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ग्राउंड रिपोर्ट:  पहले DDA ने हटाया अब बाढ़ ने बहाया !

क़रीब चार महीने पहले बेला एस्टेट में DDA का बुलडोज़़र चला था तभी से वे फ्लाईओवर के नीचे रह रहे थे और अब बाढ़ ने उन्हें वहां से भी भागने पर मजबूर कर दिया। किस हाल में हैं ये लोग हमने जानने की कोशिश की।
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सड़कों पर चढ़ आई यमुना के जलस्तर में मामूली गिरावट आई थी। सैलाब का पानी भले ही घट रहा था लेकिन लोगों की परेशानी बढ़ रही थी।  पीने के लिए साफ पानी के लिए बाढ़ पीड़ित भटक रहे थे, अजीब विडंबना थी आसमान, ज़मीन और इन दोनों के दरमियान बेबस लोगों की आंखों में पानी था। लेकिन फिर भी होंठ सूखे थे। बच्चों को रोकना मुश्किल था इसलिए वे जहां-तहां से पानी पी रहे थे।

पीछे हटती यमुना अपने निशान छोड़ रही थी। तारकोल की सड़क पर यमुना के मटमैले भंवर के निशान महज सैलाब की कहानी ही नहीं बयां कर रहे थे बल्कि उन निशानों को निहारते बाढ़ पीड़ितों की जिन्दगी का अब क्या होगा ये भी सवाल बना रहा था। 

बेला एस्टेट से बेघर हुए लोग अब बाढ़ से प्रभावित

 यमुना किनारे पड़े ये वे बाढ़ पीड़ित हैं जिन पर दोहरी कहें या फिर चौतरफा मार पड़ी है। शांतिवन रेड लाइट से कुछ आगे बढ़ते ही गीता कॉलोनी के कई घुमावदार फ्लाईओवर हैं और यहीं  पर डेरा डाले ये वे लोग हैं जिनके घरों/ झुग्गियों पर मार्च के आख़िरी हफ्ते से अप्रैल के पहले हफ़्ते तक (28 मार्च से 8 अप्रैल) DDA का बुलडोजर चला था। कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने के बावजूद ये लोग अपने घरों को नहीं बचा पाए, घर टूटे चार महीने हो गए लेकिन ये लोग कहीं नहीं गए उसी जगहों पर खुले आसमान और आस-पास के फ्लाईओवर के नीचे पड़े रहे। लेकिन अब बाढ़ ने आकर रही सही कसर भी पूरी कर दी। 

14 जुलाई शुक्रवार के दिन दिल्ली के राजघाट, शांतिवन, ITO तक पानी चढ़ आया था। गीता कॉलोनी फ्लाईओवर तक जाने के लिए शांतिवन रेड लाइट से जैसे ही हम आगे बढ़े तो पानी की बेहद तेज़ धारा पैर उखाड़ रही थी। चढ़ता पानी और तेज़ धारा लोगों के लिए देखने की एक चीज़ बन चुकी थी, लोग बच्चों के साथ पानी का ये भयावह रूप देखने पहुंचे थे शायद वो चाहते थे कि ये बच्चे  आने वाली पीढ़ियों को सन 2023 में आए सैलाब के किस्से सुना सकें। 

क़रीब सौ मीटर आगे बढ़ते ही फ्लाईओवर पर कुछ लोग पॉलीथिन शीट के नीचे घर का सामान लेकर पड़े दिखाई दिए। बेहद उमस भरे मौसम में पेड़ों की छाया ही इनके लिए साया बनी हुई थी। बच्चे उमस और गर्मी से बचने के लिए बार-बार बाढ़ के पानी में घुस रहे थे, तेज़ धूप में नदी के ठंडे पानी में बार-बार नहाने की वजह से बच्चों की तबीयत खराब हो रही थी। 

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.जान जोख़िम में डालकर बाढ़ से कागज निकाले 

इसी सड़क पर हमें बिखरे कागज ही कागज दिखे जिनमें आधार कार्ड, बैंक की पासबुक, कुछ मार्कशीट, 1939, 1975 से लेकर अभी तक के वो तमाम पेपर दिखे जो पानी में भीग कर क़रीब-करीब गल ही गए थे। उन्हें धूप में सुखाने की कोशिश करते हीरालाल भी मिले। हीरालाल के लिए ये कागज़ इतने अहम हैं कि वो बताते हैं कि ''रात को अचानक बाढ़ आने पर हम सिर्फ अपनी जान बचा कर ही भाग पाए थे उस वक़्त ये कागज हमने फ्लाईओवर के खंभो में फंसा दिए थे लेकिन पानी वहां तक पहुंच गया तो हम जान जोखिम में डालकर कमर में रस्सी बांध कर उफनती नदी में उतरे और कागज निकाले लेकिन फिर भी कई कागज भीग चुके थे।''

