ग्राउंड रिपोर्ट : जंगलमहल में आरएसएस से जुड़े स्कूलों का नेटवर्क बढ़ा
सात वर्षीय सुप्रिया गांगुली कहती हैं कि, “नादिरशाह बहुत अत्याचारी बादशाह था, है ना? उसने ईरान से आकर हमारे देश में और खासतौर पर दिल्ली में कई मंदिरों को नष्ट कर दिया था, बहुत सारा सोना और कीमती चीजें लूट ली थी। उसने यहां से इतना धन लूटा कि उसे अपने देश लौटने पर तीन साल तक कोई टैक्स इकट्ठा नहीं करना पड़ा। वह यहां से हजारों हाथी और ऊंट ले गया था। नादिरशाह बहुत बुरा आदमी था, जबकि हमारा बंगाल का राजा शशांक बहुत अच्छा आदमी था। नालंदा, जो बौद्धों का विश्राम स्थल है, को उनके शासन के दौरान तोड़ा गया था क्योंकि बौद्ध भगवान के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे।” सुप्रिया ने मुझे बड़े विश्वास के साथ यह भी बताया कि, भगवान गणेश के सिर पर हाथी का सिर हमारे प्राचीन संतों ने शल्य चिकित्सा के ज़रिए लगाया था।
सुप्रिया गांगुली पश्चिम बंगाल के बांकुरा शहर के सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल में तीसरी कक्षा की छात्रा हैं। जब मैंने उससे पूछा कि उसे ये बातें किसने बताईं, तो उसने कहा कि यह सब उन्हे उनके दादाभाई ने बताई हैं। (शिक्षकों को उनके स्कूल में दादाभाई और दीदीभाई के रूप में संबोधित किया जाता है।) तब उसने बड़ी ही दृढ़ता से कहा कि हमारा देश केवल हिंदुओं का देश है। दूसरे धर्म के लोगों ने हमें बहुत लूटा और प्रताड़ित किया है। जब वे शासन करते थे तब उन्होंने कुछ अच्छा नहीं किया और न ही अब कुछ अच्छा करते हैं!
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा चलाए जा रहे सरस्वती शिशु मंदिर जैसे स्कूलों में बड़ी संख्या में छात्र बचपन से ही अन्य धर्मों के बारे में यह सब पढ़कर बड़े हुए हैं। क्या यही उनके लिए इतिहास की पूरी व्याख्या है? यह रिपोर्टर कई जगहों पर सरस्वती शिशु मंदिर के स्कूलों में गया ताकि यह पता लगाया जा सके कि इन विचारों को शिक्षा के साथ कैसे बोया जाता है।
बांकुड़ा शहर में ऐसे ही एक स्कूल में कार्यरत एक दादाभाई (प्रधानाध्यापक) ने दावा किया कि उन्होंने 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में भाग लिया था। छात्रों की शिक्षा और पाठ्यक्रम पर उनके विचारों के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि वे पारंपरिक शिक्षा की तुलना में चरित्र निर्माण पर अधिक जोर देते हैं। “हम नई शिक्षा नीति का भी समर्थन करते हैं क्योंकि इसकी मदद से ज्योतिष को भी पढ़ाया जा सकेगा। हम हिंदू धर्म की महिमा पर जोर देते हैं। सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों का पाठ्यक्रम, विवेकानंद विद्याविकास परिषद के निर्देश पर आरएसएस से जुड़े स्कूलों के लिए तैयार किया गया है।
इस रिपोर्टर ने जंगलमहल के झिलिमिली के एक स्कूल के प्रधानाध्यापक से भी बात की - जहाँ सबसे अधिक छात्र आदिवासी समुदाय के हैं। स्कूल का नाम बनबासी कल्याण आश्रम है और वे स्कूल के छात्रावास में ही रहते हैं। लेकिन आरएसएस स्कूल उन्हें आदिवासियों के रूप में मान्यता नहीं देता है; इसके बजाय उन्हे "जंगल में रहने वाले हिंदू" कहा जाता है। शिक्षक ने बताया कि: "आदिवासी क्या है? इन जंगल के गांवों में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं। वे कई पीढ़ियों से वन क्षेत्र में पले-बढ़े हैं। इसलिए, हम उन्हें वनवासी कहते हैं।” जैसे ही बातचीत शुरू हुई, एक अन्य दादाभाई, जो संथाल समुदाय के थे, ने चुपचाप सुना और शिक्षक के किसी भी दावे पर कोई आपत्ति नहीं जताई। क्यों? शायद स्कूल में अपनी नौकरी बनाए रखने की उसकी यह एक मजबूरी थी।
1946 में तत्कालीन आरएसएस प्रमुख एमएस गोलवलकर की पहल पर कुरुक्षेत्र (हरियाणा) में एक गीता स्कूल की स्थापना की गई थी। लेकिन 1948 में आरएसएस पर लगे प्रतिबंध ने गीता स्कूल मॉडल को फैलाव को रोक दिया था। प्रतिबंध हटने के बाद, 1952 में नानाजी देशमुख ने गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) में पहला सरस्वती शिशु मंदिर स्थापित किया था। 15 साल बाद 1977 में इस स्कूल का नाम 'विद्या भारती' रखा गया। तथ्य यह है कि ये स्कूल आरएसएस द्वारा चलाए जा रहे हैं, इसलिए उन्हे शहरों और राज्यों में अच्छी तरह से जाना जाता है। इनका पाठ्यक्रम आरएसएस के निर्देशों के अनुसार बनाया गया है।
विद्या भारती का उद्देश्य क्या है? उनकी वेबसाइट स्पष्ट रूप से बताती है कि इसका प्राथमिक उद्देश्य "शिक्षा की एक राष्ट्रीय प्रणाली विकसित करना है जो हिंदुत्व के लिए प्रतिबद्ध और देशभक्ति के उत्साह से ओत-प्रोत युवा पुरुषों और महिलाओं की एक पीढ़ी बनाने में मदद करेगी"। इसे नंगी आंखों से तो नहीं समझा जा सकता, लेकिन 'हिंदू धर्म की गरिमा' को उजागर करने का काम दूसरे धर्मों के बारे में भ्रामक कहानियां फैलाने से शुरू होता है और इसके लिए स्कूल एक आसान जगह है।
वर्तमान में, देश भर में 50,000 आरएसएस संचालित स्कूल हैं; बंगाल में लगभग 500 विद्यालय चल रहे हैं, जिनमें से अधिकांश प्राथमिक स्तर के हैं। पश्चिम बंगाल में जिस तेजी से सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों की संख्या बढ़ रही है, वह चिंताजनक है। वाम शासन के दौरान इन स्कूलों को मान्यता मिलना मुश्किल था, लेकिन तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के शासन में ऐसा नहीं है।
सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों के राज्य स्तर के आयोजक और आरएसएस प्रचारक (प्रचारक) ने बताया कि उनके सभी स्कूलों को 2011 के बाद ही राज्य सरकार से संबद्धता मिली है। जब इस रिपोर्टर ने बांकुड़ा में इस स्कूल के प्रधानाध्यापक से मुलाकात की, तो उन्होंने स्वीकार किया कि वाम मोर्चे के शासन के दौरान वे अपनी उम्मीदों के मुताबिक विकास नहीं कर पाए। लेकिन पिछले 10 वर्षों में, आरएसएस बिना किसी डर के अपने संगठनात्मक ढांचे का विस्तार करने और स्कूलों की संख्या बढ़ाने में कामयाब रहा है। शिक्षक ने याद दिलाया कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आरएसएस के सदस्यों को "देशभक्त" कहा था और बदले में संघ ने उन्हें "दुर्गा" कहा था। उन्होंने 2002 में गुजरात नरसंहार के बाद संसद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार का भी बचाव किया था। 2 सितंबर, 2022 को उन्होंने कहा था: "आरएसएस में कोई बुरा नहीं है"। वास्तव में, टीएमसी से पंचायतों के कुछ निर्वाचित सदस्य अक्सर इन स्कूलों के कार्यक्रमों में देखे जाते हैं।
20 फरवरी, 2018 को राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने विधानसभा में कहा था कि सरकार ने पहले ही आरएसएस द्वारा संचालित स्कूलों के प्राधिकरण से कहा था कि वे स्कूल नहीं चला पाएंगे। उन्होंने कहा कि सरकार ने एनओसी के बिना चल रहे आरएसएस से जुड़े 125 स्कूलों की पहचान की थी और फैसला किया था कि इन स्कूलों को तुरंत प्रतिबंधित कर दिया जाएगा। क्या वास्तव में कोई कार्रवाई की गई है? विभिन्न रिपोर्ट कहती हैं कि ऐसा नहीं हुआ।
सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है। ग्रामीण क्षेत्रों से दूर उत्श्री योजना के माध्यम से तबादलों की मांग करने वाले शिक्षकों और महामारी से प्रेरित लॉकडाउन के दौरान स्कूलों को बंद करने से, ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों छात्रों को काफी संघर्ष करना पड़ा है। मोटगोड़ा के एक प्राथमिक विद्यालय के एक शिक्षक ने बताया कि कई अभिभावकों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से उठा लिया है। ऐसे में निजी शिक्षा व्यवस्था का विस्तार तेजी से हो रहा है और सरस्वती शिशु मंदिर के स्कूलों में नामांकन भी बढ़ रहा है, खटरा के एक शिक्षक ने उक्त दावा किया है।
मौजूदा शैक्षणिक वर्ष की शुरुआत से कुछ दिन पहले, बांकुड़ा शहर के पास के एक गाँव की अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ी एक माँ, अपने चार साल के बच्चे को सरस्वती शिशु मंदिर में दाखिला दिलाने गई थी। स्कूल के दादाभाई ने कहा कि दाखिले की फीस 3,200 रुपये है, उसके बाद ही उसे दाखिला और पाठ्यपुस्तकें मिलेगी। एक कक्षा की ट्यूशन फीस 600 रुपये प्रति माह है। उनके पति दुर्गापुर में ब्रेड बेचते हैं। जब इस रिपोर्टर ने उनके गांव के सरकारी प्राइमरी स्कूल के बारे में पूछा तो महिला ने बताया कि स्कूल में पढ़ाई का उपयुक्त माहौल नहीं है। “वहाँ के शिक्षक छात्रों की परवाह नहीं करते हैं; न ही इस बारे में कि वे नियमित रूप से स्कूल जा रहे हैं या नहीं। भले ही मेरे पास पैसा नहीं है, फिर भी मैं अपने बेटे को किसी निजी स्कूल में भेजना चाहती हूं।” ऐसा ही नजारा जंगलमहल के रानीबांध के हलुतकनाली पंचायत इलाके में देखने को मिला। यहां के छात्र स्थानीय सरकारी प्राथमिक विद्यालय के बजाय धतकीड़ी के पास के सरस्वती शिशु मंदिर में जा रहे हैं।
इन इलाकों के सरकारी स्कूल खाली पड़े हैं। इन विद्यालयों में केवल तीन से दस छात्र-छात्राओं की हाज़िरी पाई जा सकती है। शिक्षकों का कहना है कि उनके पास कोई काम नहीं है। क्या विद्यालय निरीक्षक (एसआई) निरीक्षण के लिए आते हैं? स्थानीय निवासी कहते हैं, नहीं। जंगलमहल में एक एसआई ने कहा कि वे इतना सरकारी काम करते हैं कि उनके पास स्कूलों का दौरा करने का समय नहीं है।
वहीं दूसरी तरफ सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल, खुले मैदान की तरह नजर आते हैं। यदपि, जब कोई स्कूल में दाखिल होता तो उस समय छात्रों या शिक्षकों से बात करना बहुत मुश्किल है। इस रिपोर्टर ने देखा कि, शिशु मंदिर वाले स्कूलों की शुरुआत सरस्वती वंदना से होती है; बावजूद इसके कि ये स्कूल सरकार द्वारा अनुमोदित पाठ्यक्रम का पालन करते हैं, लेकिन यहाँ गीता और रामायण पढ़ना भी अनिवार्य है। धर्म और उसके इतिहास की चर्चा को शामिल किए जाने के बारे में पूछे जाने पर, स्कूल के प्रधानाध्यापक ने कहा: “हम हिंदू धर्म पर चर्चा करते हैं; हम मानते हैं कि केवल हिंदू धर्म का विचार ही अच्छे चरित्र के निर्माण में मदद करेगा।" धतकिडी और झिलीमिली सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों में भी ऐसी ही व्याख्याएं सुनने को मिलीं, जहां आदिवासी और अल्पसंख्यक छात्रों को शिक्षा के नाम पर केवल हिंदू धर्म के बारे में सिखाया जा रहा है। हिजली के एक शिक्षक ने यह भी दावा किया कि आदिवासी हिंदू थे। "उनके अलग धर्म पर चर्चा करने की जरूरत क्यों है?"
