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ग्राउंड रिपोर्टः बनारस के तिलमापुर में दबंगों ने चलवा दिया बुलडोज़र, संकट में मुसहर परिवार

शोषण और उत्पीड़न अधिक होने के बावजूद मुसहर समुदाय के पक्ष में बहुत ऊंची आवाज़ नहीं उठाई जा सकी है। वे राजनीतिक रूप से कमज़ोर हैं और नेतृत्व की इसी कमी ने उनकी बातों को बड़ा सवाल बनने में बहुत बड़ी बाधा खड़ी की है।
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यूपी के बनारस शहर से सटे तिलमापुर गांव में मुसहर समुदाय के दर्जन भर परिवारों के सामने चिंता और चुनौती दोनों ही एक साथ आ पड़ी है। चिंता इस बात की है कि जिस स्थान पर वो पिछले चार पुश्तों से रह रहे थे, दबंगों ने उस पर बुलडोजर चलवा दिया। पीड़ितों ने सारनाथ थाने में गुहार लगाई। मौके पर पहुंची पुलिस ने बुल्डोजर चलाने वालों का साथ दिया। एक्शन लेने के बजाय उजाड़े गए लोगों को ही खरी-खोटी सुनाकर लौट गई। मुसहर समुदाय के लोगों को अब इस बात की चिंता है कि अगर वो बेघर हो गए तो कहां जाएंगे, और दूसरी चुनौती, अपनी ज़मीन को कैसे बचाएंगे?

बुल्डोजल से ढहाए गए मकानों के ईंट-पत्थर

उत्तर प्रदेश के गंगा और वरुण नदियों के संगम के पास वाराणसी से करीब 10 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित है तिलमापुर। यह गांव उस सारनाथ के करीब है जहां गौतम बुद्ध ने पहली मर्तबा धम्म को पढ़ाया था। तिलमापुर गांव में स्थित करीब 16 बिस्वा के एक तालाब के भीटे पर पिछले चार-पांच पुश्तों से मुसहर समुदाय के लोग रहते हैं। इसी भीटे पर इनकी झोपड़ियां है जो भूमाफिया की आंखों में चुभ रही हैं। कोशिश की जा रही है कि मुसहर समुदाय के लोगों को तिलमापुर से खदेड़ दिया जाए और उनकी जमीनों पर इमारतें तान दी जाएं।

इसी टीले पर बसी है मुसहर बस्ती

दबंगों ने मटियामेट कर दिया घर

काजू वनवासी की पत्नी सरोज देवी कहती हैं, "तिलमापुर में तालाब के भीटे पर बीस-पच्चीस बरस पहले हमने मिट्टी का दो कमरा बनवाया था। तभी से हम वहां रह रहे थे। वैसे तो हमारी चार पीढ़ियां तिलमापुर गांव में ही जन्मी और वहीं पली-बढ़ीं। 18 जनवरी को इलाके का एक दबंग व्यक्ति बलराम यादव बुलडोजर लेकर मौके पर पहुंचा और हमारे घर को मटियामेट कर दिया। जिस समय हमारी बस्ती में बुलडोजर गरजा, उस समय मुसहर बस्ती के ज्यादातर लोग मजूरी करने गए थे। घटना के समय सिर्फ कुछ महिलाएं और बच्चे ही मौजूद थे। हमें अपना सामान निकलाने तक का मौका नहीं मिला। दबंगों ने हमारी सारी गृहस्थी तहस-नहस कर दी। हमें गालियां और धमकियां दी गईं। इस बाबत हमने सारनाथ थाने में अर्जी दी। पुलिस मौके पर पहुंची, लेकिन उल्टा हमें ही धमकाने लगी। सारनाथ थाना पुलिस ने आज तक हमारी रिपोर्ट दर्ज नहीं की। जिस स्थान पर हम रह रहे हैं, उस जगह पर हमारा आधार कार्ड और राशन कार्ड भी है। सरकारी अभिलेखों में वहीं का पता भी दर्ज है।"

