नई शिक्षा नीति से सधेगा काॅरपोरेट हित
देश भर के कैम्पसों में असंतोष की आग धधक रही है। जेएनयू हो, दिल्ली विश्वविद्यालय या जामिया, जाधवपुर विश्वविद्यालय हो या फिर इलाहाबाद, अध्यापक और छात्र 2020 से ही आन्दोलनरत हैं। दरअसल शिक्षा के क्षेत्र में जिस तरह से सरकार द्वारा बिना संसद में बहस कराए ताबड़तोड़ काॅरपोरेटाइज़ेशन, व्यवसायीकरण और निजीकरण किया जा रहा है, उससे पूरे शैक्षणिक जगत में असंतोष व्याप्त है।
किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि जब शिक्षा के अधिकार को खारिज कर शिक्षा का बिकाउ माॅडल स्थायी तौर पर लागू हो जाएगा; तो ऐसी स्थिति में देश के अधिकांश बच्चों के भविष्य का क्या होगा? इतना ही नहीं देश के संघीय, लोकतांत्रिक, समावेशी और प्रगतिवादी ढांचे का क्या होगा?
2020 में तैयार की गई नई शिक्षा नीति पर संसद को तो क्या, स्वतंत्र शिक्षाविदों और स्टेकहोल्डर्स को मौका ही नहीं दिया गया कि अपनी राय व्यक्त करें। इसी अकादमिक सत्र से लागू होने वाली नई शिक्षा नीति को लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त आशंकाओं की वजह से दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू में आन्दोलन और प्रतिनिधिमंडलों के यूजीसी से मिलने का सिलसिला पिछले वर्ष से ही शुरू हो चुका था। अभी स्कूली शिक्षा में आने वाले बदलाव पर चर्चा ही आरम्भ हुई है पर विरोध का स्वर कमज़ोर है।
क्यों हो रहा एनईपी का विरोध?
उच्च शिक्षा में एनईपी का प्रभाव अलग-अलग ढंग से दिखने लगा है। जेएनयूएसयू का एक प्रतिनिधिमंडल 21 अप्रैल 2022 को यूजीसी से मिल चुका है। इस भेंट का संबंध एनईपी से ही था, क्योंकि भले ही केंद्र सरकार तर्क दे कि इससे शिक्षा का आधुनिकीकरण होगा। छात्र और अध्यापक ऐसा नहीं मानते।
दिल्ली विश्वविद्यालय अध्यापक संघ के प्रतिनिधि कहते हैं कि जिस तरह से नई शिक्षा नीति को थोपा जा रहा है, वह सही नहीं है। इस मामले में सभी स्टेकहोल्डर, यानी अध्यापकों, छात्र और कर्मचारियों की सलाह नहीं ली गई। स्पष्ट है कि सरकार काॅरपोरेट-परस्त शिक्षा नीति को बुलडोज़़ करके जबरन लागू करने पर आमादा है।
अध्यापकों-छात्रों का मानना है कि पूरे दस्तावेज़ को पढ़कर लगता है कि सही मायने में शिक्षा के बारे में चर्चा कम है, बल्कि एक अभिजात्य वर्ग को दिमाग में रखकर इसे व्यवसाय बना दिया जा रहा है। इसके माध्यम से सम्पन्न परिवारों के छात्रों को डिग्री का खरीददार बना दिया जाएगा और शिक्षण संस्थानों को ‘शाॅपिंग माॅल’; यहां तक कि इसे ‘गुलामी का नया दस्तावेज़’ भी कहा गया है।
दूसरे, शिक्षा के स्वरूप को तय करने की प्रक्रिया केंद्रीकृत होगी और शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आएगी। (जिसे पहले मानव संसाधन मंत्रालय के नाम से जाना जाता था)। पर एनईपी को लागू करने वाला तंत्र पूरी तरह विकेंद्रित होगा। यानि शिक्षा की गुणवत्ता पर किसी का कंट्रोल नहीं होगा।
