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'सबके लिए शिक्षा' बचाने की लड़ाई है NEP के ख़िलाफ़ संघर्ष

जब देश में छात्र आर्थिक तंगहाली से मजबूर होकर ख़ुदकुशी करने के लिए मजबूर हो रहें है, तब मोदी सरकार ने एक ऐसी शिक्षा नीति देश पर थोपी है, जो सार्वजनिक शिक्षा को न केवल कमजोर करेगी, बल्कि निजी शिक्षण संस्थानों को फीस तय करने की खुली छूट देती है। 
NEP
Image courtesy : The New Indian Express

“पापा! मैं जा रही हूँ, क्योंकि आप पर बोझ नहीं बनना चाहती। आपने मेरे लिए बहुत कुछ किया। काश!  मैं आपके लिए कुछ कर पाती।  मेरी पढ़ाई पर खर्च होने के कारण आप अपने लिए दवा नहीं खरीद पा रहे हैं। इस बोझ के साथ मैं जीना नहीं चाहती। मैंने जो पैसे रखे हैं, उससे आप अपने लिए आप दवा खरीद लेना।“

यह शब्द हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में बी. बी. ए. की एक छात्रा ने अपने आत्महत्या लेख (सुसाइड नोट) में लिखे थे, जिसने आर्थिक हालत से तंग आकर अपना जीवन खत्म कर लिया। ऐसे हालात में जब देश में छात्र आर्थिक तंगहाली से मजबूर होकर ख़ुदकुशी करने के लिए मजबूर हो रहें है, मोदी सरकार ने एक ऐसी शिक्षा नीति देश पर थोपी है, जो सार्वजनिकक शिक्षा को न केवल कमजोर करेगी, बल्कि निजी शिक्षण संस्थानों को फीस तय करने की खुली छूट देती है। 

कम छात्रों का हवाला लेकर सरकारी स्कूल बंद पहले ही बंद किये जा रहे थे, अब NEP इसके लिए नीतिगत समर्थन पेश करती है। उच्च शिक्षा में यही धारणा आगे बढ़ाई गई है और न्यूनतम तीन हजार छात्रों वाले उच्च शिक्षा संस्थानों पर जोर दिया गया है। इसका सीधा परिणाम होगा कम छात्रों वाले उच्च शिक्षा संस्थान बंद हो जायेंगे या निजी हाथों में चले जायेंगे। 

ढांचागत बदलावों का हिस्सा है नई शिक्षा नीति: नई शिक्षा नीति के लागू होने के साथ भारत की शिक्षा व्यवस्था एक नए दौर में प्रवेश कर रही है जहाँ अभी तक की उपलब्धियों को पलटकर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से पीछा छुड़ाया जा रहा है। दरअसल यह देश में हो रहे बड़े बदलावों का ही एक हिस्सा है। हमारे देश ने आज़ादी के आंदोलन के आकांक्षाओं के अनुसार एक व्यवस्था बनाई थी। हालाँकि शासक वर्ग ने पूंजीवादी विकास के रास्ते को अपनाकर आज़ादी के सपने से पहले ही धोखा किया था, परन्तु फिर भी देश के संविधान की बाध्यता के चलते कल्याणकारी राज्य का एक ढांचा खड़ा किया था जो जनता के जीवन के लिए जरूरी सेवाओं को सुनिश्चित करता था।

