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विशेष: दोनों तरफ़ के पंजाबियों को जोड़ती पंजाबी फिल्में और संगीत

हुक्मरानों ने धरती के साथ दिलों का भी बंटवारा करने की कोशिशें की, जो अभी तक जारी हैं। पंजाब में पाकिस्तान के प्रति शत्रुता का वह भाव नहीं मिलता जैसा देश के और हिस्सों में देखा जाता है।
विशेष: दोनों तरफ़ के पंजाबियों को जोड़ती पंजाबी फिल्में और संगीत
पाकिस्तान में 1959 में सैफ़ुद्दीन सैफ़ द्वारा निर्देशित पंजाबी फिल्म ‘करतार सिंह’ को विभाजन पर बनी सबसे बेहतरीन फ़िल्म कहा जा सकता है। 

“ख़ून खन्ने दा वी ओही ख़ून लाहौर दा वी ओही,

ख़ून लायलपुर वाले लुधियाने बोलदे।

साड्डी एक्को है ज़ुबान, साड्डे विरसे वी एक्को

कित्थों वख्ख ने पंजाब एह सियाणे बोलदे ।

साड्डे खून विच वस्सदा पंजाब बोलदा।”

ये बोल पाकिस्तानी पंजाब में गाये गीत ‘पंजाब’ से हैं, जो भारत में चल रहे किसान आंदोलन के हक में बुलंद किये गये हैं। इनमें सांझे पंजाब और पंजाबियत की एक खूबसूरत झलक दिखाई देती है। बंटवारे के 74 साल बाद भी दोनों तरफ के पंजाबियों के दिल एक दूसरे के लिए धड़कते हैं। दोनों तरफ के पंजाबियों ने विभाजन की बड़ी कीमत चुकाई है। हुक्मरानों ने धरती के साथ दिलों का भी बंटवारा करने की कोशिशें की, जो अभी तक जारी हैं। पंजाब में पाकिस्तान के प्रति शत्रुता का वह भाव नहीं मिलता जैसा देश के और हिस्सों में देखा जाता है।

दोनों तरफ के पंजाबियों की ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक साझ बहुत गहरी है, रस्मों-रिवाज, किस्से-कहानियां और मान्यताएं एक हैं। भारतीय पंजाब के पंजाबी साहित्यकार पाकिस्तानी पंजाब की यूनिवर्सिटियों के सिलेबस में पढ़ाये जाते हैं और पाकिस्तानी पंजाब के पंजाबी साहित्यकार भारतीय पंजाब की यूनिवर्सिटियों के सिलेबस में पढ़ाये जाते हैं। भारतीय पंजाब के पंजाबी अखबार लगभग पिछले दो दशक से पाकिस्तानी पंजाब को लहंदा पंजाब (पश्चिमी पंजाब) व भारतीय पंजाब के लिए चढ़दा पंजाब (पूर्वी पंजाब) शब्द प्रयोग करते हैं। इन शब्दों की शुरुआत दोनों तरफ के कुछ पंजाबी-प्रेमियों और पंजाबी साहित्यकारों ने की थी। चढ़दे पंजाब (भारतीय पंजाब) के अखबारों में लहंदा पंजाब (पाकिस्तानी पंजाब ) के लेखकों की रचनाएं आम तौर पर छपती रहती हैं। यह पंजाबी पाठकों की पसंद और मांग के चलते है।

इसी तरह दोनों ओर की पंजाबी फ़िल्मों व संगीत ने भी पंजाबिओं को आपस में जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है। वैसे तो भारतीय और पाकिस्तानी फिल्मों और संगीत, यहां तक कि टी.वी. विज्ञापनों में ‘चोरी-चोरी चुपके-चुपके’ वाला रिश्ता है पर यहां हम दोनों देशों की पंजाबी फिल्मों और संगीत तक ही बात सीमित रखेंगे।

भारतीय पंजाब में 1970 तक पाकिस्तानी फिल्में दिखाई जाती रही हैं। पाकिस्तान बनने के बाद वहां बनी पहली पंजाबी फिल्म ‘फेरे’ से लेकर 1970 में बनी फिल्म ‘हीर-रांझा’ तक की कहानियां और गीत बुजुर्ग लोगों को अभी तक याद हैं। पुराने बुजुर्गों से अगर बातें शुरु करें तो वे लहंदे पंजाब (पाकिस्तानी पंजाब) की पंजाबी फिल्मों--‘फेरे’, ‘करतार सिंह’, ‘यक्के वाली’, ‘हीर सियाल’, ‘दुल्ला भट्टी’ और ‘हीर-रांझा’ की बातें छेड़ लेंगें। ‘दुल्ला भट्टी’ फिल्म का गीत ‘वास्ता ऐ रब्ब दा तू जावीं वे कबूतरा, चिट्ठी मेरे ढोले नूं पहुंचावीं वे कबूतरा’ चढ़दे पंजाब (भारतीय पंजाब) में भी सदाबहार गीत है। सन् 1951 में बनी पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म ‘चन्न वे’ में नूरजहां का गाया गीत ‘तेरे मुखड़े दा काला काला तिल वे, मेरा कढ के लै गिया दिल वे, मुंडया सियालकोटिया’ भारतीय पंजाब में अमर गीत है।

