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सरकार सिर्फ़ 'जय अनुसंधान' बोलती है, रिसर्च स्कॉलर्स के लिए करती कुछ नहीं!

देश भर के शोध छात्र 6 महीने के इंतज़ार के बाद अब एक बार फिर फ़ेलोशिप बढ़ोत्तरी सहित अपनी अन्य मांगों को लेकर सड़कों पर उतरने को तैयार हैं।
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देश के आईआईएसईआर, आईआईटी और एनआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के रिसर्च स्कॉलर्स एक बार फिर फेलोशिप बढ़ोत्तरी सहित अपनी अन्य मांगों को लेकर सड़कों पर उतरने को तैयार हैं। बीते शुक्रवार, 17 फरवरी को इन शोधार्थियों ने अपने-अपने संस्थानों के सामने धरना-प्रदर्शन किया। ऑल इंडिया रिसर्च स्कॉलर्स एसोसिएशन की ओर से इस संबंध में भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी विभाग यानी डीएसटी और उच्च शिक्षा विभाग को भी ज्ञापन सोंपे गए हैं, जिस पर अभी तक कोई ठोस नतीज़ा सामने नहीं आया। ऐसे में इन शोधार्थियों का कहना है कि सरकार यदि ऐसे ही उनकी मांगों की अनदेखी करती रही, जो जल्द ही प्रयोगशालाओं का काम छोड़ ये लोग राजधानी के जंतर-मंतर में बड़ा आंदोलन करने को मजबूर होंगे।

बता दें कि फेलोशिप या ग्रांट केंद्र सरकार उन छात्रों को देती है, जो शोध और विकास के काम में जुटे हैं, और उन्हें भी जिनका चयन जूनियर रिसर्च फेलोशिप द्वारा किया जाता है इनमें खासकर वे छात्र शामिल होते हैं जो बेसिक साइंस में पोस्ट ग्रेजुएट हैं। इस फेलोशिप में वो छात्र भी शामिल हैं जो नेट (नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट) और गेट (ग्रेजुएट एप्टीट्यूड टेस्ट इन इंजीनियरिंग) की परीक्षा को पास कर किसी प्रोफेशनल कोर्स या फिर पोस्ट ग्रेजुएट या स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं।

क्या है पूरा मामला?

फेलोशिप को लेकर शोधार्थियों का लंबा संघर्ष रहा है। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि साल 2014 से पहले उन्हें 16 हजार रुपये प्रति महीने फेलोशिप मिलती थी। इसको लेकर कई धरना प्रदर्शन हुए, जिसके बाद फेलोशिप बढ़ाकर 25 हजार रुपये प्रति महीना करने के साथ ही हर चार साल में फेलोशिप बढ़ाए जाने का वादा भी किया गया। लेकिन मार्च 2018 में चार साल पूरे होने के बाद भी जब सरकार की तरफ से फेलोशिप बढ़ाने को लेकर कोई पहल नहीं की गई, तो इन लोगों को फिर से सड़क पर उतरना पड़ा, जिसके दबाव में सरकार ने साल 2019 की शुरुआत में जूनियर रिसर्च फेलोशिप की राशि को 25 हज़ार से बढ़ाकर 31 हज़ार रुपये कर दिया गया, वहीं सीनियर रिसर्च फेलोशिप की राशि 28 हज़ार से 35 हज़ार करने की घोषणा की गई, जोकि इन छात्रों के मुताबिक इतिहास में सबसे कम थी।

आईआईएससी बेंगलुरु, आईआईटी,एनआईटी, जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के शोध छात्रों का कहना है कि पिछली बार भी सरकार ने कई बड़े प्रदर्शनों के बाद ही बढ़ोत्तरी का ऐलान किया था। हालांकि ये बढ़ोत्तरी भी सिर्फ 'चिल्लर' पकड़ाने जैसी थी, क्योंकि छात्रों ने फेलोशिप को 80-100 फीसदी तक बढ़ाए जाने की मांग रखी थी, लेकिन सरकार ने केवल 24 फीसदी ही बढ़ाया था, जोकि इन छात्रों के मुताबिक इतिहास में सबसे कम थी। ऐसे में अब एक बार फिर चार साल से ज्यादा समय बीत जाने के बाद रिसर्चर्स प्रदर्शन को मजबूर हैं।

रिसर्च स्कॉलर्स आर्थिक-मानसिक परेशानियों से जूझ रहे हैं

ऑल इंडिया रिसर्च स्कॉलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष लाल चंद्र विश्वकर्मा ने न्यूज़क्लिक से कहा कि सरकार केवल जय विज्ञान और अनुसंधान की बड़ी-बड़ी बातें करती है, लेकिन वास्तव में रिसर्च स्कॉलर्स के लिए करती कुछ नहीं है। जब तक रिसर्च स्कॉलर्स की बेसिक जरूरतें नहीं पूरी होंगी, रिसर्च का काम आगे कैसे बढ़ेगा, देश आगे कैसे बढ़ेगा।

लाल चंद्र विश्वकर्मा आगे कहते हैं, “पीएचड़ी को दुनिया की सबसे बड़ी डिग्री कहा जाता है, लेकिन सरकार की इसके प्रति गंभीरता ज़ीरो दिखाई देती है। सरकार ने जेआरएफ की सीटें कम कर दी। एचआरए घटा दिया, रिसर्च स्कॉलर्स की फेलोशिप छह महीने-साल भर में मिलती है, ये उन्हें आर्थिक तौर पर परेशानी देती है। इसके अलावा एचआरए, मेडिकल और तमाम सुविधाओं तक उनकी कठिन पहुंच, उन्हें मानसिक तौर पर प्रभावित भी करती हैं। ऐसे में कोई बीते कुछ समय में कई संस्थानों के छात्रों की खुदकुशी का मामला भी सामने आया है, जो गाइड और शोधार्थी के बीच के संबंधों का काला सच भी सामने रखता है।"