सरोज कहती हैं, "इलाके भर के भूमाफिया हमारी जमीनों पर नजर गड़ाए हुए हैं। प्रतिबंध के बावजूद आसपास तमाम इमारतें खड़ी हो गई हैं। भूमाफिया और इलाके के दबंग हम सभी को खदेड़कर भगा देना चाहते हैं। जिस ज़मीन पर 'मालिकाना दावा' करने के हमारे पास जो कागज़ात हैं, वो सरकार की नज़र में मान्य नहीं हैं, जबकि हमारी कई पीढ़ियां तिलमापुर में खप गईं। नगर निगम के मार्फत दबाव बनवाया जा रहा है कि हम जल्द-जल्द से मकान और ज़मीन खाली कर दें, नहीं तो फिर बुलडोजर चलवा दिया जाएगा। तिलमापुर के मुसहर परिवारों पर अब बेघर होने का संकट मंडराने लगा है।"

तिलमापुर में तालाब के जिस भीटे पर मुसहर समुदाय की एक छोटी सी बस्ती है, उसके ठीक बगल में है लिटिल फ्लावर स्कूल, जो इन दिनों बंद है। यह स्कूल बलराम यादव का बताया जा रहा है। तिलमापुर के ग्राम प्रधान सतीश मिश्र ‘न्यूजक्लिक’ से कहते हैं, "यह सच है कि जिस स्थान पर मुसहर बस्ती है, वो वहां चार-पांच पीढ़ियों से रह रहे हैं। अब से पहले किसी ने उन्हें भगाने की कोशिश नहीं की। किसी ने इनके मकानों पर बुलडोजर नहीं चलवाया। जहां तक हमें पता है कि जिस स्थान पर सरोज वनवासी के कमरे बने थे, वह जमीन अभिलेखों में खदेड़ू-भेगड़ू के नाम थी। वो मुसहर समुदाय के लोगों से जमीन खाली नहीं करा सके तो उन्होंने बलराम यादव को बैनामा कर दिया। कोई भी दलित परिवार अगर कहीं दशकों से रह रहा है तो उसे नहीं भगाया जा सकता है। कानूनन उक्त जमीन मुसहर समुदाय के नाम दर्ज हो जानी चाहिए। अगर मुसहरों की झोपड़ी ढहानी थी तो कोर्ट के आदेश से ही बुलडोजर चलवाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।"

"बुलडोजर से सरोज देवी के दो कमरों को जबरिया धराशायी कर दिया गया। जिनके पास कागज़ात नहीं भी है, वो जमीन  के दावेदार हो सकते हैं। इसके लिए लिए क़ानून में प्रावधान है। इसके लिए गांव सभा और आसपास के लोगों को स्वीकृति देनी पड़ती है कि ये यहां तीन-चार पीढ़ी से रहते आ रहे हैं। हमने तो कलेक्टर तक को यह बात लिखकर दे दी है कि मुसहर बस्ती कई दशक पुरानी है और वो  चार-पांच पीढ़ियों से रह रहे हैं। हमने जब से होश संभाला है, तब से मुसहरों को तालाब के टीले पर रहते हुए देखा है। मुसहर समुदाय के लोगों को उजाड़ने के पक्ष में हम कतई नहीं है।"

भूमाफिया के साथ खड़ी है पुलिस

सरोज देवी ने अपने साथ हुई नाइंसाफी और जोर-जुल्म की शिकायत वाली अर्जी 18 जनवरी 2023 को सारनाथ थाना पुलिस को दी थी। खाकी वर्दी वाले जवान मौके पर आए, लेकिन पुलिस दबंगों और भूमाफिया के पक्ष में खड़ी नजर आई। पुलिस और दबंगों की साठगांठ से समूची मुसहर बस्ती भयभीत है। इन्हें डर है कि भूमाफिया और इलाके के दबंग उन्हें खदेड़कर भगा देंगे। इसलिए सब के सब डरे और सहमे हुए हैं। मुसहर समुदाय के लोगों के पक्ष में कोई खड़ा नजर नहीं आ रहा है।