बाढ़ के पानी में भीग चुके कागज को सुखाते हीरालाल

हीरालाल बताते हैं कि ये कागज उनके लिए इतने अहम इसलिए हैं क्योंकि अतिक्रमण के नाम पर उन्हें मार्च में बेला एस्टेट से हटा दिया गया था। लेकिन बावजूद इसके वे ये साबित करने की कोशिश में लगे हैं जिस ज़मीन से उन्हें हटाया गया है उस ज़मीन पर उनके बुजुर्ग अंग्रेजों के ज़माने से बसे थे, खेती बाड़ी करते थे।  लेकिन एक दिन अचानक आई DDA ने उन्हें कहा कि ''ये ज़मीन उनकी है'' और उस पर बुलडोज़र चला दिया।  तब से उजाड़े गए ये लोग यूं ही फ्लाईओवर के नीचे रह रहे थे, इन लोगों को रैन बसेरे जाने के लिए कहा गया था लेकिन लोगों के मुताबिक रैन बसेरों में गाय-भैंस के बगैर आने के लिए कहा जा रहा था तो वे अपने मवेशी कहां छोड़कर जाते। इसलिए ये उन जगहों से हटने को तैयार नहीं थे जहां कभी उनके घर हुआ करते थे। खुले में रह रहे ये लोग आज उसी जगह को पानी में डूबा देख रहे हैं जहां पहले इनकी दुनिया आबाद थी। इन लोगों का कहना है कि '' हम पानी उतरने का इंतज़ार करेंगे लेकिन जहां हमारे घर थे उस जगह को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे'' । 

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''पांच दिन से पड़े हैं, पीने के लिए पानी नहीं है''

फ्लाईओवर पर ही कुछ दूरी पर बाढ़ की वजह से पनाह लेने वाली एक महिला से हमने बात करनी शुरू ही की थी कि लोगों को लगा कि कोई मदद आई है। दौड़ते हुए लोग हम तक पहुंचे। हर किसी के लिए बताने के लिए बहुत कुछ था। एक लड़की ने बोलना शुरू किया तो कई लोग उस बातचीत में शामिल हो । लोगों ने बताया कि ''पीने के लिए पानी नहीं है, खाना नहीं है, लाइट नहीं है, हम यहां पांच दिन से पड़े हैं। वैसे पड़े तो हम बहुत दिनों से हैं। बस यही अंतर है कि पहले फ्लाईओवर के नीचे रह रहे थे और बाढ़ आई तो ऊपर आ गए। रात को पुलिस वाले आए थे कह रहे स्कूल में जाओ जो यहां से करीब दस किलोमीटर दूर है। हमारी चार-चार पीढ़ियां यहीं गुज़र गई, यहीं हम खेती बाड़ी करते थे, जब से घर टूटा है यूं ही पड़े हैं। तब से कोई सुविधा नहीं थी और अब तो और बुरा हाल हो गया। घर से निकाल कर बेघर कर दिया और अब भी कोई पूछने वाला नहीं है, पीने का पानी भी बहुत दूर-दूर से ला रहे हैं। गुरुद्वारे से पानी और खाना कभी-कभी पहुंचा रहे हैं उन्हीं के भरोसे बैठे हैं।''

फ्लाईओवर पर पहले बेघर और अब बाढ़ से प्रभावित हुए लोग

इन लोगों से बात करते हुए समझ नहीं आ रहा था कि इन लोगों की क्या पहचान है? क्या इन्हें बाढ़ पीड़ित कहा जाए? या फिर अतिक्रमण हटाने के नाम पर बेघर किए गए लोग? 

