गुजरात चुनाव: कच्छ में टूटी और रिसती नहरों से किसानों की उम्मीदों पर फिरा पानी
कच्छ, गुजरातः गुजरात के कच्छ ज़िले के बिरडा और आसपास के गांवों के लोगों के लिए 6 जुलाई का दिन खास था। वे नवनिर्मित नर्मदा नहर के उद्घाटन को लेकर उत्साहित थे और कल रात से पूजा के लिए जगह को सजा रहे थे। इसके एक महीने बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहर का दौरा करने वाले थे।
गोविंद रमानी ने कहा कि, जब नहर से क़रीब तीन फीट पानी छोड़ा गया तो किसानों में खुशी व राहत की लहर दौड़ गई थी। हालांकि देर रात क़रीब चार बजे किसान गोविंद रमानी (60) अपने खेत देखने के लिए नहर के पास से गुज़र रहे थे। वे कहते हैं, “आधी रात तक, सब ठीक था। लेकिन जब मैं खेतों की ओर जा रहा था, तो मैंने देखा कि नहर टूट गई है और पानी पास के खेतों में बह रहा था।”
जुलाई में टूटी नहर के चश्मदीदों में से एक गोविंद रमानी, घटना स्थल बिदरा गांव में जांच के बाद घटना की कहानी बयां करते।
उस महीने की शुरुआत में एक चुनावी भाषण के दौरान, मोदी ने कहा था कि "मां नर्मदा का पानी जब रेयान तक पहुंचा, तो ग्रामीणों ने इसे एक त्योहार की तरह मनाया और इसने दुनिया के सामने एक मिसाल क़ायम की"। हालांकि, रेयान गांव में नहर रिस रही है और किसानों का कहना है कि उचित पाइप लाइन नहीं होने के कारण पानी उपलब्ध नहीं है। उनका आरोप है कि उनकी मदद करने के बजाय, ऐसी नहरों ने उन्हें अधिक नुक़सान पहुंचाया है।
रमानी कहते हैं, "हमारे खेतों में पानी की आपूर्ति के लिए कोई पाइपलाइन नहीं है- इसके बजाय, हम ऐसी नहर परियोजनाओं के लिए अपनी ज़मीन खो रहे हैं जिसका हमें कोई फ़ायदा नहीं है।" पिछले पांच महीनों में मांडवी के तीन गांवों रेयान, केदुआ और बिरडा में कम से कम तीन नहरें या तो टूट गईं या रिस रही हैं।
रेयान, जिस स्थान पर नहर में अभी रिसाव हुआ, अब उसकी मरम्मत की जा रही है।
सबसे ताज़ा घटना सोमवार को मांडवी के अदेसर भांगेरा इलाक़े में हुई जिसमें नहर पूरी तरह से टूट गई, जिससे आसपास के खेतों में पानी भर गया।
मरम्मत का काम कर रहे एक सुपरवाइज़र राजन का कहना है कि इस नुक़सान के लिए राज्य सरकार और जनता दोनों आंशिक रूप से ज़िम्मेदार हैं। “फिलर के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली रेत का प्रयोगशालाओं में परीक्षण किया जाता है, जांच इसलिए कि इसे पानी के भार को सहन करने में विफल नहीं होना चाहिए। यह लगातार रहने वाली एक समस्या रही है।”
राजन कहते हैं, “दूसरी ओर, कई ऐसे किसान हैं जो ज़मीन की क़ीमत के कारण नहरों के निर्माण के लिए अपनी ज़मीन नहीं बेचना चाहते हैं। इसके अलावा, नहर का कई दिनों तक सूखा रहना भी नुक़सान का कारण बनता है।”
किसानों का आरोप है कि सरकार उनकी ज़मीन के अधिग्रहण का सही दाम नहीं दे रही है। पिपली गांव के शामत वाला शंगर का आरोप है कि सरकार द्वारा दी जाने वाली क़ीमत में बोरवेल की लागत और पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए किसानों द्वारा किए गए अन्य निवेश शामिल नहीं हैं। “केवल बोरवेल की लागत को शामिल न करने से ज़मीन की क़ीमत आधा हो जाती है। यह अनुचित है और हमने इसका विरोध किया है।"
2017 और 2019 के बीच ही कम से कम 207 जगह नहर टूटने की सूचना मिली थी। जुलाई 2019 में कांग्रेस विधायक शैलेश परमार को एक सवाल के जवाब में गुजरात सरकार ने टूटने की इतनी बड़ी संख्या को स्वीकार करते हुए इन घटनाओं के लिए नेवले और चूहे के बिल को ज़िम्मेदार ठहराया। सरकार ने विधानसभा में कहा कि, "नेवले और चूहों के बिलों में पानी भरता है, जिससे रिसाव होता है," सरकार ने कहा कि "पुराने और नए निर्माण कार्यों के बीच ख़राब जोड़ बनाने और नहरों के साथ छेड़छाड़ इस टूट-फूट के अन्य कारणों में से है"।
मांडवी बार एसोसिएशन के अध्यक्ष खेरज गढ़वी का आरोप है कि “इस्तेमाल की गई मिट्टी की गुणवत्ता बेहद ख़राब है। चूंकि काम कई ठेकेदारों के बीच बांटा गया है, इसलिए जांच करना और व्यक्ति विशेष को ज़िम्मेदार ठहराना मुश्किल है।"
बिदरा नहर टूटने से पहले, “हमने वहां घटिया गुणवत्ता वाली मिट्टी के इस्तेमाल की शिकायत की थी। हमने उन्हें पैसे बचाने के लिए मिट्टी में रेत मिलाते हुए देखा। इसलिए इसे तो गिरना ही था।"
गोविंद रमानी बिदरा इलाक़े में उस जगह पर खड़े हैं जहां पीएम मोदी नहर का उद्घाटन करने वाले थे, लेकिन उद्घाटन करने से पहले ही नहर टूट गई।
गुजरात सरकार ने नर्मदा नहर परियोजनाओं के लिए मई में 1,550 करोड़ रुपये मंज़ूर किए हैं। नहर के क्षतिग्रस्त होने के कारण मोदी की बिरडा यात्रा रद्द कर दी गई थी। गुस्साए किसानों/ग्रामीणों ने विरोध किया लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। रेयान के स्थानीय नेताओं ने परियोजना के लिए ज़िम्मेदार इंजीनियर और ज़िला कलेक्टर सहित ज़िला प्रशासन से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।
जिन किसानों की भूमि ऐसी नहरों से सटी हुई है, वे रिसाव और दरारों के कारण उपजाऊ मिट्टी खो देते हैं। एक किसान जो अपनी फ़सल और उपजाऊ मिट्टी खो देता है, उसे मिट्टी की छह इंच की परत बनाने के लिए कम से कम 3 लाख रुपये ख़र्च करने पड़ते हैं, सरकार जिसका कोई मुआवज़ा नहीं देती है।
जिन किसानों को भूमि अधिग्रहण के दौरान उचित राशि नहीं मिली, उनमें से अधिकांश चुनाव के समय सरकार की कार्रवाई के डर से बोलने से इनकार कर देते हैं।
लेखक, दिल्ली स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो बेरोज़गारी, शिक्षा और मानवाधिकारों के मुद्दों पर रिपोर्टिंग करते हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः
Gujarat Elections: Breaking, Leaking Canals in Kutch Wash Away Farmer Hopes
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