दिलचस्प बात यह है कि ये स्कूल उसी समुदाय के शिक्षकों को नियुक्त करते हैं, जिस समुदाय से स्कूल में सबसे अधिक छात्र हैं। इससे उन्हे अपने दावों की विश्वसनीयता बढ़ाने में मदद मिलती है। इन शिक्षकों को भी स्कूलों की परंपरा का पालन करते हुए देखा जा सकता है - आमतौर पर ये हिंदुत्व के कट्टर समर्थक होते हैं।
इनमें से कई सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल, काफी बड़े और विशाल हैं। धतकिडी स्कूल तीन मंजिला है; प्रत्येक मंजिल में 21 कमरे हैं। सूत्रों ने बताया कि इन सबके लिए फंडिंग अलग-अलग ट्रस्ट के नाम से आती है। दीवारों पर भगवान कृष्ण, राम, सीता और हनुमान के चित्र देखे जा सकते हैं। आदिवासी और मुस्लिम अल्पसंख्यक छात्रों को सलाह दी जाती है कि वे इन देवताओं को माने और उनके जैसा जीवन व्यतीत करें। यहाँ गणित के पाठ्यक्रम में 'वैदिक गणित' नामक अंकगणित की एक प्राचीन पद्धति शामिल है। बांकुरा सम्मिलानी कॉलेज के प्रोफेसर स्वपन मुखर्जी कहते हैं कि आधुनिक गणनाओं में इस पद्धति का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। उन्होंने कहा, "बच्चों के दिमाग में यह बात बैठाई जा रही है कि हिंदुत्व से जुड़ी हर चीज श्रेष्ठ है।"
रानीबांध के हिजली निवासी बसंतो किश्कू ने बताया कि, “हमारा बच्चा जब स्कूल से वापस आता है तो वह हमें भगवान कृष्ण, राम, हनुमान आदि की कहानियाँ सुनाता है। उनमें से कई हिंदुत्व की बात करते हैं और अपनी संस्कृति को त्याग देते हैं। हम घर में उनकी इन बातों को नामंज़ूर कर उन्हें सिखाने की कोशिश करते हैं, लेकिन हममें से अधिकांश को समझौता करना पड़ता है। सरस्वती शिशु मंदिर के एक छात्र की मां नमिता सरेन ने सहमति व्यक्त की और कहा कि यह एक समझौता था जिसे आदिवासियों को करना पड़ा, क्योंकि यह पाठ्यक्रम का एक हिस्सा है और इसलिए इसे पढ़ने की जरूरत है।
सुसुनिया के एक सरकारी स्कूल के शिक्षक परेश हांसदा ने बताया कि, "तथ्य यह है कि आदिवासी लोग प्रकृति की पूजा करते हैं। वे मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते हैं। हमारे सभी त्योहार प्रकृति के इर्द-गिर्द घूमते हैं।” जंगलमहल के कई लोगों ने बताया कि आदिवासी छात्रों को शिक्षा के नाम पर हिंदू संस्कृति को आत्मसात करने पर "मजबूर" किया जा रहा है - क्योंकि यहां के सरकारी और माध्यमिक विद्यालयों की हालत बेहद खराब है।
कुछ ने यह भी दावा किया कि सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों के कई पूर्व छात्र आज प्रचारक के रूप में काम कर रहे हैं। ऐसे ही एक पूर्व छात्र, जो इंजीनियर हैं लेकिन आरएसएस के प्रचारक हैं, ने बताया कि: “हम सभी हिंदू हैं, आदिवासी जैसी कोई चीज नहीं है। इसी सोच से दक्षिण बांकुड़ा के कई स्थानों पर शाम के समय बड़े पंडालों में गीता और रामायण का पाठ किया जा रहा है। यदि संथाल समुदाय अधिक तादाद में है तो वहां संथाल व्यक्ति गीता का पाठ करता मिलेगा!