''हमारे लिए कोई योजना नहीं है, हमारी कोई सुनवाई नहीं है''

इन लोगों में हमें पद्मा मिली। पद्मा बताती हैं कि '' एक तरफ कैंसर से पीड़ित मेरे पति की मौत हो गई। वहीं उनका शव पड़ा था। लेकिन DDA वालों को तरस नहीं आया। उन्होंने उसी वक़्त मेरे घर पर बुलडोज़र चला दिया। मेरे तीन बच्चे हैं। कोई सहारा नहीं, दस साल का बेटा है उसे कहां कमाने भेज दूं। किसी तरह फ्लाईओवर के नीचे पड़े थे। लेकिन फिर बाढ़ आ गई अब तो हम भूखे-प्यासे मर गए।'' हमने पद्मा से पूछा, ''विधवा/ अकेली महिलाओं के लिए सरकारी योजनाएं हैं क्या उन्हें किसी का लाभ मिल रहा है?'’ बेहद नाराज़ और रुंधे गले से पद्मा ने कहा कि, ''हमारे लिए कोई योजना नहीं है। हमारी तो कोई सुनवाई नहीं है। हमारी तो कोई भी सरकार नहीं सुन रही है, मैं सड़क पर आ गई हूं।''

बेला स्टेट, विजय घाट के किनारे-किनारे रह रहे इन लोगों का कहना है कि इन्हें बेघर किया सो किया लेकिन बाढ़ आने के बाद भी इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। 

''वोट मांगने आते हैं अभी कोई झांकने तक नहीं आया''

बीमार शांति देवी अपने पैरों की हालत दिखाते हुए बताती हैं कि ''पानी में अपना बचा-खुचा  सामान ढोते-ढोते पैरों के तलवे सूज गए हैं'' सरकार से बेहद नाराज़ शांति देवी कहती हैं कि ''सरकार किसी की नहीं सुन रही है, सरकार ने ही तो हमारा ये हाल कर दिया, हाथ जोड़कर वोट मांगने आ जाते हैं और अब कोई झांकने तक नहीं आया'' जब हमने उनसे पूछा कि बाढ़ राहत शिविर में क्यों नहीं जा रहीं तो उनका कहना था कि '' यहां से दस किलोमीटर दूर आनंद पर्वत भेज रहे हैं, अगर हम वहां चले गए तो जिस जगह से हमें उजाड़ दिया गया है उस जगह से हम बिल्कुल ही हटा दिए जाएंगे। हमारा सामान यहीं पानी में डूबा पड़ा है, सिलेंडर है, बक्सों में सामान है।'' वे उस जगह तो दिखाती हैं जहां वे पीढ़ियों से रहने का दावा करती हैं ''ये जो आप पेड़ देख रही हैं, जामुन के, अमरूद के ये सब हमारे ही लगाए हुए हैं। हमारे बुजुर्ग यहीं खत्म हो गए, हमारे पुरखे यहां अंग्रेजों के ज़माने में बसे थे।''

बेघर लोग पहले फ्लाईओवर के नीचे रह रहे थे सैलाब आने पर ऊपर आ गए

हीरालाल मजदूर आवाज समिति से जुड़े हुए हैं। वे बताते हैं कि बेला एस्टेट से क़रीब 400 से 500 घरों को हटा कर क़रीब 600 परिवारों को बेघर कर दिया गया जो तभी से खुले में या फिर फ्लाईओवर के नीचे रह रहे थे। और वे सभी सैलाब आने से प्रभावित हुए हैं। 

यमुना में बाढ़ आने की वजह क्या है?

हीरालाल बाढ़ आने के कुछ कारण गिनवाते हैं, ''हम लोग यहां रहते थे, किसानी और मजदूरी के साथ ही गाय-भैंस पालने का काम करते थे, हमें कहा गया कि यहां पार्क ( यमुना रिवर फ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट)  बनेगा, ये डूब क्षेत्र है। हम यहां किसी को रहने नहीं देंगे। दिल्ली में जो बाढ़ आई है इसके लिए DDA और लेफ्टिनेंट गवर्नर जिम्मेदार हैं और ये बात मैं जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं। इन्होंने इस जगह के साथ छेड़छाड़ की। यहां मेट्रो डिपो बना दिए, जिसकी वजह से ज़मीन सिकुड़ गई। अक्षरधाम मंदिर बनाया। उससे यमुना का हिस्सा कम हुआ। खेल गांव बना दिया। उससे ज़मीन सिकुड़ गई और यहां जो किसान सालों से रह रहे थे यहां की ज़मीन को हरा भरा कर रहे थे उन्हें हटा दिया गय। देखा होगा जब यहां खेती हो रही थी तो एक बार भी पानी लाल किला तक नहीं पहुंचा। इन्होंने इस कुदरती चीज़ (यमुना नदी) को छेड़ा तो ये तबाही आई। एक तरफ आप ख़ुद कह रहे हो कि ये डूब क्षेत्र है तो जो डूब क्षेत्र है उसे कवर क्यों किया जा रहा है। यहां इन्होंने मिट्टी खोद-खोद कर पानी का बहाव रोक दिया, जो पानी सीधा जाना था वो यहीं भराव खा गया, हमारे पास यहां के 1917 से लेकर अब तक के कागज हैं। हमारे पूर्वज अंग्रेजों के घोड़ो के लिए चारे का इंतज़ाम करते थे। अन्न की कमी हुई तो अधिक अन्न उपजाऊ योजना (अभियान) के तहत हमें ये ज़मीन (यमुना खादर में) दी गई थी। 

