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अबकी बार जनरल बिपिन रावत की खरी-खरी?

भारत के पहले चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ के रूप में जनरल बिपिन रावत ने स्पष्टता के साथ मार्के की बात कही है।
जनरल बिपिन रावत

जनरल बिपिन रावत पिछले तीन वर्षों से ज़्यादा समय से भारतीय सशस्त्र बलों के सर्वोच्च पद पर बने हुए हैं। उन्हें खरा-खरा बोलने वाले जनरल के तौर पर इज़्ज़त हासिल तो है, मगर उनकी मुखरता की वजह से समय-समय पर विवादों की आग भी भड़कती रही है।

ये विवाद काफी हद तक राजनीति प्रेरित टिप्पणी वाले उनके तेवर के चलते भड़के हैं। बीतते समय के साथ उनको लेकर जो धारणा बनी है कि जनरल रावत ग़ैर-पक्षपात के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन करते रहे हैं। वास्तव में, इसके चलते उनकी बुरी तरह से लानत-मलानत भी होती रही है। हालांकि, पिछले हफ़्ते के अंत में टाइम्स ऑफ इंडिया अख़बार के साथ जनरल रावत का एक विशेष साक्षात्कार पूरी तरह से उन्हें अलग श्रेणी में ले आता है। उन्होंने अपने देश में हमेशा से युद्ध समर्थक राग अलापने वाले उन जनरलों (और पूर्व फ़ौजियों) को लेकर अपनी बात रखी है, जो रक्षा बजट के बढ़ाने को लेकर मोदी सरकार के उत्साह की कमी से मायूस हैं।

उस साक्षात्कार में जनरल रावत ने जिन बातों पर ज़ोर देने की मांग की है, उन्हें संक्षेप में तीन समूहों में बांटा जा सकता है:

• कोरोनावायरस महामारी सामाजिक क्षेत्रों और देश की अर्थव्यवस्था की उस समग्र स्थिति पर ध्यान केंद्रित करती है, जहां संसाधन के न्यायसंगत आवंटन के लिए विकास रणनीतियों को फिर से तैयार किया जाना एकदम ज़रूरी हो गया है। देश इस समय उस आयुध कार्यक्रम का ख़र्च तो बिल्कुल ही नहीं उठा सकता है, जो बुरी तरह से महंगे हथियारों की ख़रीद के आयात पर निर्भर है।

• सशस्त्र बलों की परिचालन आवश्यकताओं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर नहीं पेश किया जाना चाहिए। भारत की रक्षा रणनीति देश की सीमाओं की रक्षा करने और हिंद महासागर क्षेत्र पर वर्चस्व क़ायम रखने तक ही सीमित हो गई है। हथियारों के आयात को कम करने के लिए इन परिचालन प्राथमिकताओं का एक यथार्थवादी और गहन पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी है, ताकि उपलब्ध बजट का बेहतर उपयोग किया जा सके।

•  इसी तरह, हथियार प्रणालियों का स्वदेशीकरण भी बेहद ज़रूरी है। लेकिन, "अवास्तविक जीएसक्यूआर " (संचालन की योजना बनाने और क्रियान्वयन में सैन्य कमांडर की सहायता करने वाले कर्मचारियों की गुणात्मक आवश्यकतायें) आड़े आ रही हैं। इसके अलावा, जीएसक्यूआर को अमेरिका या अन्य उन्नत देशों की ज़रूरतों की नकल करने के बजाय हमारी स्वयं की परिचालन आवश्यकताओं के संदर्भ में कठोरता के साथ फिर से पारिभाषित किये जाने की ज़रूरत है।

जनरल रावत ने ग़ज़ब की स्पष्टता के साथ अपनी बात रखी है। उनकी इस तरह की बातों का शानदार असर पहले से ही रहा है। ख़ास तौर पर, चूंकि इसके पीछे की तर्कसंगत धारणा यह है कि जनरल रावत ने भारत की रक्षा रणनीति को दुरुस्त करने के ख़्याल से आधिकारिक सोच को ही स्पष्ट किया है।

