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कला विशेष: मिट्टी और सेरामिक से अनोखी कलाकारी करते स्टूडियो पॉटर

सामान्य सेरामिक के बर्तनों और एक प्रशिक्षित कलाकार द्वारा बनाए सेरामिक बर्तनों की क़ीमत में बहुत अंतर होता है अर्थात् एक कलाकार द्वारा बनाए कलात्मक बर्तन की क़ीमत हज़ारों में जा सकती है।
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समकालीन कला जगत में सेरामिक और मिट्टी माध्यम से कलात्मक बर्तन बनाने वाले स्टूडियो पाॅटर के नाम से ख्याति पा रहे हैं। दरअसल सेरामिक से बने हुए बर्तन आम मिट्टी के बर्तन से थोड़े मजबूत और चमकीले होते हैं। अतः हमारे समाज का एक वर्ग अपने घरों की आंतरिक सज्जा के लिए बड़े चाव से खरीदता है। इसके अतिरिक्त बड़े-बड़े होटल रेस्टोरेंट आदि में भी इनकी बहुत खपत होती है। सामान्य सेरामिक के बर्तनों और एक प्रशिक्षित कलाकार द्वारा बनाए सेरामिक बर्तनों की क़ीमत में बहुत अंतर होता है अर्थात् एक कलाकार द्वारा बनाए कलात्मक बर्तन की क़ीमत हजारों में जा सकती है।

कला संस्थानों से प्रशिक्षित कलाकार, कलात्मक अभिव्यक्ति भी इन बर्तनों पर करते हैं। उनके द्वारा बर्तनों पर बनाए सुंदर अंकन ग्लेज और आंच के प्रभाव से अनोखे बन पड़ते हैं। देश में अनेक महत्वपूर्ण कलाकार हैं पाॅटरी में काम करने वाले जैसे सरदार गुरु चरण सिंह, निर्मला पटवर्धन, देवी प्रसाद, कृपाल सिंह शेखावत, के॰वी॰ जेना, देवी लाल पाटीदार, ईरा चौधरी, मन सिमरन सिंह, क्रिस्टिन माइकल, पी॰ आर॰ दरोज, मनीषा भट्टाचार्य, सुधा अरोड़ा और ज्योत्स्ना भट्ट आदि। इन कलाकारों ने कलात्मक बर्तनों के सृजन में लीक से हटकर कुछ नया किया और सिद्ध किया कि मृण्‍मयी मूर्तिकला (टेराकोटा) के समान बर्तन बनाना भी एक सार्थक कला है।

कला संस्थानों में प्रशिक्षित स्टूडियो पाॅटर और सामान्य कुम्हार के बारे में समकालीन कला पत्रिका के लिए वरिष्ठ कुभंकार (पाॅटर) देवी प्रसाद ने कला समीक्षक वेद प्रकाश भारद्वाज को साक्षात्कार में बताया कि " दोनों के काम में कोई अंतर नहीं है क्योंकि दोनों ही सृजनात्मक काम है। एक तकनीकी फर्क जरूर बता सकता हूं और वह ये कि हमारे जो कुम्हार हैं वे ग्लेजिंग वैगेरह नहीं करते। वो घड़े या बर्तन जो कुछ भी बनाते हैं, वे सब रोजाना काम के होते हैं, वो पोरस होते हैं यानी पानी सोखने वाले।"

'स्टूडियो पाॅटरी शब्द से देवी प्रसाद जी को आपत्ति है। वे कहते हैं दरअसल जब पढ़े लिखे लोगों ने पाॅटरी करनी शुरू की तो अपने काम करने की जगह को स्टूडियो कहने लगे और इस तरह स्टूडियो पाॅटरी शब्द चल पड़ा। पर देखा जाए तो कुम्हार की जो काम करने जगह है, वो भी तो उसका स्टूडियो है। एक अंतर जरूर ये है कि जिसे हम स्टूडियो पाॅटरी कहते हैं उसमें ग्लेजिंग और अलग-अलग तापमान पर पकाना होता है। कुम्हार का जो काम है वो तो नौ सौ और‌ हजार डिग्री तापमान पर पकाया जाता है जबकि स्टूडियो पाॅटर को यदि मिट्टी का पात्र बनाना है तो उसे 11-12 सौ सेंटीग्रेट डिग्री तक तापमान में पकाया जाता है।

यदि उसे पोर्सेलिन या स्टोनवेअर बनाना है तो 12-13 सौ डिग्री तक जाना पड़ता है। कुम्हार अपने बरतन पकाने के लिए खुली जगह में गड्ढा खोदकर खुली भट्टी बनाता है क्योंकि उसे बहुत अधिक तापमान की जरूरत नहीं पड़ती है। परंतु ऐसी भट्टी ग्लेज़ पाॅटरी के लिए नहीं चलेगी। इस तरह तकनीकी अंतर है।" (साभार: समकालीन कला,' पाॅटरी अंक', प्रकाशन ललित कला अकादमी, नई दिल्ली।)

