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'गांधी गोडसे-एक युद्ध': क्या वैकल्पिक नैरेटिव वास्तव में संभव है? 

यह फिल्म गांधी की हत्या की पुनर्कथा से कहीं अधिक उस रास्ते की पड़ताल है जिसे गणतंत्र द्वारा अपनाया जा सकता था।
Gandhi Godse

यह लेख कोई फिल्म समीक्षा नहीं है, जैसा कि उन्हें होना चाहिए या लिखा गया है। इसके बजाय, यह स्थितिजन्य समीक्षा या उस स्थिति का आकलन है जो अब 'इतिहास' है।

वास्तव में, यह एक काल्पनिक स्थिति पर एक टिप्पणी है जो हमारा इतिहास हो सकती थी लेकिन है 'नही'। 

हो सकता है कि फिल्म निर्माताओं ने जानबूझकर ऐसा फैसला नहीं लिया हो, लेकिन परंपरा से मजबूर न होकर उन्होंने सही निर्णय लिया है। 'गांधी गोडसे-एक युद्ध' को 30 जनवरी, 2023 को महात्मा गांधी की हत्या की 75वीं वर्षगांठ पर रिलीज़ करने के बजाय उन्होंने इसे गणतंत्र दिवस पर सिनेमाघरों में रिलीज़ करने का फैसला किया।

यह उपयुक्त है क्योंकि यह फिल्म गांधी की हत्या की पुनर्कथा नहीं है, बल्कि उस रास्ते की पड़ताल है जो गणतंत्र द्वारा अपनाया जा सकता था, जिस रास्ते के लिए गांधी ने प्रयास किए थे लेकिन कभी उसे लागू होते नहीं देख पाए।

फिल्म उस एक संभावित रास्ते की भी खोज करती है जिसे शायद भारतीय राष्ट्र अपना सकता था अगर नाथूराम विनायक गोडसे ने गांधी को जो गोलियां मारी थीं उससे गांधी मरते नही और चमत्कारिक रूप से ज़िंदा रह जाते।

इस वक़्त, अगली कुछ पंक्तियों में फिल्म से कुछ दूर गणतंत्र दिवस तक जाने की ज़रूरत है जब फिल्म रिलीज़ हुई थी। 1950 में इस दिन अपनाए गए संविधान को बड़े धूमधाम के साथ मनाया गया, लेकिन यह धूमधाम संवैधानिकता के प्रति प्रतिबद्धता के बजाय रिवाज़ी अधिक थी।  

इस वर्ष का समारोह, 2014 के बाद से संविधान के लिए संभवतः सबसे गंभीर चुनौतियों में से एक था। यह और भी बुरा इसलिए था क्योंकि संविधान पर हमले को उपराष्ट्रपति, जगदीप धनखड़ और केंद्रीय कानून मंत्री, किरेन रिजिजू की ताकतवर जोड़ी ने तब तेज़ कर दिया था, जब उन्होंने संविधान की बुनियादी संरचना या उसकी भावना पर सवाल उठाया था जो न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था को खत्म करने के लिए लंबे समय से चले आ रहे अभियान की शुरुआत लगती है।

गणतंत्र दिवस पर वास्तविक घटनाओं के मामले में एक वैकल्पिक नैरेटिव के साथ फिल्म की रिलीज़ को 'वास्तविक' गांधीवादी भावना की कमी के साथ-साथ भारतीय गणतंत्र की अनुपस्थिति के रूप में चिह्नित किया गया है। 

राजकुमार संतोषी की यह फिल्म एक काल्पनिक सवाल की पड़ताल करती है-तब क्या होता यदि गोडसे अपने मिशन में विफल हो जाते और गांधी बच जाते?

भारत की जनता और राष्ट्र, बापू के उस व्यक्तित्व को किस तरह से अपनाती जिसमें वे भारत की स्वतंत्रता के प्रति उदासीन नहीं लेकिन 'निंदक' तो बन गए थे?

और, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि गांधी ने भारत और भारतीयों को कैसे जवाब दिया होता जब 'दूसरे' समुदाय के प्रति नफरत का बोलबाला होता जो संख्यात्मक रूप से महत्वपूर्ण ग्रुप की सोच का एक अभिन्न अंग होता?

मुसलमानों के प्रति उनकी कथित 'नरमी' के कारण गांधी के खिलाफ बहुसंख्यक नेतृत्व वाली अघोषित शत्रुता कितनी गहरी होती?

क्या उन्हें वास्तव में राष्ट्रपिता नहीं माना जाता, बल्कि उन्हें तुष्टिकरण की राजनीति को जन्म देने वाले प्रमुख के रूप में देखा जाता?

