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भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह करती बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ बढ़ता प्रतिरोध
बेरोज़गारी का मतलब लाखों ज़ख़्मों से मौत है, हालांकि नवउदारवादी अर्थशास्त्री अक्सर इसे केवल असहज आँकड़े के रूप में देखते हैं। लॉकडाउन के पहले या उसके दौरान और उसके बाद भारत में बेरोज़गारी के भयंकर रूप से बढ़े स्तर का मतलब है कि करोड़ों लोग, और उनके परिवार, ज़िंदा रहने का कड़ा संघर्ष कर रहे हैं।
सवेरा
23 Jul 2020
Translated by महेश कुमार
Unemploement in India
Image Courtesy: Livemint

अप्रैल के अंत तक के अनुमान बताते हैं कि भारत में करीब 14 करोड़ मौजूदा नौकरियां खत्म हो गई हैं, जिसने पहले से मौजूद 10-11 करोड़ बेरोजगारों की मजबूत फौज को ओर मज़बूत बना दिया है। यह एक डरावनी आपदा है।  ऐसी आपदा जिसे देश ने पहले कभी नहीं देखा।

बेरोजगारी का मतलब लाखों ज़ख़्मों से मौत है, हालांकि नवउदारवादी अर्थशास्त्री अक्सर उन्हे केवल असहज आँकड़े के रूप में देखते आए है। लॉकडाउन के पहले या उसके दौरान और उसके बाद भारत में बेरोजगारी के भयंकर रूप से बढ़े स्तर का मतलब है कि करोड़ों लोग, और उनके परिवार, मुश्किल से ज़िंदा हैं। वे अनिश्चितता और निराशा से घिरे हुए हैं और या तो दान पर या अमानवीय रूप से कम मजदूरी पर गुज़र-बसर कर रहे हैं जो मजदूरी उन्हे कुछ छिटपुट काम के बदले मिलती है। उनके पास जो भी नकदी, क़ीमती सामान या अनाज की बचत थी वह लंबे समय पहले खत्म हो चुकी थी, जिसके चलते कई लोग कर्ज़ के बोझ में धस गए है। भारत की कामकाजी उम्र की आबादी का बड़ा हिस्सा जो युवा है को अपना भविष्य अंधकारमय नज़र आ रहा है क्योंकि उन्हे उनकी आंखों के सामने नौकरियां गायब होती नज़र आ रही हैं।

आखिर ऐसा क्यों हुआ? इस मानवीय आपदा को रोकने के लिए सरकार क्या कर सकती थी? इन प्रश्नों को पूछे जाने के साथ-साथ इनके जवाब भी जानने की आवश्यकता है।

महामारी से पहले की आर्थिक मंदी 

भारतीय अर्थव्यवस्था 2019 में धीमी होनी शुरू हो गई थी जिससे बेरोजगारी लगातार बढ़ रही थी। जैसा कि दिए गए चार्ट में देखा जा सकता है, सीएमआईई द्वारा इकट्ठा किए गए आंकड़ों के अनुसार, बेरोजगारी की दर पिछले महीनों में 7-8 प्रतिशत के बीच मँडरा रही थी।

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बेरोजगारी का यह पैमाना, ऐसे समय में जब भारतीय अर्थव्यवस्था सामान्य गति से आगे बढ़ रही थी, यह दर्शाता है कि नीतियों के साथ-साथ पूरी व्यवस्था में ही कुछ गड़बड़ थी। इसमें जो गलत हो रहा था वह यह था: कि समाज में असमानता बढ़ रही थी क्योंकि उच्च विकास का मतलब यहां केवल यह था कि अमीर ओर अमीर हो रहा था और गरीब ओर गरीब हो रहा था। 2019 में ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय आबादी के शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों के पास कुल राष्ट्रीय धन-संपदा का 77 प्रतिशत हिस्सा था। यह भी अनुमान लगाया गया कि 2017 में जो धन-संपदा उत्पन्न हुई उसका करीब 73 प्रतिशत हिस्सा सबसे अमीर 1 प्रतिशत तबके ने हड़प लिया, जबकि 670 मिलियन भारतीय, जिनमें सबसे गरीब लोगों की आधी आबादी शामिल है, ने अपने धन में केवल 1 प्रतिशत की वृद्धि की। 