चेहरे पर झुर्रियां और लाल साड़ी पहने विधवा राधिका की आंखों में एक सख़्त उदासी नजर आती है। वो चार बच्चों की मां भी हैं। कई बरस पहले इनके पति हलचल की मौत हो गई थी। बेटे ईंट-पत्थर ढोते हैं, तब घर में चूल्हा जल पाता है। इन दिनों वह अपनी झोपड़ी को बचाने के लिए काफी चिंतित हैं। बिना सवाल पूछे राधिका कहने लगीं, "हमारे यहां चलकर देख लीजिए। हमारी झोपड़ी में कुछ भी नहीं है। घर तक का रास्ता भी सीवर के पानी में डूबा है। बारिश के दिनों में हमारी समूची बस्ती सराबोर हो जाती है। तब कई दिनों तक हमें नींद नहीं आती। मौजूदा प्रधान सतीश मिश्र जमीन की खरीद-फरोख्त का काम करते हैं। वही हम लोगों को भगा रहे हैं। हम लोग जिस जमीन पर बसे हैं, वह सरकारी अभिलेखों में बंजर के रूप में दर्ज है। इस जमीन को ग्राम प्रधान सतीश मिश्र इसे तालाब बता रहे हैं।"

तभी इनके पीछे खड़ी कुसुम की आवाज आई, " हमारी बस्ती के चारो ओर सीवर का पानी भर गया है और ऊपर से किसी के पास कोई काम नहीं है। सारे मर्द और महिलाएं खाली हाथ बैठे हैं। कोरोना चला गया, लेकिन भूख दे गया। दो वक्त की रोटी तक मयस्सर नहीं हो पा रही है। बस किसी तरह से चल पा रही है जिंदगी। जिस टीले पर हम रह रहे हैं, वहां हमारी चार-पांच पीढ़ियों ने जिंदगी काटी है। हमारे पास जमीन का पर्चा, रसीद और ढेरों अभिलेख हैं, पर कोई मानने को तैयार नहीं है। समूचा तिलमापुर गांव जानता है कि अंग्रेजों के समय से ही मुसहरों का कुनबा टीले पर रहता आ रहा है और अब कहा जा रहा है कि हम यहां से छोड़कर चले जाएं। बाप-दादा के समय से इसी जमीन से गुजर-बसर करते आ रहे हैं। अगर हमसे ज़मीन छीन ली जाएगी, तो परिवार को लेकर आखिर कहां जाएंगे? मौजूदा ग्राम प्रधान सतीश मिश्र ने खुद हमारे लिए पांच शौचालय बनवाया और अब न जाने क्यों वो हम लोगों को खदेड़कर भगा देना चाहते हैं। हम मर जाएंगे, लेकिन जमीन नहीं छोड़ेंगे।"

मुसहर बस्ती की शीला देवी पत्नी लुट्टूर बताती हैं, "हमें भगाने के लिए हम पर केस करने की धमकियां दी जा रही हैं। आगे जीवन कैसे यापन करेंगे, इसे लेकर हम गहरी चिंता में डूबे हैं। हम लोगों ने भी ठान लिया है कि ज़मीन किसी भी क़ीमत पर खाली नहीं करेंगे, क्योंकि इसके तमाम कागज़ात हमारे पास हैं।"

दो वक्त की रोटी जुटा पाना कठिन

लक्ष्मीना कहती हैं, "हम अनपढ़ और अंगूठा टेक जरूर हैं, लेकिन हमें अपने अधिकारों के बारे में पता है। ग्राम प्रधान बरगला रहे हैं कि बंजर जमीन पर पोखरा है, लेकिन मौके पर परती जमीन है। समूचे तिलमापुर का सीवर हमारे बस्ती में फैल रहा है। हम जानलेवा डेंगू के मच्छरों और बीमारियों के बीच रह रहे हैं। बारिश के दिनों में हमारी बस्ती ताल-तलैया बन जाती है। आने-जाने का रास्ता तक नहीं मिलता। कई दशक से सरकार हमें बिजली और पानी मुफ्त दे रही है। हमारी बस्ती में सरकारी नल जरूर लगा है, लेकिन हर हफ्ते दो-तीन दिन ऐसा भी होता है जब हमें बाल्टी लेकर लोगों के घरों पर पानी के लिए हाथ फैलाना पड़ता है। हम कई सालों से हैंडपंप की मांग कर रहे हैं, लेकिन हमारी बात सरकार तक नहीं पहुंच पा रही है। यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि हम किस पर कितना एतवार करें? "