जाने-माने लेखक असगर वजाहत (उन्होंने स्वतंत्र रूप से फिल संवाद भी लिखे हैं) द्वारा सह-लिखित यह फिल्म उनके नाटक '[email protected]' पर आधारित है। यह फिल्म विभाजन और स्वतंत्रता के बाद बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा की ऐतिहासिक रूप से सही नींव पर अपने काल्पनिक पथ पर चलती है, जो 1940 के दशक की शुरुआत में और विशेष रूप से 1946 के बाद शुरू हुई प्रवृत्ति को आगे बढ़ाती है।

उस निराशाजनक स्थिति में, गांधी ने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए अंततः वह किया जो उनका अंतिम वाक्य था। तब तक, वे यह कहकर हिंदू सांप्रदायिक ताकतों को नाराज़ कर चुके थे कि भारत में मुसलमानों की रक्षा की जानी चाहिए और उनकी संपत्तियों को पाकिस्तान से आने वाले हिंदुओं और सिखों के लिए नहीं खोला जाना चाहिए।

उनके खिलाफ दुश्मनी की इस हवा के बीच, एक और मामला सामने आया और इसे एक 'क्षमा न करने वाले' कृत्य के रूप में देखा गया। भारत और पाकिस्तान के बीच संपत्ति और देनदारियों के विभाजन की शर्तों के तहत, भारत सरकार को 75 करोड़ रुपये का भुगतान करना था, और इसके तहत भारत ने पाकिस्तान को तुरंत 20 करोड़ रुपये का भुगतान कर दिया था। 

हालाँकि, कश्मीर की घटनाओं के कारण, भारत सरकार ने 55 करोड़ रुपये की शेष राशि को रोक लिया था, इस निर्णय को लॉर्ड माउंटबेटन ने नैतिक और राजनीतिक रूप से गलत बताया था। उन्होंने इसकी सूचना गांधी को दी, जो उनसे सहमत हो गए क्योंकि उन्होंने बाकी पैसा न देने के इस फैसले को बिल्कुल अनैतिक माना था।

हालांकि गांधी के अनशन की मूल घोषणा में, पाकिस्तान की वित्तीय संपत्ति के हिस्से की रिहाई में तेज़ी लाने का कोई संदर्भ नहीं था फिर भी इसे अनशन समाप्त करने की 'मांगों' की सूची में जोड़ा गया था।

भारत सरकार ने शेष राशि जारी करने के अपने फैसले की घोषणा की, लेकिन गांधी तब तक अनशन पर रहे, जब तक कि सभी समुदायों के नेताओं और प्रमुख संगठनों ने सार्वजनिक रूप से दंगों को रोकने और क्षतिग्रस्त इस्लामी इबादत स्थलों को बहाल करने का संकल्प नहीं लिया।

यह फिल्म इतिहास के मामले में भी सच है क्योंकि गोडसे ने अपने बचाव वाले बयान में अपने 'केस' को विस्तृत रूप से रखा था कि आखिर वह क्या बात थी जिसने गांधी की हत्या के लिए उन्हें प्रेरित किया था। हालाँकि, सच्चाई और कल्पना में अंतर यह है कि जब गोडसे ने वह बयान दिया था तब फिल्म में गांधी जीवित हैं।

फिल्म का बाकी हिस्सा वजाहत के क्रीएटिव लाइसेंस का परिणाम है और वह अपना दृष्टिकोण देते हैं है कि अगर गांधी इस सदमें से गुज़रे होते तो क्या होता।

क्या गांधी ने गोडसे को 'क्षमा' कर दिया होता जैसा कि उन्हें दिखाया गया है? क्या गोडसे नफरत की विचारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में इतना दृढ़ होते कि अपनी इस्लामोफोबिक सोच के कैदी बने रहते?

क्या गांधी वास्तव में कांग्रेस छोड़ देते और राजनीति के केंद्र से दूर भारत के ग्रामीण इलाकों में ग्राम स्वराज के फलने-फूलने के अपने सपनों का 'पीछा' कर रहे होते?

क्या गांधी आज़ाद भारत की पहली सरकार के लिए 'बोझ' और 'बाधा' बन गए होते, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है?

फिल्म में ऐसे सभी परिदृश्य हैं जो हमें देखने और विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं। फिल्म में गांधी को दिखाया गया है कि वे वही करते रहते जो उन्होंने औपनिवेशिक भारत में किया था-यानि समाज के सबसे निचले तबके के लोगों को शोषक कानूनों और जोड़-तोड़ करने वाले धन्नासेठों और व्यापारियों के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करते।

गांधी के लिए हर लड़ाई अभी भी लोगों की ज़रूरतों और इच्छाओं की कैद के खिलाफ होती।

यह स्थिति सरकार को गांधी पर उसी अपराध का आरोप लगाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं छोड़ती, जिस आधार पर 1947 से पहले राष्ट्रवादियों पर आरोप गढ़े जाते थे: यानि देशद्रोह - उसी भारतीय दंड संहिता के तहत जो 75 साल की 'आज़ादी' के बाद भी भारत में कानूनी रूप से मौजूद है!

