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राज्यों को हस्तांतरण में ‘वृद्धि’ को लेकर वित्तमंत्री का गुमराह करने वाला बयान

केंद्र सरकार थोड़े से उपलब्ध संसाधनों में से ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा अपने हाथों में रखने के लिए तमाम कपटपूर्ण तरीकों का सहारा लेती है। ये संसाधन थोड़े इसलिए रहते हैं क्योंकि अमीरों पर पर्याप्त रूप से टैक्स नहीं लगाया जाता है।
nirmala sithraman
फ़ोटो साभार: PTI

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमरण ने पिछले ही दिनों एक ऐसा गुमराह करने वाला बयान दिया, जिसकी कम से कम केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक ज़िम्मेदार मंत्री से अपेक्षा नहीं की जाती है। हाल के बजट में राज्यों के पक्ष में संसाधनों के हस्तांतरण का ज़िक्र करते हुए उन्होंने दावा किया कि राज्यों के पक्ष में हस्तांतरण के परिमाण में ‘भारी’ बढ़ोतरी की गयी है। (द हिंंदू, 11 फरवरी)

दावा भारी बढ़ोतरी का, हकीकत में गिरावट

उनका यह बयान ऐसी छवि बनाने की कोशिश ज़रूर करता है कि राज्यों के लिए संसाधन देने के मामले में केंद्र सरकार बड़ी ‘उदार’ रही है, लेकिन हस्तांतरणों में बढ़ोतरी के इस दावे की पुष्टि करने वाले, कोई भी आंकड़े उन्होंने दिए ही नहीं हैं। इसके अलावा आंकड़ों की पड़ताल करने से साफ हो जाता है कि हम चाहे राज्यों के पक्ष में हस्तांतरण की किसी भी कैटेगरी पर ही गौर क्यों न करें, इस बजट में सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में राज्यों के लिए हस्तांतरण के परिमाण में गिरावट ही हुई है। संक्षेप में यह कि यह बजट संसाधनों के केंद्रीकरण की उस प्रक्रिया को और आगे बढ़ाता है, जिसे मोदी सरकार बड़ी मेहनत से आगे बढ़ाने में लगी रही है।

केंद्र के पास पहुंचने वाले कुल टैक्स रेवेन्यू में से राज्य सरकारों को वितरित किए जाने वाले टैक्स रेवेन्यू के हिस्से को ही लिया जा सकता है। याद रहे कि 14वें वित्त आयोग ने इस कुल टैक्स रेवेन्यू में से राज्यों को दिया जाने वाला हिस्सा बढ़ाकर 42 फीसद कर दिया था। उस समय भी केंद्र सरकार ने, इसका खूब ढोल पीटने के बावजूद कि वह बिना कोई ना-नुकुर किए वित्त आयोग की इस सिफारिश को स्वीकार कर रही थी, राज्यों के लिए दूसरे ऐसे हस्तांतरणों में कटौती कर दी थी, जो वित्त आयोग के विचार क्षेत्र में नहीं आते थे। इस तरह, केंद्र ने यह सुनिश्चित किया था कि केंद्र से राज्यों के लिए कुल हस्तांतरण, जीडीपी के अनुपात के रूप में बढ़ने की जगह, पहले से कम ही हो गया। उसके बाद से, राज्यों को दिया जाने वाला कुल टैक्स का हिस्सा भी घटता ही रहा है। 2018-19 में यह 36.6 फीसद था, 2021-22 में 33.2 फीसद और 2022-23 में संशोधित अनुमान के अनुसार, 31.2 फीसद और 2023-24 के बजट अनुमान में सिर्फ 30.4 फीसद ही रह गया है। इस धोखाधड़ी को अंजाम देने का तरीका यह है कि केंद्र सरकार, अतिरिक्त संसाधन जुटाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा 'सेस' तथा 'सरचार्ज' के रूप में विशेष शुल्क लगाने का ही सहारा ले रही है और उनकी प्राप्तियां उसे राज्यों के साथ साझा नहीं करनी पड़ती हैं। कुल टैक्स रेवेन्यू में ऐसे विशेष शुल्कों का हिस्सा दोगुना हो गया है; 2011-12 में यह कुल टैक्स रेवेन्यू के करीब दसवें हिस्से के बराबर था, जो 2021-22 तक बढ़कर, उसके पांचवे हिस्से के बराबर हो गया था। (जयति घोष, द टेलीग्राफ, 2 फरवरी)