''नाले की सफाई न होने से रुका पानी''

हीरालाल कुछ दूरी पर एक नाला दिखाते हैं जो पूरी तरह से जाम पड़ा था। उसके बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि '' नाला दरियागंज से आ रहा है जिसे साफ करना था, जाम पड़े होने की वजह से इसका पानी वापस जा रहा है, ये नाला आगे जाकर यमुना में मिलता था, जिसकी सफाई नहीं हुई।'’ वे आगे बताते हैं कि ''1995-96 तक हम यहां गन्ना लगाते थे, बाढ़ में गन्ने का नुकसान नहीं होता, उसकी फसल खड़ी रहती है। फिर सरकार की नज़र इस ज़मीन पर पड़ी। यमुना में जो खेल गांव बनाया वो ऊंची क़ीमतों पर बिका, हमसे हमारी ज़मीन छीन ली गई।''

हीरालाल के मुताबिक इस नाले की सफाई नहीं होने की वजह से पानी की निकासी नहीं हो पाई

हीरालाल सवाल उठाते हैं कि यमुना में खेल गांव बन सकता है। यमुना में अक्षरधाम मंदिर बन सकता है। लेकिन यमुना में पुश्तों से बसे किसान खेती नहीं कर सकते ऐसा क्यों? 

समझ नहीं आ रहा था यमुना में पानी ज़्यादा है या पहले बेघर और फिर बाढ़ से प्रभावित हुए इन लोगों के सवाल और परेशानी।

''पुनर्वास को लेकर कोर्ट में केस चल रहा है''

यमुना के पानी में घर के बर्तन और कपड़े धो कर आई पतासी देवी बताती हैं कि ''घर टूटे चार महीने हो गए। हम पन्नी डाल कर रहते थे। पुलिस वाले आते थे उसे फाड़ जाते थे। हम पीछे हटते-हटते फ्लाईओवर के नीचे आ गए और अब वहां भी बाढ़ आ गई। हम यहां इसलिए रुके थे क्योंकि हमें बेघर करने और पुनर्वास को लेकर केस चल रहा है। उसका कोई फैसला आए तो फिर हम देंखे।'' 

फ्लाईओवर पर मवेशी बांध कर इन लोगों ने कच्चे चूल्हे बना लिए। बाढ़ के पानी में भींग चुका अनाज धूप में सूख रहा था। ये लोग खाना तो किसी तरह बना ले रहे हैं लेकिन पीने का पानी न मिलने की वजह से परेशान हैं। ऐसे में काफी कोशिश के बाद दिल्ली जल बोर्ड का एक टैंकर पहुंचा जो ज़्यादा लोग होने की वजह से जल्द ही ख़त्म हो गया। 

हैंडपंप का पानी लाती महिलाएं 

एक साथ बैठी बहुत सी महिलाएं और लड़कियां लगातार हाथ वाले पंखे से उमस और गर्मी से बचने की कोशिश कर रही थीं। ये महिलाएं बताती हैं कि '' अचानक बाढ़ आ गई थी। गर्दन तक पानी में बच्चों को कंधे पर बैठा कर किसी तरह निकले। चार महीने पहले घर तोड़ दिए थे जैसे तैसे फ्लाईओवर के नीचे रह रहे थे। अब वहां भी पानी भर गया।''

''कॉपी-किताब, सर्टिफिकेट सब बह गए''

