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ईआईए अधिसूचना 2020 : अभी नहीं, तो कभी नहीं !

लॉकडाउन के दौरान उस मसौदे को जारी करना, जो भारत के पर्यावरण नियमों को मूल रूप से बदल देना चाहता है, यह क़दम जनमत को लेकर भाजपा सरकार की संपूर्ण उपेक्षा को दर्शाता है।
ईआईए अधिसूचना 2020
प्रतीकात्मक तस्वीर

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने COVID-19 महामारी के चलते दुनिया के सबसे बड़े राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की पूर्व संध्या पर 12 मार्च, 2020को पर्यावरण प्रभाव आकलन 2020 (ईआईएअधिसूचना 2020) पर एक मसौदा अधिसूचना जारी की थी और अगले 60 दिनों में इसकी प्रतिक्रिया मांगी थी। यह समयावधि अगले सप्ताह,11 मई, 2020 को समाप्त होने वाली है।

ईआईए अधिसूचना,2020 को ईआईए अधिसूचना, 2006 की जगह लाया जाना है और तब से हुए कई संशोधनों को इसमें शामिल किया जाना है। इस नयी मसौदा अधिसूचना में ऐसे अनेक नये प्रावधान शामिल हैं, जिसमें वस्तुतः कई नियमों-मानकों का पुनर्लेखन और पर्यावरणीय प्रभाव आकलन और परियोजनाओं को लेकर किये गये अनुमोदन शामिल हैं। इस प्रकार, ईआईए अधिसूचना,2020 पर्यावरण में हुए नुकसान और पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर लोगों के जीवन और आजीविका के सिलसिले में भारत की पर्यावरण नियामक व्यवस्था को मौलिक रूप से बदलने देने के लिहाज से बहुत अहम है।

वापस लेन या स्थगित करने की मांग

अगर हालात सामान्य होते,तो जन आंदोलन,नागरिक समाज से जुड़े संगठन, पर्यावरण के जानकार और पर्यावरण की रक्षा और सतत विकास में हिस्सेदारी करने वाले लोग ख़ास तौर पर ज़मीनी स्तर पर इस प्रारूप अधिसूचना की व्यापक जांच-पड़ताल और गहन चर्चाओं में लगे हुए होते, ताकि इस मसौदे को तैयार करने और प्रस्तुत किये जाने से पहले प्राप्त जानकारियों पर अच्छी तरह से विचार-विमर्श किया जा सके।

हालांकि, पिछले दो महीनों से सभी लोग लॉकडाउन में रह रहे हैं, इससे इस पर ज़रूरी व्यापक सार्वजनिक चर्चायें नहीं हो पायी हैं। सीमित दायरे में ही सही कुछ कार्यकर्ताओं और विद्वानों के बीच कुछ टेलीकॉंफ़्रेंस और वेब-आधारित चर्चायें हो सकती थीं, हालांकि ऐसी सुविधायें आदिवासी और अन्य लोगों और वन क्षेत्रों, मछुआरों और अन्य तटीय लोगों, पहाड़ी क्षेत्रों के लोगों और बहुत सारे अन्य समुदायों के बीच उपलब्ध नहीं हैं,जबकि इन मसौदा अधिसूचनाओं को ढालने में इन समुदायों की अहम हिस्सेदारी हो सकती है।

चूंकि पर्यावरणीय प्रभाव और पारिस्थितिक क्षरण पूरी आबादी के साथ-साथ और भी दूसरे घटकों पर भी प्रभाव डालता है, इसलिए यह अपने आप ही स्पष्ट है कि पिछले दो महीनों में जो हालात पैदा हुए हैं,उनसे असर डालने वाली सार्वजनिक चर्चायें बाधित हुई हैं, जैसा कि ख़ुद इस मसौदा अधिसूचना में इस बात की चर्चा की गयी है और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत भी इस बात को कहा गया है।

जिस समय COVID-19 की मज़बूत गिरफ़्त में आ चुके भारत के ज़्यादातर लोग दफ़्तरों के काम को पहले से ही घर से निबटा रहे हों,उस दरम्यान भी कई संगठनों और कार्यकर्ता समूहों ने इस अधिसूचना की घोषणा के समय पर्यावरण मंत्रालय से इसे वापस लेने या प्रतिक्रियाओं और सुझावों को पाने के लिए इसकी अवधि को बढ़ाने की मांग की थी।