खटरा आदिवासी मोहबिद्यालय के एक पूर्व प्रोफेसर और शोधकर्ता ने समझाया कि: “संथाल आदिवासी और महतो (कुर्मी) का अपना धर्म होता है। बांकुरा, हुगली, बर्दवान, पुरुलिया और मयूरभंज के संथाल आदिवासियों का कहना है कि वे 'सारी धर्म' के अनुयायी हैं, लेकिन झारखंड और छत्तीसगढ़ में उनके समकक्षों ने खुद को 'सरना धर्म' का अनुयायी घोषित किया है। उनका अपना धर्म और संस्कृति अभी भी व्यापक रूप से प्रचलित है और वे खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। 19 नवंबर, 2021 को झारखंड विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर 2021 की जनगणना में सरना को एक अलग धर्म के रूप में शामिल करने की मांग की थी। यदि आने वाली जनगणना में सारी और सरना धर्म का उल्लेख किया जाता है, तो हिंदुओं की संख्या एक झटके में 20 करोड़ से अधिक कम हो जाएगी। इसी से आरएसएस डरती है।”
सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालयों में दादाभाई और दीदीभाई को इन नौकरियों को हासिल करने के लिए स्नातक और प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण डिग्री से अधिक की शिक्षित होने की जरूरत है। उनका आरएसएस का सदस्य होना जरूरी है और उनकी नियुक्ति से पहले संगठन के उच्च पदस्थ नेताओं से अनुमोदन मांगा जाता है। कुछ स्थानीय निवासियों ने बताया कि जिन लोगों को नियुक्त किया गया है, वे मिदनापुर में प्रशिक्षण हासिल करते हैं और कोमल मन को प्रभावित करने के लिए शिक्षा की आड़ में हिंदुत्व की राजनीति को विकसित करना सीखते हैं।
इन शिक्षकों के वेतन के भुगतान के लिए छात्रों का ट्यूशन फीस का भरना जरूरी है। लेकिन उनमें से कुछ शिक्षकों को 2,200 रुपये प्रति माह से भी कम वेतन मिलता है। 30 साल के अनुभव वाले शिक्षक को केवल 6,000 रुपये प्रति माह मिलता है। कोई स्वास्थ्य बीमा कवरेज नहीं है और वेतन भी सरकार के नियमों के अनुरूप नहीं है। खटरा सरस्वती शिशु मंदिर के एक शिक्षक ने बताया कि स्कूल बंद होने पर भी शिक्षकों को अलग-अलग काम दिए जाते हैं। बांकुड़ा के एक अन्य शिक्षक ने आरोप लगाया कि उन्हें अधिकारियों द्वारा "यातना" दी जाती है। उसने कहा कि बांकुड़ा शहर के एक पुरुष और महिला शिक्षक को स्कूल से इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने प्रेम विवाह किया था।
इसके अलावा, शिक्षकों को माता-पिता के साथ संबंध स्थापित करने के लिए छात्रों के घर जाना जरूरी कारी है। कई शिक्षकों ने कहा कि चार साल पहले कुछ शिक्षकों की पहल पर वेतन आयोग का गठन किया गया था, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों में काम कर रहे कई शिक्षकों ने बताया कि आरएसएस असहमति को बर्दाश्त नहीं करती है। “निर्णय लेने की शक्ति संगठन की केंद्रीय इकाई के हाथों में है। यह एक अत्यधिक केंद्रीकृत प्रणाली है। इसे कोई नहीं तोड़ सकता है। शिक्षकों की सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष है। सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें ग्रेच्युटी या पेंशन जैसे लाभ नहीं मिलते हैं। ईपीएफ (कर्मचारी भविष्य निधि) को कुछ साल पहले ही लागू किया गया था। शिक्षक को अपने वेतन से 300 रुपये का योगदान देना होता है और उतना ही स्कूल प्राधिकरण देता है। एक शिक्षक ने बताया कि, एक सेवानिवृत्त शिक्षक को बहुत कम राशि मिलती है।”
सवाल बार-बार उठाए गए हैं: कि छात्रों से लिया गया सारा पैसा कहां जाता है? रायपुर के एक शिक्षक ने बताया कि छात्र प्रति-वर्ष उच्च समिति को प्रति-छात्र 200 रुपये का भुगतान करते हैं। बाकी पैसों का क्या होता है कोई नहीं जानता है?
रानीबंद के एक आदिवासी शिक्षक ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा राजनीतिक संस्थाएं हैं; उनका अंतिम खेल चुनाव जीतना और सरकारें बनाना है। “लेकिन आरएसएस का अंतिम लक्ष्य हिंदू राष्ट्र बनाना और भारत को एक हिंदू समाज बनाना है। चंडीपाठ का पाठ करने वाली ममता बनर्जी निश्चित रूप से मोहन भागवत (आरएसएस प्रमुख) को खुश करतीं नज़र आती हैं। इसलिए, सरस्वती शिशु मंदिर आरएसएस के काम में सहायक है, और इसलिए इसका बढ़ना उनके लिए जरूरी है। उन्होंने कहा कि, सत्तारूढ़ टीएमसी, हालांकि, जमीन पर बदलती वास्तविकता से मुह मोड रही है।”
लेखक पश्चिम बंगाल में गणशक्ति अखबार के लिए बांकुरा क्षेत्र को कवर करते हैं। व्यक्त किए गए विचार निजी हैं।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।
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