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क्या 2014 के बाद चंद लोगों के इशारे पर नाचने लगी है भारत की अर्थव्यवस्था और राजनीति?

क्या आपको नहीं लगता कि चंद लोगों के पास मौजूद बेतहाशा पैसे की वजह से भारत की पूरी राजनीति चंद लोगों के हाथों की कठपुतली बन चुकी है।
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बंपर ऊंचाई पर पहुंच चुके थोक महंगाई दर के कारणों को बताते हुए भारत के जाने-माने अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अरुण कुमार ने भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था की एक बड़ी गहरी प्रवृत्ति बताई। प्रोफेसर अरुण कुमार ने बताया कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था में एकाधिकार की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इसका केंद्रीयकरण होते जा रहा है। इसलिए कुछ लोग कीमतें बढ़ा पा रहे हैं, उनके साथ प्रतियोगिता करने वाला कोई नहीं है और उनका मुनाफा बढ़ता जा रहा है।

उनकी बात में दम लगता है। अभी हाल का ही आंकड़ा है कि वित्तवर्ष 2021-22 की दूसरी तिमाही के नतीजों में लिस्टेड कंपनियों ने रिकॉर्ड 2.39 लाख करोड़ की कमाई की है। कंपनियों के मुनाफे में सालाना करीब 46 फीसदी की बढ़त दर्ज की गई है। इनमें भी बड़ा मुनाफा सभी लिस्टेड कंपनियों ने दर्ज नहीं की है। बल्कि कुछ ही कंपनियों ने दर्ज की है। वह कंपनियां जो एनर्जी सेक्टर से जुड़ी हुई हैं उन्होंने तकरीबन 87 फ़ीसदी का मुनाफा दर्ज किया है।

अफसोस की बात यह है कि भारत जैसा बहुत बड़ा देश अपने भीतर मौजूद कई तरह की विविधताओं को विकेंद्रित रूप देने की बजाय केंद्रीकृत ढांचे में बदलता जा रहा है। कारोबार और राजनीति जैसे समाज के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र केंद्रीकरण के चंद लोगों के कैदी बनते जा रहे हैं।

पंचायती चुनाव को ही देखिए। पंचायती चुनाव का मकसद विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देना था। लेकिन यहां भी भारत का वही तबका नुमाइंदगी कर पा रहा है, जिसकी जेब में अच्छा खासा पैसा है। बहुतेरे लोग जो गांव देहात में गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं उनकी नुमाइंदगी कोई गरीब नहीं कर पाता। विकेंद्रीकरण अर्थहीन बनकर रह जाता है।

इससे भी बुरा हाल विधायिका के सदस्यों के चुनाव के साथ हैं। वहां भी अमीर से अमीर लोग पटे पड़े हैं। इसका सबसे बड़ा असर यह हुआ है कि भारत जैसे बहुत बड़े गरीब देश में गरीबी की ठोस चर्चा बंद हो जाती है। तीन कृषि कानूनों पर खूब चर्चा हुई तो बात अंबानी और अडानी तक भी पहुंचीं। यह साफ साफ दिखा कि किस तरह से सरकार और कॉर्पोरेट का गठजोड़ भारत की बहुत बड़ी आबादी प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझता है। लेकिन यह लड़ाई जनता की लड़ाई नहीं बन पाई। यह लड़ाई कुछ कार्यकर्ताओं और अखबार के लेखों तक सीमित रह गई। गली मोहल्ले गांव देहात शहर कस्बा तक नहीं पहुंच पाई।

इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि जो लोग भारत के सुदूर इलाकों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उनकी चिताएं गरीबी से जुड़ी हुई नहीं है। वे लोग भी चंद लोग मुट्ठी भर उन्हीं लोगों के बीच का हिस्सा हैं, जो भारत में अमीर वर्ग कहलाता है।

वर्ल्ड इंक्वालिटी डेटाबेस के आंकड़ों के मुताबिक भारत के कुल राष्ट्रीय आय में साल 1998 में भारत के 10% सबसे अधिक अमीर लोगों की हिस्सेदारी तकरीबन 40% हुआ करती थी। अब साल 2019 में यह बढ़कर 57% हो गई है। लेकिन वहीं पर अगर बीच में मौजूद 40% मध्यवर्ग को देखें तो इनकी हिस्सेदारी साल 1998 में कुल आय में 41 फ़ीसदी थी, अब यह घटकर के 30 फ़ीसदी के पास पहुंच चुकी है।