कोई शक नहीं कि पिछले दो महीनों से कोरोनावायरस महामारी को रोकने के प्रयास कर रही सरकार परेशान रही है। लेकिन,इस स्थिति में भी समय बढ़ाने वाले इन अनुरोधों को लेकर तक अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है। समय-सीमा अब लगभग ख़त्म होने ही वाली है, ऐसे में कई संगठनों और जानकारों ने एक बार फिर मंत्रालय से दो महीने की समय सीमा बढ़ाने की मांग की है।

उम्मीद है कि सरकार ज़ाहिर की जा रही इन चिंताओं को अहमियत देते हुए सकारात्मक प्रतिक्रिया देगी। दूसरी तरफ़, ऐसी आशंका है और जैसा कि हाल ही में अलग-अलग सिलसिले में ऐसा हुआ भी है कि सरकारCOVID-19 के पर्दे के पीछे छिपती रही है और इसका इस्तेमाल अधिसूचना के ज़रिये आगे बढ़ने, और सार्वजनिक जांच-पड़ताल और विभिन्न आलोचनाओं या विरोध से बच निकलने के लिए करती रही है।

भले ही समय और परिस्थितियां व्यापक जांच-पड़ताल की इजाज़त नहीं दे रही हों,मगर किसी भी हालत में शासन में भागीदारी के एक निरंतर प्रयास के हिस्से के रूप में इस मसौदा अधिसूचना के प्रमुख पहलुओं पर एक संक्षिप्त नज़र डालना उपयोगी होगा।

पर्यावरण नियमन को लेकर आने वाली तबाही

यह मसौदा अपने शुरुआती पैराग्राफ़ में ख़ुद ही बताता है कि चूंकि बीते कई सालों में ईआईए अधिसूचना 2006 में कई संशोधन किये गये हैं,और विभिन्न न्यायालयों और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) द्वारा इस सिलसिले में कई फ़ैसले भी दिये जा चुके हैं, इसीलिए,ख़ास तौर पर विकेंद्रीकृत कार्यान्वयन के सिलसिले में इस प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना ज़रूरी हो गया है। यह मसौदा इस बात पर ख़ास ज़ोर देते हुए कहता है कि केंद्रीय स्तर पर पूर्व पर्यावरणीय मंजूरी (Prior-EC) और राज्य-स्तरीय पूर्व पर्यावरणीय मंज़ूरियों (Prior-EP) के आस-पास की सम्बन्धित प्रक्रियाओं  के साथ-साथ परियोजना प्रस्तावकों द्वारा की जाने वाली उल्लंघन से जुड़ी हुई प्रक्रियायें ही चिंता के आधार रहे हैं।

इस अधिसूचना के मसौदे पर सरसरी निगाह डालने से भी पता चलता है कि इसके पीछे का इरादा अनिवार्य रूप से विभिन्न अदालतों और एनजीटी के फ़ैसलों को दरकिनार करना है,और पर्यावरण की क़ीमत पर औद्योगिक और वाणिज्यिक परियोजनाओं के पक्ष में प्रावधानों को संशोधित करते हुए इन फ़ैसलों द्वारा प्रदान की गयी पर्यावरणीय सुरक्षा को बेअसर करना है।

यह उन लोगों के लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है, जो बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार के 2014 में सत्ता में आने के बाद से पर्यावरण संरक्षण और कृषि नियामक व्यवस्था और संस्थागत ढांचे के व्यवस्थित विघटन की कोशिशों पर नज़र रखते रहे हैं । इसका ज़िक़्र सार्वजनिक नीति के जानकार और कार्यकर्ता समूह के साथ-साथ इस तरह के आलेख भी बार-बार करते रहे हैं।

2014 से इस नियमन में दी गयी ढील के सफ़र पर बारीकी से नज़र डाले बिना भी इस बात पर ग़ौर किया जा सकता है कि यह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एजेंडे में से एक रहा है, जो वास्तव में 2014 और 2018के चुनावी घोषणापत्रों के साथ-साथ सत्तारूढ़ पार्टी के एकछत्र नेता और प्रवक्ता के भाषणों में भी झलकता रहा है।

