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ग्राउंड रिपोर्ट: प्रेमचंद की विरासत को दीमक चाट रहे!

"शोध संस्थान के ख़ाली कमरे धूल फांक रहे हैं। खिड़की, दरवाज़े और म्यूज़ियम के नाम पर वहां सिर्फ़ मुंशी जी की टूटी चप्पल, कपड़े और कुछ सामान हैं।"
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रीबी, शोषण, अन्याय और उत्पीड़न को अपनी कहानियों में जीवंत बनाने वाले कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का 143वां जन्मदिन मनाने के लिए महीनों बाद उनके बैठका का ताला भी खोला गया, जिसके चौखट और खिड़कियों को दीमक चाटते जा रहे हैं। लमही महोत्सव के मौके पर स्वैच्छिक संगठनों के सहयोग से नाटकों का मंचन किया गया और दीपदान भी। महोत्सव में कुछ स्कूली बच्चे भी आए, जिन्हें सरकारी योजना के तहत प्रेमचंद मित्र नामित किया गया। इन्हें टी-शर्ट और सम्मान-पत्र बांटे गए। इस मौके पर संस्कृति और पर्यटन विभाग के अफसर पहुंचे और कुछ साहित्यकार भी।

Birth

जन्मदिन पर जुटे श्रोता और वक्ता 

मुंशी प्रेमचंद की विरासत को बचाने के लिए लंबे समय तक संघर्ष करने वाले बनारस के जाने-माने पत्रकार योगेंद्र शर्मा उनके स्मारक स्थल की दुर्दशा देखकर अवाक थे। ‘न्यूज़क्लिक’ से बातचीत में उन्होंने कहा, "प्रेमचंद इंसान के मनोविज्ञान को समझने वाले रचनाकार थे। हमने देखा कि लमही में मेला-तमाशा जैसा चल रहा है। इधर लगातार अखबारों में छप रहा है कि प्रेमचंद को पाठ्यक्रम से हटाया जा रहा है। मन द्रवित हो गया था सो हम लमही चले गए। हमें लगा कि जब प्रेमचंद के विचार, उनकी कथाएं और उनके उपन्यास ही नहीं रहेंगे, तो उनके स्मारक का क्या मतलब? लमही महोत्सव में खुद को समझदार समझने वाले कुछ लोग आए और वो मुंशी जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण और फोटो खिंचवाने के बाद सम्मान लेकर चले गए। कुछ चीजें हमें अखर रही थीं। साल 1959 में लमही में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद आए थे। वहां उनके नाम का पत्थर लगा था, वह कहीं नहीं दिखा। बंगीय साहित्य परिषद का एक पत्थर लगा था, वो भी गायब था। कभी जाएंगे और झाड़ियों को हटाकर देखेंगे कि प्रेमचंद की यादों की शिनाख्त करने वाले शिलापट हैं अथवा गायब हो चुके हैं। प्रेमचंद का बदहाल बैठका और उनके नाम पर खोले गए शोध संस्थान पर बंद ताला देखकर हमें बहुत पीड़ा हुई।"

Memory

प्रेमचंद स्मारक में रखी पुस्तकें और उनकी कुछ स्मृतियां 

कथाकार प्रेमचंद की जयंती पर पहली मर्तबा पांडेयपुर से लमही तक की सड़कें थोड़ी साफ-सुथरी दिखीं। बनारस के पांडेयपुर चौराहे को मुशी प्रेमचंद का नाम दिया गया है। फ्लाईओवर के एक पिलर के नीचे उनकी प्रतिमा भी स्थापित की गई है, जिसके ऊपर एक बिल्डर और लायंस सोसाइटी की होर्डिंग है। प्रतिमा के नीचे प्रेमचंद का नाम और जन्म 31 जुलाई 1880 और मृत्यु की तिथि 8 अक्टूबर 1936 अंकित है। कथाकार की प्रतिमा पहली बार थोड़ी साफ-सुथरी दिखी, लेकिन ऊपर से आने वाली गंदगी इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि शायद महीनों बात उसकी साफ-सफाई हुई होगी। वह भी सिर्फ रस्मअदायगी के तौर पर। मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा के चारो तरफ बलुआ पत्थरों पर उनकी कहानियों के शीर्षक पर आधारित कुछ तस्वीरें उकेरी गई हैं। प्रतिमा स्थल पर गुमशुदा की तलाश समेत न जाने कितने पोस्टर चस्पा किए गए हैं, जो इस बात की गवाही दे रहे थे कि सरकारी मशीनरी को कथा सम्राट में कोई रुचि नहीं है। यहां सब कुछ वीरान और उदास नज़र आता है।
 