बढ़ती बेरोजगारी और एक तरफ भयंकर गरीबी और दूसरी तरफ धन के कुछ मुट्ठियों में इकट्ठा होने की स्थिति को मोदी सरकार ने ओर तेज़ हवा दे दी जिससे हालात अधिक डरावने हो गए। इसने विदेशी पूंजी को देश में प्रवेश करने की अनुमति दे दी, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को निजी संस्थाओं को बेच दिया, प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण की अनुमति दी, श्रम कानूनों को बेअसर कर दिया और जीएसटी लागू करके छोटे और लघु उधयोगों को बर्बाद करते हुए, कॉर्पोरेट वर्गों को बेतहाशा रियायतें दे दीं।

इन सब हालत के चलते लोगों के हाथों में खरीदने की शक्ति कम हो गई। कोई नौकरी न होना या कम वेतन वाली नौकरियों और कृषि उपज की कम कीमतों के चलते, लोगों के पास चीजें खरीदने के लिए पैसा नहीं बचा था। इससे मांग में कमी आई और औद्योगिक उत्पादन और सेवा क्षेत्र भी प्रभावित हुआ। इस प्रकार अर्थव्यवस्था नीचे की ओर जाती रही।

इन हालात में भी मोदी सरकार ने हालांकि सरकारी खजाने से पर्याप्त खर्च न करने की अपनी अंधी नीतियों को जारी रखा और वास्तव में, कॉर्पोरेट घरानों को भारी कटौती की पेशकश की, जैसे कि सितंबर 2019 में कॉर्पोरेट कर में कटौती की गई थी। इसने कॉर्पोरेट घरानों को दिए गए कर्ज़ को माफ़ कर दिया, इस तरह से जनता के पैसे को हवा में उड़ा दिया। 

लॉकडाउन और महामारी का दोहरा झटका 
उसके बाद आया कोविड़-19 और लॉकडाउन का दोहरा झटका जिसकी घोषणा 24 मार्च को पीएम मोदी ने अचानक से कर दी। इसने आर्थिक गतिविधि को दो महीने के लिए खिसका दिया। इस आपदा का सबसे बड़ा नतीजा अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में नौकरियों के अभूतपूर्व नुकसान के रूप में हुआ। 

मार्च में लगभग 80 लाख नौकरियों के नुकसान के बाद, देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद आखिरी सप्ताह में उनमें से ज्यादातर जोकि सीएमआईई द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों से भी पता चलता है कि अप्रैल में 12.8 करोड़ नौकरियों का चौंका देने वाला नुकसान हुआ था। पिछले साल की तुलना में लगभग एक तिहाई नौकरियां केवल एक ही महीने में खत्म हो गईं।

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इन आंकड़ों से पता चलता है कि देश में अभूतपूर्व आर्थिक संकट था, जिसका खामियाज़ा अधिकतर आम लोग भुगत रहे थे। जबकि शक्तिशाली औद्योगिक लॉबी ने औद्योगिक गतिविधि को दोबारा ज़िंदा करने ले लिए प्रोत्साहन और सहायता पैकेज की घोषणा की मांग के लिए हल्ला मचा दिया, जबकि कामकाजी लोगों की दुर्दशा बिगड़ती गई, उन्हे दो महीने से अधिक तक बिना किसी कमाई के छोड़ दिया गया, जिन्हे सरकार ने बड़े पैमाने पर अनदेखा कर दिया था।

न केवल उद्योग, कार्यालय, दुकानें आदि एक महीने के लिए बंद हो गए थे बल्कि विशाल अनौपचारिक क्षेत्र (उद्योग और सेवा दोनों) इसकी वजह से ढह गए। भारत के 44 करोड़ मजबूत कर्मचारियों की संख्या इस क्षेत्र में कार्यरत है, जो कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र तक फैला हुआ है।

इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि - कागज पर - मोदी सरकार ने घोषणा की थी कि किसी भी मजदूर को उसकी नौकरी से नहीं निकाला जाएगा और लॉकडाउन की अवधि के दौरान सभी मालिक/नियोक्ताओं को उनके वेतन/मजदूरी का भुगतान करना होगा। प्रधानमंत्री ने स्वयं इस 'आग्रह' को दोहराया। इन सब तेवरों के बावजूद ऐसा नहीं हुआ और रोजगार को खत्म कर दिया गया। इस बात से भी कोई आश्चर्य नहीं हुआ, कि नियोक्ताओं के अदालत में जाने के बाद मोदी ने इस सलाह को भी वापस ले लिया।

नौकरी के नुकसान से उठे इस तूफान का सबसे अधिक नाटकीय प्रभाव तब देखा गया जब लाखों प्रवासी श्रमिक दूर गांवों में अपने घरों को लौटने के लिए सड़कों पर निकाल पड़े। इसे रिवर्स माइग्रेशन या वापस-प्रवासन की लहर भी कहा जा सकता है जो अचानक और गलत तरीके से किए गए लॉकडाउन का प्रत्यक्ष परिणाम थी। इस प्रक्रिया में कम से कम 971 लोग थकावट, भूख, दुर्घटनाओं आदि से मर गए।

हाल के अध्ययनों के द्वारा लॉकडाउन के दौरान नौकरियों के हुए नुकसान की एक और चिंताजनक झलक सामने आई है। इससे महिलाओं, दलितों और आदिवासियों जैसे सामाजिक रूप से वंचित तबकों के श्रमिकों को नौकरियों का अधिक नुकसान हुआ है। यह और भी विडंबनापूर्ण है क्योंकि ये वे महिलाएं हैं, जो आशा कर्मी और नर्सों के रूप में कोविड़-19 के खिलाफ लड़ाई में अग्रिम पंक्ति में खड़ी रही हैं, और ये दलित तबका हैं जो इस दौरान भी लगभग सभी तरह के सफाई और स्वच्छता के कामों को करते हैं।

लॉकडाउन को कम करने के बाद 

कुछ लोगों को उम्मीद थी कि एक बार लॉकडाउन के चरणबद्ध तरीके से कम होने के बाद, अर्थव्यवस्था वापस अपने ढर्रे पर आ जाएगी और इसलिए रोजगार मिलेगा। वास्तव में, कुछ नौकरियां वापस आई भी लेकिन यदि आप उनके विवरणों को देखें तो इससे बहुत ही चिंताजनक तस्वीर उभर कर समाने आती है। जैसा कि ऊपर पहले चार्ट में दिखाया गया है, जून में बेरोजगारी की दर 11 प्रतिशत थी और जुलाई में इसके लगभग 9-10 प्रतिशत होने की संभावना है। बेरोज़ागारी के ये स्तर महामारी से पहले के स्तर से बहुत अधिक हैं। इसका मतलब है कि पहले की तुलना में अधिक लोग बेरोजगार रहने वाले हैं। याद रखें कि गिरती कार्य सहभागिता की दर से यह भी पता चलता है कि कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने केवल कार्यबल या रोजगार का हिस्सा बनने की उम्मीद छोड़ दी है और इस तरह उन्हें "कार्यबल से बाहर" के रूप में गिना जा रहा है न कि बेरोजगार के रूप में।

शुरुआती बारिश और प्रारंभिक और व्यापक खरीफ बुवाई के कारण कृषि क्षेत्र में नौकरियां पैदा हुई हैं। वास्तव में, कृषि क्षेत्र में रोजगार के रिकॉर्ड स्तर पर जाने का अनुमान है, क्योंकि हमेशा की तरह, बड़ी संख्या में बेरोजगार लोग बहुत कम मजदूरी पर काम कर रहे हैं, या वे सिर्फ खेती में लगे अपने परिवार की काम में मदद कर रहे हैं। तकनीकी रूप से उन्हें "नियोजित" या रोजगारशुदा माना जाता है, लेकिन यह केवल प्रच्छन्न बेरोजगारी है। कई लोगों को मनरेगा में काम मिला है, जिसे 20 अप्रैल के बाद फिर से शुरू किया गया था। मई 2020 में, लगभग 3.3 करोड़ परिवारों को इस योजना में कुछ काम मिला था, जबकि जून में यह संख्या बढ़कर 3.9 करोड़ हो गई थी। लेकिन ये विशाल संख्याएं केवल बेरोजगारी के चौंकाने वाले स्तर को दर्शाती हैं जो लोगों को जीवित रहने के लिए कुछ दिनों के मैनुअल काम करने के लिए मजबूर करती हैं।