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नवउदारवाद के तीस वर्षों में सरकार अपनी इन्हीं जिम्मेदारी से पीछे हट रही थी। वैसे जब देश के बड़े पूंजीपति और विदेशी पूंजी के साथ मुनाफे से प्रेरित नीतिगत समझ बन गई थी तो और कोई रास्ता बचा भी नहीं था क्योंकि नवउदारवाद मूलतः कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के ही खिलाफ है। लेकिन मोदी सरकार ने तो देश की ढांचागत व्यवस्था को पूरी तरह बदलने की ही ठान ली है, ताकि देशी और विदेशी पूंजी के मुनाफे में कोई भी रुकावट न आए।  इसलिए न केवल कल्याणकारी राज्य को कमजोर किया जा रहा है, बल्कि सार्वजनिक संस्थानों को बड़ी ही बेशर्मी से बेचा जा रहा है। देश के वित्तीय ढांचे को पूरी तरह बदल दिया गया है। श्रम कानून बदल दिए गए हैं। कृषि कानूनों के मोर्चे पर निर्णायक हार के बावजूद मोदी सरकार हमारे खेत, पैदावार और उस पर आधारित उद्योगों को कॉर्पोरेट के हवाले करने के लिए काम कर रही है। ऐसे देश में रक्षा के लिए सेना को भी तो बदलना ही पड़ेगा। इसलिए सेना में भी अग्निपथ योजना के जरिये बड़े ढांचागत बदलावों की तरफ आगे बढ़ाजा रहा है। नई शिक्षा नीति भी इन्हीं ढांचागत बदलावों का एक हिस्सा है। देश की नई ढांचागत व्यवस्था को चलने के लिए जो नागरिक चाहिए उसकी फौज तैयार करने के लिए ही NEP लाई गई है और इसने अपने प्रभाव दिखाने शुरू कर दिए हैं। यहाँ हम NEP पर चर्चा नहीं करने जा रहे हैं। इस पर बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। हालांकि, अभी भी बड़े व्यापक स्तर पर इस विषय में चर्चा होने की जरूरत है।  एक तरफ तो केंद्र और राज्य सरकार युद्ध स्तर पर इसे लागू कर रही है, दूसरी तरफ शिक्षा व्यवस्था के दो महत्वपूर्ण भाग छात्रों और शिक्षकों में इसके बारे में जानकारी का अभाव तो है ही, पर एक बड़े इससे को इसके बारे में पता ही नहीं है।

सभी स्तरों पर करने होंगे प्रयास:  इसके खिलाफ आंदोलन खड़ा करने का यही पहला कदम है।  अगर शिक्षा आंदोलनों के कुछ सक्रियय केन्द्रों को छोड़ दें तो देश के बड़े हिस्से में इसके बारे में कम ही चर्चा हुई है। हालाँकि इसके लिए समझ में सामान्य माहौल ही जिम्मेदार है जिसमें प्राथमिक स्टेकहोल्डर्स ही नीति निर्धारण की प्रक्रिया से जानबूझ के बाहर रखे जाते हैं। जितनी इस बात में सच्चाई है, उतनी ही सच्चाई इस बात में है कि शायद ही देश का कोई ऐसा कोना हो, जहाँ NEP से छात्र और शिक्षक सीधे तौर पर प्रभावित न हो रहे हों।   

दरअसल NEP के खिलाफ किसी भी तरह का प्रतिरोध खड़ा करने से पहले यह समझना होगा कि हमारे देश के बड़े आकार और विविधताओं को देखते हुए कोई भी देशव्यापी आंदोलन खड़ा करना लगभग असंभव सा है। ऐसा NEP के खिलाफ आंदोलन के साथ भी हुआ है। इतना ही सच यह भी है कि केंद्रीय ढांचे के खिलाफ एक प्रभावी और जीतने वाला आंदोलन किसी एक संगठन की ताकत के आधार पर संभव नहीं है। इसलिए इस आंदोलन को विकसित करने के लिए कई स्तर पर प्रयास करने की आवश्यकता है। आंदोलन की शुरुआत अलग राज्यों में, अलग-अलग शिक्षण संस्थानों में या अलग-अलग शिक्षा केंद्रों में अलग-अलग मुद्दों से शुरू हो सकती है। अंत में यह सभी मुद्दे अपने आप NEP को ही लागू करने के परिणाम के रूप  में ही सामने आएंगे, जिसपर व्यापक एकता बनाई जा सकती  है।  

