Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

‘स्वामित्व योजना’ के 3 साल बाद भी दिल्ली के ग्रामीणों को मालिकाना हक़ का इंतज़ार!

"हमारा गांव क़रीब 850 साल पुराना है। अपनी मालिकाना संपत्ति के लिए उचित दस्तावेज़ पाना अब एक सपना सा लगता है।"
village

नई दिल्ली: प्रदीप डागर को लगता है कि "ज़्यादातर लोग और सरकार मानते हैं कि दिल्ली में किसान ही नहीं हैं।" प्रदीप दक्षिण दिल्ली के ढांसा गांव के रहने वाले हैं। दिल्ली के उत्तर-पश्चिम कोने में एक नांगल ठकरान गांव है। इन गांवों के निवासी, दिल्ली के उन हज़ारों किसानों में शामिल हैं जो पूरी तरह से कृषि पर निर्भर हैं।

24 अप्रैल, 2020 को पंचायती राज दिवस पर, SVAMITVA (ग्रामीण क्षेत्रों में गांव आबादी का सर्वेक्षण और सुधार प्रौद्योगिकी के साथ मानचित्रण) योजना शुरू की गई थी। सरकार के अनुसार, इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में ड्रोन का उपयोग करते हुए भूमि पार्सल की मैपिंग करके और घर के मालिकों को प्रॉपर्टी कार्ड/टाइटल डीड जारी करके स्पष्ट संपत्ति स्वामित्व स्थापित करना है।

दिल्ली के ज़्यादातर गांव 'लाल डोरा' कैटेगरी में हैं। 'लाल डोरा' कैटेगरी के तहत वे गांव आते हैं जिन्हें ब्रिटिश काल के दौरान बिना किसी दस्तावेज़ के लाल स्याही का उपयोग कर सीमांकित किया गया था।

साल 2018, 2019 और 2020 में नांगल ठकरान समेत क्रमशः 95, 79 और 223 गांवों को शहरी घोषित किया गया था। जब SVAMITVA योजना लॉन्च की गई थी, तो 222 गांवों का सर्वेक्षण किया जाना था, लेकिन शहरी गांवों को बाहर करने के कारण यह संख्या घटाकर 49 कर दी गई थी जो अभी केवल 31 रह गई है।

गांवों को शहरी घोषित किया गया लेकिन मुख्य व्यवसाय अब भी है कृषि

नांगल ठकरान की ओर जाने वाले राजमार्ग के दोनों ओर खेती की ज़मीन है। शहरी घोषित होने के बावजूद, गांव में सार्वजनिक परिवहन की कमी है, निकटतम मेट्रो 16 किमी की दूरी पर है और कुछ ई-रिक्शा चलते हैं। निकटतम बाज़ार, कम से कम, 3 किमी की दूरी पर है। सबसे संकरी गलियों के निवासी, बिना किसी जल निकासी व्यवस्था के रहते हैं और उन्हें लगातार अपनी संपत्ति खोने का डर सताता रहता है।

देविंदर सिंह (67), जो गांव में अपने परिवार के साथ रहते हैं, न्यूज़क्लिक को बताते हैं, "गांव हमेशा ऐसा नहीं था। जैसे-जैसे परिवार बढ़ने लगे, ज़मीन और ज़्यादा बंटने लगी। हमारा गांव क़रीब 850 साल पुराना है। हमारी संपत्ति के लिए उचित दस्तावेज़ अब एक सपना सा लगता है।"

कई ग्रामीण दूसरे शहरों में सालों तक काम करने के बाद गांव वापस लौट आए ताकि वे खेती जारी रख सकें और इसे आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकें।

शुरू में, सिंह को SVAMITVA में आशा की एक किरण दिखाई दी क्योंकि संपत्ति के दस्तावेज़ों की कमी के कारण वे बैंक ऋण लेने के लिए अपने घर को गिरवी नहीं रख सकते थे। चाहे वह पंजाब नेशनल बैंक हो, बैंक ऑफ इंडिया हो या इंडियन बैंक, सभी ने टाइटल डीड की कमी के कारण उन्हें कर्ज़ देने से इनकार कर दिया।

"मैं रिटायर हो चुका हूं। मैं अपने बच्चों के लिए आश्रय और संपत्ति के लिए कुछ मज़िलों का निर्माण करना चाहता था। मेरे एक बच्चे के MBA कोर्स पर सारा पैसा खर्च करने के बाद मेरी पेंशन पर्याप्त नहीं है।" वह आगे कहते हैं कि, "लोन लेना ही मेरा आखिरी उपाय था, लेकिन बैंकों ने मना कर दिया क्योंकि मेरी ज़मीन लाल डोरा गांव में है।"

