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नीता कुमार के चित्रों में लोक कला : चटख रंग और रेखाएं

कई बार शास्त्रीय कलायें नियमों और सिद्धांतों के पालन से यंत्रवत या मंद गति हो जाती हैं। ऐसे में कलाकार अपने भावाभिव्यक्ति के लिए नये रूप आकार की तलाश करने लगता है।
रेखाचित्र
रेखाचित्र, साभार: नीता कुमार

नीता कुमार उत्तर प्रदेश, लखनऊ की विख्यात कलाकार रही हैं। उनके आकृति मूलक चित्रों में लोक कला शैली जैसी ही गति है। कई बार शास्त्रीय कलायें नियमों और सिद्धांतों के पालन से यंत्रवत या मंद गति हो जाती हैं। ऐसे में कलाकार अपने भावाभिव्यक्ति के लिए नये रूप आकार की तलाश करने लगता है।

बंगाल स्कूल के मंद गति या ब्रिटिश अकादमिक शैली की यांत्रिकता से ऊब कर यामिनी राय ने बंगाल पटचित्र शैली से प्रेरित होकर अपनी एक नितांत नवीन चित्र शैली ईज़ाद की जिससे उनके चित्र उनके जीवन काल में ही बहुत बिके। हालांकि उस समय और उनके काफी बाद भी उनके चित्रों को बहुत स्तरीय नहीं माना गया। समयानुसार लोगों के दृष्टि कोण में विकास हुआ और लोक कला शैली को भी महत्वपूर्ण माना जाने लगा। फिर तो कई आधुनिक भारतीय कलाकारों ने ठेठ ग्रामीण परिवेश में बनाये जाने वाले चित्रण शैली को अपनाया तो विदेशों में इसे अनोखा मान कर हाथों हाथ लिया जाने लगा।

चित्रकार नीता कुमार, कैनवास पर ऐक्रेलिक रंग। साभार: नीता कुमार

मुझे याद है मेरे एक कला प्राध्यापक ने जबकि मैं कला की बेसिक जानकारी पाने के लिए उद्वेलित थी, कहना शुरू किया की, 'मधुबनी शैली में चित्रण करो'। मेरे सामने भारतीय चित्रकला की सर्वोत्कृष्ट और सुन्दर चित्रण शैली अजंता के भित्ति चित्र और लघु चित्र की राजपूत शैली, पहाड़ी शैली, मुगल शैली और पटना कलम का प्रभाव था। दूसरी ओर पाश्चात्य की मोहक यथार्थवादी शैली भी मुझे प्रभावित कर रही थी। ऐसे में उस समय जानबूझकर कर मानव आकृतियों को मैं विरूपित नहीं कर पाई। जिसके कारण मेरे वो प्राध्यापक आज तक खफा हैं। मुझे माफ नहीं कर पाये। दिल्ली कालेज ऑफ आर्ट के छात्रों को मैंने देखा कोई पिकासो की अनुकृति कर रहा है तो कोई जॉन मीरो का। पाश्चात्य कलाकारों के कृतियों की अनुकृति करने के बनिस्पत क्षेत्रीय कला शैली अपनाना सही है। लेकिन ये भी नहीं कि एक कलाकार क्षेत्र विशेष की लोक शैली अपना रहा है तो सभी उसे ही अपनाकर कूपमंडूक बनें और अपने मौलिक विकास का रास्ता ही अवरुद्ध कर दें। ये है कला में दिशाहीनता।

बहरहाल मैं उत्तर प्रदेश की मशहूर चित्रकार नीता कुमार के चित्रों पर बात कर रही हूँ। उनके चित्रों में उपस्थित रंग और रेखाएं बहुत उल्लसित और सरल हैं। जो भारत के लोक चित्रों की याद दिलाते हैं।

बेहद दुखद बात है कि 28 दिसंबर 2019 में मात्र 55 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। जबकि उन्हें बहुत काम करना था। उनमें बहुत संभावनाएं थीं।

कला की शैली अब परम्परागत नहीं रह गयी। चित्रण शैली भी विश्व व्यापी हो गई हैं। कलाकार के ऊपर है कि अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए जो भी  शैली पसंद है उसे अपना सकता है। समकालीन कलाजगत से उसे अलिखित स्वीकृति प्राप्त हो रही है। निरंतर नयापन  देखने के लिए  उसे वह अपना रहा है, आत्मसात कर रहा है।कला रसास्वादन भी सामाजिक स्वरूप के समान अत्याधुनिक हो गया है।

नीता कुमार ने भी अपने सरल और ज़िंदादिल भाव के अनुकूल ही कला शैली अपनाई थी। नीता के चित्र स्त्री प्रधान होते रहे हैं। चित्र ऐक्रेलिक रंगों या तैल रंगों में होते थे। रंग चटकीले, सपाट (फ्लैट ) लगाए हुए होते थे जिनको सभी तरफ से घेर कर काले या गहरे रंगों के बाह्य रेखाओं (आउट लाइन ) से महिला आकृति, पक्षी, फूल पत्तियों का सरल और चित्ताकर्षक रूप दिया जाता रहा। बच्चियाँ, महिला उनके चित्रों में उनके स्वभाव अनुसार ही लोक या ग्रामीण पोशाक से सजे हुए नजर आते हैं जो उनके चित्रों की विशेषता है। कई आकृतियों में दुखी सी दिखतीं हैं, उनका सिर घड़े के समान है। नीता के पति चूंकि मूर्तिकार हैं तो स्वाभाविक रूप से कई बार मूर्ति शिल्प जैसे आकार भी उपस्थित हो जाते हैं, दैनंदिनचर्या वाले सामग्रियों के साथ।