इसका कई शिक्षाविद इसलिए भी विरोध कर रहे हैं कि इसमें भ्रष्टाचार की अधिक संभावना होगी। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक अध्यापिका ने बताया कि ‘‘अचानक सेंट्रल युनिवर्सिटी एन्ट्रेन्स टेस्ट (सीयूईटी) के बारे में तय हो गया कि वह एनसीई आरटी पैटर्न पर होगा, जिससे काफी असंतोष है क्योंकि राज्य बोर्ड्स के छात्रों के प्रति यह कदम भेदभावपूर्ण साबित होगा। छात्रों को इसकी तैयारी के लिए कोचिंग करनी पड़ेगी जिसके लिए एक नया बाज़ार खुल जाएगा और छात्रों को आईआईटी व मेडिकल के प्रवेश परीक्षाओं की भांति काफी खर्च करना होगा।’’
जेएनयूएसयू के छात्रों ने यूजीसी को बताया है कि जेएनयू में 1 लाख तक नाॅन-नेट फेलोशिप वापस करवाया जा रहा है, जबकि यूजीसी का ऐसा कोई आधिकारिक आदेश नहीं है। शायद जेएनयू इस प्रक्रिया से फंड एकत्रित कर रहा है। इसके अलाव इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च नहीं किया जा रहा है। छात्र कहते हैं कि महामारी के दौर में एमफिल-पीएचडी के छात्रों का जो समय का नुकसान हुआ, उसकी वजह से उन्हें एक्सटेंशन मिलना जरूरी था, पर नहीं दिया गया। इससे कई छात्र अपना काम पूरा नहीं कर सकेंगे और डिग्री नहीं हासिल कर पाएंगे।
आइसा ने शुरू किया अभियान
छात्र संगठन आइसा, जो भाकपा माले का छात्र निकाय है, ने दिल्ली से ‘एनईपी वापस लो अभियान’ शुरू कर दिया है और यह पूरे एक महीने चलने के बाद एक कन्वेंशन का स्वरूप लेगा, जिसमें देश भर के ऐसे छात्र संगठन शामिल होंगे जो एनईपी का विरोध कर रहे हैं। अध्यापक भी समर्थन में आएंगे। आइसा का मानना है कि एनईपी शिक्षा पर एक भारी कुठाराघात है।
उनका कहना है कि एनईपी के तहत ऑनलाइन शिक्षा पद्धति की वजह से बहुत बड़ी संख्या में साधारण और गांवों और शहरों के गरीब परिवार के बच्चे, छात्राएं और अल्पसंख्यक व सामाजिक रूप से कमज़ोर समुदाय के बच्चे शिक्षा से बाहर हो जाएंगे।
यूजीसी का प्रस्ताव है कि 60-40 ऑफलाइन और ऑनलाइन शिक्षा के ‘स्वयं माॅडल’ को विश्वविद्यालय स्तर पर स्थायी तौर पर लागू कर दिया जाएगा। कहा जा रहा है कि इससे शिक्षा हर छात्र तक पहुंचेगी, पर यह परिघटना हम लाॅकडाउन के दौरान बेहतर तरीके से देख चुके हैैं। लाखों की संख्या में बच्चे ड्रापाउट हो गए।
दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात है कि शिक्षा महंगी हो जाएगी। विश्वविद्यालयों को आनुदान नहीं बल्कि लोन दिये जाएंगे, जो हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेन्सी हेफा देगी। यह केनरा बैंक और भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय का जाॅइंट वेन्चर है, जो मार्केट की शक्तियों से पैसा लेती है, जिसमें बड़े काॅरपोरेट शामिल हैं। उच्च शिक्षण संस्थानों में ‘राइज़’ स्कीम यानि रीवाइटलाइज़िंग इनफ्रासट्रक्चर ऐण्ड सिस्टम्स इन एजुकेशन लागू होगा जिसके लिए कर्ज दिया जाएगा।
अब सवाल उठता है कि लोन और ब्याज वापस कैसे होगा? जाहिर है कि छात्रों की जेब से, जबकि उनकी राय तक नहीं ली जाएगी कि उन्हें क्या चाहिये? मसलन बुनियादी सुविधाओं की जगह कैम्पस को पाॅश और दिखावटी सौंदर्य से नवाज़ा जाएगा।
