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ग्राउंड रिपोर्ट : बीड़ी पीने वालों से भी ज़्यादा तेंदूपत्ता तोड़ने वाले आदिवासियों का मज़दूरी न मिलने से घुट रहा दम!

तेंदूपत्ते की तोड़ाई और संग्रहण की मज़दूरी का भुगतान अभी तक न किए जाने से मज़दूरों के सामने भुखमरी का संकट है। यह स्थिति तब है जब पूर्वांचल तप रहा है और हालात सूखे जैसे हैं। आदिवासियों के पास न कोई काम है, न कोई दूसरा रोज़गार।
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उत्तर प्रदेश के चंदौली, मिर्जापुर और सोनभद्र जिले में तेंदू (डाइसोपाररस चोमेंटोसा) पत्ते की तोड़ाई का काम करने वाले आदिवासियों को डबल इंजन की सरकार ने ऐसे दलदल में ढकेलना शुरू कर दिया है, जहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं है। जंगली जानवरों के बीच जिंदगी को दांव पर लगाकर तेंदू पत्ते की तोड़ाई और संग्रहण का कार्य करने वाले हजारों आदिवासी और दलित परिवारों को इस साल अभी तक मजदूरी नहीं मिली है। सबसे गंभीर स्थिति चंदौली जिले के नौगढ़ इलाके में है।

नौगढ़ वो इलाका है जहां भूख और गरीबी के चलते आदिवासियों ने बीते सालों में नक्सलियों के साथ मिलकर बंदूक उठा लिया था। कई सालों तक मार-काट का सिलसिला चला था। स्थिति थोड़ी सुधरी तो तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासियों को फिर उसी रास्ते की ओर ढकेलने के लिए विवश किया जा रहा है जिस दलदल से वो मुश्किल से लौट पाए हैं। इनके दर्द का एहसास न यूपी की योगी सरकार को है, न नौकरशाही को। तेंदू पत्ते की तोड़ाई और संग्रहण की मजदूरी का भुगतान अभी तक न किए जाने से निर्बल तबके के लोगों के सामने भुखमरी का संकट है। यह स्थिति तब है जब पूर्वांचल तप रहा है और हालात सूखे जैसे हैं। आदिवासियों के पास न कोई काम है, न कोई दूसरा रोजगार।

हालात के सामने मजबूर आदिवासी

यूपी में बीड़ी पीने वाले आदतन मजबूर हैं तो तेंदू का पत्ता तोड़ने वाले आदिवासी हालात से मजबूर हैं। सपाट शब्दों में कहें तो जितना दम बीड़ी पीने वालों का घुट रहा है, उससे ज्यादा बीड़ी में इस्तेमाल होने वाले तेंदू पत्तों को तोड़ने वाले श्रमिकों का। चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर के जंगलों में आदिवासियों की आठ जातियां रहती हैं जिनमें कोल, खरवार, भुइया,  गोंड, ओरांव या धांगर, पनिका, धरकार, घसिया और बैगा हैं। ये लोग जंगलों से तेंदू पत्ता, शहद, जलावन लकड़ियां, परंपरागत औषधियां इकठ्ठा करते हैं और इसे स्थानीय बाज़ार में बेचकर अपनी रोज़ी रोटी का इंतज़ाम करते रहे हैं। गर्मी के दिनों में आदिवासियों की एक बड़ी आबादी भीषण गर्मी और जंगली जानवरों से बचते हुए तेंदू का पत्ते की तोड़ाई करती है। पहले तेंदू पत्ते की मजदूरी से ही आदिवासी समुदाय के लोग शादी-विवाह और अन्य जरूरी काम कर लिया करते थे। इस बार हालात काफी चिंताजनक है। तेंदू पत्ते की तोड़ाई का भुगतान न करके उत्तर प्रदेश वन निगम ने इनके सामने एक बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। नतीजा, आदिवासियों के हजारों परिवार भुखमरी की जद में आ गए हैं।

सोनभद्र का जंगल

मजदूर किसान मंच के राज्य कार्य समिति सदस्य अजय राय कहते हैं, "भयंकर लू के समय तेंदू पत्ते को तोड़ने वाले आदिवासियों को मजदूरी का भुगतान न करना वन निगम का आपराधिक कृत्य है। मजदूर भुखमरी की चपेट में हैं। सूखे की आशंका बनी हुई है। इनके पास कोई काम नहीं है। अगर इन्हें तेंदू पत्ते की तोड़ाई का भुगतान जल्द नहीं किया गया तो यह भी संभव है कि ये लोग रास्ता भटक सकते हैं और स्वार्थी तत्व इन्हें बरगला सकते हैं।"

जनवादी सरोकार के लिए संघर्ष करने वाले अजय राय यह भी कहते हैं, "उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में जितने भी आदिवासी तेंदू पत्ते के संग्रहण में लगते हैं, उनकी कमाई आठ-नौ हजार से ज्यादा नहीं होती। वह भी तब, जब उनके परिवार के आधा दर्जन लोग पत्ता तोड़ने से लेकर बंडल बनाने के कार्य में लपटकर करीब 12 घंटे काम करते हैं। काशी वन्य जीव प्रभाग के वन भीषणपुर, ढोढ़नपुर, छीतमपुर, पोखरियाडीह, मूसाखांड़, विजयपुरवा, भादरखड़ा, मुजफ्फरपुर, नेवाजगंज, शिकारगंज, पुरानाडीह, बोदलपुर चिल्लाह, लेहरा, जमसोती, गोडटुटवा, मुबारकपुर, परना, शिंकारे और भभौरा में तेंदू पत्ते के संग्रहण के लिए हर साल की तरह इस बार भी फड़ इकाइयां खोली गई थीं। लहकती धूप में हजारों आदिवासी परिवारों ने तेंदू पत्ता तोड़ा। सरकारी वादे के मुताबिक इन्हें पीने का पानी, झोला और गुड़ दिया जाना था, लेकिन ये सुविधाएं कागजों से बाहर नहीं निकलीं।"

जमसोती गांव के आदिवासियों के लिए पीने का पानी तक नहीं

यूपी के चंदौली जिले के नौगढ़ सेक्शन में साल 2022 में चार हजार मानक बोरा तेंदू पत्ते की तोड़ाई कराने का लक्ष्य तय किया गया था। इसके विपरीत सिर्फ 11 सौ मानक बोरा तेंदू पत्ते की तोड़ाई हो सकी। एक हजार गड्डी का एक मानक बोरा होता है और एक गड्डी में 50 पत्ता बीड़ी बनाने योग्य होता है। इसी तरह चकिया सेक्शन में सिंगारे, भभौरा, परना, मुबारकपुर, खूंटा, बगदड़, मुसाखाड़, वन भीखमपुर, ढोढ़नपुर, छित्तमपुर, पोखरिया डीह, मुजफ्फरपुर, दुबेपुर, पचफेड़िया, बोदलपुर, शिकारगंज, नेवाजगंज, पुरानाडीह, जमसोती, गोड़टुटवां में 1500 मानक बोरा के मुकाबले सिर्फ 1300 मानक बोरा तेंदू पत्ता तोड़ा जा सका। एक मानक बोरे में तेंदू के पांच हजार पत्तों की गड्डियां होती हैं। तेंदू पत्ता तोड़न वाले आदिवासी गुरुदास, रेखा देवी, नेवल, तेंनुआ, जंग बहादुर, रामलोचन महीनों से मजदूरी का इंतजार कर रहे हैं। मानसून की बेरुखी के चलते आदिवासियों और वनवासी मजदूरों को न खेतों में काम मिल रहा है, न वन निगम उनके मजदूरी का भुगतान कर रही है। सोनभद्र में वन निगम ने जिले में इस साल 85 हजार मानक बोरा तेंदू पत्ता खरीदने का लक्ष्य तय किया था। इसके लिए यहां 417 फड़ बनाए गए थे। विलंब से आदेश जारी होने के कारण सोनभद्र में भी लक्ष्य से काफी कम पत्ते तोड़े जा सके। मिर्जापुर में अहरौरा और खोराडीह के जंगलों में बेलखरा, हिनौता, छातो, मानिकपुर, जुड़ई, बिंदपुरवा समेत कई गांवों के आदिवासी और दलित समुदाय के लोग तेंदू पत्ता तोड़ते हैं। यहां भी स्थिति सोनभद्र और चंदौली जैसी ही रही और लक्ष्य पीछे छूट गया। वन निगम का क्षेत्रीय कार्यालय भी मिर्जापुर में है। लाचारी और बेबसी के बीच सरकारी मशीनरी ने आदिवासियों की ओर से अपनी आंखें फेर ली है। इनकी मजदूरी का भुगतान करने में जितने उदासीन अफसर हैं, उससे भी ज्यादा यूपी सरकार।

जमसोती गांव में बैठे आदिवासियों के पास कोई काम नहीं

जीवन में न कोई रंग, न उत्सव

उत्तर प्रदेश के चंदौली, सोनभद्र, मिर्जापुर, इलाहाबाद, चित्रकूट, कर्वी, बांदा, हमीरपुर, महोबा, झांसी और ललितपुर जनपदों में बीड़ी बनाने के लिए तेंदू पत्तों की तोड़ाई होती है। मार्च-अप्रैल महीने में तेंदू के नए पत्ते निकलते हैं, जिन्हें मई-जून महीने में तोड़ा जाता है। तेंदू के जिस पत्ते से बीड़ी बनती है। उसका फल खाने में काफी मीठा होता है। आदिवासियों के लिए इस बार तेंदू पत्ते की तोड़ाई के लिए मजदूरी 1500 रुपये प्रति मानक बोरा तय की गई थी। एक हजार गड्डी में एक मानक बोरा होता है। मजदूरों को सौ गड्डी पर डेढ़ सौ रुपये मजदूरी दी जाती है।

तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासियों के जीवन में न कोई रंग है, न उत्सव। सालों से तेंदू पत्ते तोड़ने वाली जमसोती की पत्नी मुन्नी देवी कहती हैं, "कुछ नहीं बदला है। हालात कल भी जैसे थे और अब भी वैसे ही हैं। औरतें घर का सारा काम करके, बच्चों को संभालते हुए तेंदू के पत्ते तोड़ती हैं। मेहनत के मुकाबले मजदूरी काफी कम है। सरकार ने जो मजदूरी तय कर रखी है उसका भुगतान करने में भी अब हीलाहवाली की जा रही है। वैसे भी तेंदू पत्ते की तोड़ाई की मजदूरी इतनी भी नहीं कि घर की तात्कालिक जरूरतें पूरी हो सकें।"

भूख से जद्दोजहद-तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासी परिवार की बच्ची

मुन्नी देवी सिर्फ अकेली आदिवासी श्रमिक नहीं हैं जो शोषण की शिकार है। तेंदू पत्ता तोड़ने वाली सभी औरतों की कहानी एक जैसी ही है। जमसोती की राधिका कहती हैं, "खराब पत्ते का हवाला देकर फड़ मुंशी कई बार तेंदू के पत्तों के बंडलों को रिजेक्ट कर देता है। तेंदू पत्ता थोड़ा भी खराब दिख जाता है तो मजदूरी आधा कर देता है। रोजगार पाने की मजबूरियों के चलते महिला श्रमिकों की जुबान बंद रहती है। डर से महिलाएं शिकायत नहीं करतीं। आवाज उठती है, तो जंगलों में ही दफ्न हो जाती है। यह सब वर्षों से होता चला आ रहा है।"

मुश्किल भरी है इन औरतों की जिंदगी

किसानों और मजदूरों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले चौधरी राजेंद्र सिंह कहते हैं, "किसान आंदोलन में अब तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासी श्रमिकों के मुद्दे को भी शामिल किया जाएगा। तेंदू पत्ता संग्रहण से जुड़े परिवारों की मजदूरी का भुगतान तो लटका है ही, वन निगम बोनस देने में भी हीलाहवाली करने लगा है। आदिवासियों को सालों से न लाभांश राशि मिली और न ही उनका बीमा कराने में योगी सरकार ने कभी रुचि ली। यह स्थिति तब है जब नौगढ़ के जंगलों में शेर, चीता, भालू, हुड़ार, सियार सरीखे तमाम जंगली जानवर कई आदिवासियों को अपना शिकार बना चुके हैं। तेंदूपत्ता संग्रहण कार्य से जुड़े भोले-भाले आदिवासी परिवारों के साथ दशकों से व्यापक अत्याचार और उनका आर्थिक शोषण किया जा रहा है। उनके हक और अधिकारों में कटौती की जा रही है। पूर्वांचल में बड़ी संख्या में आदिवासी परिवार अपने हक-हकूक के लिए दर-दर भटक रहे हैं और वन निगम महकमें के अफसर रहस्यमयी चुप्पी साधे हुए हैं।"

साहब सिंह कोल

काशी वन्य जीव विहार के तेंदू पत्ता तोड़ने वाले कोल आदिवासी 38 वर्षीय पप्पू ने इस साल नौ हजार रुपये के पत्ते तोड़े थे। मजदूरी का भुगतान 10 जुलाई तक हर हाल में करने का यकीन दिलाया गया था, लेकिन अफसरों का वादा झूठ साबित हुआ। जमजोसी के 35 वर्षीय साहब कोल को डेढ़ साल पहले तोड़े गए तेंदू पत्ते का 1900 रुपये का भुगतान आज तक सिर्फ इसलिए नहीं किया गया, क्योंकि चेक त्रुटिपूर्ण था। इस पैसे के लिए दौड़ते-दौड़ते साहब कोल के जूते टूट गए, लेकिन मजदूरी नहीं मिल सकी। जगवंती और उनके पति राम विलास बताते हैं, "हमें सिर्फ 11 सौ रुपये की मजदूरी का नगद भुगतान हुआ है। हम तो अनपढ़ हैं। बताया जा रहा है कि तेंदू संग्रहण एवं पारश्रमिक पुस्तिका पर 2745 रुपये मजदूरी बकाया है, जिसका हम महीनों से इंतजार कर रहे हैं।"

पप्पू

कुछ इसी तरह का दर्द तेंदू दिनेश, गनेश, नंदू, रमेश, पप्पू, हरबंश, राजू, ब्रजेश, रोहित, कल्लू, लकड़ू, चिरंजू, हीरा, रामाशीष, रामचंद्र, रामजतन को भी है। खपरैल से बने अपने घरों को दिखाते हुए ये कोल आदिवासी कहते हैं, "बस किस तरह से हम सभी गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रहे हैं। हम अनपढ़ हैं। फड़ मुंशी जो बता देता है वही हम अपनी मजदूरी मान लेते हैं। हम इतना जरूर जानते हैं कि फड़ मुंसी हम सभी से 50 से लेकर 100 बंडल तेंदू पत्ता जबरिया ले लेता है। गोड़टुटवां में लगने वाले फड़ पर तेंदू पत्ता देने वाले 25 लोगों से ज्यादा वनवासियों का पैसा बकाया है।" रामजतन, राम अशीष और हीरालाल की दुखभरी कहानी भी कुछ इसी तरह की है। सबका एक ही आरोप है, "तेंदू पत्ता संग्रहण केंद्र के मुंसी हमारा जमकर शोषण और घपला-घोटाला करते हैं। पत्ता लेने के बाद फड़ मुंसियों को ढूंढ पाना मुश्किल हो जाता है।"

पहाड़ बनी ज़िंदगी

तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासियों का दर्द समझ पाना हर किसी के बस में नहीं है। नौगढ़ के जंगलों में तेंदू पत्ता तोड़ने वाली महिला गिरजा कहती हैं, "तेंदूपत्ता के रोजगार में सबसे बड़ी समस्या हमारे सामने जंगल के लिए पैदल चलना है। जंगल में जब हम एक-दो किलोमीटर तक लंबी घाटियां चढ़ते हैं तो सिर चकराने और शरीर चरमराने लगता है। जब हम सिर पर 30 से 40 किलो तेंदूपत्ते लाद कर जंगल में ऊंची-ऊंची घाटियां चढ़ते हैं तो हाथ-पैर ढीले पड़ने लगते हैं। कई बार तेंदू पत्ता तोड़ने के लिए हमें जंगलों में दस से बीस किमी पैदल चलना पड़ता है। चंदौली और सोनभद्र के जंगलों में झाड़ियां बहुत हैं, जिनके भीतर भी तेंदूपत्ते के पेड़ लगे होते हैं। जब हम तेंदूपत्ते तोड़ते हैं तो झाड़ियों में फंसकर कपड़े फट जाते हैं। हमारे एक जोड़ी कपड़े चार-पांच दिन ही चलते हैं। इसके बाद हमें दूसरे कपड़े पहन कर जंगल जाना पड़ता है।

