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घोसी की जंगः नेताओं के शोर में किसानों, बुनकरों और बेरोज़गार युवाओं के मुद्दे ग़ायब?

घोसी उपचुनाव इस वक़्त नेताओं के लिए साख की लड़ाई बन चुका है। लोगों के बीच बेरोज़गारी, खेती-किसानी, बिनकारी और दलबदल जैसे मुद्दे ख़ासा चर्चा में हैं। चुनाव को लेकर हमने आम राय जानने की कोशिश की। पढ़ें हमारी ग्राउंड रिपोर्ट।
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उत्तर प्रदेश के मऊ में घोसी इलाके के किसानों का जो दर्द पांच दशक पहले था, वही आज भी है। लोगों का कहना है कि सिर्फ चुनाव के समय ही इनका हाल-चाल लेने नेता आते हैं या फिर आम से लकदक बगीचों में फल खाने। लोगों के मुताबिक़ सालों से बंद पड़ी काटन मिल, भारी घाटे से हांफ रही चीनी मिल, बेरोज़गारी के चलते युवाओं का पलायन, गन्ना किसानों की बदहाली और अन्नदाता की आमदनी दोगुना करने का सवाल उठता है तो सत्तारूढ़ दल के नेताओं और उनके नुमाइंदों की बोलती बंद हो जाती है।

गन्ने और केले की खेती के लिए विख्यात घोसी इलाके में आजकल हर गली और हर नुक्कड़ पर सिर्फ विधानसभा उप-चुनाव की चर्चा है। चर्चा इस बात की भी है कि घोसी के मैदान में ताल ठोकने वाले पूर्व मंत्री दारा सिंह चौहान कितनी मर्तबा दल-बदल चुके हैं? करीब 15 महीने पहले चौहान समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचे थे। घोसी इलाके में धान, गन्ना और केले की फसलें लहलहा रही हैं। आम का सीज़न बीत चुका है। किसान खाली हैं, इसलिए वो भी इस चुनाव में खासी दिलचस्पी ले रहे हैं। इनका जज़्बा ऐसा है कि बस पूछिए मत...! सिर्फ चुनाव के समय ही नहीं, हर वक़्त वो अपनी राय को बेहद ख़ूबसूरती से बयां करते हैं। खेतों और बाग-बगीचों में काम करने वाले किसानों से बात करेंगे तो आप इनके क़ायल हो जाएंगे।

उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार ने क्या किसानों और बागबानों की आदमनी दोगुनी कर दी? घोसी चीनी मिल को गन्ने की आपूर्ति करने वाले किसानों को क्या पहले की तरह खाद-बीज और अन्य सुविधाएं मिल रही हैं? मोदी-योगी सरकार ने इनके लिए क्या किया और क्या कर सकते थे? हमने इन सब सवालों का जवाब इलाके के किसानों से जानने की कोशिश की।

घोसी इलाके के अलीनगर गांव के प्रगतिशील किसान देवेंद्र प्रसाद मिश्र कोल्ड स्टोरेज के मालिक हैं। वह आमतौर पर अपने आम-कटहल के बगीचे और सब्जियों के खेतों में सिंचाई, निराई-गुड़ाई करते दिखते हैं तो कभी परेशान हाल वंचित तबके के लोगों की मुश्किलों का निराकरण करते। वह कहते हैं, "घोसी इलाके के किसानों को इस बात से ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता कि सरकार किसकी है? जिसकी भी होगी वो हमें याद ज़रूर करेगा। देश में महामारी फैली और समूचा देश संकट में फंसा तो सिर्फ किसानों ने ही देश को संबल दिया। संकट के उस दौर में हमारे बगीचों में नीबू और सब्जियों के लिए लाइन लग गई थी। सीज़न गन्ने का हो, आम का हो अथवा आंवला, बेल और कटहल का। हमारे बगीचों में पेड़ों पर जैसे ही आम और कटहल के फल लटकते हैं तो नेताओं का जमघट लगना शुरू हो जाता है। अफ़सोस इस बात का है कि बाग-बगीचों के अलावा हमारे बारे में दूसरा कोई ख़्याल नेताओं और अफसरों के दिमाग में आता ही नहीं है।"

"प्रचार-पाखंड में किसान उपेक्षित"