नए अनावश्यक विभाग खुलेंगे तो इसके खर्च की भरपाई छात्रों को करनी पड़ेगी। यानि फीस 5-10 गुना बढ़ जाएगी। जो फीस सैकड़ों में है वह लाखों रुपये प्रति वर्ष होगी।
क्या छात्रों को भारी लोन लेकर अपनी शिक्षा पूरी करनी होगी? जेएनयू ने 455.06 करोड़ लोन पहले ही ले लिए हैं। इसी तर्ज़ पर अन्य विश्वविद्यालय भी काम करेंगे। वित्त पोषण से लेकर पाठ्यक्रम कौन तय करेगा? पहले जिस तरह निर्णय लेने वाली संस्था एकेडेमिक काउंसिल हुआ करती थी या फिर सीनेट - इसे बदलकर सरकार द्वारा बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की नियुक्ति की जाएगी।
इसके मायने है कि सरकार द्वारा नियुक्त यह संस्था सारे फैसले लेगी। सरकार की काॅरपोरेट-परस्त नीति को ही बढ़ावा देगी। अध्यापकों की नियुक्ति के बारे में फैसले भी वही लेगी। इसका एक और परिणाम होगा पाठ्यक्रम और नियुक्तियों में सरकार के भगवा ऐजेन्डा को बढ़ावा मिलना।
शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार की नहीं
सरकार बच्चों और युवा वर्ग को शिक्षित करने की जिम्मेदारी से हाथ धो चुकी हैं। भारतीय और विदेशी कम्पनियां अपनी जरूरतों के हिसाब से शिक्षा का स्वरूप तय करेंगी। इसलिए वे भारी निवेश भी करेंगे। नई-नई दुकानें खुलेंगी। अब देखिये बाज़ारवाद कैसे चलेगा! बताया जा रहा है कि स्नातक कोर्स 3 वर्ष की जगह 4 वर्ष का होगा।
यही नहीं इसमें छात्र को कई-कई ‘एन्ट्री और एक्ज़िट’ बिंदु मिलेंगे। यानि छात्र किसी भी समय कोर्स को छोड़ने का फैसला ले सकेगा। सुनने में तो यह बड़ा अच्छा लग सकता है, पर छात्र को ऐसे में स्नातक डिग्री नहीं मिलेगी बल्कि एक सर्टिफिकेट या डिप्लोमा ही मिलेगा। इस पद्धति में छात्र को छूट होगी कि वह क्रेडिट पाॅइंट एकत्र करे और उनकी संख्या के हिसाब से डिग्री हासिल करे। क्रेडिट पाॅइंट वह कहीं से भी इकट्ठा कर सकता/सकती है। पर इसमें एक कैच है-धनी परिवारों के बच्चे आसानी से दूसरे बड़े निजी शिक्षण या विदेशी संसथानों से या ऑनलाइन क्रडिट बटोर सकते हैं, और शायद जितनी ऊंची दुकान होगी उतने ही अधिक क्रडिट पाॅइंट होंगे।
सामाजिक न्याय पर कुठाराघात
तब कमजोर समुदायों के गरीब बच्चों, खासकर लड़कियों को 1 या दो साल पढ़कर डिप्लोमा लेकर उच्च शिक्षा से बाहर हो जाना पड़ेगा। सीटों में आरक्षण भी समाप्त होगा। उन्हें कैम्पस में जो लोकतांत्रिक माहौल मिलता था और जिस तरह बड़े शहरों में बेहतर अकादमिक वातावरण में, अच्छे अध्यापकों के सानिध्य में उन्हें फलने-फूलने का मौका मिलता था, वह उनके लिए सपना रह जाएगा। यहां मैं एक उदाहरण का जिक्र करना चाहूंगी।
बिहार के आरा जिले के एक गरीब भूमिहीन दलित परिवार की लड़की अपने काॅमरेड पिता के माध्यम से कस्तूरबा आश्रम के विद्यालय में मुफ्त शिक्षा ग्रहण करती है। वह अपनी मेहनत से दिल्ली विश्वविद्यालय के आईपी कालेज और बाद में जेएनयू में दाखिला प्राप्त कर पाती है। वहां के क्रान्तिकारी वाम आन्दोलनों के संपर्क में आती है और जेएनयूएसयू की महासचिव बन जाती है। आज वह बिहार में अध्यापिका है। उसका पति भी जेएनयू के क्रान्तिकारी वाम आंदोलन के प्राॅडक्ट हैं। ऐसी एक छात्रा महाराष्ट्र के एक श्रमिक परिवार से आकर पढ़ती है। नेट परीक्षा देकर अध्यापिका बनने के लिए प्रयासरत है। कन्हैया कुमार और ऐसे अनेकों छात्र-छात्राएं भी मिलेंगे। क्या एनईपी लागू होने के बाद ये संभव होगा?
