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विस्फोटक बन रहा है वैश्विक क़र्ज़ संकट

विश्व बैंक की ‘वैश्विक आर्थिक संभावनाएं’ रिपोर्ट महत्वपूर्ण जानकारियां प्रस्तुत करती है। यह रिपोर्ट पहले से ही कई सालों से चहुंमुखी संकटों का सामना कर रही विश्व की मेहनतकश जनता की तकलीफ़ों के और भी अधिक गहन होने की ओर संकेत कर रही है।
Global debt
फ़ोटो साभार: World Bank Blogs

22-23 जून को पेरिस में 32 देशों तथा 27 बहुपक्षीय/निजी संगठनों की एक शिखर बैठक ‘समिट फॉर अ न्यू ग्लोबल फाईनेंसल पैक्ट’ हुई। इसमें स्वीकार किया गया कि आज विश्व में कर्ज के संकट की स्थिति कई दशकों में सर्वाधिक गंभीर है और द्वितीय विश्व युद्ध पश्चात कायम किए ब्रेटन वुड्स वित्तीय ढांचे पर पुनर्विचार तथा पुनर्गठन की आवश्यकता है।

श्रीलंका, घाना, ज़ाम्बिया, पाकिस्तान, नाइजीरिया, मिस्र, अर्जेंटीना जैसे देशों में एक के बाद एक सामने आ रहे वित्तीय व ऋण संकट के मद्देनजर वैश्विक वित्तीय व्यवस्था की कमजोरियां बड़ा खतरा बन गई हैं। ऋण भुगतान में डिफ़ॉल्ट की वजह से श्रीलंका में पिछले वर्ष पैदा हुई स्थिति सर्वविदित है तो पाकिस्तान में 1 जुलाई से चालू आगामी वित्तीय वर्ष के बजट को संसद द्वारा स्वीकृति मिलने के पहले ही बदलकर दोबारा प्रस्तुत करने के लिए सरकार को बाध्य होना पड़ा है।

ऐसे में विश्व बैंक द्वारा 6 जून को जारी ‘वैश्विक आर्थिक संभावनाएं’ रिपोर्ट महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्रस्तुत करती है। यह रिपोर्ट पहले से ही कई सालों से चहुँमुखी संकटों का सामना कर रही विश्व की मेहनतकश जनता की तकलीफों के और भी अधिक गहन होने की ओर संकेत कर रही है।

पिछले सालों में दुनिया ने एक के बाद एक कई संकटों का सामना किया है जिसे आज बहु-संकट या 'पॉलीक्राइसिस' कहा जा रहा है। कोविड, आपूर्ति शृंखला में बाधा, उच्च महँगाई, यूक्रेन में नाटो-रूस युद्ध, ऊंची ब्याज दरें एवं वित्त की बढ़ती अनुपलब्धता, कई देशों में सुस्ती-मंदी, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में संरक्षणवादी बाधाएं, आदि एक के बाद एक आने वाले संकटों व अड़चनों ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में जो परेशानियाँ पैदा की हैं उसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव दुनिया के सबसे कमजोर देशों और सबसे कमजोर आबादी पर ही पड़ा है। इसने आर्थिक वृद्धि, गरीबी उत्थान व बहुत से देशों में राजनीतिक स्थिरता की राह में अत्यंत मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। यह चुनौतियाँ विश्व बैंक की इस रिपोर्ट के जरिए स्पष्टता से सामने आती हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक विकास 2022 में 3.1% से घटकर 2023 में 2.1% होने का अनुमान है। चीन के अलावा अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं में पिछले साल के 4.1% से इस साल विकास दर घटकर 2.9% रहने का अनुमान है। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में विकास 2022 में 2.6% से घटकर इस वर्ष 0.7% रह जाएगी और 2024 में और कमजोर होगी। 2023 में 1.1% बढ़ने के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था 2024 में वृद्धि दर 0.8% तक गिरने की संभावना है। इसका मुख्य कारण पिछले डेढ़ साल में ब्याज दरों में तेज वृद्धि का प्रभाव है। यूरो क्षेत्र में 2022 में 3.5% से 2023 में वृद्धि धीमी होकर 0.4% रहने का अनुमान है। ऐसा मौद्रिक नीति को कड़ा करने और ऊर्जा-कीमत में वृद्धि के पिछड़े प्रभाव के कारण हुआ है।

रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि विश्व व्यापार के विकास में लंबी अवधि की मंदी, बढ़ते संरक्षणवाद, सार्वजनिक ऋण की बढ़ती मात्रा और बिगड़ते जलवायु संकट से मिलते बेहद खराब झटकों के परिणामों का योग गंभीर हालात पैदा कर रहा है। इसे "पॉलीक्राइसिस" कहना उचित ही है। इसने "उभरते और विकासशील देशों में विकास को एक स्थायी झटका दिया है, जो निकट भविष्य में जारी रहेगा। 2024 के अंत तक, इन अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक गतिविधि महामारी की पूर्व संध्या के अनुमानित स्तरों से लगभग 5% नीचे रहने की उम्मीद है। इससे भी बदतर बात यह है कि सबसे गरीब देशों में से एक-तिहाई से अधिक में प्रति व्यक्ति आय 2024 में 2019 के स्तर से भी नीचे होगी। इसके दूरगामी प्रभाव होंगे। गरीब और कमजोर लोगों को अपनी स्वयं की व अपने बच्चों के लिए मानव पूंजी (अर्थात उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य का स्तर और भविष्य में रोजगार व आय की संभावनाओं) में सुधार करना और भी मुश्किल हो जाएगा। उदाहरण के तौर पर 21 जून को ही आईएमएफ ने सिएरा लियोन के कर्ज की स्थिति पर एक रिपोर्ट में बताया है कि ऋण भुगतान में डिफ़ॉल्ट के संकट से बचने के लिए उसे प्रति व्यक्ति सर्वजनिक खर्च में 25% की कटौती करनी होगी अर्थात सार्वजनिक सुविधाएं बहुत कम हो जाएंगी। इस प्रकार आज की ये आपदाएं भविष्य में दूर तलक प्रभाव डालेंगी और पहले से ही गरीब वंचित तबकों व समुदायों के जीवन में सुधार की संभावनाएं और भी क्षीण हो जाएंगी।

रिपोर्ट के मुताबिक दूसरे क्षेत्रों की तुलना में पूर्वी एशिया और दक्षिण एशिया के अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद है। हालांकि इस क्षेत्र के भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार जैसे देशों की जो आर्थिक स्थिति हमारे सामने है अगर वह तुलनात्मक रूप से बेहतर प्रदर्शन है तो अन्य क्षेत्रों विशेष रूप से लैटिन अमेरिका और सहारा के परे अफ्रीका में हालात कितने खराब हो सकते हैं, इसका अनुमान ही भयावह है। रिपोर्ट इंगित करती है कि चीन को छोड़कर उभरते और विकासशील देशों की प्रति व्यक्ति आय पिछले दशक के मध्य से ही उच्च आय वाले देशों की तुलना में स्थिर रही है। कम आय वाले देशों की प्रति व्यक्ति सापेक्ष आय और भी लंबे समय से स्थिर रही है। संक्षेप में, वैश्विक असमानता में कमी होने के बजाय यह वापस बढ़ती प्रतीत होती है।

सापेक्षिक आय में इस दीर्घकालीन गतिरोध के कारण अनेक और जटिल हैं। वे घरेलू आर्थिक नीतियों और राजनीति के साथ-साथ वैश्विक परिवेश में निहित हैं। लेकिन इसका एक महत्वपूर्ण कारक बढ़ता संरक्षणवाद और विश्व व्यापार के विकास में मंदी होना है। जब विश्व व्यापार की मात्रा 1970 से 2008 के बीच प्रति वर्ष 5.8% की औसत दर से बढ़ी तो सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी की वृद्धि दर भी औसतन 3.3% थी क्योंकि व्यापार आर्थिक विकास का मुख्य इंजन है। लेकिन जब 2011 और 2023 के बीच विश्व व्यापार की औसत वृद्धि मात्र 3.4% रह गई तो वैश्विक जीडीपी वृद्धि दर भी गिरकर 2.7% ही रह गई। हालांकि विश्व व्यापार की वृद्धि दर धीमी होने को विवैश्वीकरण या डिग्लोबलाइजेशन नहीं कहा जा सकता जैसे कुछ लोग कह रहे हैं, लेकिन यह निश्चित रूप से "धीमाकरण" तो कहा ही जा सकता है। विश्व व्यापार में वृद्धि न होने से गरीब देशों के पास ऋण भुगतान के लिए और भी कम संसाधन होंगे क्योंकि अपने प्राथमिक उत्पादों व कुछ सस्ते सामानों की असेंबलिंग व निर्यात से प्राप्त धन से ही ये अपना कर्ज चुकाते हैं।

लेकिन इस सबका मूल कारण वैश्विक पूंजीवाद के वित्तीयकरण में ढूँढना होगा। आज सबसे कठिन चुनौतियों में से अधिकांश वित्तीय क्षेत्र में ही हैं। ऋण की मात्रा में हुई दीर्घकालिक वृद्धि, विशेष रूप से कम आय वाले देशों के ऋण के बोझ में, ने गंभीर ऋण कठिनाइयों को पैदा किया है। अब इसकी वजह से न सिर्फ ब्याज दरें ऊँची हो गई हैं बल्कि ऋण भुगतान में डिफ़ॉल्ट का जोखिम बढ़ने से ऋण बाजारों में अशान्ति छा गई है। ऊँची ऋण लागत, गिरती हुई साख और ऋण की उपलब्धता में कमी इन तीनों ने मिलकर बहुत से देशों को गहरे संकट में डाल दिया है। विश्व बैंक की इस रिपोर्ट में भी कहा गया है कि हर चार उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में से एक ने अब प्रभावी रूप से अंतरराष्ट्रीय बॉन्ड बाजारों में अपनी साख व पहुंच खो दी है। स्वयं अमेरिका व यूरोप में उभरता बैंकिंग संकट भी ऋण की उपलब्धता में बाधा बन रहा है।