दरअसल, हमें जो कुछ यहां नज़र आ रहा है, वह रक्षा रणनीति को लेकर महज "तुक्का" भर नहीं है। उनके विचार मौलिक रूप से नयी सोच को दर्शाते हैं। यूपीए सरकार से विरासत में मिली '' कोल्ड स्टार्ट''( यह भारत की सेना द्वारा विकसित नया सैन्य सिद्धान्त है, जिसे भारतीय सेना ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ संभावित युद्ध को ध्यान में रखकर बनाया है, जिसके मुताबिक़ आदेश मिलने के 48 घंटे के भीतर हमला शुरू किया जा सकता है), दो-मोर्चे की लड़ाई, अंतर्सक्रियता और इस तरह की धारणाओं से तौबा किया जा रहा है। नया ज़ोर स्थानीय उत्पादों और स्थानीय आपूर्ति श्रृंखलाओं की आत्मनिर्भरता पर है।

जनरल रावत का यह इंटरव्यू मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्र के नाम सम्बोधन के दो दिन पहले ही सामने आया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि अन्य बातों के साथ-साथ "21वीं सदी का भारत बनाने का एकमात्र तरीक़ा भारत को आत्मनिर्भर बनाना है… आत्मनिर्भरता का यही युग हमारा नया संकल्प होगा, हमें इस नये संकल्प के साथ ही आगे बढ़ना होगा।”

यह कहना ठीक ही होगा कि अगर छोटे-छोटे विवरणों को नज़रअंदाज़ करते हुए बड़ी बातों पर ध्यान दिया जाय, तो यह सप्ताह वास्तव में एक निर्धारक पल बन गया है। प्रधानमंत्री द्वारा निर्धारित यह सिद्धांत और जनरल रावत द्वारा इसे रक्षा रणनीति के क्षेत्र में लागू किये जाने के संकल्प ने 2005 में तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी और उनके अमेरिकी समकक्ष डोनाल्ड मम्सफ़ील्ड द्वारा भारत-अमेरिका रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किये जाने के बाद से हमारे नौकरशाही और सैन्य प्रतिष्ठान की सोच और उसके कार्यान्वयन वाली 15 साल से लगातार चल रही रणनीति पर रोक लगा दी है।

आज यह महसूस करना अहम है कि इन 15 सालों के दौरान हम कहां पहुंच गये हैं और जनरल रावत ने अपने सप्ताहांत के साक्षात्कार में जो कुछ कहा है, उसकी गहराई को पूरी तरह और उचित रूप से सही मूल्यांकन किये जाने की ज़रूरत है। भारत के लिहाज से हमारे सशस्त्र बलों के एक बेहद ज़रूरी आधुनिकीकरण के रूप में जो कुछ शुरू हुआ था, उसे भारतीय और अमेरिकी सेनाओं के बीच के पारस्परिक जुड़ाव को हासिल करने के लिए एक जुनूनी अभियान के रूप में इस अवधि में लगभग अबाधित रूप से  चलाया जाता रहा है,और उसी रास्ते पर बढ़ाया जाता रहा है।

अमेरिकी पक्ष ने भारतीय नौकरशाह, नागरिक और सेना को समान रूप से आज उस मुकाम तक पहुंचाने में ग़ैर-मामूली तौर पर बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन ऐसा वहां-वहां हुआ है, जहां-जहां अब हम नहीं हैं, जैसा कि जनरल रावत ने कहा है कि जीएसक्यूआर को "हम अपनी परिचालन आवश्यकताओं के मुताबिक़" परिभाषित नहीं करते हैं, बल्कि इसके बजाय "अमेरिका या अन्य उन्नत देशों के पास" क्या है, उससे तय करते हैं।

यदि अमेरिका के पास सात विमान वाहक हैं, तो क्या हमारे पास कम से कम तीन विमान वाहक नहीं होने चाहिए ? हमारा दिमाग़ बहुत लम्बे समय तार्किक रूप से काम नहीं करता है। हमारी सोच बहुत हद तक अमेरिकियों से तय होती है।