यही कारण है कि लगातार जेएनयू के छात्रों को ‘टुकड़ा-टुकड़ा गैंग’ कहकर बदनाम किया जा रहा है और संघ परिवार की निजी सेनाएं लगातार वाम लोकतांत्रिक विचार रखने वाले छात्रों पर प्राणघातक हमले कर रही हैं जिसमें जेएनयू प्रशासन गृह मंत्रालय की शह पर सहयोग कर रहा है।
जहां तक आरक्षण की बात है, तो एनईपी के पूरे दस्तावेज़ में आरक्षण का कहीं भी ज़िक्र नहीं आता। सरकार लगातार आरक्षण को हर क्षेत्र में समाप्त करने के फिराक़ में दिखती है। उच्च वर्ग के सवर्णों को ही शिक्षा का अधिकार मिलेगा तो भारत की एक विशाल जनसंख्या को शिक्षा से वंचित कर दिया जाएगा। ज़ाहिर है कि ये समुदाय आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण बिना आरक्षण और सीटों में वृद्धि के एंट्रेस टेस्ट से प्रवेश नहीं ले सकेंगे। एनईपी से जातीय भदभाव की खाई और अधिक बढ़ जाएगी।
दिल्ली विश्वविद्यालय में डीटीएफ की एक पदाधिकारी आभा हबीब के अनुसार ‘‘आज की तारीख में एक छात्र 15-20 हज़ार रु मासिक खर्च कर रहा है। एक साल अधिक के मायने हैं 1,80,000-2,40,000रु का अधिक खर्च। कुल मिलाकर शिक्षा का निजीकरण हो रहा है इसलिए केंद्रीय अनुदान बन्द होंगे। जेएनयू ने 450 करोड़ का लोन ले रखा है और डीयू भी 1000 करोड़ कर्ज ले सकता है पर यह पैसा आएगा कहां से? अन्त में इसे छात्र की जेब से ही निकालना पड़ेगा।’’
अध्यापक व कर्मचारियों की नौकरियां खतरे में
अध्यापकों की भारी चिंता यह है कि 40 प्रतिशत या अधिक अध्यापक और कर्मचारी बेरोज़गार हो जाएंगे क्योंकि ऑनलाइन शिक्षा की वजह से और बढ़ी फीस के चलते विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या काफी कम हो जाएगी। अध्यापकों और नाॅन-टीचिंग स्टाफ को ठेके पर रखा जाएगा। लेक्चर भी एक बार रिकार्ड हो जाने के बाद अध्यपकों की जरूरत नहीं रह जाएगी। कई अध्यापकों का मानना है कि यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है इसलिए वर्कलोड बढ़ गया है।
कक्षाओं में छात्रों की संख्या भी बढ़ाई गई है। मगर वेतन उतनी ही है। कलकत्ता और जादवपुर विश्वविद्यालय के अध्यापकों ने बताया कि टीचिंग और शोध कार्य को पृथक कर दिया जाएगा। शोध कार्य गिनती के अभिजात्य संस्थाओं में होगा। बाकी सारे विश्वविद्यालय डिग्री काॅलेज बन जाएंगे। एमफिल डिग्री को तो समाप्त ही किया जा रहा है।
संघीय ढांचे पर हमला और मातृभाषा का ढोंग
एनईपी ने शिक्षा को केंद्रीकृत कर राज्यों की भूमिका को इतना सीमित कर दिया है कि अब उनकी मजबूरी होगी केंद्र के आदेशानुसार एनईपी को हर राज्य शिक्षण संस्थान में लागू करना। दूसरे मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने की बात की जा रही है पर क्या सरकार निजी स्कूलों को मातृभाषा में पढ़ाने के लिए बाध्य कर पाएगी?