श्याम कार्तिक वनवासी को इस बात दर्द है कि हमारी चिंता न सरकार को है, न ही हमारा वोट लेने वाले नेताओं को। वह कहते हैं, "मुसहर समुदाय के हर परिवार के लिए सरकारी आवास के लिए बजट मंजूर हो चुका है, लेकिन समझ में यह नहीं आ रहा है कि कमरे बनवाने के लिए हमें बजट क्यों नहीं निकालने दिया जा रहा है?  राशन कार्ड, आधार कार्ड से लगायत हमारे पास श्रम कार्ड तक है। विधाओं को पेंशन भी मिलती है, लेकिन हमारे बत्तखों को चरने के लिए जगह नहीं है। सरकारी मुलाजिमों से मिलकर तिलमापुर की बंजर जमीनें बेची-खरीदी जा रही हैं जिन पर पहला हक हमारा और हमारे पुरखों का है। इलाकाई लेखपाल हम लोगों की बात नहीं सुनता है। वह दबंगों और भूमाफिया का एजेंट बनकर काम कर रहा है। जहां चाहता है, जमीन नाप देता है और गरीबों को उजाड़ने के लिए कहानी गढ़ देता है।"

तन रहीं अवैध हवेलियां

 करीब 6500 की आबादी वाला तिलमापुर गांव अब नगर निगम का हिस्सा है। करीब ढाई साल पहले इस गांव को नगर निगम के लेढ़ूपुर वार्ड में शामिल कर दिया गया था। आशापुर, लेढ़ूपुर और तिलमापुर को मिलाकर नगर निगम ने वार्ड संख्या-32 (लेढ़ूपुर) बनाया है। तिलमापुर को जब से नगर निगम में शामिल किया गया है, तब से इस इलाके के विकास के नाम पर फूटी कौड़ी नहीं मिली। इस इलाके की नुमाइंदगी अब प्रधान के बजाय पार्षद के हाथ में होगी।

तिलमापुर गांव में घुसते ही एक टीले के पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से लगवाए गए तीन बोर्ड नजर आते हैं। एक बोर्ड पर अंकित है संरक्षित स्मारक, जिसमें अंग्रेजी और हिन्दी में लिखा गया है कि यह पुरातात्विक एवं अवशेष अधिनियम 1958 (1958 के 24) के अंतर्गत राष्ट्रीय महत्व का क्षेत्र घोषित किया गया है। यदि कोई भी इस स्मारक को क्षति पहुंचाता है, नष्ट करता है, विलग, परिवर्तित, कुरुप करता है, खतरे में डालता या दुरुपयोग करते पाया जाता है तो उसे इस अपकृत्य के लिए दो साल का कारावास अथवा एक लाख रुपये जुर्माना अथवा दोनों से दंडित किया जा सकता है। इसी बोर्ड में सौ मीटर के क्षेत्र को निषिद्ध और दो सौ मीटर के क्षेत्र को विनियमित घोषित किया गया है। बोर्ड में इस बात का साफ-साफ जिक्र किया गया है कि सक्षम अधिकारी की पूर्व अनुमित के बाद ही इस इलाके में भवन निर्माण, मरम्मत, परिवर्तन आदि किया जा सकेगा।

दिलचस्प बात यह है कि जिस स्थान पर पुरातत्व विभाग ने बोर्ड लगवाया है इसके इर्द-गिर्द कई बहुमंजिली इमारतें खड़ी हो गई हैं। कुछ इमारतें तन गई हैं तो कुछ निर्माणाधीन हैं। कुछ बरस पहले तक जिस तिलमापुर में खेती-किसानी हुआ करती थी, अब वहां कंकरीट के जंगल खड़े हो गए हैं।

मुसहर समुदाय के लोगों का सबसे बड़ा दर्द यह है कि आखिर वो कहां जाएं? मुसहर बस्ती में कोई ऐसा बच्चा नहीं है जो दसवीं पास हो। विजय, धर्मू, रघुवीर, कुसुम, विनय अब पढ़ना-लिखना सीख रहे हैं। कुछ औरतें दस्तखत तो कर लेती हैं, लेकिन उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता। जिन झोपड़ियों में मुसहर समुदाय के लोग रहते हैं, उसी में उनके सुअर और बत्तख तक पलते हैं।