कुल हस्तांतरण और जीडीपी अनुपात, दोनों में कमी

लेकिन, राज्यों को वितरित टैक्स के हिस्से में कमी सिर्फ केंद्र के कुल टैक्स रेवेन्यू के अनुपात के रूप में ही नहीं हुई है। यह कमी जीडीपी के अनुपात में भी हुई है और ताज़ातरीन बजट, इसी रुझान के जारी रहने का ही प्रतिनिधित्व करता है। यह बजट इस पूर्वानुमान को लेकर चला है कि 2023-23 का जीडीपी, रुपया मूल्य में 2022-23 के जीडीपी के मुकाबले 10.5 फीसद ज़्यादा होगा। लेकिन, बजट में केंद्र द्वारा राज्यों के लिए टैक्स वितरण 9,48,406 करोड़ रूपये (संशोधित अनुमान) से 10,21,448 करोड़ रूपये होने यानी 7.7 फीसद ही बढ़ने का प्रस्ताव किया गया है, जोकि जीडीपी की वृद्घि दर से कम ही रहने वाला है। जीडीपी के अनुपात के रूप में इस तरह का वितरण 3.47 फीसद से घटकर 3.38 फीसद ही रहने वाला है। इसलिए, अगर हम राज्यों के लिए हस्तांतरण के टैक्स वाले हिस्से को देखते हैं तो वित्त मंत्री का यह दावा कि राज्यों के लिए हस्तांतरणों में ‘भारी’ बढ़ोतरी की गयी है, तथ्यों से मेल नहीं खाता है। सच तो यह है कि टैक्स कलेक्शन में राज्यों को बांटे जाने वाला हिस्सा वास्तव में कुल टैक्स के हिस्से के तौर पर भी घटा है और जीडीपी के हिस्से के तौर पर भी।

अब कुुल हस्तांतरणों पर नज़र डाल लेते हैं। इसमें चार प्रकार के हस्तांतरण शामिल हैं:

* केंद्र द्वारा संग्रहीत कुल टैक्स में राज्यों का हिस्सा (जिसे हम यहां तक राज्यों के लिए वितरण कहते आ रहे थे)

* विशेष मदों में राज्यों के लिए हस्तांतरण, जैसे पूंजी व्यय के लिए ऋणों के रूप में राज्यों के लिए विशेष सहायता, उत्तर-पूर्व के लिए विशेष सहायता आदि

* केंद्र प्रायोजित योजनाओं तथा अन्य केंद्रीय योजनाओं के लिए राज्यों के लिए हस्तांतरण; और विशेष उद्देश्यों के लिए, मिसाल के तौर पर स्वाथ्य के क्षेत्र के लिए या स्थानीय निकायों के लिए आदि,

* वित्त आयोग की सिफारिश से दिए जाने वाले अनुदान।

इन सब को जोड़ लिया जाए तो 2022-23 के संशोधित अनुमान के अनुसार कुल हस्तांतरण 17.11 लाख करोड़ रूपये के थे, जो 2023-24 के बजट अनुमान के अनुसार बढ़कर 18.63 लाख करोड़ रूपये हो जाने हैं यानी 8.88 फीसद बढ़ जाने हैं। लेकिन, यह बढ़ोतरी जीडीपी में रुपयों में (जो 10.5 फीसद बढ़ोतरी को मानकर बजट में चला गया है) काफी कम ही रहने वाली है। इसलिए, जीडीपी के अनुपात के रूप में तो केंद्र से राज्यों के लिए कुल हस्तांतरण 2022-23 के संशोधित अनुमान के 6.267 फीसद से घटकर, 2023-24 के बजट अनुमान में 6.174 फीसद ही रह गया है।

