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कला विशेष : शबीह सृजक राधामोहन

राधामोहन जी के पहल पर 25 जनवरी 1939 में पटना कला एवं शिल्प विद्यालय की स्थापना हुई तो राधामोहन जी को उसका प्रिंसिपल बनाया गया। बिहार में यह अकेला कला विद्यालय था। उनके नेतृत्व में इस विद्यालय ने बहुत विकास किया। देश के महत्वपूर्ण कलाकारों की बतौर शिक्षक यहाँ नियुक्ति हुई।
कला विशेष
गुरु नानक देव जी, तैल रंग, चित्रकार- राधामोहन। साभार : समकालीन भारतीय कला श्रृंखला, ललित कला अकादमी प्रकाशन

भारत के अग्रणी चित्रकारों में स्थान रखने वाले राधामोहन जी (1907 -1996) एक ऐसे चित्रकार थे जो जीवनपर्यंत कला के उत्थान में लगे रहे। पटना कला एवं शिल्प महाविद्यालय के संस्थापक थे राधामोहन जी। मैं जब भी उनसे मिलती थी हमेशा कहते थे, 'बेटा आकृति मूलक चित्र बनाना कभी मत छोड़ना।' क्योंकि वे शबीह चित्रों और व्यक्तिचित्रण के कुशल चित्रकार थे। वे सादृश्य चित्रण (हूबहू) करते थे। इसे ही शबीह चित्रण (Portrait) कहते हैं यानी वह चित्र जो किसी व्यक्ति की शक्ल-सूरत के ठीक अनुरूप बना हो। वह देशभक्ति का दौर था राधामोहन जी क्यों पीछे रहते। उन्होंने भारत के राष्ट्र नायकों के सजीव चित्र बनाए।

राधामोहन जी का जन्म 7 जनवरी 1907 में पटना के लोदीकटरा मोहल्ले में मुंशी कृषण प्रसाद के घर में हुआ था। लोदीकटरा मोहल्ला में 'पटना कलम' के विख्यात कलाकारों का निवासस्थान था।

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चित्रकार राधामोहन जी

यह तो सभी जानते हैं कि पटना प्राचीन नगर रहा है। इसकी ख्याति पाटलिपुत्र या कुसुमपुर के नाम से रही है। धर्म, संस्कृति, साहित्य और राजनीति आदि के दृष्टि से  पाटलिपुत्र का अपना महत्व रहा है। मौर्य शासन से लेकर आधुनिक काल तक कई साम्राज्यों के उत्कर्ष व विघटन का साक्षी रहा है। अपनी ग्रहणशील विशिष्टता के कारण हर काल में महत्वपूर्ण स्थान बना रहा। वह विशालकाय गंगा का तटीय नगर होने की वजह से व्यापार की दृष्टि से मुगल और ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान भी बहुत महत्त्वपूर्ण था। मुगल साम्राज्य का अस्त होने के बाद मुगल कलाकार मुर्शिदाबाद होते हुए पाटलिपुत्र पहुंचे।

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यह 1750-1760 ई. का समय था। भारत के अन्य प्रांतों से भी कलाकारों ने पटना को अपना स्थायी निवास बनाया। गंगा के तट पर बंदरगाह होने के कारण तत्कालीन आंग्ल व्यापारियों ने यहाँ अपना निवास स्थान बनाया। अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर पाटलिपुत्र के चित्रकारों से स्थानीय,सामाजिक, प्राकृतिक और पशु पक्षियों के चित्र बनवाए। अतः मुगल और ब्रिटिश शैली के प्रभाव से नई कला शैली का जन्म हुआ। जो 'पटना कलम' के नाम से विख्यात हुआ। बाबू शिवदयाल, शिव लाल, बहादुरलाल, मिर्जा निसार मेंहदी , जमुना प्रसाद, आदि पटना कलम के विख्यात चित्रकार थे। मोहल्ला लोदी कटरा इनके नाम से जाना जाता था। ये कलाकार शबीह चित्र मात्र एक या दो अशर्फी में बनाते थे।

