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हरियाणा परिणाम: कांग्रेस और भाजपा में सिर्फ़ 1 फीसदी मत का अंतर

भाजपा की आर्थिक नीतियों के प्रति व्यापक आक्रोश के कारण विपक्षी वोटों का एकीकरण हुआ - लेकिन यह काफ़ी साबित नहीं हुआ।
bjp congress
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के नतीजे आम लोगों के लिए थोड़े चौंकाने वाले रहे हैं, मुख्यतः इसलिए क्योंकि ये नतीजे मौजूदा नेरेटिव के बिलकुल उलट आए हैं। हरियाणा के मामले में देखें तो, मीडिया में लगभग आम सहमति थी कि कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करने जा रही है और उसके जीतने की संभावना काफी है। एग्जिट पोल ने भी इस बात की पुष्टि की थी, जिसमें कांग्रेस की निर्णायक जीत की भविष्यवाणी की गई थी। जम्मू-कश्मीर में, सामान्य जानकारी यही दर्शा रही थी कि चूंकि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के कश्मीर घाटी की 48 सीटों पर अच्छा प्रदर्शन करने की संभावना नहीं है, इसलिए उसके सरकार बनाने की संभावना नहीं है, लेकिन उनके स्पिन-मास्टर और टिप्पणीकारों की एक समर्पित सेना ने यह तर्क देने की कोशिश की कि बीजेपी घाटी में भी सफलता हासिल कर सकती है, आदि आदि।

लेकिन 8 अक्टूबर को आए नतीजों में हरियाणा में भाजपा की स्पष्ट जीत और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेतृत्व वाले गठबंधन की स्पष्ट जीत दिखाई दी। इस अप्रत्याशित परिणाम को समझने से पहले, यहां मुख्य आंकड़े दिए गए हैं जिन पर गौर करने की जरूरत है।

90 सदस्यीय मौजूदा हरियाणा विधानसभा में भाजपा को 48 सीटें मिलीं, जो कि बहुमत के लिए जरूरी 45 सीटों से तीन ज्यादा हैं, जबकि कांग्रेस को 37 सीटें मिलीं हैं। इसके अलावा, दो सीटें इंडियन नेशनल लोकदल को मिलीं, जो कि पूर्ववर्ती सत्तारूढ़ पार्टी की एक फीकी सी छाया है, और तीन सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीतीं हैं। जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) जो कि भाजपा की पूर्व सहयोगी और निवर्तमान सरकार में भागीदार थी, को एक भी सीट नहीं मिली है।

जम्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए भी 90 सीटों के लिए चुनाव हुए, जिनमें से नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन ने 49 सीटें जीतीं, इसमें नेशनल कॉन्फ्रेंस को 42, कांग्रेस को 6 और सीपीआई (एम) को एक सीट मिली है। इस प्रकार, गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल गया है। वास्तव में, केंद्र शासित प्रदेश के उपराज्यपाल के पास, जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 (जिसे 2023 में संशोधित किया गया था) के अनुसार पांच सदस्यों को नामित करने का अधिकार है। अगर इन्हें शामिल भी कर लिया जाए, तो भी एनसी गठबंधन को बहुमत मिल गया है।

हरियाणा: वोट शेयर अलग तस्वीर दिखाते हैं

हरियाणा में भाजपा और कांग्रेस की सीटों की संख्या में भारी अंतर के बावजूद दोनों को मिलने वाला वोट शेयर बहुत करीब है। भाजपा ने हरियाणा लोकहित पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और इन दोनों का संयुक्त वोट शेयर 40.4 फीसदी है, जिसमें से भाजपा को 39.9 फीसदी वोट मिले हैं। कांग्रेस ने सीपीआई(एम) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और गठबंधन का संयुक्त वोट शेयर 39.4 फीसदी है, जबकि कांग्रेस को अकेले 39.1 फीसदी वोट मिले हैं।

इसलिए, दोनों गठबंधनों के बीच का अंतर मात्र 1 फीसदी है। इसका मतलब यह है कि ये कुल लगभग 1.6 लाख वोट ही बैठेंगे। 2019 के पिछले चुनाव और तीन महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव के बाद से उनके संबंधित वोट शेयरों का प्रक्षेपवक्र अधिक दिलचस्प है। 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 36.5 फीसदी वोट मिले थे और फिर 2024 के लोकसभा चुनावों में, वह 46.1 फीसदी शेयर पाने में सफल रही थी। इसलिए, जबकि इसने 2019 के बाद से अपने वोट शेयर में थोड़ा सुधार किया है - लगभग 3.4 प्रतिशत अंकों का सुधार - लेकिन यह आंकड़ा लोकसभा चुनावों की तुलना में पिछड़ गया जब इसे 46.1 फीसदी वोट मिले थे।

कांग्रेस के वोट शेयर की कहानी कुछ और ही है: 2019 के विधानसभा चुनावों में उसका वोट शेयर सिर्फ़ 28.1 फीसदी था। इसलिए, तब से इसने अपने प्रदर्शन में 11 प्रतिशत अंकों का सुधार किया है। इस साल की शुरुआत में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 43.7 फीसदी वोट मिले थे, जहां से वह भी भाजपा की तरह घटकर 39.1 फीसदी पर आ गई है।

दोनों पार्टियों को वोट मिलने का मुख्य कारण जेजेपी का पतन नज़र आता है, जो इस चुनाव में लगभग समाप्त हो गई है। जेजेपी भाजपा के साथ सरकार में थी और 2020-21 में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ साल भर चले संघर्ष के दौरान किसानों के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न में मिलीभगत के लिए (भाजपा के साथ) इसकी भी भारी आलोचना हुई थी।