71 वर्षीय देवेंद्र मिश्र सिर्फ बागबानी ही नहीं करते। वो अपने खेतों में बैंगन, सूरन, मिर्च, टमाटर, चना, मसूर, धान, गेहूं भी उगाते हैं। इनका कुनबा सालों से खेती-किसानी कर रहा है। देवेंद्र के मुताबिक़ इनके पिता स्व.महेंद्र मिश्र आज़ादी के आंदोलन के समय साल 1921, 1931 और 1942 में जेल भी गए थे। घोसी उप-चुनाव पर चर्चा चली तो उन्होंने लंबी सांस छोड़ी और कहा - 'यह चुनाव बाहरी बनाम लोकल' का है।

देवेंद्र कहते हैं, "हम उन दलबदलुओं के बारे में क्या कहें, जिनका कोई धर्म-ईमान और सिद्धांत-उसूल नहीं है। घोसी की सियासी पगडंडियों पर पाखंडियों का जमघट लगा है। जाति-धर्म के नाम पर जनता को गुमराह किया जा रहा है। घोसी की धरती ठाकुर दयाल मिश्र, अलगू राय शास्त्री, जयबहादुर सिंह, रामविलास पांडेय, झारखंडेय राय, कल्पनाथ राय, बाबू उमराव सिंह की रही है। इस इलाके की पहचान अब दलबदलुओं, माफियाओं और बलात्कारियों की मुट्ठी में कैद होकर रह गई है। यह चुनाव समाजिक न्याय की नहीं, जनता के साथ छल और धोखे के ख़िलाफ़ लड़ाई है। जिन लोगों ने वोटरों को खिलौना समझ रखा है वो इस चुनाव में अपने साथ हुई नाइंसाफी और फरेब का हिसाब ज़रूर लेंगे। घोसी सीट के लिए हो रहे उप-चुनाव में बीजेपी को तगड़ी टक्कर मिल रही है, क्योंकि दारा सिंह के मुकाबले सपा के सुधाकर सिंह स्थानीय उम्मीदवार हैं।"

कोपागंज के 62 साल के जनार्दन राय घोसी इलाके के बड़े किसान हैं। सिर्फ धान-गेहूं ही नहीं, गन्ने की खेती भी करते हैं। वो सुबह से शाम तक खेतों में लगे रहते हैं, लेकिन मायूसी है कि इनका पीछा ही नहीं छोड़ रही। वह कहते हैं, "अखबारों में पढ़ता चला आ रहा हूं कि किसानों की आमदनी दोगुनी होने वाली है, लेकिन कब होगी, इसका हमें सालों से इंतज़ार है? हम किसानों की ज़िंदगी में गन्ने की मिठास का तमगा सा लग गया है। सभी को लगता है कि घोसी इलाके के अन्नदाता अच्छा खाते और पीते हैं। फिर उनके बारे में बात क्यों करना? साल 2022 में विधानसभा चुनाव हुआ तब भी किसानों को हितों की चर्चा नहीं हुई। कुछ ही महीने बाद फिर उप-चुनाव होने जा रहा है, तब भी हमारे हितों की बात कोई नहीं कर रहा है। मीडिया का ध्यान खींचने के लिए सत्तारूढ़ दल के नेता खेतों में किसानों के साथ तस्वीरें खिंचवा रहे हैं। सूबे के जलशक्ति मंत्री स्वतंत्र देव सिंह से कोई यह पूछने वाला नहीं है कि क्या किसानों की आदमनी दोगुनी हो गई? "

"घोसी के किसान फिलहाल तमाशा ही देख रहे हैं। सत्ता अपनी हनक दिखा रही है। बीजेपी ने अन्नदाता को चारा समझ लिया है। इस चुनाव में सत्तारूढ़ दल की प्रतिष्ठा दांव पर है, लेकिन असल मुद्दे गुम हो गए हैं। खासतौर पर किसानों की आमदनी दोगुना करने का मुद्दा इस चुनाव में गायब है। यह वो मुद्दा है जिसके बारे में पीएम नरेंद्र मोदी ने कुछ बरस पहले दावा किया था कि दो साल के अंदर अन्नदाता की आय दोगुनी हो जाएगी। जुमले उछालने वाले इस बात का जवाब क्यों नहीं दे रहे हैं कि किसान फटेहाल क्यों है और उनकी आमदनी बढ़ने के बजाय घटती क्यों जा रही है?"

"घोसी का दर्द न जाने कोय"

घोसी में घंटों गुजारने के बाद हमें इस बात का अहसास हुआ कि इस इलाके में नेताओं का जमघट तभी लगता है जब आम के बगीचों में फल लगता है अथवा चुनाव का सीज़न आता है। इस इलाके के किसान अपनी सालों पुरानी दिनचर्या को नहीं भूले हैं। वो सुबह फावड़ा-कुदाल लेकर खेतों में उतर जाते हैं। शाम के समय घोसी बाज़ार में चाय-पान की दुकानों पर बड़े-बूढ़ों का झुंड नज़र आने लगता है। अच्छी बारिश नहीं होने के कारण किसानों की धान और गन्ने की फसलें सूख रही हैं। वो फसलें जिनसे इलाके के किसान बड़ी उम्मीद लगाए बैठे हैं।

कोपागंज प्रखंड के सहजोर गांव के भगीरथ राय, दिनेश राय और रमेश चंद्र राय से मुलाकात हुई तो वो कहने लगे, "घोसी इलाके के किसान इस बात से परेशान हैं कि अगर बारिश नहीं हुई तब उनका हाल क्या होगा? उनकी धान की फसल खलिहान में और गन्ना घोसी चीन मिल में पहुंच पाएगा अथवा खेत में ही सूख जाएगा? सरकार को ऐसे कदम उठाने चाहिए ताकि सूखे की नौबत आने पर उन्हें मुआवज़ा पहले ही दे दिया जाए। सरकार जिस तरह से गन्‍ने और गेहूं का मूल्‍य तय करती है, उसी तरह फल और सब्जियों दाम तय होना चाहिए।"

घोसी बाज़ार में हमारी मुलाकात मानिकपुर असना गांव के आरिफ अहमद और गुफरान अहमद से हुई। दोनों ही इलाके के बड़े किसान हैं। वे कहते हैं, "घोसी इलाके में किसान सरकार की उपेक्षा की मार झेल रहा है तो बुनकर उसकी दोषपूर्ण नीतियों के चलते बेहाल हैं। भारी-भरकम बिजली बिलों के चलते बुनकरों के सपने टूट रहे हैं और उनके बच्चों की पढ़ाई छूट रही है। पॉवरलूम के लिए अवाध बिजली नहीं मिलती। बिजली के आने-जाने का समय तय नहीं होता। अगर रात में भी आती है तो पूरे परिवार को उठकर काम पर लगना पड़ता है। कताई मिल और स्वदेशी कॉटन मिल के चलते बहुत से लोगों को रोज़गार मिला था, लेकिन उनके बंद होते ही अनगिनत लोगों के सपने टूट गए। हज़ारों बुनकर बेरोज़गार हो गए। ऐसा नहीं है कि घोसी इलाके में बनारसी साड़ियों की बुनाई के धंधे में मुस्लिम ही लगे हैं। नोटबंदी के बाद जीएसटी की मार पड़ी तो इस पेशे में सिर्फ वही लोग बच पाए जिनकी पीढ़ियां सालों से बिनकारी करती रही हैं। आज बुनकरी करने वाले हज़ारों फनकार सब्जियां बेच रहे हैं, ऑटो चला रहे हैं और ईंट-गारे का काम कर रहे हैं।"

"घोसी में बुनकर-किसान अनाथ"

कारोबार के सिलसिले में घोसी आए मऊ के साड़ी कारोबारी अरशद से मुलाकात हुई तो उन्होंने मुश्किलों की फेहरिश्त गिना डाली। कहा, "ऑनलाइन कारोबार ने घोसी समेत समूचे मऊ जिले में साड़ियों के कारोबार का दिवाला पीट दिया है। ये जो नेताओं की गाड़ियां घोसी में शोर मचा रही हैं, चंद रोज बाद वो कभी नहीं दिखेंगी। वादों का फूल खिलाने वाले जाएंगे तो कभी लौटेंगे भी नहीं। मऊ की साड़ी मंडी में हम पहले हर महीने चार हज़ार साड़ियां ले जाते थे। अब एक हज़ार साड़ियों की भी खपत नहीं रह गई है। मऊ जिले में पहले 50 हज़ार से अधिक करघे थे और अब पांच-छह हज़ार ही रह गए हैं। हमारी ज़िंदगी साड़ियों के ताने बाने में उलझकर रह गई है।"