NEP पर चर्चा और उसके परिणामों पर शिक्षा का आंदोलन बनेंगे आधार: उदाहरण के लिए दिल्ली में बहुत से शिक्षण संस्थानों में सरकारी सहायता ख़त्म करने से उनको मज़बूरी में अपनी फीस बढ़ानी पड़ रही है। यहाँ एक बड़ा आंदोलन फीस बढ़ौतरी के खिलाफ हो सकता है। वैसे दिल्ली में और विशेष तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय में इस समय बड़े परिवर्तन किए जा रहे हैं, जो सीधे नई शिक्षा नीति से ही निकलकर आ रहे हैं। यहाँ स्नातक (ग्रेजुएशन) के लिए एक बार फिर से चार वर्ष का डिग्री प्रोग्राम लेकर आ रहे हैं। इस चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम (FYUP) में मल्टीपल एग्जिट/एंट्री का भी प्रावधान है। गौरतलब है कि चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम (FYUP) लागू करने की कोशिश पहले भी एक बार हो चुकी है और एक वर्ष के लिए छात्रों ने इस प्रोग्राम के तहत पढ़ाई भी की थी।  जीव विज्ञान के शिक्षक होने के साथ मुझे भी उस कोर्स में बी.एस.सी जीव विज्ञान के प्रथम वर्ष के छात्रों के लिए महात्मा गाँधी जी की जीवनी की क्लास लेनी पड़ती थी, जिसकी उपयोगिता न तो अध्यापक और न ही छात्र समझ पा  रहे थे। उस समय छात्रों और शिक्षकों के जोरदार विरोध के चलते इसे वापिस लेना पड़ा था। चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम (FYUP)  लागू करने का औचित्य न तो उस समय और न ही वर्तमान में UGC समझा पा रहा है। 

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इसके लिए एक तर्क दिया जा रहा है कि इससे उच्च शिक्षा में ड्राप आउट को कम किया जायेगा जो अपने आप में हास्यास्पद है। शिक्षा पर नवीनतम आधिकारिक सर्वेक्षण (एनएसएसओ रिपोर्ट संख्या 585, 2017-18) के अनुसार, 18-24 आयु वर्ग के दो-तिहाई लोग जिन्होंने उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला लिया है, वह असल में शिक्षा नहीं ले पा रहे हैं। इसके प्रमुख तीन प्रमुख कारण वित्तीय बाधाएं, आर्थिक गतिविधियां और घरेलू कामों में संलिप्त होना बताये गए हैं। अब एक अतिरिक्त वर्ष का बोझ डालकर कैसे ड्राप आउट कम होगा यह समझ से बाहर है। हाँ, जिनको मजबूरी में शिक्षा छोड़नी पड़ रही है आप उनको सर्टिफिकेट थमा कर आंकड़े तो सुधार सकते हैं, परन्तु असल में स्थिति बदलेगी नहीं। खैर इस पर  चर्चा आगे न बढ़ाते हुए केवल समझना जरूरी है कि चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम (FYUP) आंदोलन का एक साझा मुद्दा हो सकता है। इसके साथ पाठ्यक्रम में जो बदलाव किये जा  रहे हैं, उसके खिलाफ शिक्षक मज़बूती से आवाज़ बुलंद कर रहें हैं। शिक्षकों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर शिक्षक संगठन ज़मीनी स्तर पर उग्र आंदोलन में लगे हुए हैं। इन सब मुद्दों पर दिल्ली में साझा आंदोलन विकसित किया जा सकता है, जोमूलतः पूरी NEP के खिलाफ ही होगा।   

अभिभावकों और जनता की भागीदारी: इसी तरह का गंभीर प्रयास देश भर में बंद हो रहें स्कूलों के खिलाफ भी आंदोलन विकसित करने के लिए किये जाने की आवश्यकता है। पिछले कुछ वर्षों में युक्तीकरण के नाम पर देश भर में सरकारी स्कूल बंद किये जा रहें है।  जैसा कि पहले कहा गया है कि NEP इसके लिए न केवल बाजारवादी तर्क मुहैया करवाती है बल्कि इसके लिए नीतिगत आधार भी देती है।  बहुत से राज्यों में शिक्षक और छात्र इसके खिलाफ लड़ाई में है। इस प्रयासों से कुछ राज्यों में कुछ क्षेत्रों में अस्थाई  तौर पर  ही सही, इसे रोक पाए है। इन सभी प्रयासों को संगठित करने की जरूरत है। स्कूल बंद होने के खिलाफ आंदोलन में छात्रों और शिक्षकों ने जनता का साथ भी जुटाया है। गावों में जाकर अभिभावकों को उनके बच्चों को सरकारी सरकारों स्कूलों में भेजने के लिए प्रोत्साहित किया गया जिसके सकारात्मक परिणाम आये है। इससे शिक्षा नीति पर जनता में छोटे स्तर पर ही सही एक चर्चा छिड़ी है। नई शिक्षा नीति के खिलाफ आंदोलन में भी ऐसे प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। बिना जनता के व्यापक हिस्से को साथ लिए शिक्षा को बचाने की यह लड़ाई सफल नहीं हो सकती।  

