अभियोजन के लिए वैध मंज़ूरी के बिना आरोप-पत्र दायर किया जाना ज़मानत का आधार नहीं हो सकता : न्यायालय
उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि सक्षम प्राधिकारियों से अभियोजन के लिए स्वीकृति प्राप्त करना जांच का हिस्सा नहीं है और एक अभियुक्त इस तरह की मंजूरी की कमी के कारण स्वत: जमानत पर रिहा होने के अपरिहार्य अधिकार का दावा नहीं कर सकता है, यदि आरोप पत्र अनुमत अवधि के भीतर दायर किया गया है।
प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि एक कानून के तहत मंजूरी की आवश्यकता है या नहीं, यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर अपराध का संज्ञान लेते समय विचार किया जाना चाहिए, न कि जांच के दौरान।
पीठ ने कहा कि अगर स्वीकृति देने वाले प्राधिकारी को मंजूरी देने में कुछ समय लगता है, तो इससे जांच एजेंसी द्वारा अदालत के समक्ष दायर की गई अंतिम रिपोर्ट निष्फल नहीं होती है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि सक्षम अधिकारियों से मंजूरी लेना जांच का हिस्सा है।
पीठ ने कहा, “हम अपीलकर्ताओं की ओर से दिए गए मुख्य तर्क में कोई योग्यता नहीं पाते हैं कि मंजूरी के बिना दायर किया गया आरोपपत्र अधूरा है…एक बार निर्धारित समय के भीतर आरोप-पत्र दाखिल हो जाने के बाद, वैधानिक/स्वत: (डिफॉल्ट) जमानत देने का सवाल ही नहीं उठता।”
यह फैसला भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी (आपराधिक साजिश), गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) की विभिन्न धाराओं और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 और 5 के तहत आरोपित पांच आरोपियों की अपील पर आया है।
आरोपियों ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए आदेश को चुनौती दी थी, जिसने उन्हें दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 167 (2) के तहत वैधानिक जमानत पर रिहा करने से इनकार कर दिया था।
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