इसका मतलब यह है कि 2020 के किसान आंदोलन के बाद से ही कृषि समुदायों में भाजपा के प्रति असंतोष पनप रहा था, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस के वोट शेयर में वृद्धि हुई है। भयंकर बेरोजगारी, कमरतोड़ महंगाई, खासकर ईंधन और खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ना, और लगातार कम आय/मजदूरी के साथ गंभीर आर्थिक स्थिति से असंतोष और भी बढ़ गया था। इसलिए, भाजपा और उसकी सहयोगी जेजेपी के खिलाफ नकारात्मक वोटों का एकीकरण हुआ है, क्योंकि सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ व्यापक गुस्सा था।

कृषि उपज के कम लाभ, बढ़ती लागत और कृषि उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की वैधानिक गारंटी पर विचार करने से भाजपा सरकार के हठधर्मिता से पैदा हुए कृषि संकट ने ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक आक्रोश पैदा किया है। यह ग्रामीण सीटों के परिणामों में नज़र आता है: कांग्रेस ने 20 ग्रामीण सीटों में से 11 पर जीत हासिल की और 44 फीसदी से अधिक वोट शेयर हासिल किया, जबकि भाजपा को नौ सीटें और 41 फीसदी वोट मिले।

अन्य मुख्य रूप से कृषि-आधारित पार्टियां – जैसे कि आईएनएलडी और जेजेपी - इन ग्रामीण सीटों से केवल 4.3 फीसदी वोट ही जुटा पाईं और इन दोनों ने मिलकर एक भी ग्रामीण सीट नहीं जीती। 44 अर्ध-शहरी या ‘ग्रामीण’ सीटों में से भी, कांग्रेस को भाजपा (37 फीसदी) की तुलना में 39.3 फीसदी का बड़ा वोट शेयर मिला, लेकिन सीट की संख्या में उसे हार का सामना करना पड़ा। भाजपा की 23 सीटों की तुलना में इसने 18 ‘शहरी’ सीटें जीतीं हैं।

शहरी झुकाव और जाट विरोधी मतों का एकीकरण

शहरी इलाकों में ही भाजपा ग्रामीण इलाकों में हुए घाटे की भरपाई करने में सफल रही। याद रखें कि हरियाणा में शहरीकरण की दर अपेक्षाकृत अधिक है - लगभग 35 फीसदी है, जबकि राष्ट्रीय औसत 31 फीसदी की है। 26 शहरी सीटों में से भाजपा ने 16 सीटें जीतीं, जिसका वोट शेयर 46.3 फीसदी रहा, जबकि कांग्रेस ने आठ सीटें जीतीं, जिसका वोट शेयर लगभग 36 फीसदी रहा। दो सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों के खाते में गईं हैं।

शहरी क्षेत्र लंबे समय से भाजपा के पक्ष में रहे हैं और कई समुदाय शहरी इलाकों में अधिक केंद्रित हैं, जिनमें अनुसूचित जातियां, पंजाबी और कुछ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) शामिल हैं। जाट समुदाय की ओर कांग्रेस के कथित झुकाव का इस्तेमाल भाजपा ने बेईमान जाति-आधारित ध्रुवीकरण अभियानों के माध्यम से अन्य जातियों और समुदायों को एकजुट करने के लिए किया, जो शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई दिया।

दलित वोट कांग्रेस और भाजपा के बीच लगभग बराबर बंटते हुए नज़र आया, दोनों को 44 फीसदी वोट शेयर मिला, हालांकि कांग्रेस को कुल 17 आरक्षित सीटों में से नौ और भाजपा को आठ सीटें मिलीं हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि बहुजन समाज पार्टी, जिसने आईएनएलडी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था, उसे 2.4 फीसदी वोट और कोई सीट नहीं मिली, जबकि चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ की आज़ाद समाज पार्टी (जेजेपी के साथ चुनाव लड़ रही थी) को इन आरक्षित सीटों पर मात्र 0.2 फीसदी वोट ही मिले हैं।

चुनावी रणनीति का संतुलन बिगड़ा

कांग्रेस और भाजपा गठबंधन के बीच का अंतर इतना कम है कि कुछ चुनावी रणनीतियां कांग्रेस की हार के लिए जिम्मेदार हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, कांग्रेस द्वारा उम्मीदवारों के चयन के लिए पूर्व मुख्यमंत्री और जाट राजनीति में एक प्रभावशाली व्यक्ति भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर पूरी तरह से निर्भर रहने के कारण कांग्रेस में गुटबाजी खुलकर सामने आई। कथित तौर पर हुड्डा कांग्रेस पार्टी में 78 टिकट देने के लिए जिम्मेदार थे। दलित नेता और कांग्रेस सांसद कुमारी शैलजा ने कथित तौर पर इस गुटबाजी के कारण कई दिनों तक खुद को प्रचार से अलग कर लिया था।

दोनों मुख्य पार्टियों से कुल 26 बागी उम्मीदवार मैदान में थे। हालांकि उनमें से केवल तीन ही जीते (दो भाजपा और एक कांग्रेस), ऐसा लगता है कि बागियों ने 15 सीटों पर अपनी-अपनी मूल पार्टियों की जीत की संभावनाओं को बिगाड़ दिया - जिनमें से 10 कांग्रेस से थे।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–

Haryana Results: Just 1% Separates Cong and BJP

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