सिंह कहते हैं, "अगर हमें SVAMITVA में शामिल किया गया होता, तो मेरी समस्याएं खत्म हो जातीं।"

अन्य ग्रामीणों की भी यही समस्या है। कीर्तन (70), जिनके पास अपने परिवार की ज़मीन के चार भागों में बंट जाने के बाद दो एकड़ ज़मीन बची थी, कहते हैं, “अगर मुझे बैंक से कर्ज़ मिल जाता तो मुझे अपनी बेटी की शादी के लिए अपनी ज़मीन का एक हिस्सा नहीं बेचना पड़ता।

कृषि पर निर्भर परिवारों को पिछले कुछ सालों में बेमौसम बारिश के कारण नुकसान हुआ है। सरकारी सिंचाई सुविधाओं, उर्वरकों और बीजों की कमी ने उनकी समस्याओं को और बढ़ा दिया है।

जब CYCLE Foundation के संस्थापक और पश्चिमी दिल्ली के बुढेला गांव के निवासी पारस त्यागी ने बैंक ऑफ इंडिया में लोन के लिए आवेदन किया, तब उन्हें कहा गया, “संपत्ति के टाइटल की पूरी और सही श्रृंखला सुनिश्चित करने के अधीन लाल डोरा भूमि/संपत्ति पर सुरक्षा सृजित की जा सकती है। क्योंकि कई बार ज़मीन की बिक्री या ट्रांसफर जीपीए पर या उसके तहत पंजीकृत उपकरणों के बिना किया जाता है और मालिक के पास उनके उचित टाइटल दस्तावेज़ नहीं होते हैं।

सिंह के कुछ साथी ग्रामीण, विशेष रूप से वृद्ध लोग, SVAMITVA से अनजान हैं। गांव को शहरी घोषित किए जाने के कारणों में से एक यह था कि निवासियों ने ऋण प्राप्त करने में विफल होने के बाद ज़मीन बेचना शुरू कर दिया और साहूकारों से उच्च ब्याज दरों पर उधार लिए गए पैसे से बड़े घर बनाने शुरू कर दिए।

त्यागी कहते हैं, ''मुझे अपने बेटे का नया कारोबार स्थापित करने के लिए अपनी ज़मीन बेचनी पड़ी।''

कीर्तन कहते हैं, इसके अलावा, दिल्ली की ज़मीन की कीमत पड़ोसी राज्य हरियाणा से भी कम है। “क़रीब 15-20 साल पहले यहां की ज़मीन की कीमत हरियाणा से पांच गुना ज़्यादा थी। अफसोस की बात है कि यह अब हरियाणा में ज़मीन की कीमत का लगभग पांचवां हिस्सा है। दिल्ली सरकार की गलती है। अगर सरकार ने खेती में हमारी मदद की होती तो हम खेतों पर ट्यूबवेल जैसी बुनियादी सुविधाओं की मांग के लिए अधिकारियों के पीछे नहीं भाग रहे होते।”

केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच कोई आपसी मेल नहीं

जब 27 जुलाई, 2021 को लोकसभा में राज्य के पंचायती राज मंत्री कपिल मोरेश्वर पाटिल से स्वामित्व के कार्यान्वयन के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने जवाब दिया: “भूमि और भूमि रिकॉर्ड राज्य के विषय हैं और भूमि रिकॉर्ड का विवरण संबंधित राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के पास उपलब्ध है। 19 जुलाई, 2021 तक DILRMP के केंद्रीय MIS पर केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, दिल्ली के कुल 207 गांवों के मुकाबले 196 (94.69%) गांवों में भूमि रिकार्ड्स का कम्प्यूटरीकरण पूरा हो चुका है।

हालांकि, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली अधिनियम, 1991 के अनुसार, भूमि और संबंधित मामलों को केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में रखा गया था।

तीन साल बाद, SVAMITVA वेबसाइट से पता चलता है कि यह योजना सभी राज्यों में दैनिक प्रगति के साथ सफलतापूर्वक लागू की गई है।

कृषि लाभ से वंचित गांव

ढांसा, हरियाणा की सीमा से लगा आखिरी गांव है। लगभग चार महीने पहले, पटवारी ने ग्रामीणों के नाम नोट किए और उनकी ज़मीनों की मैपिंग की - लेकिन कोई प्रॉपर्टी कार्ड जारी नहीं किया गया।

रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष जय सिंह डागर ने समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए कहा, “हम दिल्ली के वास्तविक निवासी हैं, लेकिन जो बाहरी लोग यहां बस गए हैं, वे सभी सरकारी लाभों के हक़दार बने हुए हैं।” वह आगे कहते हैं कि वे अपने नाम पर ट्रैक्टर तक नहीं खरीद सकते। “हमारे रिश्तेदार उनके नाम से ट्रैक्टर खरीदते हैं और उसके बाद ही हम उसका इस्तेमाल कर पाते हैं। हम ये डिज़र्व नहीं करते हैं।”

दिल्ली के किसानों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार का ज़िक्र करते हुए डागर कहते हैं, “हमारा वजूद दांव पर लगा है। हमारे कल्याण का ध्यान किसे रखना चाहिए? हमारे पास अपने पशुओं के लिए भी पर्याप्त पानी नहीं है। हम अपने दैनिक उपयोग और मवेशियों के लिए कुएं खोदते और पानी का उपयोग करते थे।”

पानी का स्तर कम होने के बावजूद किसान बोरवेल नहीं लगा सकते, बोरवेल की लागत न्यूनतम 70,000 रुपये से 80,000 रुपये है।

धानसा की युवा पीढ़ी ने खेती करना लगभग छोड़ दिया है। अपने गांव में कृषि की दयनीय स्थिति के बारे में बताते हुए, एक 17 वर्षीय युवक कहता है, “मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूं। अगर हमारे पास मूलभूत सुविधाएं होतीं तो मैं खेती जारी रखता। लेकिन मैंने महसूस किया कि हमारी संपत्ति भी कर्ज़ लेने के लिए पर्याप्त नहीं है, ट्रैक्टर या किसी अन्य कृषि उपकरण की तो बात ही छोड़ दीजिए।”

ज़्यादातर युवा उन अन्य लोगों के साथ सरकारी नौकरी की तलाश में हैं जो 15,000 रुपये से 20,000 रुपये महीने पर कारखानों में काम करने को मजबूर हैं।

जाति आधारित भेदभाव

ग्रामीण क्षेत्र में अनुसूचित जाति (लगभग 500 घर) समुदाय की समस्याएं मालिकाना हक़ के बढ़ते संपत्ति विवादों से कुछ अलग हैं।

अपने पड़ोस के घर में दो भाइयों के बीच हुए विवाद का ज़िक्र करते हुए राजेंद्र (45) कहते हैं, “बड़े भाई ने 50 गज पर मकान बनवाया। कागज़ात के अभाव में छोटा भाई कोर्ट में अपना हिस्सा साबित नहीं कर सका।”

'लैदर टैनर्स' की आबादी बढ़ने के साथ ही 15-16 लोगों के परिवार 50-100 गज के छोटे पार्सल में रहने लगे। राजेंदर कहते हैं, "अगर भूमि का सर्वेक्षण भी किया जाता है, तो लोग प्रॉपर्टी कार्ड के बिना खाली भूमि का दावा करेंगे।”

'लैदर टैनर्स' का दावा था कि गांव को 92 एकड़ ज़मीन मुहैया कराई गई थी। हालांकि, उचित सीमांकन की कमी के कारण ब्राह्मणों और बनियों ने एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। 'लैदर टैनर्स' दस्तावेज़ों की कमी के कारण प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ नहीं उठा सके।

सरकार का लचर रवैया

विस्तारित लाल डोरा में ग्रामीणों के लिए स्थिति भिन्न है। बता दें कि यह पहले की लाल डोरा सीमाओं और फिरनी (राजस्व रिकॉर्ड में स्पष्ट रूप से सीमांकित) के बीच का क्षेत्र है। लाल डोरा को भूमि भवन उपनियमों, निर्माण मानदंडों और दिल्ली नगरपालिका अधिनियम द्वारा निर्धारित नियमों से छूट प्राप्त है। विस्तारित लाल डोरा क्षेत्रों में ग्रामीणों के पास संपत्ति के कागज़ हैं और उनके नक्शे पटवारी और एसडीएम के पास हैं।

प्रदीप डागर का मामला सरकारी लचरपन का सबसे अच्छा उदाहरण है। उनके चाचा ने बगल की ज़मीन पर एक इमारत का निर्माण किया और इसे इंडियन बैंक को किराए पर दे दिया, जबकि डागर को कागज़ात होने के बावजूद बैंक ने लोन देने से मना कर दिया।

डागर ने न्यूज़क्लिक से कहा, "मेरी ज़मीन की क़ीमत करोड़ों में हो सकती है, लेकिन बैंक मुझे एक रुपये का क़र्ज़ नहीं देगा।"

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें :

Delhi Villagers Await Title Deeds 3 Years After SVAMITVA Scheme

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest