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क्या आपने कभी महिला किसानों और उनके संघर्ष को जानने की कोशिश की है?

किसान शब्द का जो अर्थ समाज ने हमारे अंदर भरा है, उसमें औरतें शामिल नहीं हैं। जबकि यह बात हक़ीक़त से बिल्कुल परे है।
महिला किसानों और उनके संघर्ष

किसी शब्द को सोचने पर पहली बार जिस तरह की छवियां हमारे दिमाग में बनती हैं, वह इस बात का इशारा होता है कि समाज ने हमारे लिए उस शब्द का क्या अर्थ भरा है। इसी तर्ज पर किसान शब्द के बारे में सोचिए तो हममें से अधिकतर के दिमाग में हल चलाते हुए और आसमान की तरफ देखते हुए एक मेहनतकश मर्द की छवि उभरती है। इन छवियों में औरतें ना के बराबर होती हैं। इसका मतलब है कि किसान शब्द का जो अर्थ समाज ने हमारे अंदर भरा है, उसमें औरतें शामिल नहीं हैं। जबकि यह बात हकीकत से बिल्कुल परे है। अगर खेती किसानी का इतिहास हजारों हजारों साल का है तो उसमें औरतों की भागीदारी का भी इतिहास शामिल है। 

स्वामीनाथन आयोग वाले कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन ने साल 1985 में वूमेन फार्मर एंटिटलमेंट बिल पेश किया था। इस पर कोई सुनवाई नहीं हुई तो साल 2013 में यह बिल अर्थीहन हो गया। यह बिल पेश करते समय स्वामीनाथन ने कहा था कि मर्द भोजन की जुगाड़ में शिकार करने के लिए घरों से बाहर जाते थे। औरतें घरों में रहती थी। तो औरतों ने आसपास के पेड़ पौधों से बीजों को इकट्ठा करना शुरू किया। इसलिए कुछ इतिहासकारों का मानना है की खेती किसानी की शुरुआत मर्दों ने नहीं बल्कि औरतों ने की थी। लेकिन समाज ने औरतों और मर्दो के बीच कुछ ऐसा नाता बांधा कि औरतों के पूरे वजूद को किसान के विमर्श से बाहर कर दिया। तो चलिए थोड़ा सत्ता से लड़ रहे किसानों के दौर में महिला किसानों की स्थिति से रूबरू होते हैं।

सबसे पहले महिला किसान से जुड़ा एक उदाहरण देखिए। ठंड बरसात गर्मी या कोई भी मौसम हो सूरज उगने से पहले गांव की एक औरत अपना बिस्तर छोड़ देती है। अभी भी अधिकतर घरों में शौचालय नहीं है। अगर है भी तो बहुत खराब हालत में है। तो महिला शौच के लिए घर से दूर जाती है। वहां से आकर झाडू उठाती है। पूरा घर साफ करती है। अगर मिट्टी का घर हुआ तो घर की पूरी जमीन मिट्टी से लेपती है। चौका बर्तन करती है। इन्हीं सबके बीच पशुओं की देखरेख भी करती है। उनका गोबर उठाकर फेंकना। चारा खिलाना। उन्हें सही जगह पर बांधने से लेकर तमाम तरह के काम। जिस समय अपर मिडिल क्लास की सुबह यानी सुबह का 8:00 बजता है, उस समय तक तो वह खेत में काफी काम निपटा चुकी होती है। वहां से आती है। तब खाना खाती है। अभी के समय में साल के 365 दिनों में 300 से ज़्यादा दिन  अपने खेत में कई तरह के काम करते हुए गुजारती है। इन्हीं सबके बीच शाम आती है। शाम में भी वही सब पूरे परिवार के लिए खाना पकाना। यानी मेहनत भरपूर है लेकिन इस मेहनत की ना तो कोई हौसला अफजाई है और ना ही कोई नाम। कई दफे तो ऐसा होता है कि अगर औरत का मर्द यानी पति मर गया तो परिवार वाले भाई का रिश्ता कह कर उसकी जमीन अपने नाम करवा लेते हैं। लेकिन औरत को नहीं देते। ऐसे तमाम पचड़े हैं जो खेती किसानी के कामों से जुड़ी हुई महिलाओं से जुड़े होते हैं।