कला संबंधी शिक्षा बाबू शिवदयाल जी के स्टूडियो में दी जाती थी। राधामोहन जी कला के इस माहौल से बहुत प्रभावित थे। उनके पिता किसी निजी स्टेट के दीवान थे और राधामोहन जी की कला अभिरुचि से बेहद नाराज थे। क्योंकि राधामोहन जी के पिता मुंशी कृष्ण प्रसाद जी चाहते थे कि वे कानून की पढ़ाई करें।

केवल उनके भाई जानकी मोहन उनकी भावनाओं को समझते थे और उनके पसंद की कद्र करते थे।

इसी दरम्यान 'पटना कलम ' के विख्यात चित्रकार मुंशी महादेव लाल पटना में निवास कर रहे थे। उन्होने 'मुगल शैली' के आधार पर चित्रकला की एक नई शैली विकसित की। उनके चित्रों के विषय त्योहार और उत्सवों पर आधारित थे। वे शबीह चित्रण में भी पारंगत थे। जानकी मोहन जी ने राधा मोहन जी को मुंशी महादेव लाल के पास ले गये और अपना शिष्य बनाने का आग्रह किया। उनसे राधामोहन जी ने पोट्रेट बनाना सीखा। वे चाहते थे कि उनके गुरु ॠतुओं के आधार पर रंग संयोजित करना सिखायें।

ईस्ट इंडिया कंपनी शासन के अंतिम दौर में 'पटना कलम ' ने अपने को खुद के दम पर समृद्ध कर लिया था। इसके अंतर्गत आकर्षक 'व्यक्तिचित्र' तो बने ही साथ ही 'लोक जीवन ' पर आधारित चित्र भी बहुतायत बने, जैसे बढ़ई, कर्मकार, चर्मकार, धुनिया, सब्जी बेचने वाले, दूधवाला, मछली बेचने वाली आदि। 'पटना कलम ' जन कला ही थी जिसने राधामोहन जी को बहुत प्रभावित किया।

इस दौर में नेपाल से आयातित बंसली कागज बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किये जाते थे। लघुचित्रों में इस्तेमाल किये जाने वाले वनस्पति और खनिज रंग लोक प्रिय थे। ये प्रमुख रंग थे भारतीय लाल (गेरू), पीला रंग (हरताल ) और रामरज से, वरमिलियन (हिंगुल),हरसिंगार से ही एक और तरह का लाल रंग, कोंच और कासगरी (उजला रंग) आदि का भी इस्तेमाल किये जाते थे। इन रंगों में बबूल का गोंद मिलाया जाता था। फोटोग्राफी के आगमन से आम जन भी प्रभावित हुआ। पटना के शैडो स्टूडियो के कलाकार वीके जॉनी से राधामोहन जी ने तैल रंगों की कुछ तकनीक सीखी और कैनवास का भी इस्तेमाल करने लगे।

मुंशी महादेव लाल से राधामोहन जी ने तेरह वर्षों (1923 - 1936) तक प्रशिक्षण लिया। इसी बीच  अपने पिता की इच्छानुसार बिहार नेशनल कॉलेज से फारसी भाषा के साथ कानून में 1929 में स्नातक हुए और पटना हाईकोर्ट  में प्रैक्टिस करने लगे। बाद में वे पटना संग्रहालय में काम करने लगे।

राधामोहन जी के पहल पर 25 जनवरी 1939 में पटना कला एवं शिल्प विद्यालय की स्थापना हुई तो राधामोहन जी को उसका प्रिंसिपल बनाया गया। बिहार में यह अकेला कला विद्यालय था। उनके नेतृत्व में इस विद्यालय ने बहुत विकास किया। देश के महत्वपूर्ण कलाकारों की बतौर शिक्षक यहाँ नियुक्ति हुई।

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डॉ. राजेंद्र प्रसाद, तैल रंग, चित्रकार- राधामोहन, साभार : समकालीन भारतीय कला श्रृंखला, ललित कला अकादमी प्रकाशन