बिना प्रदर्शन के सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती

आईआईटी धनबाद के शोधार्थी स्वयं न्यूज़क्लिक को बताते हैं कि इंटरनेशनल जर्नल नेचर में छपे एक आर्टिकल के मुताबिक पीएचडी करने वाले छात्रों को दी जाने वाली फेलोशिप उनके जीवनयापन के लिए बहुत कम है। इस रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि कैसे शोधार्थी फंड की कमी के चलते मानसिक और आर्थिक संघर्ष करते हैं, कई इसे बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं। ऐसे में सरकार को फेलोशिप के मुद्दे को और भी गंभीरता से लेना चाहिए।

स्वयं के मुताबिक, “शोध में लगे लोगों के काम का कोई समय नहीं होता। कई बार ये 10-12 घंटे से लेकर 16 घंटे या उससे ज्यादा भी लग जाते हैं, ऐसे में हमारे पास अपने घर और परिवार को देने के लिए समय बहुत कम होता है। कई लोगों के कंधों पर उनकी परिवार की जिम्मेदारियां भी होती हैं, जिसमें फेलोशिप ही हमारा सहारा होता है, लेकिन सरकार इसे लेकर बिल्कुल दिलचस्पी नहीं दिखाती। बिना प्रदर्शन के सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। महंगाई बढ़ती जा रही है, इस हिसाब से हमारी फेलोशिप भी बढ़नी चाहिए। हमारे एचआरए को सरकार ने बढ़ाने के बजाय घटा दिया है, मेडिकल पॉलिसी में सिर्फ शोधार्थी का क्लेम है, ऐसे में हमारे परिवारों के लिए ये सब कितना मुश्किल है, सरकार को इसकी बिल्कुल नहीं पड़ी।"

शोध संस्थानों में छात्रों की स्थिति बद से बदतर

एनआईटी दिल्ली के शोध छात्र अभिषेक बताते हैं कि देश के शोध संस्थानों में छात्रों की स्थिति बदतर होती जा रही है। डिप्रशेन के चलते बीते समय में एमएनआईटी भोपाल, आईआईएसईआर पुणे और बीएचयू में कई आत्महत्या के मामले सामने आए हैं, लेकिन सरकार ने इस पर कभी नहीं सोचा कि आखिर देश के बड़े संस्थानों के छात्रों को क्या दिक्कतें हैं और इसे किस तरह से दूर कर देश के युवाओं को और आगे बढ़ाया जा सकता है।

अभिषेक कहते हैं, “सिर्फ कहने भर से भारत आत्मनिर्भर नहीं बनेगा, इसके लिए हमें विज्ञान, अनुसंधान और नौजवानों को आगे बढ़ाना पड़ेगा। हमें सिर्फ जुम्ले नहीं चाहिए, वो विकास भी चाहिए, जिसका वादा सरकार ने सबसे किया था। फेलोशिप को बढ़ाने के साथ ही सरकार को शोधार्थियों को एक सरकारी कर्मचारी के तौर पर देखना होगा, उनके लिए भी अन्य सुविधाएं सुनिश्चित करनी होंगी, तभी रिसर्च में लगे लोग अपना 100 प्रतिशत दे पाएंगे, क्योंकि रिसर्च आसान काम नहीं है, जो सिर्फ बातों से हो जाए, इसके लिए आपको लगातार लगना पड़ता है, बिना काम के घंटे और घर-परिवार देखे।"

क्या मांगें हैं रिसर्च स्कॉलर्स एसोसिएशन की?

बढ़ती महंगाई और वित्तीय स्थिरता के मद्देनजर भारत सरकार पूरे देश के पीएचडी शोधार्थियों की फेलोशिप में 62 प्रतिशत की वृद्धि करे।

बिना किसी व्यवधान के पीएचडी शोधार्थियों को पूरे पांच साल हर महीने फेलोशिप दी जाए। इसके साथ ही टीचिंग असिस्टेंटशिप की राशी भी सुनिश्चित हो और एचआरए यानी हाउस अलाउंस भी वर्तमान दर से लागू किया जाए।

पीएचडी शोधार्थियों का उत्पीड़न बंद हो। सुपरवाइजर द्वारा रिसर्च के अलावा कोई अन्य घरेलू, व्यक्तिगत कार्य न दिया जाए। सुपरवाइजर/संस्थान प्रबंधन द्वारा पीएचडी शोधार्थियों के किसी तरह के शोषण पर तुरंत कार्यवाही हो और उन्हें तत्काल प्रभाव से सस्पेंड किया जाए।

गौरतलब है कि शिक्षा मंत्रालय के अनुसार साल 2014-21 में आईआईटी,एनआईटी, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और अन्य केंद्रीय संस्थानों के 122 छात्रों ने आत्महत्या की। ये आंकड़े खतरनाक इसलिए भी हैं क्योंकि इन संस्थानों तक पहुंचने के लिए छात्र दिन-रात कड़ी मेहनत करते हैं, ऐसेे में इनकी मानसिक स्थिति को संस्थान का वातावरण किस तरह प्रभावित करता है, इस पर सरकार को ध्यान देना होगा। इसके अलावा शिक्षा पर सरकार को अपना बजट भी बढ़ाने की जरूरत है, जिससे ज्यादा से ज्यादा छात्र शोध कर सकें। 

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