जो कुछ जनरल रावत ने कहा है,उसे साफ़-साफ़ समझा जा सकता है और वह यह है कि “सतह पर मौजूद किसी भी चीज़ को उपग्रहों से मालूम किया जा सकता है और मिसाइलों से उसे गिराया भी जा सकता है। मुझे लगता है कि नौसेना को विमान वाहक के बजाय अधिक पनडुब्बियों की ज़रूरत है, जिसे ख़ुद की सुरक्षा के लिए अपने ख़ुद के व्यक्तिगत जहाज़ों के बेड़े की आवश्यकता है।”

वहां नज़र डाली जाये, जहां से हमने यूपीए के शासन में इस सफ़र की शुरुआत की थी और आज हम दिमाग़ी गुलामी में कहां पहुंच गये हैं। अमेरिकियों ने अपने मक़सद के मुताबिक़ भारतीय दिमाग़ को गढ़ने में एक शानदार काम किया है। उन्होंने हमें वैश्विक महासागर,वायुमंडल और अंतरिक्ष के शासक बनाने का वादा करते हुए और भविष्य में बाहरी अंतरिक्ष सहित उन तमाम जगह, जहां चीन की मौजूदगी है, वहां ले जाने के वादे करते हुए हमारी महत्वाकांक्षा को जगाया है।

इस प्रकार, अमेरिकियों ने भारत को अपना एक प्रमुख रक्षा साझेदार (एमडीपी) के रूप में घोषित किया हुआ है। यह क्या अविश्वसनीय नहीं है? उन्होंने किसी अन्य देश को भी इस रूप में घोषित नहीं किया है, बल्कि अपने निकटतम अंग्रेज़ी नस्ल वाले देशों और नाटो के सहयोगी ब्रिटेन को भी इस तरह अपना सहयोगी नहीं बताया है। हम उस समय ख़ुशी से झूम उठे थे,जब हमें बताया गया था कि उनकी तरफ़ से "भारत में एमडीपी नामित किया जाना एक अनूठी बात है।" हमने उस अति उत्साह में अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठे थे।

भारत और अमेरिकी के विशेषज्ञ समूह इस एमडीपी की घोषणा को लेकर अपने हिसाब से सर्वाधिक अनुकूल बनाने के नज़रिये से भारतीय नीति निर्माताओं के विचार के लिए संयुक्त रूप से "कार्रवाई योग्य सिफ़ारिशों" को रेखांकित करने में तत्परता के साथ जुट गये। हमने दीवार पर लिखी उस इबारत को नज़रअंदाज़ कर दिया कि एमडीपी वास्तव में अमेरिकी हथियार विक्रेताओं के वाणिज्यिक हितों को बढ़ावा देने वाली एक मज़बूत व्यापार रणनीति है।

अमेरिका ने अपने नाटो सहयोगियों को अमेरिकी हथियार निर्यात के लिए एक अपने अनूकूल बाज़ार बनाने के को लेकर बहुत हद तक यही तरीक़ा अपनाया हुआ है। उन्होंने शीत युद्ध के दौर में नाटो सिद्धांत को इसलिए गढ़ा था ताकि पूर्व सोवियत संघ को अपना शाश्वत "दुश्मन" बता सके, तो आज यही बात विश्व पटल पर उभर आयीं दो शक्तियों- रूस और चीन को लेकर सच है।

इसलिए, वे हमारे कानों में इस बात को लगातार डालते रहते हैं कि चीन भारत का शाश्वत दुश्मन है। सोवियत रूस की दुश्मनी से निपटने के लिए अमेरिका और उसके नाटो साझेदारों ने सदस्य देशों की आम रक्षा रणनीति के प्रमुख सिद्धांत के रूप में पश्चिमी गठबंधन के सशस्त्र बलों की पारस्परिकता को सुनिश्चित किया था।