चित्रकार नीता कुमार, कैनवास पर ऐक्रेलिक रंग। साभार: नीता कुमार

नीता के चित्रों में आकार, आकृतियाँ और रेखाएं उनके चरित्र और स्वभाव के अनुसार जटिल और अबूझ नहीं रहे हैं। उनमें भी बहुत  संभावनाएं हैं । उन्हें आम जन भी आसानी से समझ सकते हैं। अपनी सुरक्षा, नारी सुलभ और नैसर्गिक भावनाओं की सुरक्षा, असुरक्षित देश, शहर में खुद को सुरक्षित रखना आदि ने महिला चित्रकारों को बाध्य किया जानबूझ कर जटिल चित्रण करने को। वो जटिलताएं नीता के चित्रों में नहीं दिखती हैं। हालांकि कुछ वर्ष पहले के रेखाचित्र रुक कर कुछ सोचने को बाध्य जरूर करती हैं। लेकिन उनमें उपस्थित सरल और सुगम रेखाएँ आंखों को भली लगती हैं। उनके रेखाचित्र में भी अपार संभावनाएं थीं। वह कला क्षेत्र में अपने चित्रों को बहुत आगे ले जा सकती थीं।

मुझे लगता है कि लखनऊ में भी कला और कलाकार के प्रति प्रेम में कमी आई है। क्योंकि यहाँ के सभी प्रमुख कला विथिका में कलाप्रेमी तो क्या दृश्य कला की शिक्षा लेने वाले छात्र या कलाकार भी झांकने की कोशिश नहीं करते। कारण आज तक समझ में नहीं आया।

नीता जलरंग माध्यम में अच्छा काम कर लेती थीं। जो उनके ग्रामीण परिवेश और प्रकृति प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति रही है। उन्होंने ढेरों लैंडस्कैप बनाए। मैं नीता कुमार को 1994 से जानती हूँ। वो मुझे हमेशा भली और व्यावहारिक लगीं।

वो और उनके पति धर्मेंद्र कुमार जो लखनऊ कॉलेज ऑफ आर्ट में पूर्व प्रिंसिपल रहे हैं उत्तर प्रदेश के प्रख्यात मूर्तिकार हैं, मेरे कवि, लेखक जीवनसाथी श्याम कुलपत के मित्रों में से हैं। इस तरह व्यवहार में नीता कला के क्षेत्र में मेरी बड़ी बहन के समान भी थीं। वो  अक्सर मुझे कॉलेज में और अपने घर आमंत्रित किया करतीं और अपने काम दिखातीं। मैं उनसे हमेशा उनके चित्र शैली की तारीफ करतीं और उन्हें ज्यादा काम करने को कहतीं। मुझसे उनका मित्रवत व्यवहार ही मुझे लखनऊ में बांधे रहा।

नीता कुमार  लखनऊ कॉलेज ऑफ आर्ट में चित्रकला की प्राध्यापक थीं। उन्होंने वहीं से ललित कला में स्नातक और स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की थी। नीता दो साल का फैशन डिजाइनिंग और कम्प्यूटर का डिप्लोमा कोर्स भी किया था। वे इसी महाविद्यालय में चित्रकला की प्राध्यापक थीं। छात्रों के बीच अपने प्रेम पूर्ण व्यवहार की वजह से नीता अत्यंत लोकप्रिय थीं। लखनऊ आर्ट्स कालेज में 'कला इतिहास' पढ़ाने के दौरान इसको मैंने प्रत्यक्षतः महसूस किया। अपनी  अत्यंत व्यस्त जिंदगी में उन्होंने अपने मौलिक सृजन  और कला गांव से जुड़ी गतिविधियों  के बीच बढ़िया संतुलन बना रखा था। समय-समय पर भारत भर में उनके चित्रों की प्रदर्शनी होती रही। उन्हें पति के रूप में एक सरल और विनम्र मूर्तिकार जीवन साथी धर्मेन्द्र कुमार ( पूर्व डीन/ प्रिंसिपल लखनऊ कॉलेज ऑफ आर्ट्स) मिले। जो अत्यंत सहयोगी सिद्ध हुए। नीता को अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले। उनके चित्र भारत के कई प्रमुख स्थलों पर संग्रहित हैं। उनकी दो प्यारी पुत्रियां हैं। जिनकी शिक्षा दीक्षा पर विशेष ध्यान दिया। लेकिन शारीरिक अस्वस्थता ने उन्हें असमय ही हमसे  छीन लिया। भारतीय कला जगत की एक बढ़िया कलाकार हमारे बीच नहीं रहीं। 28 दिसंबर 2019 को लखनऊ में बहुत बीमार होने की वजह से  उनकी असमय मृत्यु हो गई। वह हमेशा हमें प्रेरित करती रहेंगी।

कवि और चित्रकार अजय कुमार ने उनके बारे में सही लिखा है, 'कला गाँव उसका ड्रीम प्रोजेक्ट था जिसे उसने धर्मेन्द्र जी के सहयोग से साकार किया था'। 

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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