1970 में बनी पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म ‘हीर-रांझा’, जिसकी कहानी और गीत पंजाबी के प्रसिद्ध शायर अहमद राही ने लिखे हैं और फिल्म में रांझा का रोल ऐजाज़ दुरानी और हीर का रोल फिरदौस ने किया था फिल्म में गाए नूरजहां के सभी गीत भारतीय पंजाब में भी लोकगीतों जैसा रुतबा हासिल कर चुके हैं। इस फिल्म के प्रसिद्ध गीत हैं--‘वे वंझली वालड़िया, तू तां मोह लई ओह मुटिआर जिने कदे ना मन्नी सी हार, मै कर बैठी तैनू प्यार’, ‘सुन वंझली दी मिठड़ी तान वे’।

1970 के बाद भारतीय पंजाब के सिनेमा में पाकिस्तानी फिल्में दिखाई जाने पर रोक लग गई। आज इंटरनेट के ज़माने में जब भारतीय पंजाब की युवा पीढ़ी पुरानी फिल्मों को देखती है तो कमेंट करती है-‘हाय रब्बा! असीं हुन तक किन्निया वधिया फिल्मां देखण तों वांझे रह गए सी’ (हाय रब्बा! हम कितनी बढ़िया फिल्में देखने से वंचित रह गए थे)।

पाकिस्तान में बेशक भारतीय फिल्मों पर कोई पाबंदी नहीं रही है (सिर्फ हाल ही में इमरान सरकार ने रोक लगाई है, वह भी 2 साल पहले जब दोनों देशों के सम्बन्ध ज्यादा बिगड़ गये थे और अब कोरोना काल में वहां सिनेमा आदि बंद हैं।) इस बारे पाकिस्तानी पंजाबी शायर अफ़ज़ल साहिर बताते हैं, “पिछले कई सालों से पाकिस्तान की फ़िल्मी इंडस्ट्री संकट में है। अच्छी फ़िल्में नहीं बन पा रही जबकि यहाँ सिनेमा हाल बहुत बड़े और शानदार हैं। यहाँ भारतीय फ़िल्में खूब देखी जाती हैं और जिसके चलते सिनेमा घरों का कारोबार भी अच्छा चलता है। पहले यहाँ भारत की सिर्फ हिंदी फ़िल्में देखी जाती थीं पर अब जब से भारत में अच्छी पंजाबी फ़िल्में बनने लगी है उन्हें भी खूब देखा जाता है। इसलिए मेरा मानना है कि पाकिस्तानी हुकूमत भारतीय फिल्मों पर पूरी तरह रोक नहीं लगा सकती।”

यह सच्चाई है कि लहंदे पंजाब वाले भारतीय पंजाबी फिल्मों की जगह हिन्दी फिल्में ज्यादा पसंद करते हैं। इसका कारण एक तो यह है कि भारतीय पंजाब में पाकिस्तानी पंजाब के मुकाबले अच्छी पंजाबी फिल्में कम बनी हैं। 2002 तक भारतीय पंजाबी फिल्मों की गिनती भी कम थी। 2002 में आई फिल्म ‘जी आयां नूं’, जिसका बजट 5 करोड़ का रहा और जो उस समय का भारतीय पंजाबी फिल्मों का सबसे बड़ा बजट था, ने ही रिकार्ड तोड़ कमाई की। उसके बाद ही पाकिस्तान में भी भारतीय पंजाबी फिल्में ज्यादा देखी जाने लगी। पर इसके बावजूद भारतीय पंजाब की पुरानी पंजाबी फिल्में जिनमें से ‘चमन’ (जो आजादी के बाद भारतीय पंजाब की पहली पंजाबी फिल्म थी) और ‘दो लच्छीयां’ फिल्मों के गाने लहन्दे पंजाब में मशहूर हैं।

