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विशेष: वर्षों तक ईद हम सबका त्योहार था

पिछले 9 वर्षों में, जब से मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सत्ता में आयी है, बहुत कुछ बदल गया है।
Eid

बचपन के दिन, लेकिन इतना भी बचपन नहीं। बीए पास कर लिया था और आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गया था। 1992 के अक्टूबर-नवम्बर के महीने में बिहार के मिथिलाचांल में अपने गांव आया था। धीरे-धीरे ठंड अपना पांव फैला रही थी, लेकिन मौसम अभी तक खुशगवार था। हालांकि जिस काम से आया था वह काम खत्म हो गया था लेकिन एक-दो दिनों के बाद ही दीवाली का त्योहार आ रहा था इसलिए मां का काफी दबाव था कि चूंकि इतने वर्षों के बाद मैं गांव में हूं, इसलिए इस त्योहार को मनाकर ही गांव से निकलूं। मुझे भी ऐसा लग रहा था कि सचमुच जब इतने वर्षों के बाद गांव में हूं तो क्यों न दीवाली पर्व को मना कर ही शहर जाया जाय, और मैं गांव में रुक गया था। मैं अपने घर में भाई-बहनों के बीच में पड़ता हूं इसलिए किसी भी त्योहार की तैयारी मेरे जिम्मे न होकर छोटे भाई-बहनों के ऊपर स्वाभाविक रूप से आ पड़ती थी। हां मेरी भूमिका इतनी भर होती थी कि जो तैयारी छोटे भाई-बहन कर रहे हैं, वह ठीक से हो रही है या नहीं और इसे और बेहतर कैसे किया जा सकता है? खैर, दीवाली बड़ी धूमधाम से मनी और सगे संबधियों के अलावा जो लोग हमारे घर खाने आए थे उसमें ढ़ेर सारे घर के पड़ोस के लोग थे जिसमें हमेशा की तरह मुसलमान भी थे।

हमारे गांव के दीवाली की खासियत तो क्या ही कही जाए लेकिन एक चीज जो मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, वह यह कि गांव के लगभग सभी घरों में दीवाली का त्योहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता था। दीवाली मनाने में एक मात्र अंतर यह होता था कि मुसलमानों के घर में भी दीए जलते थे, कुछ पटाखे भी चलते थे लेकिन वह संपन्न हिन्दुओं के घर से कम होते थे। अगर इसे गरीब हिन्दुओं के घरों में रौशनी जगजमगाने की बात करें, तो हिन्दू-मुसलमान मौटे तौर पर बराबरी स्तर पर दीवाली मनाते थे!

हां, उस दीवाली में एक अंतर और भी था। मुझे अपने गांव में आजतक दीवाली के दिन किसी भी मुसलमान के घर लजीज भोजन करने का अवसर नहीं मिला। बचपन में मैं यही शिकायत जब अपनी मां से करता था तो वह हंस देती थी कि हर बार उन्हीं के घर खाने क्यों जाना है, कभी अपने घर में भी लोगों को खिलाना चाहिए!

इसी तरह जब रमजान शुरू होता था तो मेरी बांछे खिल जाया करती थी। ऐसा नहीं था कि रमजान महीने में मैं हर दिन उनके खाने पहुंच जाया करता था। रमजान का महीना शुरू होते ही जो बात मेरे दिमाग में सबसे पहले आती थी वह यह कि ईद के दिन जोरदार गोश्त खाने को मिलेगा क्योंकि हमारे घर का बना गोश्त इतना लजीज नहीं होता है! 

ईद को लेकर कभी यह मन में आया ही नहीं कि वह त्योहार किसी और का है और इसे मनाने के लिए किसी तरह की कोई औपचारिकता निभानी पड़ती है। बस दिमाग में यह बात रहती थी कि किस समय पहुंचने के बेहतर खाने को मिलेगा। ईद की मुबारकबाद हम उनके घर पर पहुंचकर ही देते थे। इसके दोनों ही कारण हो सकते थे- पहला, उस समय टेलीफोन की सुविधा इस रूप में नहीं थी कि एक बार फोन करके ईद की मुबारकबाद दें और बाद में जब उनके घर पहुंचे तब गले मिलकर मुबारकबाद दें। हमने अपने बचपन से लेकर जवानी तक इस बात में गुजारी है कि अपने मुसलमान दोस्तों के घर जाकर जबरदस्त दावत उड़ाएं! हमारे लिए दावत के साथ मुबारकहबाद आती थी न कि मुबारकबाद के साथ दावत!