पूर्वांचल के मुसहर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में "वनमानुष" के नाम से जाते हैं। सरकारी अभिलेखों में दोनों को अलग-अगल जातियों में सूचीबद्ध कर दिया गया है, जबकि दोनों के जीवन-यापन का तरीका एक जैसा है। आबादी छिटपुट होने के कारण राजनीतिक दल इन पर ध्यान नहीं देते। चुनाव कोई भी हो, मुसहर बस्तियों में न कोई सियासी रंग दिखता है, न ही उत्साह। तिलमापुर मुसहर बस्ती की रीता देवी कहती हैं, "नेता आएगा, वोट लेगा और गायब हो जाएगा। ऐसे में वोट के बारे में क्यों सोंचे?"

तिलमापुर मुहसर बस्ती के काजू वनवासी कहते हैं, " चुनाव के दौरान सभी दलों के नेता आते हैं। कहते हैं कि स्थितियां बदलेंगी, मगर आज तक हमारे हालात नहीं बदले। स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती जा रही है। हर साल पहली बारिश में ही हमारे कच्चे घर और रास्ते पानी में डूब जाते हैं। अब तो यही लगता है कि सभी दलों के नेता सिर्फ ढकोसला करते हैं। तभी तो हमारे पास न शौचालय है, न डाक्टर हैं और न ही रोज़गार। यह सिर्फ हमारी नहीं, मुसहर समुदाय के सभी टोलों की कहानी है। किसी भी मुसहर बस्ती में जाइए, औरतों के पिचके हुए गाल और नर-कंकाल सरीखे कुपोषित बच्चे कहीं भी दिख जाएंगे।"

पशुओं से बदतर जिंदगी

पूर्वांचल की किसी भी मुसहर बस्ती में जाइए, देखने से पता चल जाएगा कि उनकी जिंदगी पशुओं से भी बदतर है। बारिश के दिनों में इनके घर चूते हैं, जिसे बनाने के लिए इनके पास पैसे ही नहीं हैं। ऐसा नहीं कि नाउम्मीदी सिर्फ़ तिलमापुर के मुसहर समुदाय के हाथ आती है। वह तो समूचे पूर्वांचल के मुसहर टोले मे पसरी हुई है। मुसहर समुदाय के पास न रोजगार है, न सम्मान। सरकारी योजनाएं आती हैं तो सामंतों के घरों में कैद हो जाती हैं।

उत्तर प्रदेश में मुसहरों को अनुसूचित जाति (एससी) के रूप में मान्यता प्राप्त है। वे अलग-अलग बस्तियों में गांवों के हाशिये पर जीवित रहते हैं। उनका पारंपरिक पेशा था चूहों को खेतों में दफनाना। बदले में उन्हें मिलता था चूहे के छेद से बरामद अनाज और उस अनाज को चाक को रखने की मंजूरी। सूखे के समय ये चूहे ही इनकी आजीविका के खेवनहार बनते थे। बनारस के तमाम मुसहर परिवार आज भी ईंट भट्टों और कालीन के कारखानों में बंधुआ मजदूर के रूप में काम करते हैं।  

 मुसहर समुदाय के उत्थान के लिए दशकों से काम कर रहे एक्टिविस्ट डा. लेनिन रघुवंशी कहते हैं,  "जमींदारी उन्मूलन अधिनियम की धारा 144 बी 4 एफ में इस बात का प्रावधान किया गया है कि साल 2013 से पहले कोई भी दलित अथवा आदिवासी समुदाय का व्यक्ति जिस स्थान पर रह रहा है वहां से उसे नहीं हटाया जा सकेगा। वह असंक्रमणीय भूमिधर हो जाता है। तिलमापुर में मुसहरों की बस्ती पर बुल्डोजर चलवाने वालों पर एक्शन होना चाहिए। वहां के मुसहर समुदाय के साथ हो रही जुल्म ज्यादती की शिकायत अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से की जाएगी। हैरत की बात यह है कि सरकारी फरमान जारी होते हैं कि मुसहरों को जमीन दी जाए। इनकी जमीनों की सुरक्षा के लिए सरकार ने कठोर कानून बना रखा है, फिर भी इनकी जमीनें घटती जा रही हैं। जिस मुहसर टोले में जमीन का आवंटन होता है, दबंगों की दबंगई उन पर हावी हो जाती है। साजिश करके दबंग और भूमाफिया उनकी जमीनों पर काबिज हो जाते हैं। बाद में कोर्ट भी इस जमीन पर स्टे आर्डर लगा देती है। फिर समाज के दबे-कुचले लोग तारीख पर तारीख पाते हैं और अदालतों के चक्कर लगाते हैं। बाद में इस कदर टूट जाते हैं कि जमीन पाने का इनका सपना चकनाचूर हो जाता है। गरीबी के चलते वे मुकदमे नहीं लड़ पाते।"