सार यह है कि नई शिक्षा नीति के खिलाफ लड़ाई शिक्षण संस्थानों में इसके लागू होने से सामने रहे प्रतिकूल परिणामों पर खड़ी की जा सकती है क्योंकि यह मुद्दे छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों को प्रत्यक्ष दिखते है और प्रभावित भी कर रहे होते है। इनपर वह आसानी से आंदोलित हो जाते है।  यह संगठित आंदोलनों की जिम्मेवारी है कि कैसे इन सब प्रतिरोधों को सामूहिक तौर पर पूरी NEP के खिलाफ लेकर जाना है।  पहले से ही चल रहे आंदोलनों को संगठित करने की आवश्यकता है।  सभी छात्र संगठनों, शिक्षकों के संगठनों और नागरिक संगठनों को उनकी स्वतंत्रता बरकरार रखते हुए साझे मंचों पर लाने की आवश्यकता है।  छात्रों के संगठन पहले ही अखिल भारत स्तर पर समन्वय से काम कर रहें है, शिक्षकों के अपने मच है और यह मंच देश के विभिन्न भागो में है।  पहले भी कई अखिल भारतीय प्रयास अलग-अलग मंचों से किये जा चुके हैं।   

विश्वविद्यालयों को निभानी होगी अग्रणी भूमिका: यह आशा नहीं कि जा सकती कि यह सभी मंच किसी एक अधिवेशन में साथ आएंगे। जरूरत है कि किसी एक मंच से अधिकतम संभव सहमति के साथ निरंतर और चरणबद्ध कार्यक्रमों दिए जाये और इसे लागू करवाने के लिए ज़मीनी सतह पर ज्यादा प्रयास करने की । हालाँकि निर्णायक आंदोलन फिर भी मुद्दों के आधार पर ही होंगे।  देश की भौगोलिक और राजनीतिक दृष्टि से यह समझना जरूरी होगा कि अगर हम दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में आंदोलन का केंद्र बना सकते है तो यह ज्यादा प्रभावशाली होगा।  स्पष्ट है की इस पूरी प्रक्रिया में उच्च शिक्षण संस्थानों विशेष तौर पर विश्वविद्यालयों (इनमें से भी केंद्रीय विश्वविद्यालयों) की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होगी।  इन संस्थानों को अपनी भूमिका निभानी होगी।  यह आंदोलन के साथ मीडिया आकर्षण के भी केंद्र है। 

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हमें इसमें युवाओं के संगठनों को भी जोड़ने की जरूरत है।  जिस तरह से अग्निपथ के खिलाफ युवाओं के संगठन लामबंद हुए है, इस परिस्थिति में उनको शिक्षा के मुद्दे पर साथ लाया जा सकता है। कई राज्यों और केंद्र में भी छात्र युवा विशेष तौर पर वामपंथी धारा के संगठन एक साथ काम कर रहे हैं। जरूरत है इसका दायरा बढ़ाने की। इस लड़ाई में हर उस व्यक्ति को साथ लेने की जरूरत है जो NEP के खिलाफ है चाहे वह दिखाने के लिए ही है।  लड़ाई की चालक शक्ति तो संगठित आंदोलन है परन्तु व्यापकता से इसका धार तेज होगी। 

अखिल भारतीय आंदोलन में सबकी भागीदारी: इस सारे प्रयास में राज्यों में काम कर रहे समूहों को लामबंद करने का विशेष प्रयास किया जाना चाहिए।  कई राज्यों में छात्रों, शिक्षकों और नागरिक समाज के संगठन बहुत अच्छा काम कर रहे है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में शिक्षा पर काम करने वाले कई अच्छे समूह है।  इन सब समूहों को आंदोलन में शामिल करने के गम्भीर प्रयास किये जा सकते हैं।  

