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चित्रकार बी.सी. सान्याल की‌ कलासाधना : ध्येय, लोक रूचि और जन संवेदना
सान्याल स्वतंत्रता पूर्व से ही आधुनिक भारतीय कला जगत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। उनके सभी चित्र मानवतावादी भावना के उदाहरण हैं और उनमें मानवीय करूणा, सहानुभूति तथा संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं।
डॉ. मंजु प्रसाद
25 Oct 2020
बिजूका और मैं, तैल 1977,चित्रकार- भवेश चंद्र सान्याल, साभार: समकालीन कला, प्र॰ राष्ट्रीय ललित कला अकादमी
बिजूका और मैं, तैल 1977,चित्रकार- भवेश चंद्र सान्याल, साभार: समकालीन कला, प्र॰ राष्ट्रीय ललित कला अकादमी

निस्संदेह लोक कला का अपना एक सौंदर्य ‌और सरल स्निग्ध धारा रही है। लेकिन लोक कला का एक वैचारिक और सृजनात्मक पक्ष ये भी रहा है इसमें सदियों पुरानी रूढ़ियां, गाथाओं, किंवदंतियों, आकारों, अलंकारों ‌की पुनरावृत्ति रही है। समयानुसार कुछ नये तरह के रंगों का प्रयोग, कुछ नवीन भौतिक वस्तुओं का समावेश भी रहा है। लेकिन विचारधारा के स्तर पर आमतौर पर लोक कलाकार परंपराओं को निभाते हुए सोच और चिंतन के स्तर पर लकीर के फकीर होते हैं। ऐसे में जनतांत्रिक समाज में कला संस्थानों से प्रशिक्षित आधुनिक प्रबुद्ध कलाकारों का महत्व बढ़ जाता है।

भारत में स्वतंत्रता आंदोलन जब अपने चरम पर था उसी समय से कुछ प्रतिभाशाली कलाकारों ने अपने-अपने स्तर पर अपनी कला शैली द्वारा कला आंदोलन चलाने की कोशिश की उन्होंने भारतीय पारंपरिक, ऐतिहासिक कला का महत्व समझा।

ये देश-विदेश के कला संस्थानों से प्रशिक्षित कलाकार थे जिन्होंने प्रयत्न किया कि देश के लोगों में अपने देश की कला, सृजन के प्रति आत्म सम्मान जागृत हो। ये प्रमुख कलाकार थे - राजा रवि वर्मा, अवनीन्द्र नाथ टैगोर, रवीन्द्र नाथ टैगोर, नन्दलाल बोस, यामिनी राय और अमृता शेरगिल।

इनके और पाश्चात्य कला के प्रभाव में स्वतंत्रता आंदोलन के तुरंत बाद से ही कई कला समूह बने और कुछ दूर चल कर बिखर गये। क्योंकि समकालीन कलाकार अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आते रहे और अलग-अलग विचारधारा से प्रभावित रहे। इस वजह से उनमें एकता की कमी रही।

स्वान्त: सुखाय की भावना ज्यादा प्रबल रही। इस वजह से कोई सार्थक कला आंदोलन भारत में नहीं हुआ। कलाकारों के कुछ प्रमुख ग्रुप या संस्थायें जरूर रहीं जिनका आधुनिक भारतीय कला के विकास में विशेष योगदान रहा है।

'दिल्ली शिल्पी चक्र' ऐसा ही एक कलाकार ग्रुप था जिसने मौजूदा समय और वातावरण के साथ कदम से कदम मिलाते हुए भारतीय कला में व्याप्त सामंतवादी जड़ता और रूढ़िवादिता को दरकिनार करते हुए नवीन दृष्टि, नवीन जीवन मूल्यों और नवीन सौंदर्य बोध को अपनाते हुए कला सृजन किया। प्रसिद्ध चित्रकार भवेश चंद्र सान्याल (बी.सी. सान्याल) ने ही ‘दिल्ली शिल्पी चक्र’ की‌ नींव डाली और लंबे समय तक इसके चेयरमैन बने रहे।

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भवेश चंद्र सान्याल का जन्म 22 अप्रैल सन् 1901 को डिब्रूगढ़, असाम में हुआ था। 1920 में उन्होंने स्कूली शिक्षा के बाद सोरभपुर कॉलेज में प्रवेश लिया और कलकत्ता विश्वविद्यालय की इन्टर की परीक्षा पास की। महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन के कारण उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। सन् 1923 में कलकत्ता विद्यालय में प्रवेश लिया। 1929 में कांग्रेस के अधिवेशन में लाला लाजपतराय की एक मूर्ति बनाने लाहौर आते हैं और अनुकूल शहर पाकर वहीं बस गए।