सेरामिक बरतन कला निर्माण में सेरामिक सामग्रियों के साथ साथ मिट्टी का भी इस्तेमाल होता है। इसके द्वारा कलात्मक बरतन, टाईल्स और, मूर्तियां भी बनाई जाती हैं। सेरामिक बरतनों का इतिहास बहुत पुराना है। विश्व की सभी सभ्यताओं और संस्कृतियों का यह हिस्सा रहा है। चीन, क्रीट, ग्रीक, पर्सिया, जापान, कोरिया रूस आदि देशों आदि देशों की सामाजिक, संस्कृति का यह हिस्सा रहा है। भारत में मृण्मयी बर्तनों का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता से मिलने लगता है।

स्टूडियो पाॅटरी में पाॅटर एक ही तरह के मिट्टी से बनाए ग्लेज़ किए बरतनों को जब विशेष तापमान में पकाता है तो भट्टी से निकलने के बाद बरतन के रंग, रूप कैसे होंगे यह पहले से बताना मुश्किल है। बर्तन निर्माण कला में ब्लू पाॅटरी प्रसिद्ध है। सरदार गुरु चरण सिंह (जन्म 1898 कश्मीर में) भारत में ब्लू पाॅटरी के जनक हैं। उन्होंने भू गर्भ शास्त्र और रसायन शास्त्र में स्नातक पास किया था। लेकिन पाॅटरी कला की अभिरुचि ने उन्हें भारत का प्रथम सफ़ल कुंभकार बना दिया। उन्होंने एक पठान कुम्हार अब्दुल्ला जिसके पूर्वज मुगलों के साथ भारत आये थे को अपना प्रथम गुरु बनाया।

सरदार गुरु चरण सिंह ने जापान के टोक्यो शहर में स्थित हायर टेक्नोलॉजिकल स्कूल में उच्च शिक्षा प्राप्त की। टोक्यो में उनका परिचय विश्व के भावी महान कुंभकारों से हुआ। पाॅटरी कला पर और ज्यादा पकड़ बनाने के लिए कोरिया, चीन आदि देशों में भी गए। गुरु चरण सिंह ने दिल्ली के 1-फैक्टरी रोड पर (आज का रिंग रोड) दिल्ली ब्लू आर्ट पाॅटरी की स्थापना की जहां देश-विदेश से छात्र पाॅटरी सीखने आते थे। गुरु चरण सिंह ने बर्तन निर्माण की कला बाहर से भी सीखी लेकिन उनके प्रेरणा स्रोत भारतीय मृदभांड ही रहे। गुरु चरण सिंह को म्यूरल कला में भी महारत थी। दिल्ली के ट्रावनकोर हाउस में लगा म्यूरल दिल्ली ब्लू पाॅटरी की देन है। दिल्ली के ओडियन सिनेमा हाल बने सतीश गुजराल के म्यूरल में भी दिल्ली ब्लू पाॅटरी के ही म्यूरल लगे हैं। 1990 में दिल्ली ब्लू पाॅटरी स्टूडियो को सरकार ने अधिग्रहण कर लिया। लेकिन गुरू चरण सिंह एक आदर्श जीवन जीने वाले और कर्म पर विश्वास करने वाले थे। अतः वो ब्लू पाॅटरी ट्रस्ट के अधीन जमीन के बेसमेंट में अपनी कार्यशाला चलाने लगे। सरदार गुरु चरण सिंह के शिष्य अभी भी उनकी पाॅटरी परंपरा को आगे बढ़ाने में लगे हैं।

आधुनिक फैक्ट्रियों में जब से सेरामिक से बर्तन बड़े पैमाने पर बनने लगे हैं तब से पाॅटरी कला पर असर दिखने लगा। बिजली और गैस से चलने वाली भट्टियों का प्रचलन काफी पहले से ही होने लगा था। लेकिन लकड़ी और कोयले की भट्टियों में पकाई हाथ से बनी बर्तनों की सुंदरता ही अलग होती है। चाहे मिट्टी के बर्तन हो या सेरामिक, इन पर बनाए गए चित्र आदि अलंकरण रेखा प्रधान होते हैं। चित्र प्रधान बर्तनों पर निसर्ग जैसे फूल पत्तियां या ज्यामितीय आकारों का अंकन रहता है। इन कलात्मक और दृश्यात्मक चित्रण के कारण बर्तन निर्माण कला (पाॅटरी) दृश्य कला या फाईन आर्ट्स के अतंर्गत आ जाता है।

नव कलाकारों के लिए सेरामिक पाटरी आत्मनिर्भरता का एक बेहतरीन माध्यम है। वह स्टूडियो पाॅटरी के जरिए कलात्मक और मनचाहे आकार वाले बर्तन बना कर निजी व्यवसाय शुरू कर सकते हैं। महिला कलाकार भी इसे अपनाने में आगे आ रही हैं। लेकिन सही मायने में यह सत्य है कि कुम्हार, बर्तन मिट्टी की मूर्तियां बनाने में दक्ष कलाकार हैं, उनके कुशल और अनुभवी हाथों की बराबरी स्टूडियो पाॅटर नहीं कर सकते। परंपरागत कुम्हारों को पर्याप्त सुविधाएं मिलें तो वे और बेहतर काम कर सकते,बेहतर जिंदगी जी सकते हैं।

(डाॅ. मंजु प्रसाद स्‍वयं चित्रकार हैं। आप इन दिनों पटना में रहकर पेंटिंग के अलावा 'हिंदी में कला लेखन' क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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