सरकार पूरे मनोयोग से भारत में "व्यापार करने में आसानी" को बेहतर बनाने के लक्ष्य  के साथ आगे बढ़ती रही है, जिसका मतलब उन सभी विनियमों को हटाना या कमज़ोर करना है,जिन्हें परियोजना के प्रस्तावकों की नज़र में निवेश और बेरोक-टोक कारोबार के संचालन और मुनाफ़े के लिहाज से बाधा के रूप में देखा जाता रहा है।

इस लक्ष्य की राह में इस पर्यावरण विनियमन में ढील को अधिक अहम, और तार्किक रूप से लागू करने को लेकर कारोबार में आसानी,अर्थव्यवस्था के अधिक सामान्यीकृत अविनियमन और कराधान, निवेश और श्रम "सुधार”  की शुरूआत जैसे उपायों के तौर पर देखा गया था।, "व्यापार करने में आसानी" के लिहाज से भारत की विश्व रैंकिंग इस अवधि में अप्रत्याशित रूप से 190 से 63 हो गयी है। यह अलग बात है कि अन्य कमज़ोर आर्थिक बुनियादी घटक और बुनियादी ढांचों की कमियों के चलते अन्य मामलों में विदेशी या घरेलू निवेश उस हिसाब से नहीं बढ़ पाया है।

उठाये जा रहे क़दमों के इस हालिया उपाय को लेकर क़ानूनी और सार्वजनिक नीति के जानकारों का विचार है कि ईआईए अधिसूचना,2020 वाला यह मसौदा भारत के पर्यावरण नियमों की मूल बनावट को ध्वस्त करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, जिसका एक क़दम पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन या ईआईए नामक आधार पर ही चोट करता है।

यह प्रारूप पर्यावरण की मंज़ूरी देने से सम्बन्धित प्रक्रियाओं पर जाकर ख़त्म हो जाता है, और महज जुर्माना लगाते हुए इस तरह की निकासी की शर्तों के उल्लंघन को नियमित कर देता है,जो एक जाने-माने पर्यावरण वक़ील के शब्दों में “यह उल्लंघन मानों किसी पार्किंग टिकट की तरह हो”।

पर्यावरण नियमन का रौंदा जाना

पर्यावरण संरक्षण को लेकर पहले के उपायों को कमज़ोर कर देने वाले कई प्रावधानों का पता लागाने के लिए वास्तव में एक बारीक चलनी के इस्तेमाल की ज़रूरत होती है।

सरकार पर्यावरण के नज़रिये से निर्माण उद्योग को छूट देने को लेकर लंबे समय से ऐसी कोशिश करती रही है। अपने पहले कार्यकाल में इस सरकार ने 20,000 और 150,000 वर्ग मीटर के बीच की सभी आवास और अन्य निर्माण परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंज़ूरी हासिल करने से छूट दे दी थी, और कहा था कि वे स्थानीय प्राधिकरणों के दायरे में आयेंगे,जो पर्यावरणीय ज़रूरतों के हिसाब से उपनियमों का निर्माण करेंगे और उनका अनुमोदन करेंगे। हालांकि, एनजीटी द्वारा 2006 की अधिसूचना के उल्लंघन के रूप में इसे ख़ारिज कर दिया गया था।

अधिसूचना,2020 का यह मसौदा अब उस फ़ैसले को दरकिनार करता है और श्रेणी B2 के तहत आने वाली ऐसी परियोजनाओं को लागू करते हुए पर्यावरणीय मंज़ूरी को आसान बना देता है, जो उन्हें केंद्र में पर्यावरणीय मूल्यांकन से छूट दे देता है और विशेष रूप से कई अन्य प्रकार की परियोजनाओं के साथ-साथ भवन निर्माण और क्षेत्र विकास परियोजनाओं पर पर्यावरण मंज़ूरी लेने से पहले सार्वजनिक चर्चा किये जाने की ज़रूरत से भी छूट दे देता है। ।