भवेश सान्याल स्वतंत्रता पूर्व से ही आधुनिक भारतीय कला जगत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। उन्होंने लाहौर के मेयो स्कूल ऑफ आर्ट एण्ड क्राफ्ट में 1929- 36 में शिक्षण कार्य किया। बाद में उन्होंने एक कला संस्था और एक स्वतंत्र कला‌ स्टूडियो की स्थापना‌ की‌। जिसका नाम था लाहौर स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स। जो बाद में सान्याल स्टूडियो के नाम से लोकप्रिय हुआ। यह स्टूडियो शहर के कलाकारों और बुद्धिजीवियों में अपनी कला गतिविधियों के कारण लोकप्रिय हुआ।

मेयो कॉलेज ऑफ आर्ट अंग्रेजों द्वारा स्थानीय कारीगरों, हस्तशिल्पियों और कलाकारों को प्रशिक्षण देने के लिए खोला गया था जिनके कलात्मक और कौशल पूर्ण कलाकृतियों का विश्व बाजार में महत्व था। परन्तु ये कलाकार अपने मौलिक सृजनात्मक सोच एवं स्व रचित शैली से वंचित थे। उनकी बेबसी और पराधीनता को भवेश सान्याल ने महसूस किया था। देश विभाजन को उन्होंने भी झेला था। अन्य कलाकारों के साथ वे भी दिल्ली चले आए। दिल्ली पॉलिटेक्निक  के कला विभाग के अध्यक्ष भी बने।

भवेश सान्याल मुख्यतः प्रकृति चित्रक थे और कुशल मूर्तिशिल्पी थे। उन्हें जीवन से प्यार था। उनके मन में लोगों के प्रति दया और हमदर्दी थी। वे जीवन भर सृजनशील रहे। उनके आरंभिक कार्य अकादमिक पद्धति के हैं। उनकी कला साधना का सदैव ध्येय रहा है प्रगति और उत्थान। सामान्य जन की रुचियों को भवेश सान्याल ने शुरू से ही अपनी कला में प्रश्रय दिया। दूर एकांत स्थल, निर्जन उजड़ी बस्तियां और पीड़ित वर्ग व निम्न श्रेणी के लोग इनके प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। गांधी जी का चित्र उनकी सर्वोत्तम कृतियों में से है। सान्याल ने आकृति का निराशा तथा व्यथा के संदर्भ में ही अधिक अंकन किया।

अपने बाद के चित्रों में उन्होंने अपने जलरंग भूदृश्य चित्रों में गतिशील तेजगति वाली तूलिकाघातों वाली अनोखी चित्रण शैली का विकास किया। सान्याल के दृश्य चित्रों में देहात की ताजगी है। उन्होंने प्रकृति की विभिन्न स्थितियों को सुंदर रंगों में उतारा है।

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चित्र- माउंटेनस्केप, जलरंग माध्यम, चित्रकार- भवेश चंद्र सान्याल,साभार :भारत की समकालीन कला, ले॰ प्राणनाथ मागो

सान्याल का कहना था : "मेरे दिमाग में पहले से कुछ नहीं होता लेकिन जब प्रेरणा के वशीभूत मेरी तूलिका चलनी शुरू होती है तो पहाड़ियों, पर्वतों , बादलों , वृक्षों , खेतों और पगडंडियों के रूपाकार मौके के अनुसार स्वरूप लेने लगते हैं।"

भवेश सान्याल के सभी चित्र मानवतावादी भावना के उदाहरण हैं और उनमें मानवीय करूणा , सहानुभूति तथा संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। एक भरपूर सृजनात्मक जीवन जीते हुए 102 वर्ष की आयु में 9 अगस्त, 2003 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

मेरे जीवन का वह अनमोल पल था जब मैं 1996 में एक प्राइवेट आर्ट गैलरी में ‌अपनी प्रथम एकल प्रदर्शनी का उद्घाटन कराने हेतु उनके घर निजामुद्दीन पहुंची। बहुत सुरूचिपूर्ण और सादगीपूर्ण अपने बैठके में भवेश सान्याल मुझसे सहज ढंग से मिले। मेरे चित्रों की कुछ छाया प्रति देखकर ही तुरंत तैयार हो गये मेरी प्रदर्शनी में आने को। और आये भी। मेरे लिए यह बहुत  बड़े पुरस्कार से कम नहीं था जब जीता कौर ने कहा “कृपया कलाकार के कृतियों पर कुछ लिख दें",  भवेश‌ सान्याल ने कहा, "क्या लिखूं कलाकार की तूलिका चल पड़ी तो चल‌ पड़ी!''

आज समकालीन भारतीय कला जगत में ऐसे सरल और मानवीय कलाकार बिरले ही मिलेंगे जो सहज भाव ‌से एक अनजान कलाकार की कृतियों को भी रूचि से देखता हो और सकारात्मक ढंग से प्रोत्साहित करता हो। भवेश चंद्र सान्याल भारत के महान कलाकार थे।

(लेखक डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।) 

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