इसके नतीजे क्या हुए थे, उसे आसानी से देखा जा सकता है। अमेरिका ने नाटो देशों की ज़रूरतों के हथियार की आपूर्ति थोक में की थी। इतना ही नहीं, अगर किसी सदस्य देश ने किसी विशिष्ट स्थिति में भी अपनी हथियार ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किसी तीसरे देश की ओर रुख करने का विकल्प चुनने पर अमेरिका उसकी मदद से अपने हाथ खींच लेगा।

वाशिंगटन ऐसे बेवफ़ाई करने वाले साझेदारों पर प्रतिबंध लगाने की धमकी देता है, जैसा कि वह आजकल उस तुर्की के साथ कर रहा है, जो कि सबसे ज़्यादा सेना वाले अमेरिका के बाद नाटो सहयोगियों के बीच दूसरी सबसे बड़ी सेना वाला देश है, और इसकी भौगोलिक और शीतयुद्ध के बाद इसके आसपास के क्षेत्रों की बनी भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए इसे विशिष्ट रक्षा की ज़रूरत है। 

ऐसे में नागरिक और सेना के भारतीय नौकरशाह से जुड़े प्रतिष्ठानों को किसी भी तरह के भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि अगर भारत के पास कोई और चारा नहीं हो और नई दिल्ली को कभी अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी सामरिक स्वायत्तता का इस्तेमाल करने को लेकर ऐसा फ़ैसला कभी करना करना पड़े, जो अमेरिका की क्षेत्रीय और वैश्विक रणनीतियों के अनुरूप नहीं है, तो जो आज तुर्की की दुर्दशा है,वह कल भारत की भी हो सकती है।

सच्चाई तो यही है कि अमेरिका सज़ा देने की ऐसी मन:स्थित में होता है। इसकी मिसाल आज तुर्की के साथ उसके व्यवहार में देखा जा सकता है। अमेरिका आज उन कुर्द अलगाववादी-आतंकवादी समूहों को प्रशिक्षित, सशस्त्रीकरण और उसका वित्तपोषण करने में लगा हुआ है, जो तुर्की में उसी तरह के हिंसक और तोड़-फोड़ के काम को अंजाम दे रहा है, जिस तरह का काम आज की परिस्थितियों में जम्मू और कश्मीर में हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन और लश्कर-ए-तोयबा मिलकर कर रहे हैं।

एक जटिल कहानी को अगर सरल तरीक़े से बताया जाय,तो एक तरफ़ अमेरिका के पास एश्टन कार्टर जैसे शानदार दिमाग़ वाले ऑक्सफोर्ड प्रशिक्षित भौतिक वैज्ञानिक है, जिसकी पूरी जवानी अमेरिकी रक्षा के गलियारों में बीती और दूसरी तरफ़ उसने पारस्परिकता के उस सिद्धांत को हमें बेचा, जो आज भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान का मूलमंत्र बन गया है। कार्टर इस तरह के रूचिककर काम को आसानी से अंजाम दे सकता था, लेकिन हमारे पास उसकी बुद्धि या विशाल अनुभव से मेल खाने वाला ऐसा एक भी शख़्स नहीं था, जिसके करियर ग्राफ़ 1993 से पूरी तरह रणनीतिक मामलों के लिए समर्पित रहा हो।

बहरहाल, अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उसकी बेमिसाल सेवा के लिए कार्टर को पांच बार पेंटागन के विशिष्ट लोक सेवा पदक से सम्मानित किया  जा चुका है। (इसके अलावा, वह सीजेसीएस ज्वाइंट विशिष्ट नागरिक सेवा पुरस्कार और खुफिया सेवा में अपने योगदान के लिए डिफ़ेंस इंटेलिजेंस मेडल भी प्राप्त कर चुका है।) इस बात में शक है कि भारत अगले पच्चीस सालों में उसकी क्षमता के बराबर किसी क्षमता वाले शख्स का पैदा भी कर सकता है या नहीं।