लोगों का एक अन्य तबका जो अब "काम करना" शुरू कर चुका है, वह विशाल संख्या का स्व-नियोजित तबका है जैसे कि दुकानदार, विक्रेता और फेरीवाले, रिक्शा चालक, व्यक्तिगत सेवाओं के प्रदाता (नौकरानियां, रसोइया, धोबी पुरुष/महिला, आदि) और अपना श्रम बेचने वाली ऐसे ही अन्य लोग शामिल हैं। उनके लिए, यह अस्तित्व की लड़ाई है - वे काम न करने को बर्दाश्त नहीं कर सकते, भले ही कमाई पहले की तुलना में बहुत कम हो। अधिकांश जगहों पर व्यावसायिक व्यापार से संबंधित व्यक्ति भी काम पर वापस आ गए हैं।

लेकिन वेतनभोगी या मजदूरी कमाने वाले वर्गों की स्थिति विकट बनी हुई है। एक अनुमान से पता चलता है कि लगभग 1.8 करोड़ वेतनभोगी या वेतन-कमाने वाली नौकरियां खत्म हो गईं हैं, जिनमें कारखाने के कर्मचारी, और सेवा क्षेत्र के कर्मचारी जैसे कार्यालय कर्मचारी, आईटी क्षेत्र के कर्मचारी आदि शामिल हैं। जून तक, इनमें से केवल कुछ हिस्सा- कुछ 30-40 लाख लोग काम पर वापस आ गए हैं। 

विरोध 

इस तरह के कठिन समय के बावजूद, देशभर में एक असंतोष की लहर है जो एक बड़ी ताकत में बदल रही है। इसकी पहली झलक नौकरी और मजदूरी के नुकसान और अन्य मुद्दों के खिलाफ विरोध दिवस पर दिखाई दी, जिसका आहवान सीटू ने किया था और 21 अप्रैल को कई किसानों, महिलाओं, छात्रों और युवा संगठनों ने इसका समर्थन किया था। इसके बाद 2-4 जुलाई को कोयला श्रमिकों की हुई हड़ताल से विरोध प्रदर्शनों की झड़ी लग गई, जो अधिक नौकरियों, बेहतर मजदूरी, आय और गरीब परिवारों के लिए भोजन के समर्थन आदि के लिए आगाज हुई।

लेकिन जैसे-जैसे समय बीत रहा है, और रसोई से भोजन गायब हो रहा है और कर्ज़ बढ़ रहा है, वैसे-वैसे दैनिक कमाई करने वालों को हाशिये पर धकेला जा रहा है, इसके खिलाफ लोगों का गुस्सा जरूर फूटेगा। दुर्भाग्य से, देश में अधिकांश विपक्षी ताकतों - वामपंथियों को छोड़कर – को कोई इल्म ही नहीं है इस अंधेरे समय में लोगों का बचाव कैसे किया जा सकता है। केवल वामपंथी ताकतें ही हैं जिन्होंने पीड़ितों को राहत देने और प्रतिरोध की आवाज उठाने में पहल की है। प्रशासनिक प्रतिक्रिया के संदर्भ में भी, वामपंथ की एलडीएफ सरकार सबसे आगे रही हैं। केरल में लोगों की देखभाल करते हुए महामारी से निपटने के लिए एलडीएफ सरकार की दुनियाभर में सराहना की जा रही है। इसलिए, वामपंथी ताक़तें फिर से लोगों की रक्षा की लड़ाई का नेतृत्व करेंगी- दोनों वायरस से, और मोदी सरकार की विनाशकारी नीतियों से भी।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Unemployment Ravages Indian Economy But Resistance Mounts

Rising Unemployment in India
COVID-19 lockdown
Economic Impact of COVID 19
Modi government
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Migrant workers

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