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गुजरात चुनाव: अहमदाबाद में विरोध-प्रदर्शनों पर धारा 144 के 'दुरुपयोग' का क्या कोई पैटर्न है?

जैसे-जैसे चुनाव प्रचार तेज़ हो रहा है, वैसे-वैसे कई एक्टिविस्ट शहर में विरोध प्रदर्शनों के लिए सार्वजनिक स्थानों के सीमित होते जाने का मुद्दा उठा रहे हैं। यह स्थिति ख़ासकर अल्पसंख्यकों से जुड़े मामलों को लेकर है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

28 दिसंबर, 2019 को आईआईएम अहमदाबाद के बाहर नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन आयोजित किया गया था जहां गुजरात के विभिन्न हिस्सों के छात्र दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हुए पुलिस की बर्बरता और इस कानून के विरोध में प्रदर्शन करने आए थे।

हालांकि, बहुत जल्द विरोध प्रदर्शन को रोकना पड़ा और इकट्ठा हुए छात्रों को कहा गया कि उनके पास विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं है। बाद में, कई प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया और गुजरात विश्वविद्यालय पुलिस थाने में रखा गया।

पहले, चुनावों में अभिव्यक्ति की आज़ादी को कभी भी चिंता के विषय के रूप में नहीं देखा गया है। हालांकि, नागरिक समाज के सदस्यों का कहना है कि विरोध-प्रदर्शनों पर कड़ी कार्रवाई ने उन्हें सजग कर दिया है कि आगामी विधानसभा चुनावों से पहले यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है चाहे वह सीएए-एनआरसी विरोध-प्रदर्शन हो या किसान आंदोलन। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है बिलकिस बानो के समर्थन में गोधरा से पैदल मार्च निकालने की अनुमति देने से इनकार करना।

वकील बंदिश सोपारकर को इस घटना और इससे जुड़े लोगों को हिरासत में लिए जाने को लेकर जानकारी दी गई, जिसके बाद वह मौक़े पर पहुंचे। यहीं पर उन्हें एक वरिष्ठ पत्रकार से पता चला कि गुजरात में 2002 से सभा और जुलूस को रोकने के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 144 लागू है।

सोपारकर ने कहा, "हर बार जब धारा 144 का एक आदेश समाप्त होने वाला होता है, तो दूसरा लागू कर दिया जाता है।"

उन्होंने मामले की गहराई तक जाने की कोशिश की क्योंकि यह सवाल उन्हें परेशान करता था कि इस धारा का इस्तेमाल इतनी प्रमुखता से क्यों किया जा रहा है। बाद में, उन्होंने केवल यह जानने के लिए धारा 144 के संबंध में एक याचिका दायर की कि यह वह क़ानून नहीं था जिसने राज्य को विरोध प्रदर्शनों को रोकने की अनुमति दी थी, बल्कि इसमें और भी बहुत कुछ था।

सोपारकर ने कहा, "विरोध-प्रदर्शनों को रोकने के लिए धारा 144 का इस्तेमाल किया जाना एक ग़लत धारणा है। यहां जो भूमिका निभाता है वह बहुत अधिक जटिल है। पुलिस का दावा है कि एक क़ानून है जो प्रदर्शनकारियों के लिए अनुमति लेना अनिवार्य बनाता है।"

ऐसे कई मामले हैं जहां अहमदाबाद में अल्पसंख्यक एक्टिविस्टों के मामले में इस हद तक धारा 144 का इस्तेमाल किया गया है जहां राज्य के कई ज़िलों से एक्टिविस्टों को 'बाहर' किया गया है। ऐसा ही एक मामला राज्य के एक प्रमुख मुस्लिम एक्टिविस्ट कलीम सिद्दीकी का है। रामोल थाने में सिद्दीकी के ख़िलाफ़ दर्ज प्राथमिकी में उन पर धारा 144 भी लगाई गई जिसे उनके ख़िलाफ़ कोर्ट में भी इस्तेमाल किया गया।