संसाधनों का केंद्रीकरण और फासीवादी एजेंडा

मोदी सरकार के रहते हुए संसाधनों का जो केंद्रीकरण हो रहा है, यह कोई संयोगवश नहीं हो रहा है। और यह सिर्फ केंद्र और राज्यों के बीच सामान्यत: चलने वाली रस्साकशी का भी मामला नहीं है, जिसके तहत केंद्र सरकार थोड़े से उपलब्ध संसाधनों में से ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा अपने हाथों में रखने के लिए तमाम कपटपूर्ण तरीकों का सहारा लेती है। ये संसाधन थोड़े इसलिए रहते हैं क्योंकि अमीरों पर पर्याप्त रूप से टैक्स नहीं लगाया जाता है।

संसाधनों का यह केंद्रीकरण तो दुनिया में आए हरेक फासीवादी निज़ाम की बुनियादी विचारधारा में ही निहित रहा है, हालांकि भारत के विशेष मामले में इस तथ्य को ‘सहकारी संघवाद’ के आकर्षक नारे के पर्दे से ढांकने की कोशिश की जाती है। फासीवादी व्यवस्था के आम लक्षण के रूप में केंद्रीकरण, सिर्फ उसकी सांगठनिक व्यवस्था तक ही सीमित नहीं होता है बल्कि उसके तहत बनने वाली सरकार का भी यह आम लक्षण होता है। इसकी वजह यह है कि इस तरह का निज़ाम, उसे सत्ता का संचालन सौंपने वाली जनता की सुचिंतित मांगों को सुनने मेें विश्वास ही नहीं करता है। इसके बजाए, एक बार सत्ता में पहुंच जाने के बाद तो वह, जनता को अपने ही हिसाब से चलाने तथा उसका ध्यान समय-समय पर धार्मिक-सांप्रदायिक  उन्माद के विस्फोटों से भटकाने में ही यकीन रखता है और इसके लिए किसी न किसी अल्पसंख्यक समुदाय को ‘पराया’ बनाकर और पेश कर के, उसके खिलाफ नफरत उकसाता रहता है। इस तरह फासीवादी निज़ाम हमेशा ही, सत्ता के साथ रिश्ते को सिर के बल खड़ा कर देता है, अवाम के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा करता है और ‘नेता’ को पूजा के लिए मूर्ति बना देता है। यही वजह है कि फासीवादी निज़ाम में कोई सामूहिक नेतृत्व नहीं होता है। और इसकी भी यही वजह है कि उसका ‘नेता’ अपने सार्वजनिक भाषणों तथा वक्तव्यों में ऐसे तर्कों का सहारा नहीं लेता है, जो लोगों की तर्क बुद्घि को प्रभावित करते हों बल्कि नाटकीयता का ही सहारा लेता है, जिसके सहारे लोगों को भावनाओं के ज्वार में बहा सके।

संक्षेप में यह कि संसाधनों पर केंद्र व राज्यों के विरोधी दावों के किसी तर्कसम्मत निपटारे का लिए, फासीवादी निज़ाम कभी प्रयास नहीं करता है। इसके बजाए, वह किसी न किसी बहाने से संसाधनों का केंद्रीकरण ही करता है। और जहां केंद्र सरकार को एक फासीवादी संगठन चला रहा हो, जबकि कई राज्य सरकारें ऐसी विपक्षी पार्टियों द्वारा चलायी जा रही हों, जो फासीवादी संगठन की विचारधारा को नहीं मानती हैं, तो संसाधनों का (और सत्ता का) का केंद्रीकरण करने की इस अंतर्निहित प्रवृत्ति में, विपक्ष शासित राज्यों को कमज़ोर करने की केंद्र की आकांक्षा और जुड़ जाती है।