कोशिश होनी चाहिए कि राजनीतिक पार्टियों का समर्थन भी जुटाया जाये। समय समय पर राजनीतिक पार्टियों से भी आंदोलन का समर्थन लिया जाना चाहिए।  इस तरह से एक राजनीतिक वातावरण भी बनेगा और राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए मजबूर होंगी।  हालाँकि हमारे संघीय ढांचे में राज्य सरकारों की आवाज़ लगातार कमजोर की जा रही है।  फिर भी गैर भाजपा  सरकारों से NEP के खिलाफ समर्थन हासिल करना चाहिए।  विशेष तौर पर NEP के सबसे महत्वपूर्ण मसलों पर राज्य सरकार सीधे विरोध दर्ज कर सकती है और विधान सभाओं में प्रस्ताव भी पारित कर सकती है। एक बार आंदोलन विकसित हो जाये, शिक्षा मुद्दे फिर चर्चा में आ जाएं, फिर समाज के अन्य हिस्सों जैसे मज़दूर वर्ग और किसानों के संगठनों और मंचों से भी समर्थन हासिल किया जा सकता है जो आंदोलन को ताकत ही देगा।

शिक्षा को बचाने के संघर्ष की प्राथमिक ज़िम्मेदारी है छात्र आंदोलन की:  पूरे आंदोलन में एक बात समझने की जरूरत है कि हम ऐसा मानते हैं कि देश को नई शिक्षा नीति की जरूरत है।  हमारे देश की जरूरतों के अनुसार हमें शिक्षा बदलावों की आवश्यकता है। यह बदलाव न तो पश्चिमी देशों की शिक्षा नीति की नकल हो सकती है और न ही नागपुर से निर्देशित हो सकती है। इसलिए जब हम आंदोलन विकसित करेंगे तो केवल यह कहने से काम नहीं चलेगा कि नई शिक्षा नीति वापिस लो, जरूरत होगी कि शिक्षा नीति में हमें क्या चाहिए, इस पर भी स्पष्ट समझ बननी जरूरी है। और इस समझ को न केवल प्रचारित किया जाये बल्कि हमारे संयुक्त मांग पत्रों का भी यह हिस्सा बने। 

अंत में हमारे देश में लोकतंत्र पर हो रहे तमाम हमलों के बावजूद हाल के अनुभव बताते हैं कि जनआंदोलन देश में बड़े बदलाव कर सकते हैं। जो संसद नहीं कर पाया, उसे भी सड़क रास्ते किया जा सकता है। इस विश्वास के साथ ही यह पहला कदम उठाने की जरूरत है। 

नई शिक्षा नीति के खिलाफ आंदोलन का रास्ता अपना होगा जो भारत का छात्र और युवा खुद बनाएगा। जब ज़मीनी स्तर पर संघर्ष होगा, नई परिस्थितियों में नए रास्ते खुलेंगे। आंदोलन का पहले से कोई रोडमैप नहीं बनाया जा सकता और न ही किसी पहले के आंदोलन की नकल की जा सकती है।  सभी आंदोलनों में एक ही साझा विज्ञान है, ठोस स्थितियों का ठोस विश्लेषण, और इस विज्ञान के अनुसार ज्यादा से ज्यादा लोगों को आंदोलित करने की कला। 

महत्वपूर्ण यह भी है कि शिक्षा की प्रक्रिया होती ही छात्रों के लिए है, इसलिए इसके केंद्र में भी छात्र होंगे। हमारे देश में डेमोग्राफिक डिविडेंट का फायदा भाजपा सरकार तो नहीं उठा पाई और देश के नौजवानों को हताश ही किया, परन्तु यही नौजवान इस अपार मानव संस्थान का उपयोग आंदोलन के जरिये अपने देश की शिक्षा को बचाने के लिए कर सकते हैं।          

(लेखक अखिल भारतीय खेतिहर मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। इससे पहले वे छात्र आंदोलन से संबद्ध थे)

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