किसी को नहीं कथा सम्राट की चिंता
 
वाराणसी ज़िला मुख्यालय से करीब साढ़े सात किमी दूर है लमही। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का गांव लमही। वाराणसी-आजमगढ़ मार्ग पर दूर से एक विशाल गेट दिखता है, जिस पर अंकित है मुंशी प्रेमचंद स्मृति द्वार। इसके दोनों ओर बैठे बैल हीरा और मोती की याद दिलाते हैं। वहीं हल लिए किसान की प्रतिमा देख कृषक जीवन के महाकाव्य ‘गोदान’ के हीरो-होरी की यादें ताज़ा हो जाती हैं। जन्मदिन पर भी मुंशी प्रेमचंद स्मृति द्वार की न तो कायदे से साफ-सफाई हुई और न ही वहां बने दो बैलों की जोड़ी की। गेट पर हनुमान जी की एक लंबी सी होर्डिंग लटकी हुई थी, जिस पर हर-हर महादेव का नारा लिखा था। एक खंभे पर एक कोचिंग सेंटर की होर्डिंग लगी थी। दोनों होर्डिंगों के नीचे संस्कृति विभाग के लमही महोत्सव का बैनर लगा था, जो इस बात को इंगित कर रहा था कि लमही में मुंशी जी के नाम पर कोई आयोजन होने वाला है। प्रेमचंद द्वार से गुज़र रहे एक युवक ने तल्ख लहज़े में कहा, "बनारस शहर में जी-20 के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाने वाली मोदी-योगी सरकार को कथाकार प्रेमचंद का जन्मदिन शायद याद नहीं रहा होगा। क्या इतना कम है कि आज के दिन संस्कृति और पर्यटन विभाग के नुमाइंदों की गाड़िया फर्राटे भरती नज़र आ रही है।"

Hall

प्रेमचंद के बैठका का हाल 

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मुंशी प्रेमचंद स्मृति द्वार से अंदर प्रवेश करने पर यह नहीं लगता कि यह गोदान, ठाकुर का कुआं, ईदगाह, दो बैलों की कथा, सवा सेर गेहूं, गबन जैसी कालजयी कृतियां लिखने वाले प्रेमचंद का गांव लमही होगा। लमही तो सिर्फ नाम का गांव रह गया है। शायद सिर्फ सरकारी दस्तावेजों में जिंदा है। मुख्य मार्ग से प्रवेश करते ही पक्की सड़क से गुज़रते हुए जैसे-जैसे गांव की ओर अंदर बढ़ते जाएंगे वैसे-वैसे पक्के घरों की कतार और बिजली के तारों का जंजाल सब कुछ साफ-साफ दिखेगा। लमही गांव में पहले प्रधानी का चुनाव होता था, लेकिन अब यहां के लोग सभासद चुनने लगे हैं। इस गांव में मुंशी जी के स्मारक की देखरेख से लेकर गांव से सड़क बनने तक का काम वाराणसी विकास प्राधिकरण करता रहा है। अपने कमरे की जिस खिड़की से प्रेमचंद अपने गांव को निहारा करते थे, वहां से अब सिर्फ कंकरीट के जंगल दिखते हैं। तमाम बहुमंजिली इमारतें लमही के सीने पर तनती जा रही हैं।