दरियागंज के एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली 12वीं क्लास की एक लड़की बताती है '' मैंने अपनी बहुत सारी फाइलें बना ली थीं वे सब बह गईं। मेरा 10वीं का सर्टिफिकेट एक बक्से में था वो वहीं छूट गया। पता नहीं बचा होगा या बह गया होगा?'’ जब हमने पूछा कि सरकार से मदद के लिए कुछ कहना चाहती हो तो उस लड़की का जवाब था '' सरकार तो हमारी कभी सुनती नहीं हैक। कभी घर तोड़ती है तो कभी बाढ़ के पानी आने पर भगाती है, वैसे कहते हैं ''बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ'' लेकिन देख लो बेटियां कैसे पड़ी हैं। कोई सुविधा नहीं है, कहने को हम दिल्ली में रहते हैं लेकिन जानवरों से बुरा हाल है।''

यहां बहुत सारी नौजवान लड़कियां दिखाई दे रही थीं। समझ नहीं आ रहा था कि कैसे घर टूटने के बाद चार महीने से ये लड़कियां फ्लाईओवर के नीचे रह रही होंगी। पढ़ाई कर रही होंगी और अब बाढ़ आने पर शौचालय के लिए कहां जा रही होंगी। लड़कियों से जुड़ी तमाम परेशानियां किसे बता रही होंगी? 

यमुना के किनारे किनारे हम आगे बढ़ रहे थे और टोलियों में लोगों के झुरमुट दिखाई दे रहे थे। सड़क किनारे सरकार की तरफ से लगाए गए कुछ टेंट दिखे जहां लोगों की अच्छी खासी भीड़ मौजूद थी। लेकिन सभी लोगों को इन टेंट में जगह नहीं मिल पाई थी। इसलिए बहुत से लोग अपने टेंट बना कर या फिर मिनी ट्रक नुमा गाड़ी में ही रह रहे थे। चारपाई पर बैठी एक महिला फोन पर गिड़गिड़ाते हुए बात कर रही थी। हमने जानना चाहा कि वो किस से बात कर रही थीं तो उन्होंने बताया कि वो घरों में काम करती हैं और जहां वो काम करती हैं उन मैडम का सुबह से लगातार फोन आ रहा है जबकि चारों तरफ पानी भरा है वो कैसे जाए। लेकिन उन्हें ऐसे वक़्त में भी काम पर बुलाया जा रहा है, वे कहती हैं कि ''सब न्यूज़ देखते हैं। लेकिन फिर भी कहते हैं कि काम पर आ जाओ। कैसे आ जाएं गाड़ी चल नहीं चल रही। मेरे घर में पानी है। सड़क पर पानी है। ऐसे वक़्त पर मदद करना तो दूर उल्टा गुस्सा होकर तनख्वाह और काट ली जाएगी।'' 

गीता कॉलोनी फ्लाईओवर के बगल में लगाया गया बाढ़ प्रभावित लोगों के लिए कैंप 

कुछ भगवान की मार और कुछ सरकार की 

घर से बेघर हुए ये लोग सड़क किनारे किसी तरह बस सांस ले रहे हैं। बर्तन धोती एक महिला से हमने बातचीत कर परेशानी पूछी तो उनके बग़ल में बैठी एक बुजुर्ग कहती हैं '' हम यहां कीड़े-मकोड़ों की तरह पड़े हैं। कौन है सुनने वाला, कोई नहीं। ना पानी की व्यवस्था है ना कुछ। यमुना में से पानी लाकर देखिए आपके सामने ही बर्तन धो रहे हैं। चार महीने से DDA वालों ने परेशान कर रखा था और अब बाढ़ ने दिक्कत बढ़ा दी। पानी नहीं, खाना नहीं, कुछ भगवान की मार है कुछ सरकार की, लेकिन सरकार की मार ज्यादा है।''

आपदा को अवसर बना लिया

वाकई तय करना मुश्किल लग रहा था कि किसकी मार ज्यादा है भगवान की या सरकार की? काम ख़त्म करते-करते रात होने लगी थी। हमने उस इलाके से निकलने की कोशिश की। एक ऑटो वाले से नज़दीकी मेट्रो तक छोड़ने की गुज़ारिश की तो वे राज़ी हो गया।  वहां से निकले तो लबालब भरी यमुना फ्लाईओवर पर भी चढ़ने की कोशिश करती दिखी। रास्ते में राजघाट और ITO पर भरे पानी ने डरा दिया। लेकिन किसी तरह सुप्रीम कोर्ट मेट्रो स्टेशन पहुंच गए। और जब हमने बिना मीटर से चलने वाले ऑटो वाले से किराया पूछा तो उसने साबित कर दिया कि आपदा को अवसर कैसे बनाया जाता है। 

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