भारतीय पंजाबी सिनेमा ने हमेशा पाकिस्तानी पंजाबी सिनेमा की नकल की है। जब पाकिस्तान में जट्टों (जाटों) पर फिल्में बनने लगीं तो भारतीय पंजाबी फिल्मों ने भी नकल करके जट्टों पर फिल्में बनाईं। जब पाकिस्तान में रोमांटिक, क्लासिकल प्रेम कहानियों पर और एक्शन फिल्में बनी तो भारतीय पंजाबी सिनेमा ने भी इसी तरह की फिल्में बनानी शुरु कर दी। पाकिस्तान में 18 जून 1959 को ईद के दिन रिलीज़ हुई विभाजन पर बनी पंजाबी फिल्म ‘करतार सिंह’ की हूबहू नकल कर भारत में 1964 में ‘चौधरी करनैल सिंह’ पंजाबी फिल्म रिलीज़ हुई। 70वें दशक के अंत में सुल्तान राही और मुस्तफ़ा कुरैशी के शानदार अभिनय वाली फिल्म ‘मौला जट्ट’ आई, जिसके बारे माना जाता है कि इसने भारतीय हिन्दी सिनेमा की फिल्म ‘शोले’ के बराबर कमाई की थी। इसी फिल्म की नकल कर भारतीय पंजाब में 1983 में फिल्म ‘पुत्त जट्टां दे’ रिलीज हुई। भारतीय पंजाबी सिनेमा के दो अभिनेताओं-गग्गू गिल और योगराज (पूर्व क्रिकेटर) को पाकिस्तान के अभिनेता सुल्तान राही और मुस्तफ़ा कुरैशी की नकल में पर्दे पर लाया गया था और उन्हें यह हिदायत भी दी गई थी कि उन दोनों ने पाकिस्तान के इन अभिनेताओं की नकल करनी है (इस बात का खुलासा योगराज ने एक इन्टरव्यू में किया है)।

1998 में बनी पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म ‘चूड़ियां’ की नकल पर भारतीय पंजाब में 2007 में पंजाबी फिल्म ‘मजाजण’ बनी (हंसी की बात है इस फिल्म का टाइटल तक भी पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म ‘मजाजण’ से लिया गया जो इससे कुछ महीने पहले ही रिलीज़ हुई थी)। 1970 में बनी पाकिस्तानी पंजाबी फिल्म ‘हीर-रांझा’ से प्रेरित होकर भारत में तीन-चार हिन्दी और पंजाबी फिल्में बनीं। भारतीय पंजाब में पाकिस्तानी पंजाबी फिल्मों की नकल करके जो अन्य फिल्में बनी हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- ‘धी रानी’, ‘सुखी परिवार’, ‘दाज’, ‘नौकर वोहटी दा’, ‘बदला जट्टी दा’ आदि।

इसी तरह पाकिस्तानी पंजाबी सिनेमा ने भी भारतीय पंजाबी फिल्मों की कुछ फिल्मों में नकल की है।

भारतीय पंजाब में 1986 में बनी पंजाबी फिल्म ‘लौंग दा लिश्कारा’ (राज बब्बर और गुरदास मान अभिनीत) की नकल कर सन् 2000 में इसी टाईटल से पाकिस्तान में पंजाबी फिल्म बनाई गई जिसमें पाकिस्तान के मशहूर अभिनेता शान, शफ़क़त चीमा, अभिनेत्री रीमा और नरगिस ने अदाकारी की।

पाकिस्तानी और भारतीय पंजाबी फिल्मों में विभाजन का जिक्र भी हुआ है, भारतीय पंजाबी फिल्मों में यह अभी तक जारी है। पाकिस्तानी पंजाबी सिनेमा में विभाजन और विभाजन से पहले सिखों-मुसलमानों के खूबसूरत सम्बन्धों को दिखाती कुछ अच्छी फिल्में मिल जाती हैं हालांकि पाकिस्तान के फिल्ममेकरों ने विभाजन के विषय को, खासकर वहां हुए खून-खराबे को अपनी फिल्मों में ज्यादा जगह नहीं दी है। इसका एक कारण यह भी है कि पाकिस्तानी सिनेमा का आधार भारतीय सिनेमा जितना सेकुलर नहीं रहा है। विभाजन पर 1959 में सैफ़ुद्दीन सैफ़ द्वारा निर्देशित फिल्म ‘करतार सिंह’ को सबसे बेहतरीन फिल्म कहा जा सकता है। इस फिल्म में विभाजन से पहले के भारत के पंजाब का एक सांकेतिक गांव है जिसमें हिन्दू, सिख और मुसलमान मिलजुल कर रहते है। इस फिल्म में हिन्दू और सिखों (खासकर हिन्दुओं) के किरदार को बहुत सकारात्मक नजरिये से पेश किया गया है जो पाकिस्तान की फिल्मों में आम तौर पर कम दिखाई देता है।