अब सवाल उठता है कि अमेरिका ने उसे भारत के सिलसिले में काम करने में क्यों लगाया? दोनों सैनिकों के बीच की पारस्परिकता की गहनता और उसका विस्तार अमेरिका के लिए इस तरह की सर्वोच्च प्राथमिकता में क्यों होना चाहिए? आख़िर इस तरह की जल्दीबाज़ी क्यों? ऐसा सिर्फ़ इसलिए कि उसे क्षितिज पर लगातार आगे बढ़ते चीन नामक उस प्रतिद्वंद्वी को रोकना है, जो अमेरिका की सदियों पुराने वैश्विक आधिपत्य को चुनौती देने की राह का ख़तरा बनता जा रहा है। अमेरिका का यह क़दम अपनी "हिंद-प्रशांत" रणनीतियों की मौजूदा ज़रूरतों को पूरा करने को लेकर एक रक्षा भागीदार के रूप में भारत पर दांव लगाये जाने की अहमियत को रेखांकित करता है।

अगर जनरल रावत की मानें तो भारतीय मानसिकता की ग़ुलामी आज भी इस क़दर है कि राजनैतिक आकाओं को विदेशों से अवास्तविक हथियार के अधिग्रहण की अनुमति को लेकर भारतीय सेना "हमारी परिचालन ज़रूरतों को ग़लत तरीक़े से पेश कर रही है", जो देश की वास्तविक रक्षा ज़रूरतों के लिए न तो प्रासंगिक है और न ही सही है।

शर्मनाक त्रासदी तो यह है कि अमेरिकियों ने हमें सस्ते में ख़रीद लिया है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत के कुलीन वर्गों में आज शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसके बेटे या बेटी या दामाद या भतीजा न हो, जो अमेरिका में बस नहीं गया हो।

इसलिए मेरे मन में मंगलवार की रात पीएम का राष्ट्र के नाम उस सम्बोधन का वास्तविक महत्व है, जो उनके संकल्प में दिखा है। इस संकल्प में किसी पुराने वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई ही नहीं है, बल्कि भारतीय दिमाग़ की आज़ादी को लेकर मौजूदा संकट को अवसर की किसी खिड़की में बदल देने और आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों पर आधारित भारत की राष्ट्रीय रणनीति के अनुकूल बनाने और उसे शुरू करने की कोशिश भी है। लेकिन, जब रक्षा क्षेत्र की बात आती है, तो विवेक की मांग यही होती है कि जैसा सोचा गया हो, नतीजा भी वैसा ही हो। इतना तो निश्चित है कि उन भारतीय नागरिक और सैन्य नौकरशाही और दूसरे मज़बूत हित समूहों की ओर से संस्थागत विरोध होगा, जिन पर राजनीतिक नेतृत्व को लेकर टकराहट की जंग छेड़ने का भरोसा किया जा सकता है।

"मेक इन इंडिया" की चमक फ़ीकी पड़ चुकी है और देश के लिए एक स्वदेशी रक्षा उद्योग विकसित करने की राह तो कुछ-कुछ वैसी ही है, जिस तरह कि उस ईरान जैसा बहुत छोटा सा देश भी इतनी तेज़ी के साथ कामयाबी हासिल कर सकता है, जिसकी राह में बहुत सारी बाधायें थीं और यह सब उसने ख़ामोशी के साथ किया है। लेकिन, प्रधानमंत्री के ऐलान की अहम वजह यह है कि प्रधानमंत्री को किसी भी समय एक साथ दर्जनों गेंदें हवा में उछाल देनी होती है। संक्षेप में अगर कहा जाय, तो प्रधानमंत्री की मज़बूत इच्छाशक्ति रखने वाली छवि के बावजूद, उनका अपनी घोषणाओं पर ध्यान बहुत सीमित समय तक रहता है, जबकि इसका लगातार आगे ख़्याल रखना हमेशा ही सत्ता के पेचीदे गलियारों में शासनकला का सबसे अहम हिस्सा होता है।

इस पृष्ठभूमि में भारत के पहले चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ के रूप में जनरल बिपिन रावत की नियुक्ति एक नया मायने अख़्तियार करता है।

सौजन्य: इंडियन पंचलाइन

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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