डा.लेनिन यह भी कहते हैं, "दलितों में भी महादलित कहे जाने वाले मुसहर समुदाय के तक़रीबन 9.50 लाख लोग, उत्तर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में सदियों से हाशिये पर रहते और जीते आए हैं। पूरी तरह भूमिहीन रहे इस समुदाय के लोग दशकों से शिक्षा, पोषण और पक्के घरों जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहे हैं। बनारस के कोईरीपुर, दल्लीपुर, रमईपट्टी, औराब, सरैया, कठिरांव, असवारी, हमीरापुर, मारूडीह, नेहिया रौनाबारी, जगदीपुर, थाने रामपुर, बरजी, महिमापुर, सिसवां, परवंदापुर, सजोई, पुआरी खुर्द, मेहंदीगंज, शिवरामपुर, लक्खापुर सहित लगभग सभी मुहसर बस्तियों में वनवासी समुदाय के हजारों लोग जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। इनका जीवन तो ख़ासतौर पर कभी न खत्म होने वाली अनगिनत चुनौतियों का एक अंतहीन सिलसिला भर है। "

एक्टिविस्ट मंगला राजभर कहते हैं, "बिहार में महादलित और उत्तर प्रदेश में दलित जातियों में शामिल मुसहर जाति की अपनी पीड़ा गाथा है। वे भूमिहीन हैं और सामाजिक रूप से बहिष्कृत भी। आए दिन वे राज्य सत्ता के निशाने पर रहते हैं। उनकी पीड़ा का दस्तावेजीकरण आज तक नहीं किया गया। यहां तक कि दलित साहित्य में भी वे हाशिये पर हैं। आज़ादी के दशकों बाद भी वे लोकतंत्र में सबसे निचले पायदान पर हैं। प्रायः सभी गांवों में मुसहर आबादी रहती है। जब जमीनों की कीमतें बढ़ने लगती हैं तो दबंग उन्हें वहां से हटाकर दूसरी जगहों पर बसने को विवश करना शुरू तक देते हैं ताकि वो उनसे दूर रहें।"

मंगला बताते हैं, "यूपी के जौनपुर जिले के मुंगरा बादशाहपुर इलाके के गरियाव गांव में मुसहर बस्ती से सड़क गुजरी तो जमीन महंगी हो गई। आजादी के पहले से बसे मुसहरों को वहां से हटाने के लिए सामंतों ने एक दलित से दूसरी दलित जातियों को उनके खिलाफ खड़ा किया और तूफानी नाम के एक व्यक्ति की जीभ कटवा दी। पुलिस आई तो मुसहरों ने वही गवाही दी, जो वहां के दबंग सामंत चाहते थे। शोषण और उत्पीड़न अधिक होने के बावजूद मुसहर समुदाय के पक्ष में बहुत ऊंची आवाज नहीं उठाई जा सकी है। वे राजनीतिक रूप से कमजोर हैं और नेतृत्व की इसी कमी ने उनकी बातों को बड़ा सवाल बनने में बहुत बड़ी बाधा खड़ी की है। इसलिए उत्तर प्रदेश में मुसहरों पर फर्जी मुकदमे लादे जाते रहने और कई बार झूठी मुठभेड़ों के नाम पर पुलिस द्वारा हत्या कर दिए जाने के बावजूद शासन-प्रशासन में एक सतत चुप्पी देखने को मिलती है।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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