प्रेमचंद द्वार से आगे बढ़ते ही सड़क के दोनों तरफ सब्ज़ी मंडी दिखती है, जहां रोज़ाना सैकड़ों किसान साग-सब्जी ख़रीदने-बेचने आते हैं। सब्जी मंडी में भारी भीड़ इस बात से अनजान थी कि मुंशी प्रेमचंद के नाम पर लमही में कोई कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। लोगों को सिर्फ इतना पता था कि सालों से गंदगी से अटी-पटी रहने वाली सड़क आज चमचमा रही है। महीनों बाद सड़कों के किनारे चूने का छिड़काव किया गया था।

मुंशी जी के जन्मदिन पर भी नहीं खुला शोध केंद्र का ताला

लमही में हमें मिले शिवनाथ प्रसाद। बीते दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा, "एक वक़्त वो था जब गांव के बड़े बुज़ुर्ग हर शाम रामलीला मैदान में जुटते थे। एक-दूसरे का दुख-दर्द सुनते थे, लेकिन अब किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है। इस गांव में अब न झूले लगते हैं और न ही नाटकों का मंचन करने वाली मंडलियां दिखती हैं। सिर्फ लटकते तार दिखते हैं। लमही से भड़भूजे गायब हैं। दाना भुजाने के लिए भी लोगों को गांव के बाहर जाना पड़ता है। यह तस्वीर उस लमही की है जहां हिंदी साहित्य के एक महान पुरोधा ने तमाम ग्रामीण ज़िंदगियों की टीस, किसानों के दुख-दर्द को कहानियों में पिरोकर उनके सामाजिक जीवन को बड़ी ही खूबसूरती से सामने रखा था। हकीकत यह है कि लमही से अब गांव ही गुम हो गया है।"

नहीं खुला शोध केंद्र का ताला!

प्रेमचंद स्मारक के पास पहुंचने पर एक बड़ी-सी होर्डिंग दिखती है जिस पर हिंदी और अंग्रेज़ी में अंकित है - मुंशी प्रेमचंद शोध व अध्ययन केंद्र, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी। इस केंद्र पर अंदर से ताला बंद मिला। बहुत खटखटाने पर केयरटेकर गेट पर पहुंचा। अपना नाम बताने से इनकार करते हुए उसने कहा, "हमें शोध केंद्र का ताला बंद रखने की हिदायत दी गई है। चाहे जन्मदिन किसी का हो। किसी के कहने पर भी हम ताला नहीं खोलेंगे। ऊपर से आदेश नहीं आया है। इसलिए परिसर व कमरों की साफ-सफाई और पेड़-पौधों की कटाई-छंटाई नहीं हो सकी है। हम आपके सवालों का जवाब नहीं दे पाएंगे। बीएचयू के हिंदी विभाग के लोगों से बीतचीत कीजिए। हमें कुछ भी बोलने पर मनाही है।"

बारिश के दिनों में पांडेयपुर स्थित प्रेमचंद प्रतिमा पर टपकता है कीचड़युक्त गंदा पानी 

प्रेमचंद के जन्मदिन पर यूपी और बिहार से साहित्यिक अभिरुचि रखरने वाले तमाम लोग लमही पहुंचे, लेकिन बीएचयू के हिंदी विद्वान यहां नज़र नहीं आए। खासतौर पर उन लोगों ने भी कथा सम्राट को भुला दिया, जिन्होंने कुछ साल पहले इस शोध केंद्र को देश का महत्वपूर्ण केंद्र बनाने का वादा किया था। नौकरशाहों ने भी लंबे-चौड़े वादे किए, लेकिन वो ज़मीन पर नहीं उतरे। लमही का शोध केंद्र वीरान है जिसे खोलने के लिए मुलायम सरकार की पहल पर पांच करोड़ रुपये की मंज़ूरी मिली थी। इसे खोलने का मकसद यह था कि यहां साहित्यिक चर्चा हो और शोध गतिविधियां संचालित की जाएं। लेकिन हालात तो कुछ और ही बयां कर रहे हैं। इस शोध केंद्र में दूर से गंदगी और मकड़ी के जाले दिखते हैं। लमही के लोग बताते हैं, "शोध संस्थान के खाली कमरे धूल फांक रहे हैं। खिड़की, दरवाजे और म्यूजियम के नाम पर वहां सिर्फ मुंशी जी की टूटी चप्पल, कपड़े और कुछ सामान हैं। लाइब्रेरी में जो किताबें हैं उन्हें उठाते ही पन्ना हाथ में आ जाता है।"

मुंशी प्रेमचंद्र शोध संस्थान की ज़िम्मेदारी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के ज़िम्मे है, लेकिन यहां आज तक कोई शोध कार्य नहीं हो सका है। साल 2016 में इसके निर्माण पर करीब दो करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। इसे खोलने का मसकद अकादमिक कार्यों के अलावा शोध, संगोष्ठी, व्याख्यान, परिचर्चा आदि का आयोजन कर हिंदी साहित्य को बढ़ावा देना था। उद्धघाटन के बाद हर किसी का ध्यान हट गया। मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान के मुखिया बीएचयू के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और सदस्य हिंदी व उर्दू विभाग के प्रोफ़ेसर हैं। बीएचयू के हिंदी के विद्वानों के माथे पर यह आरोप अब खुलेआम चस्पा किया जा रहा है कि उनके हाथों प्रेमचंद की विरासत की नौका डूबती जा रही है। शोध संस्थान में आज तक निबंध, कहानी लेखन, चित्रकहा आदि प्रतियोगिताएं आयोजित नहीं की जा सकी हैं। पिछले छह सालों में साहित्य की यहां एक भी पुस्तक नहीं आई है। जो किताबें हैं भी वह दान में मिली हैं।
 
विरासत की हिफ़ाज़त नहीं!
 
दूसरे गांवों की मुकाबले लमही में साफ-सफाई दिखती है। गांव के बीचों-बीच प्रेमचंद सरोवर है, जिसमें बहुत गंदगी है। आसपास के लोग बताते हैं कि कुछ लोग अपने नाबदान का पानी इसी तालाब में बहा रहे हैं। सरोवर के ठीक बगल में है प्रेमचंद का पुश्तैनी मकान। मकान अब प्रेमचंद स्मारक का रूप ले चुका है। यहां मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा है। स्मारक के बायीं ओर दो कमरे हैं जिसमें एक छोटी-सी लाइब्रेरी है। लाइब्रेरी में मुंशी प्रेमचंद की कृतियां रखी गई हैं।

दीवार पर लटके चिमटे को देख यह एहसास ज़रूर होता है कि स्कूल के सिलेबस में ही सही, ईदगाह कहानी हर किसी ने पढ़ी होगी। 'ईदगाह' कहानी का पात्र है एक छोटा बच्चा, हामिद जो बाक़ी हम-उम्र साथियों की तरह खेल-खिलौनों और गुड्डे-गुड़ियों के लालच में नहीं पड़ता और अपनी दादी के लिए मेले से एक चिमटा खरीद कर लाता है। मगर चिमटा ही क्यों? वो इसलिए क्योंकि रोटियां सेंकते वक़्त उसकी दादी के हाथ जल जाते थे। इस छोटी-सी कहानी में लेखक प्रेमचंद ने हामिद से बड़ी-बड़ी बातें कहलवा दीं। वो बातें जो ना सिर्फ पाठक के दिल को छू जातीं हैं, बल्कि पाठक उन्हें आत्मसात भी कर लेता है। प्रेमचंद स्मारक में चिमटे के बगल में खिड़की पर एक गुल्ली-डंडा लटका है। लाइब्रेरी के संचालक सुरेश चंद्र शुक्ल कहते हैं, "उत्तर भारत से साहित्यकार रोज़ाना यहां आते हैं, जिनमें बच्चे और महिलाएं भी होती हैं।"