क़ानूनी लड़ाई

न्यूज़क्लिक से बातचीत में सोपारकर ने बताया कि जो सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहते हैं या उसके ख़िलाफ़ खड़े होने का कोई प्रयास करते हैं उन पर किस तरह गुजरात सरकार कठोर धारा का इस्तेमाल करती है। गुजरात पुलिस अधिनियम (जीपीए) की धारा 33(वन) (ओ) पुलिस को उन लोगों के आचरण के लिए नए नियमों और विनियमों को लागू करने की शक्ति देती है जो सभा या जुलूस निकालना चाहते हैं। उस नियम के तहत अनुमति लेना अनिवार्य होता है।

सोपारकर ने कहा, "इससे पहले, धारा 33 (वन) (ओ) के तहत, लोगों को जुलूसों और सभाओं के लिए अनुमति लेने के लिए एक उप-धारा थी, लेकिन हिम्मत लाल के. शाह के मामले के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया और क़ानून निर्माताओं से कहा एक नया क़ानून लेकर आएं जो सैद्धांतिक रूप से लोगों से अनुमति मांगे और मानदंड तय करे जिसके तहत पुलिस किसी विरोध प्रदर्शन के लिए अनुमति देगी या नहीं देगी वह उसमें दर्ज हो लेकिन इस क़ानून का टेक्स्ट पब्लिक डोमेन में मौजूद नहीं है। स्वाति गोस्वामी और मैंने एक आरटीआई दायर की थी, लेकिन 2020 में इसे ख़ारिज कर दिया गया था। अब तक, हमारे पास क़ानून का टेक्स्ट नहीं है, जो नागरिकों को विरोध प्रदर्शन की अनुमति लेने के लिए बाध्य करता है।"

एक्टिविस्टों ने कहा कि भले ही धारा 144 की ज़्यादा भूमिका नहीं है, लेकिन पुलिस अक्सर उन्हें अनुमति न देने के लिए इसे एक बाध्यकारी नियम के रूप में इस्तेमाल करती है। उनका आरोप है कि बिना किसी चर्चा के उन्हें अनुमति देने से इनकार करने का काफ़ी इस्तेमाल होता है। हालांकि, अनुमति की स्वीकृति और अस्वीकृति काफ़ी चयनात्मक है। एक ओर, जब छात्रों को सीएए के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन की अनुमति नहीं थी और छात्रों को हिरासत में लिया गया था तो ठीक उसी समय 19 दिसंबर 2019 को तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा सीएए के पक्ष में एक रैली आयोजित की गई थी। पुलिस ने वहां धारा 144 लागू नहीं की और इस रैली को अनुमति दी गई थी।

सोपारकर ने आगे कहा, "कहां विरोध प्रदर्शन करना है और कहां विरोध प्रदर्शन नहीं करना है, यह सब यहां पुलिस के हाथ में है।"

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विरोध-प्रदर्शन करने की अनुमति देने के तरीक़े

कुछ स्थानीय पत्रकारों के अनुसार, 2002 से लगातार धारा 144 लागू है। हालांकि, ऑनलाइन रिकॉर्ड के अनुसार, न केवल अहमदाबाद में बल्कि सूरत, बड़ौदा, राजकोट आदि जैसे अन्य प्रमुख शहरों में 2016 से लगातार आदेश दिए जाने के मामले मिल सकते हैं।

अहमदाबाद में स्थित एक अन्य एक्टिविस्ट गोस्वामी ने कहा,, "हमने उस क़ानून की तलाश करने की कोशिश की जिसने हमें विरोध-प्रदर्शन करने से रोक दिया और संगठनों या नागरिकों द्वारा किए गए किसी भी विरोध-प्रदर्शन के लिए हमें अनुमति लेने के लिए कहा। हमें ऐसा कुछ भी नहीं मिला।"

धारा 144 के संबंध में याचिका के संबंध में प्रतिवादियों द्वारा दायर एक जवाबी हलफ़नामे में सरकार ने जवाब दिया, "144 का आदेश, जिसे चुनौती देने की मांग की गई थी (20 दिसंबर 2019 को सीएए के विरोध के बारे में) उसने अपना समय पूरा कर लिया है। इसलिए, अब इसका कोई फ़ायदा नहीं है। 2019 में उस समय की परिस्थितियों में धारा 144 लागू करने की मांग की गई थी, इसलिए, यह अवैध नहीं है।" सरकार का यह भी कहना है कि लोगों को धारा 144 के उल्लंघन के लिए नहीं बल्कि जीपीए की धारा 68के तहत हिरासत में लिया गया था।

जनवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी फ़ैसला सुनाया कि सीआरपीसी की धारा 144, नागरिकों के शांतिपूर्ण तरीक़े से इकट्ठा होने के मौलिक अधिकार पर प्रतिबंध लगाते हुए, किसी भी लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रयोग या शिकायत या विचार की वैध अभिव्यक्ति को रोकने के लिए 'उपकरण' के रूप में लागू नहीं किया जा सकता है।

इस प्रावधान को बार-बार लागू करने वाले अधिकारियों की पृष्ठभूमि में अदालत की टिप्पणी अहम हो गई। अहमदाबाद में, एक्टिविस्टों का कहना है कि इस आदेश का न के बराबर प्रभाव पड़ा है। यदि पुलिस प्राथमिक रूप से धारा 144 के आदेश को लागू करने का कारण नहीं बताती है, तो उनके ख़िलाफ़ अनिवार्य अनुमति वाले आदेश का इस्तेमाल किया जाता है।

न्यूज़क्लिक ने विभिन्न पृष्ठभूमि के एक्टिविस्टों और नागरिकों से यह समझने की कोशिश की कि पुलिस किन-किन विरोध प्रदर्शनों की अनुमति दे रही है।

गोस्वामी ने कहा, "अधिकांश विरोध-प्रदर्शन या तो सीमित क्षेत्र में होते हैं या वरिष्ठ शिक्षाविदों द्वारा आयोजित किए जाते हैं। जिस समय अनुमति पत्र किसी ख़ास एक्टिविस्ट के नाम से जाता है, हम जानते हैं कि हमें इसकी अनुमति नहीं मिलेगी।"

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अहमदाबाद के एक सीनियर एक्टिविस्ट ने कहा, "पुलिस हमें छिपाने में कोई कसर नहीं छोड़ती है, भले ही हम आम व्यक्ति की नज़र के सामने हों। एक ऐसी जगह से ले जाते हैं जहां सभी नागरिक आते हैं। हम एक बार साबरमती आश्रम के बाहर विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे और पुलिस ने चतुराई से अपने वाहनों को तख़्तियों को अवरुद्ध करते हुए ठीक सामने ला कर खड़ा कर दिया जिन्हें हम दिखाने की कोशिश कर रहे थे।”

भावेश अहमदाबाद के एक शोधकर्ता और सजग नागरिक हैं। भले वह एक एक्टिविस्ट के रूप में अपनी पहचान नहीं बताते हैं फिर भी उनका मानना है कि नागरिकों को जहां भी आवश्यक हो ऐसे विरोध-प्रदर्शन का हिस्सा होना चाहिए और पुलिस अहमदाबाद में अभिव्यक्ति व्यक्त करने और सभा करने की स्वतंत्रता के अधिकार में बाधा डालती रही है। अहमदाबाद में कई अन्य समस्याओं को बताते हुए भावेश कहते हैं, "हमारे पास बहुत सारे सार्वजनिक स्थल नहीं हैं जहां विरोध-प्रदर्शन हो सकते हैं। मुंबई में आज़ाद मैदान है और दिल्ली में जंतर मंतर, जेएनयू और जामिया है। हमारे पास ऐसा स्थान नहीं है। ये सब एक अन्य कारण है कि विरोध प्रदर्शनों की संख्या घट रही है।"

वर्तमान में, धारा 144 से संबंधित मामले और किसी भी सभा से पहले अनुमति मांगने के मामले पर गुजरात उच्च न्यायालय में सुनवाई हो रही है और मौखिक बहस जारी है।

लेखक दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। विधानसभा चुनावों पर रिपोर्टिंग के लिए ये पत्रकार गुजरात का दौरा कर रहे हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Gujarat Elections: Is There a Pattern of ‘Misuse’ of Sec 144 to Bar Protests in Ahmedabad?

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