इसके बाद, गांधी की ज़िद के कारण उन्हे उसी जेल में बंद किया जाता जिसमें गोडसे क़ैद होते, जिसके बारे में बाकी फिल्म चलती है।

स्क्रिप्ट गांधी-गोडसे के संघर्ष को 'हल' करती है, दोनों कुछ हद तक एक-दूसरे के बिंदु को देखते हैं और कमियों को पहचानने में सक्षम होते हैं। जेल से बाहर निकलते हुए दोनों के बीच के सौहार्द को देखना सुखद लगता है, लगभग हाथ में हाथ डाले, एक-दूसरे के साथ नारे लगाने वाले अपने समर्थकों के साथ बाहर आते।

एक आशा पैदा होती है कि भारत अब कलह के इस बुनियादी कारण को पीछे छोड़कर आशापूर्ण भविष्य की ओर अग्रसर होगा।

लेकिन क्या ऐसा होगा? कम से कम वे जो दक्षिणपंथ विचार वाले हैं क्या ऐसा करेंगे? क्या हिंदुत्ववादी इस फिल्म को देखेंगे और तय करेंगे कि अब समय आ गया है कि वे अपने ज़हरीले नफरती अभियान को रोक दें?

इससे पहले कि लेखक के भोलेपन, या आशावाद का विचार मन में एक अच्छी तरह से निर्मित थीसिस बन पाती, थिएटर से बाहर निकलने वालों के बीच बातचीत ने सांप्रदायिकता की छाया के अंधेरे से भारत के उभरने की संभावना को नकार दिया।

सिनेमा से बाहर निकलते हुए एक व्यक्ति ने कहा कि, "फिल्म गांधी के प्रति बहुत नर्म थी।" दूसरे ने जोड़ा: "गोडसे विचारों के मामले में कच्चे नहीं थे।" 

हो सकता है गोडसे ने अमर होने के लिए गांधी की हत्या करने का फैसला किया हो। लेकिन तब तक गांधी इतने विशाल व्यक्तित्व बन चुके थे और भले ही उनकी मृत्यु अहिंसक तरीके से भी हुई होती, फिर भी अल्बर्ट आइंस्टीन के दिमाग से निकले उन शब्दों का दुनिया ने उच्चारण किया होता: कि "आने वाली पीढ़ियां मुश्किल से विश्वास करेंगी कि ऐसा भी कभी हुआ होगा कि एक हाड़-मांस का व्यक्ति इतने बड़े जन-हित में पृथ्वी पर मौजूद था।”

वजाहत को अपने क्रीएटिव लाइसेंस के इस्तेमाल की कितनी अनुमति दी जा सकती है, हमें यह समझने की ज़रूरत है कि गोडसे न तो सक्षम था और न ही भारतीयों द्वारा राष्ट्र और उनकी राष्ट्रीयता को देखने के तरीके में किसी मौलिक विचलन को 'हल' करने के मामले में बड़ा था।

गांधी ने एक समावेशी समाज के रूप में, भारत की बिरादरी के भीतर एक नैतिक दिशा दिखाई, जहां अल्पसंख्यकों को समान अधिकार और सुरक्षा हासिल हों।

गोडसे एक वैचारिक पंथ का मात्र एक पैदल सैनिक था और वह वीडी सावरकर और एमएस गोलवलकर जैसे लोगों के समर्थन से आगे बढ़ा था।

गांधी की गतिविधियों के बारे में कुछ छिपा हुआ नहीं था। इसके विपरीत, गोडसे उस राजनीतिक समुदाय से ताल्लुक रखता था, जिसके लिए वह छल-कपट के इस्तेमाल का आदी था।

गांधी का सार्वजनिक जीवन अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था जबकि 'सावरकरवादी' गोडसे का मानना ​​था कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से हिंसक होता है और वे हिंसा को पूरी तरह से उचित मानते थे।

इस तरह की फिल्में वास्तविकता से पलायन करती हैं। वजाहत और संतोषी सभी रायों को आयाम देने में सफल होते हैं। लेकिन यह वैसा कुछ नहीं है जैसा कि इतिहास बताता है। 

भारत में वैकल्पिक नैरेटिव संभव हैं या नहीं, उसकी पड़ताल करने के लिए ये एक महत्वपूर्ण फिल्म है।

लेकिन, वर्तमान भारत में, दो व्यक्तियों या मुट्ठी भर लोगों के बीच संवाद का मंचन करके किसी यूटोपिया तक नहीं पहुँचा जा सकता है।

इस काले अंधकार जो आज का भारत है, से उभरने के लिए लोगों को लामबंद करने और उन्हें ताकत देने के लिए एक से अधिक गांधी की ज़रूरत है।

इन गांधियों में से प्रत्येक को फिल्म के 'काल्पनिक' गांधी की तुलना में कहीं अधिक करना होगा। जीवन को पुनः प्राप्त करने के तुरंत बाद, सभी शक्तियों को त्याग कर देश की वास्तविक ताकत में समाना होगा-जो ताकत उसके लोगों में बसती है।

नीलांजन मुखोपाध्याय एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। उनकी आखिरी किताब द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया थी। उन्होंने द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट एंड नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स भी लिखा है। उन्हें @NilanjanUdwin पर ट्वीट किया जा सकता है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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