लाइब्रेरी के ठीक बगल में प्रेमचंद का वह बैठका भी है जिसके हर कोने में उनकी यादें दीमक चाट रही हैं। इसी बैठके के सबसे ऊपर के कमरे में प्रेमचंद लिखने-पढ़ने का काम करते थे। सबसे नीचे वाले हिस्से में किचन था। वहीं मेहमानों के ठहरने का इंतज़ाम किया गया था। तीन मंज़िला इस मकान के बीच में आंगन है। आंगन से होते हुए सीढ़ी पहली और दूसरी मंजिल तक ले जाती है। सबसे ऊपर दो कमरे बने हैं, जिसमें बैठकर मुंशीजी ने कई कालजयी रचनाएं लिखीं। बैठका के पश्चिम में बना कुआं तो है, लेकिन उस में पानी नहीं है। लोहे की बाड़ से उसे ढंक दिया गया है। बनारस के साहित्यकारों के हस्तक्षेप के बाद उनके आवास को स्मारक के रूप में सहेजा गया, लेकिन दो छोटे-छोटे कमरों के अलावा वहां कुछ भी नहीं है। यहां न तो पर्यटकों की आवाजाही है और न ही साहित्यकारों की। ऐसे में यहां धरोहर के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराया जाए?  


 मुंशी प्रेमचंद का पैतृक निवास 

मुंशी प्रेमचंद के स्मारक और बैठका की बदहाली पर ध्यान आकृष्ट कराए जाने पर क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र के प्रभारी सुभाष डॉ. सुभाष यादव कहते हैं, "भवन कथाकार के परिवार की प्रापर्टी है। इसके जिर्णोद्धार के लिए उनकी सहमति ज़रूरी है। हम मुंशी प्रेमचंद का शानदार संग्रहालय बनवाना चाहते हैं। यह आरोप गलत है कि हम कमरों की साफ-सफाई नहीं कराते। यहां हर रोज़ प्रेमचंद की कहानियों का पाठ होता है। बच्चों में साहित्यिक अभिरुचि पैदा करने के लिए मुंशी जी के जीवन पर आधारित स्कूली बच्चों की पेंटिंग प्रतियोगिता कराई गई और मार्च भी निकाला गया। कई कॉलेजों में प्रेमचंद मित्र नामित किए गए हैं। स्कूली बच्चों को हिंदी आलेख और कविता-कहानियां लिखने के गुर सिखाए जा रहे हैं।"

मुंशी प्रेमचंद की विरासत को संजोने के लिए दशकों से मुहिम चला रहे दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव, संस्कृति अधिकारी डॉ.सुभाष यादव के दावों को झूठा करार देते हैं। वह कहते हैं, "जब सोच सही नहीं है तो वो लमही का विकास क्या करेंगे? संस्कृति अधिकारी पहले बनारस के साहित्यकारों को ईमानदारी से इस बात का हिसाब दें कि प्रेमचंद के नाम पर वो टैक्सपेयर का कितना धन खर्च कर चुके हैं? उनके महकमे ने लमही को कितना बदला है? सच यह है कि लमही की किसी को चिंता नहीं है। पूरा साल गुज़र जाता है, लेकिन यहां कोई झांकने नहीं आता। नौकरशाही को मुंशीजी की याद तब आती है जब लमही महोत्सव के लिए सरकार की ओर से मोटी रकम पहुंचती है। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने बैठका के जीर्णोद्धार के लिए साल 2000 में में ढाई लाख और साल 2005 में 25 लाख दिए थे। उस समय किसी ने यह अड़चन नहीं बताई कि धन खर्च करने के लिए उनके परिवार की सहमति चाहिए। उस समय किस कानून के तहत बैठका और स्मारक स्थल का जीर्णोद्धार हुआ। प्रेमचंद स्मारक के आसपास धड़ल्ले से अवैध कब्जे किए जा रहे हैं। बारिश होती है तो मुशी जी का बैठका ताल-तलैया में तब्दील हो जाता है। ज़िला प्रशासन, वीडीए, पर्यटन और संस्कृति विभाग के अफसर चाहें तो लमही का कायाकल्प कर सकते हैं, लेकिन सब के सब चुप्पी साधे हुए हैं।"