खनन परियोजनाओं को इस मसौदा अधिसूचना में बहुत ज़्यादा छूट दे दी गयी है।पहले 30 वर्षों के लिए पर्यापरणीय मंज़ूरी दी जाती थी,इसे बढ़ाकर 50 वर्ष तक के लिए कर दिया गया है, इस पूर्ण अवधि को अब "निर्माण चरण" का हिस्सा माना जा रहा है।

इसके अलावा, राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभयारण्यों, मूंगे की चट्टानों या पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाली इस तरह की परियोजनायें केवल उस विशिष्ट ज़िले के भीतर इस सच्चाई की परवाह किए बिना सार्वजनिक चर्चा के अधीन होंगी कि उन परियोजनायों के खनन क्षेत्र से लेकर अन्य बुनियादी ढांचों के पारिस्थितिक प्रभाव का विस्तार उस ज़िले से आगे भी हो सकता है और यह प्रभाव समीपवर्ती और पड़ोसी क्षेत्रों में भी फैल सकता हैं। इसके पीछे यह तर्क दिया गया है कि ऐसा इसलिए किया गया है,क्योंकि इसके बारे में आदिवासी, अन्य वनवासी और मछुआरे समुदायों को ही बहुत अच्छी तरह से पता है।

छोटे-छोटे लाये गये इस तरह के बदलावों के ज़रिये अन्य परिभाषाओं को भी इसी तरह से संशोधित किया गया है, हालांकि, इनके बहुत महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं।

मिसाल के तौर पर शब्द, "विशाल तलमार्जन"(Capital Dredging), जिसके अंतर्गत2006 की अधिसूचना में नदियों और समुद्र,दोनों के तलों के ग़ैर-रखरखाव वाले तलमार्जन को शामिल किया गया था, 2020 के मसौदे में इसे संशोधित कर दिया गया है ताकि बंदरगाहों और इस तरह के समुद्री तलों के तलमार्जन का हवाला दिया जा सके। हालांकि,जहाज़ों के चलने लायक़ जलमार्गों के निर्माण के लिए नदी के तल का तलमार्जन, स्पष्ट रूप से रखरखाव गतिविधि के बजाय एक पूंजी,नहीं दिखने वाले पारिस्थितिक नतीजों और आजीविका पर पड़ने वाले प्रभावों को अब इस परिभाषा से बाहर कर दिया गया है !

अधिसूचना,2020 का यह मसौदा सभी रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजनाओं के साथ-साथ "सरकार द्वारा निर्धारित रणनीतिक विचारों" सहित किसी अन्य परियोजना को पर्यावरणीय मंज़ूरी हासिल करने की ज़रूरत से पूरी तरह छूट दे देता है। यह सही मायने में सरकार को इस बात का पूरा-पूरा हक़ दे देता है कि वह परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं, तेल प्रतिष्ठानों आदि को "रणनीतिक परियोजनाओं" के रूप में परिभाषित करे। ऐसी सभी परियोजनाओं को लोक सुनवाई से भी छूट दी गयी है।

केंद्र या राज्य,दोनों से पर्यावरण सम्बन्धी मंज़ूरी या अनुमति प्राप्त करने की ज़रूरत के साथ-साथ कई अन्य अजीब-ओ-ग़रीब छूट भी इसमें शामिल हैं।

इस मसौदा अधिसूचना के पैरा 26 के तहत,सौर फ़ोटो वोल्टेइक (एसपीवी) बिजली परियोजनाओं, सौर तापीय बिजली संयंत्रों और सौर पार्कों को अच्छी तरह ज्ञात पर्यावरणीय प्रभावों के बावजूद कृषि भूमि के रूपांतरण,भूमि के नीचे बह रहे पानी की मांग आदि से भी छूट देता है।