अरशद कहते हैं, "हम इसलिए साड़ी कारोबार से अब तक जुड़े हैं क्योंकि यही हमारी ज़िंदगी की उम्मीद हैं। बस किसी तरह पेट भरने और ज़िंदा रहने का ज़रिया। नेताओं को क्या मालूम कि पावरलूम पर खड़े-खड़े हज़ारों बुनकरों के पैर सूज जाते हैं और नसें सुन्न पड़ जाती हैं। ये साड़ियां बहुतों को असमय बूढ़ा कर देती हैं। हम बस यही चाहते हैं कि हमारा कारोबार सलामत रहे। लेकिन चाहने से क्या होता है। भारी-भरकम बिजली के बिल ने बुनकरों को बड़ा कर्जदार बना दिया है। हमारी कई पीढ़ियां गुजर गईं, लेकिन बिनकारी का काम कभी बंद नहीं हुआ। अब साड़ी कारोबार बेजार हो गया, जिससे हमारे धंधे की सांसें अब उखड़ने लगी हैं। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि देश-विदेश से सीधे मिलने वाले आर्डर भी बंद हो गए हैं।"

घोसी इलाके के बुनकरों और साड़ी कारोबारियों से बात करने पर उनके दर्द का एहसास होता है। यकीन के तौर पर यह कहा जा सकता है कि रेशमी धागा और अन्य रॉ-मैटेरियल के दाम में भारी बढ़ोतरी ने घोसी और मऊ के साड़ी कारोबार को झकझोर कर रख दिया है। नायलॉन का धागा अचानक महंगा हो गया है। साड़ियां तैयार हो रही हैं, पर उनके दाम बहुत ज़्यादा गिर गए हैं। घोसी इलाके में सिल्क, कॉटन, बूटीदार, जंगला, जामदानी, जामावार, कटवर्क, सिफान, तनछुई, कोरांगजा, मसलिन, नीलांबरी, पीतांबरी, श्वेतांबरी और रक्तांबरी आदि साड़ियां बनाई जाती हैं जिनका श्रीलंका, स्वीटज़रलैंड, कनाडा, मॉरिशस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, नेपाल समेत कई देशों में निर्यात होता रहा है। कोटा, मूंगा, टिसू, सिंथेटिक धागे से बनी जो साड़ियां बनारस और कोलकाता में 200 से 500 रुपये में आसानी से बिक जाया करती थीं, अब इन्हें कोई पूछने वाला ही नहीं है।

एक वो भी वक़्त था जब मऊ के फनकारों के हाथों से बनी साड़ियां सिर्फ फैशन नहीं, परंपरा थीं। ऐसी परंपरा, जिसकी रस्म दुनिया भर में निभाई जाती रही है। शादी कहीं भी हो, दांपत्य का रिश्ता मऊ की रेशमी साड़ियों से ही गढ़ा होता था। जिन घरों में ये रिश्ते बुने जाते हैं उसकी रवायत रफ्ता-रफ्ता धीमी पड़ गई है। वही साड़ियां जो गद्दीदारों के ज़रिए बनारस, दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद जैसे शहरों में बिकने के लिए चली जाती हैं। बुनकरों का कहना है कि बड़े शहरों से होते हुए उनका हुनर विदेशों में भी पहुंच जाता है। बुनकरों के हितों के लिए काम करने वाले मुमताज अहमद कहते हैं, "घोसी इलाके में उन फनकारों की तादाद बहुत अधिक है जो रेशमी साड़ियों पर रिश्तों का रंग उकेरा करते थे। बुनकरों की ज़िंदगी का रंग तो बदरंग हुआ ही है, अब तो दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाना भी कठिन हो गया है। महामारी के दौर में जिन बुनकरों ने साड़ियों का ताना-बाना लपेट दिया था, वो तो खुल ही नहीं पाए।"

"हूटर के शोर में दब गए मुद्दे"

मऊ कस्बे में हाइवे के किनारे एक पेड़ के नीचे कांग्रेस के नेताओं को जमघट लगा था। पूर्व सांसद बालकृष्ण चौहान से मुलाकात हुई तो वो डबल इंजन सरकार की खामियों को गिनाने लगे। कहा, "स्वदेशी कॉटन मिल और कताई मिल बंद होने के बाद यहां का मशहूर साड़ी कारोबार अब तक के सबसे बुरे दौर में है। दल-बदलकर वोट मांगने निकले दारा सिंह चौहान पहले यह बताएं कि घोसी में जिस स्वदेशी कॉटन मिल और कताई मिल यूपी स्टेट यार्न लिमिटेड को कांग्रेस ने खोला था, क्या वो उन्हें चालू कराएंगे? घोसी चीनी मिल क्यों करोड़ों के घाटे में है? वह मिल जो कभी गन्ना किसानों की आय का सबसे बड़ा ज़रिया हुआ करती थी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कल्पनाथ राय एशिया का सबसे बड़ा सोलर पावर प्लांट लेकर आए थे। वह प्लांट सराय सादी में लगा था, जिससे 10 से 15 गांवों को बिजली मिलती थी। घोसी इलाके के युवाओं के हाथों को काम देने वाले कल-कारखानों को चालू करने के बीजेपी नेताओं के दावे और वादे आखिर क्यों झूठ साबित हो रहे हैं। घोसी इलाके की जनता इस उप-चुनाव में सिर्फ दारा सिंह चौहान से ही नहीं, बीजेपी मंत्रियों-नेताओं से भी जवाब मांग रही है। बर्बाद होते किसानों और बुनकरों की टूटती उम्मीदों पर दल-बदलुओं की सियासत क्यों चमकाई जा रही है?"

घोसी में 'न्यूज़क्लिक' से बातचीत में ओमप्रकाश ठाकुर, मूलचंद चौहान, मुकेश राजभर, इंतखाब आलम, महेंद्र राजभर, विनोद कुमार अपने 'दर्द' का इज़हार करते हुए कहते हैं, "जब आचार संहिता लागू है तो सूबे के मंत्री और नेता सरकारी गाड़ियों से क्यों घूम रहे हैं? घोसी का चुनाव समूचा यूपी देख रहा है। लोग यह भी जान गए हैं कि बीजेपी के दारा सिंह चौहान सियासी मुनाफे के लिए कपड़ों से ज़्यादा दल बदलते रहे हैं। वो कभी भी किसी को छोड़ सकते हैं और किसी दल से दिल जोड़ सकते हैं। पिछले साल हलधरपुर में हुई सभा के मुकाबले, 28 अगस्त 2023 को सुभासपा के ओपी राजभर का शक्ति प्रदर्शन फ्लॉप रहा। उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सभा में सिर्फ मऊ से ही नहीं, आजमगढ़, देवरिया, कौशांबी, गोरखपुर, गाजीपुर, जौनपुर से लगायात बनारस तक के सुभासपा, निषाद पार्टी व बीजेपी कार्यकर्ताओं को बसों से जुटाया गया, फिर भी कुर्सियां खाली रहीं।"

शुगर वर्कर्स फेडरेशन आफ इंडिया (सीटू) के राज्य महासचिव शिवाकांत मिश्र बीजेपी सरकार की गन्ना नीति की आलोचना करते हैं। वो कहते हैं, "घोसी चीनी मिल 500 करोड़ के घाटे तले दबी है। गन्ना किसानों को प्रोत्साहन स्वरूप मिलने वाली खाद आपूर्ति रोक दी गई है। गांवों की वो सड़कें टूट-फूट गई हैं, जिन्हें सालों पहले चीनी मिल प्रबंधन ने बनवाया था। कर्मचारी वेलफेयर फंड की लूट-खसोट जारी है। सरकार ने कर्मचारियों का प्रमोशन तक बंद कर दिया है। देश के संसाधनों व सार्वजनिक उपक्रम-रेल, स्टेशन, हवाई अड्डा, बंदरगाह, फोन, बीमा, बैंक, प्रतिरक्षा-सामग्री निर्माण कंपनियों को कॉरपोरेट घरानों के हवाले किया जा रहा है। कितनी खामिया गिनाएं। ये चुनाव लड़ने वाले क्या किसानों और बुनकरों की पहाड़ सरीखी मुश्किलें दूर कर पाएंगे?"

शिवाकांत कहते हैं, "उस सरकार से तो बिल्कुल उम्मीद नहीं की जा सकती जो देश की संवैधानिक संस्थाओं का खुलेआम दुरुपयोग कर रही है। वोट बटोरने के लिए यूपी भर से जुटे मंत्री जनता के सवालों का जवाब आखिर क्यों नहीं दे रहे है कि बीजेपी सरकार में याराना कंपनियों की संपदा बेहिसाब कैसे बढ़ती जा रही है? भुखमरी, महंगाई, बेरोज़गारी के चलते किसानों, बुनकरों, मजदूरों, कारीगरों और आदिवासियों का क्यों बुरा हाल है। कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए धोखे से कानून क्यों बनाए जा रहे हैं? शिक्षा, और स्वास्थ्य पर कुलीन वर्ग का आधिपत्य क्यों होता जा रहा है?"   

घोसी का रण, क्यों है अहम

घोसी उप-चुनाव में कांग्रेस और रालोद के अलावा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-माले (भाकपा माले) ने ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी सुधाकर सिंह के समर्थन के लिए बयान जारी किया है। भाकपा (माले) के राज्य सचिव सुधाकर यादव ने कहा है, "2024 के आम चुनाव से पहले हो रहे इस विधानसभा उपचुनाव में ‘इंडिया’ और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) आमने-सामने होंगे और इसमें राजग को शिकस्त देना ज़रूरी है। संविधान, लोकतंत्र और देश को बचाने और प्रदेश को बुलडोज़र राज से निजात दिलाने के लिए भाजपा को हराना ज़रूरी है।"

सपा के पक्ष में कांग्रेस के समर्थन का पत्र

माकपा के सचिव हीरालाल यादव द्वारा जारी बयान में कहा गया है, "उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराना, प्रदेश की जनता, लोकतंत्र और संविधान के हित में है।"

घोसी विधानसभा उप-चुनाव के लिए मतदान पांच सितंबर को होगा, जबकि वोटों की गिनती आठ सितंबर को की जाएगी। घोसी इलाके में दलितों की आबादी हार-जीत का फैसला करती रही है। बीएसपी का गढ़ मानी जाने वाली इस सीट पर प्रत्याशी नहीं उतारे जाने से दलित समुदाय के लोग हताश और निराश हैं। टेड़ियांव गांव के सोमनाथ कहते हैं, "बहनजी की पार्टी को बहुत बार वोट दिया। इस मर्तबा बसपा का कोई प्रत्याशी मैदान में उतरा ही नहीं। ऐसा लगता है कि बहनजी अब दलितों और अति पिछड़े से पीछा छुड़ाने लगी हैं जिनके सहारे वह बहुजन समाज की शीर्ष नेता और यूपी की चार बार मुख्यमंत्री बनीं। मुस्लिम समुदाय तो बसपा से बहुत पहले ही दूर हो चुका है। बसपा ने दलित और अति पिछड़ी जातियों का जो वोट बैक कांग्रेस से छीना था, उसका बहुत बड़ा हिस्सा अब भाजपा ने झटक लिया है। बसपा के मैदान में नहीं होने की वजह से दलित समुदाय का झुकाव अब बीजेपी की तरफ है। शायद बसपा मुखिया मायावती भी ऐसा ही चाहती हैं।"

लोकसभा चुनाव से पहले घोसी का रण इसलिए भी अहम माना जा रहा है ताकि बीजेपी ओबीसी वोट बैंक का बिखराव रोक सके। सत्तारूढ़ दल के नेता घोसी इलाके में दिन-रात फर्राटे भर हैं। यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि अगर भाजपा जीती तो संदेश साफ जाएगा कि एनडीए की स्थिति और समीकरण दोनों मजबूत हैं। भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद को चुनावी मैदान में उतारने का मतलब यह है कि एनडीए अपनी पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ रही है। भाजपा की रणनीति वोट बैंक को एक पाले में लाकर विनिंग कांबिनेशन तैयार करने की है।

घोसी में बीजेपी के चुनाव प्रभारी गणेश सिंह न्यूज़क्लिक से कहते हैं, "दारा अब वो दारा नहीं है। बहुत बदल गए हैं। उनका सपा से उसी समय मोहभंग हो गया था जब वो चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। सपा जाति-विशेष की पार्टी है। दूसरी जातियों के लोगों का वहां तनिक भी आदर नहीं है। समीकरण दारा सिंह के पक्ष में है और वो भारी मतों से चुनाव जीतेंगे।"

दूसरी ओर, अगर बीजेपी के दारा सिंह चौहान की हार होती है तो यह विपक्षी गठबंधन इंडिया के लिए टॉनिक का काम करेगा। ऐसे में अखिलेश यादव बीजेपी सरकार पर और ज़्यादा हमलावर हो सकते हैं। चौहान के सामने पूर्व विधायक सुधाकर सिंह को उतारकर सपा ने एक बड़ा गेम प्लान तैयार किया है। सपा भी ओबीसी वोट बैंक को साधने की कोशिश कर रही है। घोसी विधानसभा उप चुनाव में अखिलेश के उनके पीडीए समीकरण का भी इम्तिहान होने जा रहा है। अखिलेश की कोर टीम में शामिल उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव अपनी राजनीतिक ज़मीन और रसूख का प्रदर्शन करने के लिए घोसी इलाके में घर-घर प्रचार कर रहे हैं। पहली मर्तबा चुनाव जीतने के लिए प्रो. रामगोपाल यादव भी मैदान में उतरे हैं। सपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी घोसी सीट को बचाने की है।

घोसी में साल 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से दारा सिंह चौहान ने बीजेपी के विजय कुमार राजभर को 22 हज़ार 216 मतों के अंतर से हराया था। सपा के चौहान को कुल 1,08,430 वोट और बीजेपी के राजभर को 86,214 वोट मिले थे। तीसरे स्थान पर बीएसपी के वसीम इकबाल थे। घोसी सीट के अस्तित्व में आने के बाद यहां लगातार किसी दल विशेष का कब्जा कभी नहीं रहा है। यहां के वोटर हर पांच बरस बाद विधायक बदलते रहे और पार्टी भी। साल 1977 में इस सीट पर जनता पार्टी के विक्रम राय का कब्जा रहा तो साल 1980 में कांग्रेस के केदार सिंह का। साल 1985 में लोकदल, 1989 में कांग्रेस, 1991 में जनता दल, 1993 में बसपा, 1996 और 2002 में बीजेपी, 2007 में बसपा, 2012 में सपा, 2019 में बीजेपी और 2022 में सपा का कब्जा रहा।

तेज़ हुआ चुनावी घमासान

सपा प्रचार कर रही है कि घोसी में विकास एक सपना है। 15 महीने पहले जनता ने जिसे जिताया और ताकत दी, लेकिन बदले में क्या मिला-सिर्फ धोखा और एक बार फिर दल-बदल। दूसरी ओर, बीजेपी के चौहान जनता से एक और मौका मांग रहे हैं। दोनों प्रत्याशियों की इज्जत दांव पर है। चाहे जो भी जीते, अपने-अपने दल के शिखर नेतृत्व के लिए यह चुनाव नाक का सवाल बन गया है। खतरे के बादल मंडरा रहे हैं।

मऊ के वरिष्ठ पत्रकार प्रवीन राय कहते हैं, "घोसी उप-चुनाव कई मायने में अनूठा है। यहां अपने ही अपनों पर वार कर रहे हैं। सुभासपा मुखिया ओपी राजभर के सगे रिश्तेदार महेंद्र राजभर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले हुए हैं। दोनों एक-दूसरे पर निजी हमले भी कर रहे हैं। कुछ रोज़ पहले ही राजभर ने यादव समुदाय पर एक विवादित टिप्पणी करके उन्हें ख़ासा नाराज़ कर दिया था।"

घोसी की चुनावी जनसभा में उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने सपा को 'समाप्तवादी पार्टी' बताया और कहा कि अखिलेश यादव के अंदर इतना ज़हर है, जितना तो कोबरा सांप भी नहीं उगलता होगा। केशव के तल्ख बयान के जवाब में सपा महासचिव शिवपाल यादव ने कहा, "केशव के पास कोई काम नहीं है। वो शायद भूल गए हैं कि किसने उन्हें स्टूल मंत्री कहा था। राजभर का इतिहास रहा है कि वो जहां जाते हैं, बीजेपी हारती है और सपा जीतती है।"