08 अक्टूबर 1959 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्रेमचंद स्मारक का शिलान्यास किया था। उस समय संपूर्णानंद यूपी के मुख्यमंत्री थे। तब यह स्मारक नागरी प्रचारिणी सभा के अधीन था। पहले वहां खपरैल का मकान था जो बाद में ढह गया। मकान का हिस्सा नागरी प्रचारिणी सभा को दान में दिया गया था। नागरी प्रचारिणी सभा ने ही राष्ट्रपति को बुलाया था। तभी से स्मारक स्थल है। कुछ साल बाद वह स्मारक ताले में बंद में हो गया और वह स्थान घास-फूस, कूड़ा-करकट से भर गया। बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एस.अतिबल, योगेंद्र शर्मा, सुशील त्रिपाठी के अलावा लक्ष्मी प्रसाद मिश्र, काशीनाथ सिंह, त्रिभुवन सिंह, मोहनलाल, प्रह्लाद तिवारी, मानवी शरण आदि ने साल 1974 में नागरी प्रचारिणी सभा से स्वतंत्र कराने के लिए मुहिम चलाई और इस बाबत संघर्ष का ऐलान किया। नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री एवं चंदौली के सांसद सुधारक ने आंदोलनकारियों को नक्सली करार देते हुए कलेक्टर को फोन कर एक्शन लेने का निर्देश दिया। तब भारी फोर्स पहुंच गई। इसके बावजूद आंदोनकारियों ने नारेबाजी की और अंदर घुसकर प्रतिमा स्थल पर प्रदर्शन किया। बाद में सुधाकर पांडेय ने कुछ किताबें दान की और लमही के लोगों की कमेटी बनाई। पचास रुपये मासिक पर साफ-सफाई के लिए एक व्यक्ति की नियुक्ति की। कुछ साल तक मुंशीजी का जन्मदिन माने का क्रम चलता रहा। साल 1981-82 में मैं लमही आया तो कथाकार का जन्मदिन और पुण्यतिथि मनाने लगा।"
 
प्रतिमा पर गिरता है कीचड़ वाला गंदा पानी
 
दुर्गा कहते हैं, "काफी पंचायत के बाद हमारे प्रयास से ही पांडेयपुर चौराहे पर प्रतिमा लगी। डीएम प्रांजल यादव के कार्यकाल में मुंशीजी की प्रतिमा ऐसे स्थान पर लगवा दी गई जहां बारिश होने पर कीचड़युक्त पानी सीधे मुंशीजी की प्रतिमा पर गिरता है। कोरोनाकाल में लमही में अवैध तरीके से काफी ज़मीने कब्जा ली गईं। प्रेमचंद स्मारक के सामने पानी की टंकी को जेसीबी लगाकर ढहा दिया गया और उस स्थान पर कब्जा कर लिया गया। इस मामले में वीडीए ने एफआईआर तक कराई, लेकिन आज तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई। पुलिस भी खामोश होकर बैठ गई। इस गांव में अराजी नंबर-244 की ज़मीने महामहिम राज्यपाल के नाम हैं, जिसकी रजिस्ट्री फर्जी तरीके से करा ली गई है। खसरा-खतौनी में आज भी महामहिम का नाम है। शासन ने साल 2016 में लमही को हेरिटेज विलेज घोषित किया था। वीडीए ने इसे ग्रीन बेल्ट घोषित कर रखा है। लमही में मकान बनवाने के लिए लोन देने पर बैंक पर पाबंदी है। इसके बावजूद दनादन ज़मीने बेची-खरीदी जा रही हैं और इमारतें भी खड़ी हो रही हैं। नागरी प्रचारिणी सभा ने साल 2006-07 में प्रेमचंद स्मारक को ज़िला प्रशासन को सौंप दिया था। इसके बावजूद कोई विकास नहीं हुआ।"