लेकिन पिछले 9 वर्षों में, जब से मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सत्ता में आयी है, बहुत कुछ बदल गया है। बतौर पत्रकार मैंने लगभग 28 वर्षों से अधिक का वक्त दिल्ली में बिताया है। अगर इन नौ वर्षों को छोड़ दिया जाय तो मुझे बहुत अच्छी तरह याद है कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में भी इफ्तार की दावत होती थी, हां यह अलग बात है कि इसमें बहुत से लोगों को नहीं बुलाया जाता था क्योंकि वह प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ा मसला होता था, फिर भी अधिकांश पत्रकार इफ्तार में प्रधानमंत्री के आवास पर पहुंच ही जाते थे। प्रधानमंत्री के इफ्तार से पहले केन्द्र सरकार के ढेर सारे मंत्री और अनेक सांसद भी अपने-अपने आवास पर इफ्तार रखते थे। कुल मिलाकर यह कि मुसलमानों की हैसियत वाजपेयी के कार्यकाल तक भी तय नहीं की जा सकी थी। लेकिन मोदी के आने के बाद इफ्तार पार्टी अघोषित रूप से खत्म कर दी गयी। न सिर्फ मोदी के यहां बल्कि जब बीजेपी के अपने उम्मीदवार रामनाथ कोविंद जब देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन हुए तो उन्होंने इफ्तार को ही खत्म कर दिया। पिछले कई वर्षों से तो दिल-दिमाग में इस बात की आशंका काफी काफी गहरे तक रहती है कि कहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ईद का शुभकामना संदेश देना भी बंद न कर दें। ऐसा सिर्फ इस कारण नहीं हुआ है कि देश में पिछले नौ वर्षों से हिन्दुत्ववादी सरकार चल रही है, बल्कि इस आशंका की पुष्टि इस बात से भी बार-बार हुई है कि मुसलमानों के साथ कानूनी स्तर पर भी भेदभाव बरता जाने लगा है।

दादरी के अखलाक की हत्या सिर्फ इस आधार पर कर दी गयी क्योंकि हत्यारों को इस बात का शक था कि उसके फ्रिज में गाय का मांस रखा है। उत्तर प्रदेश की सरकार ने उस घटना को इस रूप में पेश किया कि गौमांस रखे होने पर हत्या किया जाना जायज है!

मोदी के कार्यकाल में अखलाक की घटना कोई इकलौती घटना नहीं है जिससे मुसलमानों को मन में खौफ पैदा हुआ हो। अब तो हालात ऐसे हो गए हैं कि अपने मुसलमान दोस्तों को ईद का मुबारकबाद देना उत्साह पैदा नहीं करता बल्कि अपराधबोध में मुबारकबाद देने के लिए बाध्य करता है, अब ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि यह हमारा त्योहार है जिसमें मुझे हर हाल में शामिल होना ही है, अब तो बस यह लगता है कि अगर हम अपने मुसलमान दोस्तों को ‘ईद मुबारक’ का संदेश नहीं भेजते हैं तो कहीं अपना फर्ज निभाने से पीछे तो नहीं रह जाते हैं, या फिर ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ को बनाए रखने में असफल तो नहीं हो गए हैं!

और हां, बात इतने पर खत्म नहीं हुई है। हमारे गांव में 1992 तक जो दीवाली हर परिवार में, हर घर में, चाहे हिन्दू हो या मुसलमानः दीया-बाती जलाकर मनाई जाती थी, 1993 से, बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद से, किसी भी मुसलमान के घर मननी बंद हो गयी है। वह दीवाली का त्योहार, जो पहले पूरे गांव का था, अब हिन्दुओं का त्योहार बन कर रह गया है और ईद व बकरीद भी मुसलमानों का त्योहार बना दिया गया है। यह बीजेपी की बड़ी जीत है। हां, बीजेपी दूसरे स्तर पर हारी भी है। बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद ढेर सारे ऐसे हिन्दू भी हो गए हैं जिनकी दिलचस्पी अब होली-दीवाली मनाने में भी नहीं है, वे कभी भी सनातनी हिन्दू नहीं थे, लेकिन हर पर्व-त्योहार को उतने ही उत्साह से मनाते थे जितना कोई धार्मिक हिन्दू या मुसलमान मनाता था, मोदी के सत्तासीन होने के बाद एक छोटा सा ही, लेकिन महत्वपूर्ण तबके ने खुद को होली-दीवाली मनाने से दूर कर लिया है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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