ऋण की शर्तों को कड़ा करने का प्रभाव अत्यंत तीक्ष्ण व परेशान करने वाला है। फरवरी 2022 से अब तक ही ‘सी’ रेटिंग वाले उधारकर्ताओं के लिए उधार लेने की लागत में 14.4% की असाधारण वृद्धि हुई है। नतीजतन, इन देशों के लिए 2023 की आर्थिक वृद्धि का अनुमान एक साल पहले के 3.2% से गिरकर अब केवल 0.9% रह गया है। स्पष्ट है कि इन देशों की उत्पादक अर्थव्यवस्था वैश्विक वित्तीय पूंजीवाद के तीक्ष्ण पंजों में फंसी हुई है जो इनके मेहनतकश नागरिकों के श्रम के उत्पाद के एक बड़े हिस्से को वित्तीय पूंजी पर सूद के रूप में हजम कर ले रहा है। नतीजा इनकी अपनी मेहनतकश आबादी को कम मजदूरी दरों व निम्न जीवन स्तर पर गुजारे के लिए मजबूर किया जा रहा है।

सबसे गरीब देशों पर कर्ज का दबाव कोई बिल्कुल नई घटना तो नहीं कहा जा सकता है। लेकिन यह भी सच है कि कम आय वाले देशों में जितना कुल सरकारी राजस्व है उसके हिस्से के रूप में सार्वजनिक ऋण पर ब्याज का शुद्ध भुगतान न केवल महामारी के बाद से उल्लेखनीय रूप से बढ़ा है बल्कि लंबे समय से सभी उभरते बाजारों और विकासशील देशों के औसत से ऊपर रहा है। अर्थात ये देश राजस्व के रूप में अपने देशों की जनता से जितनी वसूली करते हैं उसका अधिकाधिक हिस्सा वित्तीय पूंजीपतियों को कर्ज पर सूद के रूप में चुका देते हैं, और अपने व्यय के लिए और अधिक कर्ज लेते हैं। जब यह कर्ज नहीं मिलता है तो ऋण भुगतान का संकट खड़ा हो जाता है जिसका सारा बोझ खाद्य वस्तुओं से लेकर दवाओं जैसी जरूरी चीजों की कमी के रूप में इन देशों की मेहनतकश जनता को सहना पड़ता है। पड़ोस में ही श्रीलंका और पाकिस्तान इसके दो बड़े उदाहरण हैं। हालांकि यह भी कहना सही होगा कि इसके लिए मात्र वित्तीय पूंजीवाद को अकेले दोष नहीं दिया जा सकता। इन देशों के अपने शासक पूंजीपति वर्ग अपने मुनाफे के लिए अनुत्पादक खर्च व उस पर सरकारी कान्ट्रैक्ट का प्रयोग करते हैं और यह अनुत्पादक खर्च इन ऋणों की रकम से किया जाता है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट मुताबिक उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सार्वजनिक कर्ज औसतन इनकी जीडीपी का 70% पहुँच गया है और इससे 14 देश तो खास तौर पर कर्ज के गहरे दबाव में हैं। इन देशों की वित्तीय स्थिति इतने दबाव में है कि ये अपनी जीडीपी का मात्र 3% ही अपने देश के गरीब नागरिकों पर खर्च करते हैं। शेष उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। इन सभी देशों में गरीब नागरिकों पर खर्च का औसत 26% ही है। स्पष्ट है कि इनकी कुल राष्ट्रीय आय या तो इनके अपने शासक पूंजीपतियों की दौलत बढ़ाने के काम आती है या वैश्विक वित्तीय पूंजीपतियों को सूद के भुगतान में चली जाती है।

लेकिन अब आर्थिक वृद्धि गिरने, कर्ज पर ब्याज दर बढ़ने और नया ऋण मिलना मुश्किल होने की तीनों वजहों ने मिलकर वित्तीय संकट को चरम पर पहुँचा दिया है। पेरिस की शिखर बैठक में भी ऋण समस्या व नवीन वित्तीय समझौते पर विचार से कोई स्पष्ट नहीं निकला तथा सिर्फ आगे की बैठकों व उनमें होने वाली चर्चा का कार्यक्रम ही तय हो पाया है। लेकिन जिओ पॉलिटिक्स में अमरीका-नाटो व रूस-चीन के मध्य जिस तरह का तनाव है वह इस के जल्द समाधान की अधिक आशा नहीं जगाता। अतः बहुत से देशों के शासकों को पूंजीपतियों के हितों में अपनी जनता पर ओर अधिक बोझ डालना होगा। इससे असंतोष बढ़ने व आंदोलनों के भड़कने का जोखिम होगा। उसके लिए ये शासक तानाशाही व फासीवाद की प्रवृत्तियों को भी अधिकाधिक बढ़ावा देंगे।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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