनैतिक दल और उसकी मातृ संस्था द्वारा गढ़ी गयी छवि को लेकर सजग हैं। क्या वह खुद को बिरसा मुंडा, सिद्धों-कानों, तिलका मांझी या टांट्या भील का वारिस मानती हैं या मिथकीय चरित्रों जामवंत और नल नील का?

अगर महामहिम राष्ट्रपति उनके समुदायों को प्रदत्त छवि को लेकर प्रश्नाकुल न हों तो यह मुमकिन भी नहीं है कि वो अपनी खुद की छवि को तथाकथित आधुनिक सभ्यता के बरक्स समान नागरिक होने की कितनी पैरवी कर पाएंगीं।

इस लिहाज से उन पर अनावश्यक उम्मीदों का बोझ नहीं डाला जाना चाहिए। वह सर्वोच्च पद पर हैं पर एक न्यायसंगत समाज की स्थापना के लिए हाशिये पर पड़े और पूंजी के पैरोकार भारतीय गणराज्य द्वारा सबसे ज़्यादा सताये गए समुदायों के लिए आमूलचूल से कुछ ऐसा करेंगीं जो उनकी मातृ संस्था के सिद्धांतों के खिलाफ होगा इसे समझना कतई मुश्किल पहेली नहीं है।

श्रीमती द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की धारणा के अनुसार वनवासियों की प्रतिनधि हो सकती हैं जैसे इनसे पहले के महामहिम श्री रामनाथ कोविंद राजनैतिक रूप से दलितों के लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शब्दावली में शूद्रों के प्रतिनिधि थे। इसे समावेशी लोकतन्त्र कहना एक तरह से लोकतंत्र के समवेशी होने की अपार संभावनाओं को सीमित करके देखना होगा।

भारतीय जनता पार्टी को यह श्रेय ज़रूर जाता है और उसे दिया भी जाना चाहिए कि जब जब उसे इन संवैधानिक पदों पर किसी को चुनने का निर्णायक अवसर मिला है उसने देश के उन तबकों को प्रतिनिधित्व दिया है जिनके बारे में उसकी विचारधारा में एक स्पष्ट और मुखर नकार है। वो चाहे अब्दुल कलाम हों, रामनाथ कोविन्द हों या अब श्रीमती द्रौपदी मुर्मू हों। हमारे पास कम से दो ऐसे प्रतिनिधियों के कार्यकाल के तजुर्बे भी हैं जहां यह सीखा जा सकता है कि इन महामहिमों ने अपने समुदायों के लिए ऐसा क्या आमूल किया जिसे उनके समुदाय और देश याद रखना चाहें या चाहकर भी भूल न पाएँ।

(लेखक लंबे अरसे से सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं)

इसे भी पढ़े : संविधान और सियासत: द्रौपदी मुर्मू से बहुत हैं उम्मीदें

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest