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ग्राउंड रिपोर्टः किसानों के गले की फांस बनता जा रहा आसमान छूता मवेशियों का चारा, आलू-प्याज़ को भी आंखें दिखा रहा भूसा

"यूपी के नौ लाख से ज़्यादा मवेशियों के लिए सिर्फ दान के जरिए भूसे का इंतज़ाम कर पाना आसान नहीं है। उनके पोषण के लिए सिर्फ़ भूसा ही नहीं, हरा चारा भी चाहिए, लेकिन इसकी व्यवस्था टेढ़ी खीर साबित हो रही है। योगी सरकार कर्मचारियों पर दान में भूसा जुटाने के लिए दबाव बना रही है। आखिर दान के भूसे से गोशालाओं में पाली जा रही निराश्रित गायों को कब तक पाला जाएगा?"
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बबलू सिंह की आंखें लाल हो गई हैं और चेहरा पीला पड़ता जा रहा है। वह दुख और सदमे से घिरे हुए नजर आते हैं। ऐसा लगता है, कुछ है जो अंदर ही अंदर उन्हें खाए जा रहा है। खाट पर बैठकर वह पूरा दिन अपने मवेशियों को टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं। सुबह से शाम तक। इस बीच उनसे जो भी मिलने जाता है वह हाथ जोड़कर अभिवादन की औपचारिकता जरूर पूरा करते हैं, लेकिन उनके माथे पर चिंता की लकीरें बता देती हैं कि उनके ऊपर बड़ा संकट आन पड़ा है। पांच महीने पहले तक बबलू सिंह के पास करीब 48 मवेशी थे और अब 24 रह गए हैं। चंद दिनों में ही बारी-बारी से इनके 20 गाय-भैंस बिक गए। चार भैंस और 24 गाय-बछिया बची हैं। जो गाय-भैंस ब्याने वाली हैं उन्हें बेचने के लिए बबलू ने तैयारी कर ली हैं। दुधारू पशुओं को ताबड़तोड़ बेचने के पीछे उनकी बेबसी और लाचारी की एकमात्र वजह है भूसे की किल्लत। वह अपने मवेशियों को नहीं बेचते तो आखिर उन्हें खिलाते क्या? भूसे का दाम आसमान छू रहा है। सिर्फ पूर्वांचल ही नहीं, समूचे यूपी में आलू-प्याज को पछाड़ने लगा है भूसा। यूपी के बुंदेलखंड इलाके में तो भूसा कई सब्जियों को आंखें तरेर रहा है।

55 वर्षीय बबलू सिंह यूपी के बनारस स्थित चोलापुर प्रखंड के देवरिया गांव के प्रगतिशील किसान हैं। लोग इन्हें मिल्कमैन अशोक सिंह के नाम से भी जानते हैं। श्वेत क्रांति के जनक वर्गीज़ कुरियन को अपना आदर्श मानने वाले बबलू ने दुग्ध उत्पादन में अपने सुनहरे भविष्य का सपना देखा था। करीब दो दशक से वह दुग्ध उत्पादन कर रहे हैं। इनके सामने आज जो संकट पैदा हुआ है, वैसा कभी नहीं था। वह कहते हैं, "अपनी गाय-भैंसों को खिलाने के लिए हमने दो एकड़ में चरी की बुआई की थी। दिन-रात रखवाली करने के बावजूद हम अपने हरे चारे को नहीं बचा सके। छुट्टा पशुओं और घड़रोजों का झुंड हमारी चरी को चाट गया। भूसे का जो स्टाक हमारे पास था वह खत्म हो चला है। हम गाय-भैंसों को नहीं बेचते तो उन्हें खिलाते क्या? अपने मवेशियों को बेचना हमारी लाचारी है और विवशता भी। भूसे का दाम आसमान छूने लगा है। गेहूं के भूसे का जो रेट पहले पांच-छह सौ रुपये प्रति कुंतल था और अब 1000 से 1100 रुपये के बीच पहुंच गया है। बारिश होते ही इसी भूसे का दाम डेढ़ हजार के आसपास पहुंचने की उम्मीद है। ऐसी स्थिति में अपने पशुओं को क्या खिलाएंगे? कर्ज में डूबने से अच्छा है कि अपनी गाय-भैसों को ही बेच दें।"

अशोक सिंह

छुट्टा पशुओं ने खड़ी की दिक्कतें

बनारस का चोलापुर इलाका खेती-किसानी के लिए जाना जाता है। लेकिन अफ़सोस, अब यह इलाक़ा किसानों की बदहाली के लिए भी बदनाम होता जा रहा है। घड़रोजों और छुट्टा पशुओं के आतंक से खेती चौपट हो रही है। छुट्टा पशुओं के संकट का निवारण करने में योगी सरकार पूरी तरह फेल है। गो-आश्रय स्थलों में मवेशियों को भेजने का मतलब है पशुओं की हत्या करना। सरकार द्वारा संचालित आश्रय स्थलों में पशुओं को तड़पते हुए देखकर आंखें बरसने लगती हैं। हाल यह हो गया है कि पशुपालन का धंधा अब हाथ से निकलता जा रहा है।" वह अपने गले में पड़े गमछे को दिखाते हुए कहते हैं, "किसानों की बुनियादी समस्याओं पर सरकार ने गौर नहीं किया तो एक दिन यही कपड़ा किसानों और पशुपालकों के लिए फांसी का फंदा बन जाएगा।"

अपनी साफ-सुथरी गोशाला में बबलू सिंह दिन-रात अपने पशुओं की देखरेख में लगे रहते हैं। कुछ लोगों को उन्होंने अपने यहां नौकरी भी दे रखी है। मुश्किल यह है कि भूसे के संकट और महंगी खली-चूनी का इंतजाम अब इनके वश में नहीं रह गया है। वह कहते हैं, "चोलापुर के किसान और पशुपालक छुट्टा पशुओं से तंग आ चुके हैं। धान-गेहूं की खेती अब सपना होती जा रही है। आखिर भूसा कहां से लाएं? हमारे जैसे तमाम पशुपालक कर्ज़ के जंजाल में फंसते जा रहे हैं। हमारा दूध मंडियों में चाहे जिस दाम पर बिके, लेकिन दुधिए हमें तीस रुपये प्रति लीटर से ज्यादा दाम कभी नहीं देते। छोटे और मंझोले किसानों का दर्द कुछ ज्यादा है। सिर्फ चारा ही नहीं, मशीनें, ट्रैक्टर, खाद और बीज सब कुछ महंगा है। ऐसे में सिर्फ पशुपालन ही इकलौता सहारा था। अबकी गेहूं और चने की बजाय सरसों और प्याज की फसल अधिक लगाई गई। इसके अलावा घटते चारागाहों के कारण चारे का अभाव गहराता जा रहा है। एक तरफ बढ़ते अतिक्रमण ने चरागाहों को कम किया, वहीं दूसरी तरफ टूटे मकानों के मलबे और कंकरीट डालने से घास उगने की जगह कम होती जा रही है।"

बबलू यह भी कहते हैं, "भूसे की महंगाई पशुपालन और डेयरी कारोबार को निगलती जा रही है। राहत की बात यह है कि बुंदेलखंड की तरह पूर्वांचल में चारे का ज्यादा संकट नहीं है। वहां तो भूसा 1500 से 1700 रुपये प्रति कुंतल की दर से बिक रहा है। हरे चारे का रेट 2000 रुपये से ऊपर पहुंच गया है। लगभग गेहूं के दाम के बराबर। सरकार ने राहत नहीं दी तो हमारे जैसे पशुपालकों और किसानों की मुश्किलें इतनी ज्यादा बढ़ जाएंगी कि खून के आंसू रोने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचेगा।"

बबलू सिंह बताते हैं, "पहले हर किसान के घर में दो-चार मवेशी हुआ करते थे। अब पशुपालन इतना महंगा हो गया है कि लोगों ने ताबड़तोड़ अपने मवेशियों को बेचना शुरू कर दिया है। हमारी चरी पर छुट्टा पशुओं का हमला नहीं होता तो हम संकट से उबर जाते। हमारे पास पंजाब के किसानों की तरह "साइलेज" भी नहीं है। भूसे के संकट का अभी हम ट्रेलर देख रहे हैं। दाम आसमान छूने लगेगा तब क्या होगा? हमारे पास 28 मवेशी हैं जो रोजाना 1500 रुपये का भूसा और 3200 रुपये की सवा कुंतल खली-चूनी भी खाते हैं। पशुओं की देखरेख और दवा-इलाज आदि पर रोजाना एक हजार अतिरिक्त खर्च आता है। करीब 5700 रुपये रोजाना खर्च करते हैं, तब हमें मिलता है डेढ़ कुंतल दूध, जिसकी कीमत मिलती है सिर्फ 4500 रुपये। रोजाना एक हजार रुपये का घाटा आखिर हम कितने दिनों तक झेल पाएंगे?"

बबलू यह भी कहते हैं, "हमारे पास 25 बीघा जमीन है। एक बीघे में करीब 15 कुंतल भूसे का उत्पादन होता है। अगर हम सिर्फ भूसा बेचते तो लगभग तीन लाख का मुनाफा कमा लेते। जितनी आमदनी भूसा बेचने से हो सकती थी, उतना अपने जानवरों को खिलाकर कमा नहीं पा रहे हैं। बड़ा सवाल यह है कि हमारे भूसे का स्टॉक जब खत्म हो जाएगा तब कहां से लाएंगे? दो दशक पहले जब हमने डेयरी का कारोबार शुरू किया था, तब उतना संकट नहीं था। अखिलेश सरकार में कामधेनु योजना से हमें संबल मिला। अब तो हर ऐरे-गैरे को डेयरी चलाने का लाइसेंस थमाया जा रहा है। गुजरात और हरियाणा का दूध यहां आ रहा है और हमारे दूध को कोई पूछने वाला नहीं है। हमारी हैसियत नहीं है कि एक बार में 70-72 हजार रुपये खर्च कर एक ट्राली भूसा खरीदें। भयंकर घाटे में जा रहे हैं। अक्टूबर से पहले चारा मिल पाना मुश्किल है। ऐसे में भूसे का संकट और भी ज्यादा बढ़ेगा। तब भूसा खरीदकर डेयरी चला पाना आसान नहीं रह जाएगा।"

भट्ठे में जा रहा भूसा

बनारस के भंदहा कला के प्रगतिशील किसान एवं पशुपालक बल्लभ पांडेय भूसे के संकट के लिए सरकार की दोषपूर्ण नीतियों को जिम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं, "पड़ोसी राज्य हरियाणा के अलावा पंजाब ने अपने भूसे को दूसरे राज्यों में भेजने पर पाबंदी लगा दी है, जिसके चलते यूपी के पशुपालकों की दुश्वारियां काफी बढ़ गई हैं। पिछले साल खाद्य तेलों का दाम काफी बढ़ने की वजह से ज्यादातर किसानों ने तिलहन की खेती की, जिससे गेहूं का रकबा घटकर करीब दो तिहाई रह गया। सरकार ने जमीन हकीकत पता नहीं किया। वोट बैंक मजबूत करने के लिए लाभार्थियों को मनमाने ढंग से मुफ्त में गेहूं-चावल बांटना शुरू किया तो तमाम मजदूरों ने खेतों में काम करना ही बंद कर दिया। बुलेट गाड़ी रखने वाले भी मुफ्त वाला राशन लेने में पीछे नहीं रहे। इसका दुष्परिणाम असल किसानों को भुगतना पड़ा। खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिले तो लाचारी में किसानों को हार्वेस्टर से धान-गेहूं की कटाई करानी पड़ी, जिसके चलते भूसा इकट्ठा नहीं हो सका। भूसे की कमी की भरपाई करने के लिए सरकार ने कोई पुख्ता रणनीति तैयार नहीं की है। पूर्वांचल में बारिश होने के बाद स्थिति और भी ज्यादा गंभीर होने की आशंका पैदा हो गई है।"

भूसा की गंभीर समस्या के लिए बल्लभ पांडेय ईंट-भट्ठे वालों को भी दोषी ठहराते हैं। वह बताते हैं, "महंगा कोयला खरीदने के बजाए भट्ठे वाले अब गेहूं के भूसे का इस्तेमाल करने लगे हैं। कोयला और सूखी लकड़ियों के अभाव में ईंट भट्ठा संचालकों ने भूसे का उपयोग बढ़ा दिया है। यूपी के किसानों के भूसे का एक बड़ा हिस्सा राजस्थान के ईंट-भट्ठों के कारोबारियों ने मुंहमांगी कीमत देकर खरीद लिया है। भट्ठे में भूसा झोंकने का खेल जारी है, जिससे पशुपालकों के सामने संकट गहराता जा रहा है। हालात ऐसे ही रहे तो दुग्ध उत्पादक कैसे जिंदा रहेंगे? सरकार की श्वेत क्रांति वाली मुहिम का क्या होगा? इन सवालों का जवाब देने के लिए न सरकार तैयार है, न नेता और न नौकरशाही।"

"हम सालों से सुनते आ रहे हैं कि बनारस में अमूल किसानों का दूध एकत्र करने के लिए कलेक्शन सेंटर शुरू करने जा रहा है। बनारस में अमूल आ तो गया, लेकिन पूर्वांचल में दूध तो गुजरात के पशुपालकों का बेचा जा रहा है। यूपी सरकार की दुग्ध उत्पादन नीति बहुत टेढ़ी है। जब तक स्थानीय डेयरियों को सरकार सुविधाएं नहीं देगी, पशुपालकों की स्थिति सुधरने वाली नहीं है। सरकार का हाल यह है कि वह आम आदमी की कौन कहे, किसानों की बात भी सुनने के लिए तैयार नहीं है।"

किसान ही नहीं, सरकार भी परेशान

वाराणसी समेत समूचे पूर्वांचल में भूसे के संकट से सिर्फ पशुपालक ही नहीं, सरकार भी परेशान है। संकट कितना गंभीर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाजार में गेहूं 2000 रुपये प्रति कुंतल है और पूर्वांचल में भूसा 1000 से 1200 रुपये में मिल रहा है। बुंदेलखंड में यही भूसा 1600 से 1700 रुपये प्रति कुंतल की दर पर बिक रहा है। आजादी के बाद पहली बार भूसे की महंगाई ने किसानों के ‘पशुपालन का अर्थशास्त्र’ बिगाड़कर रख दिया है। नियार डीह के किसान बेचन सिंह कहते हैं, "छुट्टा पशुओं के चलते इस बार लोगों ने गेहूं कम बोया था। छुट्टा पशुओं और घड़रोजों के आतंक के चलते चारे वाली फसलों की खेती किसानों ने बंद कर दी है, जिससे भूसे का संकट ज्यादा है। ऐसी स्थिति में आसानी से समझा जा सकता है कि यूपी के गो-आश्रय स्थलों में पाले जा रहे आठ लाख से ज्यादा मवेशियों के लिए दस लाख टन से ज्यादा भूसे का इंतजाम करना यूपी सरकार के लिए कितनी बड़ी चुनौती है?"

बनारस के चोलापुर के पशु चिकित्साधिकारी डॉ.विजय त्रिपाठी बेबाकी से स्वीकर करते हैं कि भूसे का रेट आसमानी छलांग लगा रहा है। वाराणसी जिले में कुल 123 गो-आश्रय स्थल है, जहां 11,480 पशुओं को पालने का इंतजाम है। कुछ मवेशियों को किसानों के सुपुर्द किया गया है। फिलहाल 6,341 पशु गो-आश्रय स्थलों में मौजूद हैं। इन पशुओं के चारे के लिए शासन से प्रति पशु सिर्फ तीस रुपये ही रोज मिलते हैं। गो-आश्रय स्थल के पशुओं को सिर्फ भूसा ही खिलाएं तब भी उनके पेट में सिर्फ दो-तीन किलो भोजन ही जा सकेगा। आमतौर पर एक गाय हर रोज 10 किलो भूसा खा जाती है। इस तरह से गायों का पेट तभी भर पाएगा जब सरकार की ओर से 110 रुपये मिलेगा। अभी तो धान का भूसा मिल जा रहा है, अन्यथा बहुत ज्यादा दिक्कत होती।''

वाराणसी के मुख्य पशु चिकित्साधिकारी डॉ.आरके सिंह दावा करते हैं कि वह चारे का संकट पैदा नहीं होने देंगे। वह कहते हैं, "किसानों के घर जाकर भूसा दान लिया जा रहा है। एक महीने के अंदर हम एक हजार कुंतल भूसे का भंडारण कर लेंगे। भूसा खरीदने के लिए हमने दो लाख रुपये इकट्ठा किया है। पशुपालन विभाग के कर्मचारी जून महीने में अपना एक दिन का वेतन भी भूसा खरीदने के लिए देंगे। नवंबर-दिसंबर तक हम भूसे का संकट पैदा नहीं होने देंगे। भूसे की कमी हाथ से गेहूं की कटाई कम होने की वजह से हुई है। कोयले का रेट बढ़ने से भूसे का इस्तेमाल ईंट-भट्ठों में ज्यादा होने लगा है। हम इस पर पाबंदी नहीं लगा सकते। इस बाबत सरकार को सख्ती बरतनी होगी। यूपी का काफी भूसा राजस्थान जा रहा है। हमारे भूसे से वहां के ईंटें पकाई जा रही हैं। अबकी पंजाब और हरियाणा से भूसा नहीं आया। सरकार इस बात पर गंभीरता से विचार कर रही है कि भूसे का रेट ज्यादा होने पर गो-आश्रय स्थलों में पाले जा रहे मवेशियों के लिए चारे का इंतजाम किस तरह से किया जाए?"

आसमान छू रहा भूसे का भाव

भूसे की बढ़ी हुई कीमतों के चलते पशुपालकों में हड़कंप जैसी स्थिति है। बबलू सिंह सरीखे तमाम किसान अब अपने दुधारू पशुओं को बेचने पर विचार कर रहे हैं। बनारस के बड़ागांव इलाके के चकखरान (नटवां) निवासी रामलाल उर्फ मुंसी कहते हैं, "इस साल किसानों ने मटर और सरसों की फसलों की खेती ज्यादा की, जिससे गेहूं का भूसा नहीं हो पाया। कुछ किसानों ने गेहूं की फसल को हार्वेस्टर से कटवा दिया, जिससे भूसा नहीं बन सका। जो सूखा भूसा पिछले तीन महीने पांच सौ रुपये प्रति कुंतल था, उसका दाम अचानक दोगुना हो गया। पशुपालकों ने सोचा भी नहीं था कि गेहूं निकालते ही चारा इतना ज्यादा महंगा हो जाएगा। हमने तो इसी उम्मीद में अपने पशुओं को नहीं बेचा कि कुछ समय बाद ठीक-ठाक कीमत मिल जाएगी। चारे के मूल्य में यह बढ़ोतरी हर साल के मूल्य के हिसाब से तीन से चार गुनी हो गई है। गेहूं और धान के भूसे का दाम बढ़ने से किसानों को ज्यादा मुनाफा नहीं हुआ। अलबत्ता बिचौलियों ने दूध की कीमत जरूर बढ़ा दी। बनारस की मंडी में दूध का दाम प्रति लीटर 80 से 90 रुपये तक पहुंच गया है। वैवाहिक तिथियों पर 125 रुपये देने पर भी दूध नसीब नहीं हो पा रहा है।"

रामलाल

रामलाल यह भी कहते हैं, "गर्मियों के समय अक्सर दूध देने वाले पशुओं की कीमतों में दो से पांच हजार रुपए तक की वृद्धि होती थी, लेकिन चारे के भाव ने इसे पूरी तरह से उलट दिया। अब पशु सस्ते हो गए हैं।" चंदौली के किसान महेंद्र सिंह कहते हैं, "दूध देने वाली जो गाय पहले 30 से 35 हजार रुपये में खरीदी-बेची जा रही थी, वही अब 25 हजार रुपये में आसानी से मिल जा रही है। इसी तरह से भैंस की कीमत को देखा जाए तो 70 हजार रुपये वाली भैंस 55 हजार रुपये तक में मिल जा रही है।"

दान के भूसे से पाली जा रही गायें

भूसे की किल्लत को देखते यूपी में निराश्रित गोवंश के लिए भूसा दान अभियान शुरू किया गया है। इंजीनियर, डॉक्टर से लेकर शिक्षक तक बोरे लेकर किसानों के घरों पर भूसे के लिए दौड़ लगा रहे हैं। योगी सरकार ने नए वित्तीय वर्ष के बजट में निराश्रित गोवंश के भरण-पोषण के लिए 100 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। साथ ही जिलाधिकारियों को निर्देश दिया है कि वो गो-आश्रय स्थलों में संरक्षित गोवंश के पूरे साल के भरण-पोषण के लिए किसानों से भूसा दान कराएं। इस बाबत अफसरों को न्याय पंचायतवार भूसा दान कराने का लक्ष्य सौंपा गया है। चंदौली के जिलाधिकारी संजीव सिंह ने अपने मातहत अफसरों को 7536 कुंतल भूसा संग्रह करने का लक्ष्य सौंपा है। हाल यह है कि अभी तक सिर्फ दस फीसदी ही भूसा संग्रह किया जा सका है। लक्ष्य के अनुरूप भूसे का संग्रह न करने पर उन्होंने इस कार्य में तेजी लाने और लापरवाही बरतने पर सख्त कार्रवाई की चेतावनी दी है। हालांकि चंदौली जिलाधिकारी मीडिया से बातचीत में कहते हैं, "भूसा दान कराने के लिए कोई आदेश नहीं दिया गया है, सिर्फ सहयोग की अपेक्षा की गई है। कोई अनिवार्यता नहीं है। दानदाता कोई भी हो सकता है। भूसा दान पूरी तरह से स्वैच्छिक है। किसी अधिकारी, कर्मचारी या सामान्य व्यक्ति पर कोई दबाव नहीं है। अपेक्षा की गई है कि वो जनसमुदाय के सहयोग से भूसा दान अभियान में सहयोग करें।"

उत्तर प्रदेश के पशुपालन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में कुल 6,195 गो-आश्रय स्थलों पर 9 लाख 67 हजार 923 गोवंश पाले जा रहे हैं। इसके अलावा मुख्यमंत्री निराश्रित/बेसहारा गोवंश सहभागिता योजना के तहत एक लाख 31 हजार से अधिक गोवंश इच्छुक लोगों ने पालने के लिए लिया है, जिन्हें प्रति गोवंश 30 रुपये रोजाना के हिसाब से 900 रुपये हर महीने दिए जाते हैं। राज्य में संचालित गोशालाओं के लिए पंचायती राज विभाग के पास अहम जिम्मेदारी है, लेकिन इस योजना में कई विभागों को शामिल किया गया है। जमीनी हकीकत यह है कि गो-आश्रय स्थलों को संचालित करने का सारा दारोमदार ग्राम प्रधान और पशुचिकित्सक पर होता है। मई के शुरुआती महीने में यूपी के पशुधन एवं दुग्ध विकास मंत्री धर्मपाल सिंह ने निराश्रित पशुओं के लिए भूसा संग्रहण में लापरवाही पर 27 मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारियों से जवाब-तलब किया था। तभी से सूबे के पशु चिकित्साधिकारी काफी नाराज हैं।

उत्तर प्रदेश पशु चिकित्सा संघ के अध्यक्ष डॉ. राकेश कुमार कहते हैं, "भूसा दान के लिए टार्गेट नहीं दिया जाना चाहिए। निराश्रित मवेशियों के उपचार पर विभागीय चिकित्सक करीब दस करोड़ रुपये खर्च कर चुके हैं। पशुपालन विभाग के डॉक्टर और कर्मचारी मिलकर अपने वेतन का पैसा खर्च कर रहे हैं। हमने गोशाला में पशुओं का इलाज अपने जेब से पैसा लगाकर किया। इनकी दवा के मद में राज्य सरकार ने एक धेला नहीं दिया। ओपीडी की दवाएं दो महीने में ही खत्म हो गईं। एक मवेशी के इलाज पर सरकार साल भर में सिर्फ 17 रुपये खर्च देने के लिए तैयार है। ऐसे में गायों का इलाज कैसे हो पाएगा? दवा कंपनियों के सैंपल से निराश्रित गायों का उपचार करने की कोशिश की जाती है। यूपी के नौ लाख से ज्यादा मवेशियों के लिए सिर्फ दान के जरिए भूसे का इंतजाम कर पाना आसान नहीं है। उनके पोषण के लिए सिर्फ भूसा ही नहीं, हरा चारा भी चाहिए, लेकिन इसकी व्यवस्था टेढ़ी खीर साबित हो रही है। योगी सरकार कर्मचारियों पर दान में भूसा जुटाने के लिए दबाव बना रही है। आखिर दान के भूसे से गोशालाओं में पाली जा रही निराश्रित गायों को कब तक पाला जाएगा?"

पशुओं पर सूखे की मार

यूपी में मानक से कम बारिश होने के कारण यूपी के 50 जिले सूखे से प्रभावित हैं। इन जिलों में पशुपालकों के सामने पशुओं के चारे का जबर्दस्त संकट है। मौसम की बेरुखी के चलते इस बार भी चारे के संकट से छुटकारा मिल पाना संभव नजर नहीं आ रहा है। बरसीम, जई और चूरी की कमी की वजह से भूसे की डिमांड बढ़ी है। रबी के सीजन में ओला और अतिवृष्टि की वजह से गेहूं की फसलों को भारी नुकसान हुआ था। भूसे का इस्तेमाल अब पेपर उद्योग में भी होने लगा है, जिससे उसकी कीमतें बढ़नी लाजमी है। कृषि वैज्ञानिक चंद्रकात पांडेय कहते हैं, "पिछले सत्र में गेहूं का पौधा कमजोर रहा और लंबाई भी पहले की अपेक्षा दस फीसदी घटी है। इसकी वजह से भूसे का संकट पैदा हुआ है। भूसे की कमी को पूरा करने के लिए किसानों को पुआल का प्रयोग करना पड़ता है, लेकिन यह पशुओं के लिए लाभकारी नहीं होता।"

बुंदेलखंड में पशुओं के चारे की कमी की स्थिति अधिक भयावह है। इससे निपटने के लिए सरकार की तरफ से भूसा और शुष्क चारे की खरीद की योजना लागू की गई है। इस वजह से भी अन्य क्षेत्रों में उपलब्ध भूसा बुंदेलखंड भेजा जाएगा। इस इलाके के हमीरपुर, महोबा, बांदा, चित्रकूट, जालौन, झांसी और ललितपुर में भूसे का जबर्दस्त संकट है। उत्तर प्रदेश के मेरठ और आसपास के जिलों में पंजाब और हरियाणा से भारी मात्रा में भूसे की आवक होती थी, लेकिन इस बार इन दोनों राज्यों ने यूपी के पशुपालकों को मुसीबत में डाल दिया है। भूसे की कमी के चलते मध्य प्रदेश सरकार ने तो राजस्थान सीमा पर बाकायदा पुलिस बल की तैनाती कर दी है।

उत्‍तर प्रदेश की गोशालाओं में पशुओं के चारे का संकट गहराता जा रहा है। यूपी के सभी जिलाधिकारियों से करीब दो लाख टन भूसा दान से जुटाने का लक्ष्य सौंपा गया है। हालत यह है कि उप जिलाधिकारियों, पशुओं के सरकारी डॉक्टर, लोनिवि और बिजली विभाग के इंजीनियर, लेखपाल और प्राइमरी शिक्षकों तक को भूसा इकट्ठा करने के लिए लगा दिया गया है। यूपी में भूसे का संकट कितना गंभीर है इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि बाजार में गेहूं 2000 रुपये कुंतल है और भूसा 1400 से 1600 रुपये प्रति कुंतल की दर से बिक रहा है।

सौरभ

आजादी के बाद पहली बार भूसे की महंगाई ने किसानों के 'पशुपालन का अर्थशास्त्र' बिगाड़कर रख दिया है। चंदौली के बैरी गांव के सौरभ कुशवाहा से जब यह पूछा गया कि आप भूसा क्यों दान नहीं दे रहे हैं तो उनका जवाब था, "साहब, जब अपने पशु के लिए नहीं है तो दान कहां से देंगे?" यूपी के पशुपालन मंत्री संजीव बालियान स्वीकार करते हैं कि कई किसानों ने उनसे भूसे का दाम बढ़ने की शिकायत की है। वह कहते हैं, "दूध का दाम न बढ़ने से किसान अपने मवेशी बेच रहे हैं। हरियाणा सरकार ने भूसा बेचने पर रोक लगा दी है, जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अफरा-तफरी फैली हुई है। केंद्र सरकार को भी हालात की गंभीरता का अंदाजा है।"

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