"प्रेमचंद बैठका से पंखे और प्रोजेक्टर गायब हैं। कोई यह तक बताने के लिए तैयार नहीं है कि पंजाब नेशनल बैंक ने जो किताबें प्रेमचंद स्मारक के लिए दान में दी थी, वो कहां चली गईं? उन किताबों का हिसाब क्यों नहीं रखा गया है? प्रेमचंद के नाम पर कमाई करने के लिए कुछ एनजीओ घुसपैठ कर रहे हैं। प्रेमचंद की विरासत की बदहाली के लिए कुछ तथाकथित साहित्यकार दोषी हैं तो हिंदी के विद्वान भी। लमही में अवैध सब्जी मंडी लग रही है। पूरा क्षेत्र त्राहि-त्राहि कर रहा है। काफी बवाल मचा तो साल 2013 में कुछ दिनों के लिए मंडी बंद हो गई। बाद में तत्कालीन लोनिवि राज्यमंत्री सुरेंद्र पटेल ने उसे चालू करा दिया। प्रेमचंद शोध संस्थान के दाहिने तरफ लमही की सार्वजनिक ज़मीन बिक गई। समझ में यह नहीं आ रहा है कि सीएम योगी का बुलडोज़र यहां कब अतिक्रमण हटाने आएगा। लमही में करीब साढे बारह एकड़ बंजर ज़मीन है, जिस योजनाबद्ध तरीके से खुर्द-बुर्द किया जा रहा है।"

बनारस के लमही में मुंशी प्रेमचंद स्मृति द्वार 

प्रेमचंद की विरासत को बचाने के लिए लंबे समय तक मुहिम चलाने वाले काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, "दूसरी शादी के बाद प्रेमचंद की परिस्थितियां कुछ ऐसी बदलीं कि उन्होंने नबाब राय के नाम से पांच कहानियों का संग्रह 'सोज़े वतन' छापा, जिसमें उन्होंने देश प्रेम और जनता के दर्द को लिखा। अंग्रेज़ों को नागवार गुज़रा तो उन्होंने मुंशीजी को पकड़ लिया। बिना आज्ञा के लिखने पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद वह प्रेमचंद बन गए। परिवार का पालन पोषण करने के लिए वह साल 1934 में मुंबई गए। अजंता कंपनी में कहानी लेखक की नौकरी की, लेकिन अनुबंध पूरा किए बगैर लमही लौट आए। उनकी कई कहानियों और उपन्यासों पर फ़िल्में बनीं, लेकिन साल 1977 में बनीं 'शतरंज के खिलाड़ी' फिल्म को ही शोहरत मिल पाई। सत्यजीत रे की इस फ़िल्म को तीन फ़िल्म फेयर अवार्ड मिले। 'कफ़न' पर मृणाल सेन ने फ़िल्म बनाई। यह बात भी बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रेमचंद के बेटे अमृत राय की शादी प्रसिद्ध कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की बेटी सुधा चौहान से हुई थी।"

प्रदीप यह भी कहते हैं, "प्रेमचंद की रचनाओं में दलित और किसान हैं तो गरीबी व शोषण की दास्तां भी। आज के ज़माने में न तो गांव की बात करने वाले लेखक हैं और न ही उन जैसा कोई विचारक। उनकी रचनाओं को पढ़ने के बाद बहुत से लोग यह अर्थ निकालते रहे कि वो वामपंथी हो गए हैं। लमही में आज भी मुंशी प्रेमचंद के साहित्यिक चिन्हों को ढूंढते लोग देखे जा सकते हैं। यह स्थान उन्हें समर्पित है। हमें अपने साहित्यिक धरोहर को संरक्षित रखना चाहिए। इसके माध्यम से हम प्रेमचंद जैसे महान साहित्यकार के रचनाकर्म को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचा सकते हैं। साथ ही हम गर्व से अपने देश की सांस्कृतिक धरोहर को दुनिया के सामने पेश कर सकेंगे।"

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)

 

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