उन "कोयला और ग़ैर-कोयला खनिजों की खोज" वाली परियोजनाओं को भी यह छूट दी गयी है, जो कि पारिस्थितिक रूप से पर्याप्त नुकसान पहुंचाने का कारण बन सकते हैं।यह नुकासन उन निष्कर्षण परियोजनाओं से होने वाले नुकासन से बिल्कुल अलग हो सकता है। पाठकों को तमिलनाडु में तीन फ़सल देने वाले उपजाऊ तंजावुर डेल्ठा क्षेत्र में तेल की खोज की अनुमति दिये जाने पर होना वाला हंगामा याद होगा। किसानों के दबाव में राज्य पर शासन करने वाली भाजपा की सहयोगी पार्टी द्वारा भी इसका सख़्ती से विरोध किया गया था।

काम के बाद भी अनुमति

इस मसौदा अधिसूचना,2020 का सबसे अजीब पहलू उन परियोजनाओं को दी गयी व्यापक छूट है,जो उन शर्तों के गंभीर उल्लंघन में संलग्न हैं,जिनके तहत उन्हें पर्यावरणीय मंज़ूरी या अनुमति दी गयी थी।

एनजीटी ने पहले किये गये उल्लंघनों के आधार पर परियोजना के लिए दी जा रही कार्योत्तर मंज़ूरी के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाया था। 2017की शुरुआत में सरकार ने पर्यावरण मंज़ूरी के पहले किये गये निर्माण, विस्तार या आधुनिकीकरण को नियमित करने के लिए एक अधिसूचना जारी की थी। हालांकि यह एक बार की जाने वाली क़वायद थी, लेकिन जल्द ही यह अनुमोदन समितियों के साथ कई बार बैठक करने और समय-समय पर मंज़ूरी देने वाले एक दिन-ब-दिन के काम का हिस्सा बन गयी।

2020 का मसौदा इसे एक क़दम और आगे ले जाता है और इस तरह के सभी उल्लंघनों को केवल जुर्माना लगाकर छोड़ दिया जाता है। जुर्माना लगाना भी इस बात पर निर्भर करता है कि क्या परियोजना प्रस्तावक ख़ुद इस तरह के उल्लंघनों को स्वीकार करता है या इस तरह के उल्लंघन का ख़ुलासा किसी सरकारी एजेंसी द्वारा किया गया है। अगर वे पहली नज़र में उस विशेष क्षेत्र में इस तरह की परियोजना स्थापित करने के हक़दार होते हैं,तो इस तरह की सभी औद्योगिक परियोजनायें इस माफ़ी की हक़दार होंगी। यानी बहुत ही सरल है कि किसी अपराध पर जुर्माना लगाकर उसे निरपराध घोषित कर दिया जाय !

जैसा कि पहले ही ज़िक़्र किया जा चुका है कि यह मसौदा अधिसूचना सार्वजनिक चर्चा और जन सुनवाई को और अधिक हतोत्साहित करती है।कभी यह खुले उल्लंघनों और कृपा करने वाले शासन के ख़िलाफ़ एक प्रमुख सुरक्षा उपाय होता था, लेकिन इस समय इसे लगातार अवमूल्यित और कमज़ोर किया जा रहा है। 2020 के मसौदे में कई प्रकार की उन परियोजनाओं को सूचीबद्ध किया गया है,जिन्हें लोक सुनवाई से छूट दी गयी है।

दुर्भाग्य से इस सरकार ने अक्सर ही इस तरह की सार्वजनिक अधिसूचनाओं के जवाब में व्यक्त की गयी सार्वजनिक सलाह और राय को लेकर अपना संपूर्ण तिरस्कार ही दिखाया है। यह मसौदा अधिसूचना सार्वजनिक परामर्शों और लोक सुनवाई से जुड़े प्रावधानों को कमज़ोर करती है। उम्मीद ही की जा सकती है कि सरकार ईआईए अधिसूचना,2020 के मसौदे पर प्रतिक्रिया देने की समय सीमा बढ़ाने को लेकर किये जा रहे बहुत सारे अनुरोधों का ध्यान रखेगी।

एक आधिकारिक बयान में कहा गया है कि गुरुवार की देर शाम पर्यावरण मंत्रालय ने मसौदा पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना (ईआईए) के लिए नोटिस की अवधि को बढ़ाकर 30 जून तक कर दिया है, यह अधिसूचना लॉकडाउन के दौरान की गई थी।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख आप नीचे लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

EIA Notification 2020: Not Now, Not Ever!

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