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राधामोहन जी डॉ. राजेंद्र प्रसाद और डॉ. अनुग्रह नारायण से मिले।  1940 में रामगढ़ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 53वां अधिवेशन हुआ जिसमें उन्हें चित्रों के द्वारा बिहार की विशेषता को प्रदर्शित करने का अवसर मिला और जिसमें उन्होंने देश भर से महत्वपूर्ण कलाकारों के लघुचित्रों को प्रदर्शित किया गया। राधामोहन जी ने भी वीर कुअंर सिंह का पोट्रेट बनाया।

राधामोहन जी का सपना था कि पटना में भी एक समकालीन कला विथिका (आर्ट गैलरी) हो। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इस विथिका का शिलान्यास किया था। राधामोहन जी इसके निर्देशक बनाए गए। इस कला विथिका में देश-विदेश के कलाकारों की अमूल्य कृतियां संग्रहित की गईं। जैसे निकोलाय रेरिख, मुंशी महादेव लाल , ओसी गांगुली, असित कुमार हाल्दार, नन्द लाल बोस, ईश्वरी प्रसाद वर्मा, गगनेन्द्र नाथ टैगोर आदि। यद्यपि बाद में समुचित देख रेख के अभाव में गैलरी बन्द हो गई और अनेक कलाकृतियां चोरी हो गईं।

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राधामोहन जी के नेतृत्व में शिल्प कला परिषद की स्थापना हुई। जिसके तहत अखिल भारतीय कला प्रदर्शनी का आयोजन हुआ।

राधामोहन जी का जैसा सादगीपूर्ण व्यक्तित्व था वह सरलता और निष्कपटता उनके द्वारा बनाए गए चित्रों में भी दिखता है। शबीह और पूर्ण व्यक्ति चित्रण में हमें व्यक्ति का भाव सहज ही दिखता है। भावाभिव्यक्ति भारतीय कला की वह विशेषता है जो लघुचित्रण शैली में भी उपस्थित रही है। पटना कलम जैसे लघुचित्रण शैली से, बड़े कैनवास पर जाना किसी भी परंपरागत शैली वाले चित्रकार के लिए आसान बात नहीं थी।

राधामोहन जी ने अपने कठिन परिश्रम से तैल रंग माध्यम पर अपनी पकड़ बनाई। उनके बनाये चित्र कोमल रंगांकन वाले सादृश्य से प्रतीत होते हैं।

80 वर्ष से ज्यादा उम्र होने के बावजूद उन्होंने कलाकर्म से अपना नाता नहीं छोड़ा था। उनके पटना के सरिस्ताबाद स्थित निवास पर मेरा अक्सर जाना होता था। उनका छोटा सा बैठका ही उनका स्टूडियो था जिसमें उनकी बनाई कई अनमोल कलाकृतियां टंगी रहती थीं।

एक ईजल (Easel) पर अधूरा काम जरूर उपस्थित रहता था। वो अत्यंत साधारण वस्त्र धारण किए रहते थे। वे बिहार के सबसे महत्वपूर्ण चित्रकार थे लेकिन उनका घर अत्यंत साधारण और सुविधारहित था। मैं सौभाग्यशाली हूं कि मुझे उनका स्नेह मिला। स्नातकोत्तर के लिए जब मैं बनारस गई तो भी वे मेरे पत्रों  का उत्तर अवश्य देते थे। उनकी मृत्यु के बाद मुझे उनपर लिखने के लिए कहा गया और मैं उनके घर पहली बार अपने पिता को लेकर गई। उनके चित्र बहुत खराब दशा में नष्ट हो रहे थे। पटना कलम के प्रसिद्ध चित्रकार मुंशी महादेव लाल के योग्य शिष्य की कृतियाँ भारत की अमूल्य धरोहर हैं।

राधामोहन जी की शबीह चित्रण शैली आज और भी प्रासंगिक और प्रेरित करने वाली हैं। राधामोहन जी की शास्त्रीय संगीत में भी रूचि थी। अपनी दो पुत्रियों को उन्होंने विधिवत शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दिलाई। उनके सरिस्ताबाद स्थित निवास पर अक्सर संध्या के समय शास्त्रीय संगीत का आयोजन होता था।

(लेखक डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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