वहीं ऊर्जा मंत्री एके शर्मा और कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही घोसी इलाके में भूमिहारों के बेल्ट बारह गांवों में घूम-घूमकर वोटरों को समझा रहे हैं, "इंडिया गठबंधन फ्यूज़ बल्ब है। इसके नेता किसी काम के नहीं है।"

पत्रकार प्रवीन कहते हैं, "घोसी में बीजेपी ने जातीय आधार पर नेताओं और मंत्रियों की फौज उतारी है। हर जाति के विधायक उसी टोले में जा रहे हैं जहां उनकी बिरादरी के वोट हैं। लोग उलाहना दे रहे हैं तो बीजेपी नेता झुककर माफी मांग रहे हैं। दारा सिंह को दलबदलू और बाहरी नेता के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। वोटरों में इसका रिएक्शन भी दिख रहा है। दूसरा सच यह है कि सपाई काम कम, शोर ज़्यादा करते नज़र आ रहे हैं। इतना तय है कि हार-जीत की चाबी दलितों के पास है और वही प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला भी करेंगे। गाजीपुर, आजमगढ़, मऊ समेत आसपास के सभी जिलों के होटल नेताओं से भर गए हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भी तमाम नेता और प्रभावशाली लोग यहां आकर डेरा डाले हुए हैं। मऊ जिले में ऐसा दृश्य पहली बार देखने को मिल रहा है।"

"घोसी चुनाव में कुछ तस्वीर तो साफ है और बहुत कुछ साफ होनी बाकी है। ओपी राजभर के जादू का असर पहले जैसा नहीं है। मुसलमान-यादव और चौहान-राजभर वोटर ज़्यादा जागरूक हैं। घोसी में अपना प्रत्याशी नहीं उतारकर बसपा सुप्रीमो मायावती ने बीजेपी की राह आसान बनाने की कोशिश की है। घोर जातीयता के माहौल में भी समाजवादी पार्टी इस बार ज़्यादा आक्रामक है।"

घोसी के जाने-माने साहित्यकार मनोज कुमार सिंह ने कहा, "घोसी इलाका पहले दूसरा केरल माना जाता था। यह वाम दलों का गढ़ था। आज़ादी के बाद इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व जय बहादुर सिंह और झारखंडे राय जैसे दिग्गज वामपंथी नेताओं ने किया था। आज़ादी के बाद वामपंथ का गढ़ कही जाने वाली इस सीट पर लाल रंग फीका पड़ा तो कांग्रेस भी यहां की सियासत में दुर्लभ हो गई। अब बहुत कुछ बदल चुका है। मुद्दे वजूद खो चुके हैं। घोसी में साफ-साफ दिख रहा है कि मुस्लिम, यादव और राजपूत सपा के साथ लामबंद हैं तो चौहान, राजभर, निषाद बीजेपी गठबंधन के साथ हैं। दलित किधर जाएंगे, अभी स्थिति साफ नहीं है। इस बार दारा से बहुत लोग नाराज़ हैं, कोई उनके दल-बदलू चरित्र से तो कोई अपनी उपेक्षा और वादाखिलाफी से। घोसी इलाके के गांवों में जाइए। कोई सड़क ऐसी नहीं मिलेगी जो बदहाली की कहानी न कहती हो।"

साहित्यकार मनोज यह भी कहते हैं, "घोसी में सपा-भाजपा के बीच सीधी लड़ाई है। ग़ौर करने वाली बात यही रह सकती है कि मऊ की घोसी विधानसभा सीट आख़िर किसकी झोली में जाएगी? यहां अगर सपा मुखिया अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव की प्रतिष्ठा दांव पर है तो यह चुनाव ओमप्रकाश राजभर के अलावा ऊर्जा मंत्री एके शर्मा समेत सत्तारूढ़ दल के तमाम दिग्गजों की नाक का सवाल बना हुआ है। किसान, बागबान और बुनकर अभी खामोश हैं। इस बार किसकी होगी जय और किसकी होगी पराजय, इसका फ़ैसला 08 सितंबर 2023 को सबके सामने होगा।"

(बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत की ग्राउंड रिपोर्ट)

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