साल 2014 के बाद के हालात तो पहले से भी ज्यादा केंद्रीकृत वाले हो चुके हैं। एक अध्ययन के मुताबिक साल 2014 तक भारत की 20 सबसे बड़ी कंपनियों की भारत की सभी कंपनियों के कुल मुनाफे में हिस्सेदारी तकरीबन 40% की हुआ करते थे। अब यह बढ़कर 60% तक पहुंच गई है। इस रिपोर्ट का अध्ययन करने वाली टीम का कहना है कि साल 2017 में जब नोट बंदी हुआ उसके बाद से पैसे के केंद्रीकरण में बहुत अधिक इजाफा हुआ।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के रिसर्च नीलांजन सरकार अपने पॉलिटिक्स एंड मनी नामक रिसर्च में बताते हैं कि पैसे का संकेंद्रण कुछ लोगों के हाथों में होने की वजह से राजनीति का भी संकेंद्रण हुआ है। या इसका उल्टा कह लीजिए की राजनीति का संकेंद्रण होने की वजह से पैसे का भी संकेंद्रण हुआ है। जब भारत की 20 बड़ी कंपनियों की भारत के कुल मुनाफे में हिस्सेदारी 60% की है तो इनका ही दबाव राष्ट्रीय स्तर पर बनता है। 60% मुनाफा कमाने वाले इन बड़े बड़े कारोबारियों का कारोबार पूरे देश भर में फैला हुआ है। राजनीति विकेंद्रित होने की बजाय अधिकतर विषय को दिल्ली से संचालित करने लगती है। केंद्र राज्यों पर हावी हो जाता है। वही होता है जिसका इशारा पैसे वालों की तरफ से किया जाता है।

राज्य स्तर पर भी देखा जाए तो ठीक है ऐसा ही हाल है। अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गर्ल्स वनियर्स का रिसर्च बताता है कि साल 1980 में उत्तर प्रदेश से चुने गए कुल विधायकों में 10% विधायक कारोबारी समुदाय से आते थे। अब इनकी संख्या बढ़कर 50% तक पहुंच गई है। यानी उत्तर प्रदेश के आधे विधायक राज्य के बड़े-बड़े कारोबार से जुड़े हुए हैं। इनके पास पैसा और विधायिका दोनों है। इस तरह से राज्य में भी यह अपना दबदबा बना लेते हैं। ऐसे लोगों को अपने पैसे से मतलब है। अपने मुनाफे से। इसीलिए आज के जमाने में कौन किस पार्टी में रहेगा और कौन किस पार्टी में नहीं रहेगा, इससे ज्यादा यह मायने रखने लगा है कि किस पार्टी के साथ चुनावी जीत की हवा चल रही है। जिधर चुनावी जीत की हवा चलती है उधर यह लोग अपने रुपए पैसे के साथ पहुंच जाते हैं।

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साल 2014 के बाद से भारतीय समाज में बहुत ज्यादा उथल-पुथल मचा है। लेकिन एक बड़ा उथल पुथल केंद्रीकरण की दहलीज पर मचा है। कभी-कभी सोच कर देखिए तो ऐसा लगता है कि सब कुछ चंद लोग नियंत्रित कर रहे हैं। मीडिया प्रशासनिक संस्थान राजनीतिक विमर्श  यह सब कुछ भाजपा के चंद नेताओं के इशारों पर नाचता दिखता है। भारत के हर राज्य के राजनीतिक संघर्ष में इनकी महत्वपूर्ण मौजूदगी होती जा रही है। राज्य और केंद्र के बीच का आपसी संतुलन टूटकर प्रधानमंत्री के कार्यालय में समाया हुआ लगता है।इन सब की वजह यह है कि चुनावी चंदे का सारा परनाला भाजपा के कार्यालय में गिरता है। इस अकूत पैसे से भाजपा सब को नियंत्रित करती रहती है। इलेक्टोरल बांड को देख लीजिए। नाम का पता नहीं चलता कि कौन कहां पर पैसा भेज रहा है? लेकिन आंकड़े सब कुछ बता देते हैं। चुनावी चंदा और चुनावी प्रक्रिया पर निगरानी रखने वाली नागरिक समाज की संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के आंकड़े कहते हैं कि राजनीतिक पार्टियों के 70% चुनावी फंडिंग का कोई अता-पता नहीं होता। यह बेनामी होती है। इस 70% में लगभग 90% की चुनावी फंडिंग सीधे भाजपा को मिलती है। भाजपा को मिलने वाली चुनावी फंडिंग देश भर की सभी पार्टियों को मिलने वाली चुनावी फंडिंग से तकरीबन 3.50 गुना अधिक है।

इन सभी बातों का निष्कर्ष क्या है? एक लाइन में कहा जाए तो साल 2014 के बाद से भारत की राजनीति का जमकर कॉरपोरेटाइजेशन हुआ है। चंद लोगों के पास मौजूद बेतहाशा पैसे की वजह से भारत की पूरी राजनीति चंद लोगों के हाथों की कठपुतली बन चुकी है।

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