अमृता प्रीतम का लिखा गीत ‘अज्ज आखां वारिस शाह नू’ इस फिल्म में इनायत हुसैन भट्टी ने बड़े भावपूर्ण तरीके से गाया है। इजाज़ बाजवा द्वारा 2010 में बनाई गई फिल्म ‘चन्ना सच्ची मुच्ची’ विभाजन पर पाकिस्तान में बनी नई फिल्मों में बेहतरीन फिल्मों में से एक है। इस फिल्म ने कमजोर हुए पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री (लालीवुड) में नई जान डाल दी। यह 1947 के समय की एक प्रेम कहानी है। यह फिल्म भारतीय पंजाब और ऑस्ट्रेलिया में भी रिलीज़ हुई। इस फिल्म में पाकिस्तान के बडे़ कलाकारों जैसे मोअम्मर राणा, साइमा नूर, बाबर अली, हिना, नग़मा, शफ़क़त चीमा और कॉमेडियन इरफ़ान खूसट ने काम किया है। भारतीय पंजाबी फिल्मों में अभी भी विभाजन के विषय को छुआ जाता रहा है, हाल ही में बनी ‘लाहौरिये’, ‘सरदार मोहम्मद’, ‘चल मेरे पुत्त’ जैसी पंजाबी फिल्में इसकी उदाहरण हैं। 2015 में बनी पंजाबी फिल्म ‘अंग्रेज’ विभाजन पर तो नहीं लेकिन 1945 की कहानी है जो सांझे पंजाब के कल्चर को दिखाती है और सिख-मुसलमान दोस्ती की खूबसूरत तस्वीर पेश करती है। 1999में विभाजन पर बनी फिल्म ‘शहीद-ए-मुहब्बत बूटा सिंह’ (इसके डॉयरेक्टर मनोज पुंज फिल्म को सच्ची प्रेम कहानी पर आधारित बताते हैं) में गुरदास मान और दिव्या दत्ता ने अदाकारी की है। पाकिस्तान के कुछ अदाकार भारत की फिल्मों में भी काम कर चुके हैं। पाकिस्तान की अदाकार वीना मलिक भारत की पंजाबी फिल्म ‘पिंड दी कुड़ी’ में अभिनय कर चुकी हैं।

पाकिस्तान की पंजाबी फिल्मों की एक खासियत यह है कि वे अपनी फिल्मों में अक्सर ही सिख किरदार जरूर लेते हैं चाहे उन फिल्मों की कहानी 1947 के बाद की ही क्यों न हो, इसकी उदाहरण है ‘पुत्तर जग्गे दा’। पाकिस्तान की फिल्मों में सिख किरदारों को ज्यादातर मजाकिया तौर पर ही पेश किया जाता है पर ‘मलंगी’ और ‘चन्न वरियाम’ जैसी फिल्में मुस्लिम-सिख दोस्ती को खूबसूरत ढंग से पेश करती हैं। कई टेलीविजन धारावाहिकों में भी सिख किरदारों को सकारात्मक रूप में दिखाया गया है जैसे कि ‘मुट्ठी भर चावल’ धारावाहिक इसकी एक उदाहरण है। इन दिनों पाकिस्तान में चर्चित धारावाहिक ‘`घुग्गी’ में भी सिख किरदार मिल जाते हैं।

पंजाबी के बहुत सारे गायक दोनों पंजाबों में समान रूप से सुने जाते हैं जैसे मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां, नुसरत फतह अली खां, शौकत अली, मेहदी हसन, गुलाम अली, इनायत हुसैन भट्टी, सुरेन्द्र कौर, प्रकाश कौर, महेन्द्र कपूर, मोहम्मद रफी, गुरदास मान, हंस राज हंस, हरभजन मान, नसीबो लाल। इन दिनों दोनों तरफ के नये पंजाबी गायकों के भी ऐसे बहुत से गीत आए हैं जो दोनों पंजाबों की सांझ और मुहब्बत की बात करते हैं।

भारत-पाकिस्तान की लाखों तल्खियों के बावजूद दोनों तरफ के पंजाबियों के दिल मोहब्बत के लिए धड़कते हैं, उनकी भाषा और संस्कृति की सांझ उन्हें एक दूसरे की तरफ खींचती है। यही कारण है कि 74 साल बीत जाने के बावजूद भी नई पीढ़ी के अंदर भी परले पार को समझने-जानने का जज्बा खत्म नहीं हुआ। 1947 के विभाजन की पंजाबियों को बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी है। आज इस सच्चाई को स्वीकारना होगा कि भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को सुधारने में दोनों तरफ के पंजाबी अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं।

पाकिस्तानी पंजाबी शायर इकबाल कैसर का कहना है, “दोनों पंजाबों के संगीत और फ़िल्मों की भूमिका को हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। कला ,संगीत और फ़िल्में लोगों को जोड़ने में अहम योगदान देती है। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि भारत में चल रहे किसान आन्दोलन के हक में लह्न्दे पंजाब के गायकों ने भी गीत गाकर खुद को चढ़दे पंजाब से जोड़ा है। पंजाब असल में पंजाब है। आप सरहदों से धरती बाँट सकते हो पंजाबियत नहीं।”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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