तेंदूपत्ते के रोजगार में वक्त कितना समय देना पड़ता है? इस सवाल पर 50 वर्षीय राम विलास कहते हैं, "हमें रात तीन बजे से घर से जंगल की ओर रवाना होना पड़ता है। कई बार जंगल पहुंचने में सुबह हो जाती है। तड़के पांच-छह बजे से तेंदूपत्ता तोड़ना शुरू करते हैं। चार घंटे बाद घर लौटते हैं। इसके बाद तेंदू पत्ते की गड्डियां बनाने में तीन-चार घंटे का समय लगता है। दुख इस बात का है कि हमारी पीड़ा सुनने के लिए कोई तैयार नहीं है।"

राम विलास

"झाडियों में लगे तेंदू के पेड़ से तेंदूपत्ते तोड़ते वक्त हमारे हाथ-पैर में खरोंचे आ जाती है। जिनसे खून आने लगता है। पक्के से पक्का जूता पहनकर आओ तब भी किसी न किसी के पैर में कांटे चुभते रहते हैं। पैर में चुभे कांटों को सुई से निकालते हैं, तब राहत की सांस मिलती है। हमारी आहें, हमारी कराहें, आखिर सरकारें क्यों नहीं सुन पा रही हैं।"   

मानवाधिकार के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट डा.लेनिन कहते हैं, "तेंदूपत्ते की तुड़ाई का कामकाज, मजदूरों का खून-पसीना एक कर देता है। प्रचंड गर्मी में जब तापमान 47 डिग्री पर था और तमाम लोग अपने घरों में एसी-कूलर की हवा में बैठे हुए थे, उस वक्त आदिवासी मजदूर तेंदूपत्ता तोड़ने में जुटे थे। इन आदिवासियों का आमना-सामना प्रायः रोज ही जंगल में भालू, चीता, हिरण, बारहसिंघा और सेही जैस जीव-जन्तुओं से होता रहता है। पहाड़ों की ऊंची चोटियों पर चढ़ना और तेंदू के पत्ते लेकर उतरना कोई आसान काम नहीं। इसके बावजूद मजदूरी का त्वरित भुगतान न किया जाना मानवाधिकार का घोर उलंघन है। सरकारी योजनाएं इन आदिवासियों के हिस्से में कभी आती ही नहीं है। आमतौर पर हर रोज 50-80 तेंदूपत्तों की एक गड्डी जैसी 100-150 गड्डियां बना पाता है।"

डा.लेनिन यह भी कहते हैं, "कोरोना के बाद से आदिवासी श्रमिकों की हालत बेहद खराब है। ऐसे में सरकार के अविलंब बकाये का भुगतान कर देना चाहिए तभी आदिवासी और निर्बल तबका भुखमरी से बच सकेगा। चंदौली का नौगढ़ और सोनभद्र के कई इलाके करीब एक दशक तक नए तरह के आतंकवाद की चपेट में रहे हैं। एक लंबे प्रयास के बाद बड़ी मुश्किल से स्थिति सुधरी है। ऐसे में कोई भी आक्रोश वाली स्थिति पैदा नहीं होने देना चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इस मामले में तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए। सरकार को इस तरह की व्यवस्था बनानी चाहिए जिससे तेंदू पत्ता में ठेकेदारी प्रथा बंद हो। आदिवासियों की सोसाइटी बने और उन्हें वनोपज से आजीविका चलाने आजादी दी जाए। इन्हीं आदिवासियों को तेंदू पत्ता तोड़ने और बेचने के अधिकार भी सौंपे जाएं। इनकी मजदूरी का भुगतान न किया जाना भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 का सीधा-सीधा उल्लंघन है, जिसमें हर नागरिक को गरिमा के साथ जीने के अधिकार हासिल है। राज्य और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को स्वतः संज्ञान में लेना चाहिए। नक्सल प्रभावित इलाके में प्राथमिकता के आधार पर भुगतान करना चाहिए।"

नौगढ़ के इन्हीं जंगलों में होती है तेंदू पत्ते की तोड़ाई

अधिकारों पर डाका

देश के 112 अति पिछड़े ज़िलों में शामिल उत्तर प्रदेश के आठ ज़िलों में सोनभद्र और चंदौली भी शामिल हैं। चंदौली जिले की सीमाएं एक ओर जहां बिहार से जुड़ती हैं, वहीं सोनभद्र की मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार व झारखंड से। भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की द्विवार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो सालों में सोनभद्र का जंगल 103.54 वर्ग किमी और चंदौली का 1.79 वर्ग किमी कम हुआ है। चंदौली का नौगढ़ इलाका सोनभद्र से सटा है, जहां दो दशक पहले कुबराडीह और शाहपुर में भूख से कई आदिवासियों की मौत हो गई थी। भाजपा शासनकाल में जंगलों का चीरहरण होने से आदिवासियों के जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

पूर्वांचल के आदिवासी तेंदूपत्ते की तुड़ाई को मौसमी रोजगार मानते हैं। मगर यह मौसमी रोजगार उतना सरल नहीं है, जितना समझा जाता है। जी-तोड़ मेहनत के बाद तेंदूपत्ता मजदूर सिर्फ उतना ही कमा पाते है जितने में सुबह-शाम पेट की भूख मिटाई जा सकती है। नौगढ़ (चंदौली) के औरवाटांड में आदिवासियों के बच्चों के लिए एक स्कूल का संचालन करने वाले जगदीश त्रिपाठी तेंदू पत्ता तोड़ने वाले आदिवासियों की बदहाल जिंदगी पर तल्ख सवाल खड़ा करते हैं। वह कहते हैं, "तेंदू पत्ता की तोड़ाई के बाद मजदूरी का त्वरित भुगतान डबल इंजन की सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। योगी सरकार सबसे कमजोर मजदूर वर्ग को क्यों नजरंदाज करके चल रही है? वह तेंदूपत्ता जैसे रोजगार को संरक्षण क्यों नहीं देती? दशकों के यक्ष प्रश्न बने इन सवालों को हल करने में सरकार की दिलचस्पी आखिर क्यों नहीं है? सरकार का कर्तव्य भी बनता है कि वह आदिवासियों के संरक्षण के लिए तत्परता दिखाए, लेकिन धरातलीय हकीकत में ऐसा रत्ती-भर भी नजर नहीं आता।"

भूख से दो चार होते आदिवासियों के बच्चे

जगदीश त्रिपाठी यह भी कहते हैं, "अंग्रेजी हुकूमत ने तो बकायदे कानून बनाकर आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर करना शुरू दिया था, ताकि वो जंगलों के संसाधनों का इस्तेमाल अपने हितों के लिए कर सकें। आजादी के बाद भी जंगल का यह कानून लागू रहा और जंगल के निवासियों को अपने अधिकारों के लिए भारतीय राज्य से लगातार लड़ना पड़ा। यह लड़ाई आज भी जारी है। तेंदू पत्ते को की तोड़ाई और संग्रहण में एक तरफ आदिवासियों के शोषण की पटकथा नौकरशाही लिख रही है तो दूसरी ओर, वन माफिया इनके अधिकारों पर खुलेआम डाका डाल रहे हैं। आदिवासियों का जन-जीवन आज भी एक ऐसे क्षेत्र की दास्तान है, जो जंगलों को उजाड़े जाने की कहानियां सुना रहा है। कितनी अजीब बात है कि पूर्वांचल के आदिवासियों के पास सदियों से जल, जंगल, जमीन का नैसर्गिक अधिकार रहा है और यह सरकार अब उनसे अभिलेखों की मांग कर रही है। साथ ही जुमले और नारे उछाल रही है। आदिवासियों की मजदूरी, रोजगार और उनके हक-हकूक का मुद्दा आज भी मुंह बाए खड़ा है।"

सभी फोटोः विजय विनीत

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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