ऐसा कुछ भी एनईपी में स्पष्ट रूप से नहीं लिखा गया है। कुल मिलाकर छात्रों के दो वर्ग तैयार होंगे। वे जो मातृभाषा में शिक्षित होकर आएंगे, और वे जो अभिजात्य वर्ग वाले अंग्रेज़ी मीडियम पब्लिक स्कूलों से निकलेंगे। जाहिर है कि बड़ी कम्पनियों में जाने की ख्वाहिश रखने वालों, आईआईटी, आईआईएम में दाखिल होने की इच्छा रखने वालों और काॅरपोरेट लाॅ पढ़ने वालों के लिए भारी दिक्कत हो जाएगी क्योंकि अचानक भाषा की इस खाई को पाटना मुश्किल होगा। विदेश के कोर्स भले भारत में चलें पर उनमें प्रवेश के लिए फर्राटेदार अंग्रेजी बोल पाना अनिवार्य होगा। इनसे भी एक बड़ा तबका वंचित रह जाएगा। दूसरे, मातृभाषा में पढ़ाने के लिए पर्याप्त संख्या में अध्यापक कैसे मिलेंगे यह अब तक स्पष्ट नहीं है। यदि उन्हें ट्रेनिंग देनी होगी तो इस प्रक्रिया में सालों लग जाएंगे।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है एक भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों के नाम पर इंडस्ट्री के लिए गुलाम पैदा करने की फैक्टरियां चलेंगी जिनके पाठ्यक्रम से लेकर वित्त पोषण संबंधित फैसले काॅरपोरेट्स के हाथों में होंगे। और हम जानते हैं कि काॅरपोरेट कल्चर के तहत हर व्यक्ति की औकात उतनी ही होती है जितना वह पैसे से खरीदने की ताकत रखेगा।यहां शिक्षा को सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में या जनता की बेहतरी के लिए नहीं समझा जाता है, बल्कि मुनाफा कमाने का एक जरिया बना दिया जाता है।
यहां ज्ञान वित्तीय पूंजी और अध्यापक अकादमिक उद्यमी होते हैं। एक ऐसा दायरा जिसमें ‘क्रिटिकल थिंकिंग’ विकसित हो और और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाले उत्पदक नागरिकों की जमात तैयार हो पूरी तरह नष्ट कर दिया जाएगा, तो शिक्षण संस्थान काॅपोरेट श्रमशक्ति तैयार करने वाली फैक्टरियां ही तो बनेंगी। इसलिए, एनईपी के खिलाफ देश भर के छात्र, अध्यापक कर्मचारियों सहित अभिभावकों को आन्दोलन में उतरना होगा। यह हमारे देश के लोकतांत्रिक, प्रगतिशील ताने-बाने को बचाने के लिए आवश्यक है!
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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