फासीवादी निज़ाम में गोदी पूंजीवाद का तड़का

इस तरह के केंद्रीकरण का एक और प्रबल कारण भी है। एक फासीवादी शासन निरपवाद रूप से शासन और कुछ पसंददीदा मोनोपोली ग्रुप्स के बीच घनिष्ठ संबंध पर ज़ोर देता है ज़ाहिर है कि यह भारत के संबंध में भी सच है और इसका साक्ष्य हाल ही में तब सामने आया जब अपने सबसे चहेते मोनोपोली ग्रुप, अडानी ग्रुप की कथित वित्तीय गड़बड़ियों के सामने आने पर, सरकार ने पूरी तरह से चुप्पी साध ली और रत्तीभर भी कार्रवाई नहीं की। संसाधनों का केंद्रीकरण एक ऐसा तरीका है जिसमें संसाधनों को जनता की ज़रूरतों के लिए उपयोग से हटाकर ऐसे खर्चों की ओर मोड़ा जाए, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकार के चहेते मोनोपोली ग्रुप्स को फायदा पहुंचाते हैं।

ताज़ा बजट इसकी मुकम्मल मिसाल है। महामारी से ‘उबरने’ के क्रम में, हमारे देश में निजी उपभोग दबा हुआ रह गया है, जो आम जनता के लिए भारी तंगहाली के बने रहने का सूचक है। लेकिन, ताज़ा बजट इस तंगहाली को दूर करने के लिए कुछ भी नहीं करता है। दूसरी ओर केंद्र सरकार ने, अपने कुल खर्च में वृद्घि को रुपयों में जीडीपी की वृद्घि की अनुमानित दर से नीचे रखते हुए भी, अनेक ढांचागत परियोजनाओं में पूंजीगत व्यय को बढ़ा दिया है, जिनमें से अधिकांश परियोजनाओं में अडानी ग्रुप की खास दिलचस्पी है। इसलिए, या तो इस परियोजनाओं को पूरा करने में सरकार इस ग्रुप को सहयोगी के रूप में साथ ले रही होगी या फिर उनसे ही इन परियोजनाओं के लिए भांति-भांति की सामग्रियां हासिल की जा रही होंगी। संक्षेप में केंद्र सरकार द्वारा पूंजी व्यय में इस तरह की बढ़ोतरी किए जाने के पीछे एक ही मकसद है-अडानी और उनके संगी-साथियों के लिए बाज़ार मुहैया कराना।

बेशक, सार्वजनिक संसाधनों के केंद्रीकरण की प्रवृत्ति सिर्फ फासीवादी निज़ाम तक ही सीमित नहीं है। यह तो आम तौर पर मोनोपोली पूंजीवाद की ही खासियत है जिसके कारणों पर हम पीछे चर्चा कर चुके हैं। इसके पीछे मकसद यही होता है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग मोनोपोली घरानों को बाज़ार मुहैया कराने के लिए ही किया जाएगा, न कि उन्हें मेहनतकश जनता को राहत देने पर ‘उड़ा दिया’ जाएगा! फिर भी, किसी भी फासीवादी निज़ाम में यह प्रवृत्ति बहुत ही बढ़ जाती है। ऐसे शासन में लोगों को तो धार्मिक सांप्रदायिकता में ही फंसाए रखा जाता है और उन्हें अपने भौतिक जीवन स्तर में किसी सुधार की मांग करने की फुर्सत ही नहीं दी जाती है, जबकि ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों को इस तरह से लगाया जाता है, जिससे मुट्ठीभर चहेते मोनोपोली ग्रुप्स को ज़्यादा से ज़्यादा फायदा पहुंचाया जा सके। हैरानी की बात नहीं है कि मोदी निज़ाम ने इस तरह के केंद्रीकरण को बहुत ही ऊंचाई पर पहुंचा दिया है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

FM Nirmala Sitharaman’s Misleading Statement on ‘Increased’ Transfer to States

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