खेती किसानी से जुड़ी आंकड़ों के तहत भारत में तकरीबन 73.2 फ़ीसदी ग्रामीण महिलाएं कृषि क्षेत्र में कामकाज करती हैं। लेकिन केवल 12 फ़ीसदी महिलाओं के पास ही जमीन का मालिकाना हक है। सांस्कृतिक सामाजिक और धार्मिक वजहों से अगर जमीन पर मालिकाना हक केवल ऊंची जातियों की बपौती रही है तो इस बपौती में निचली जातियों के संघर्ष के अलावा औरतों का वजूद हाल फिलहाल कहीं भी नहीं है। वह तो भला कहिए सुप्रीम कोर्ट का कि साल 2020 में उसने यह फैसला दिया कि संपत्ति के उत्तराधिकार में औरतों का भी हक होगा। नहीं तो जमीन पर बंटवारा मर्दों से औरतों की तरफ होने की राह अभी तक तो नहीं बनी थी। लेकिन अब भी संघर्ष बहुत लंबा है। 

अब भी समाज संस्कृति धर्म प्रथा परंपरा सभी तरह से जुड़ी बहस खेती किसानी को मर्दों का पेशा मानता है। द इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे की रिपोर्ट के तहत खेती किसानी से जुड़ी 83 फ़ीसदी जमीन का उत्तराधिकार मर्दों के पास है जबकि केवल 2 फ़ीसदी जमीन का उत्तराधिकार औरतों के पास है। इसका मतलब है की औरतों को न तो किसान माना जाता है और न ही उत्तराधिकारी के रूप में उन्हें जमीन का मालिकाना हक मिलता है।

इन सारे सवालों का जवाब देते हुए कर्नाटक में मौजूद आलियांस फॉर हॉलिस्टिक एग्रीकल्चर संगठन से जुड़ी कार्यकर्ता और मौजूदा कृषि कानूनों के विरोध में किसानों की तरफ से प्रतिनिधि बनकर सरकार से बातचीत करने वाले समूह के बीच की सदस्या कविता कुरुगंती कहते हैं कि एक अपवाद के तौर पर कुछ मातृ सत्तात्मक समाजों को छोड़ दिया जाए तो पितृसत्तात्मक समाज में अधिकतर जमीन पर मालिकाना हक मर्दों का ही होता है। पितृसत्ता की वजह से जमीन, संसाधन और किसी भी तरह की उत्पादक संपत्ति मर्दों के कब्जे में ही रहती है। यह थोड़ा अजीब है। लेकिन असलियत यही है कि एक महिला भी किसान होती है। आजादी के बाद कृषि नीतियां और कृषि प्रौद्योगिकी बनाने के मामले में भी अधिक पढ़े लिखे और कुशल होने के चलते मर्दों की ही भागीदारी अधिक रही। इसलिए कृषि नीतियां और प्रौद्योगिकी भी ऐसी बनी जहां ख्याल में केवल किसान भाई यानी मर्द ही रहे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ट्रैक्टर, सिंचाई तंत्र और मशीनरी जैसे उपाय इस लिए बने क्योंकि मर्द किसानों की परेशानी कम करनी थी। अगर किसानों में औरतों को भी शामिल किया जाता तो अब तक बीज रोपने, फसलों के बीच होनी वाले घास को काटने,चिखुरने, कपास साफ करने से जुड़ी परेशानियों के लिए भी अच्छी खासी तकनीक विकसित हो चुकी होती। इस पर तकनीक विकसित नहीं हुई क्योंकि इन सारे कामों में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है।

ऑक्सफैम की रिपोर्ट है कि खेती किसानी से जुड़ी जितने भी सरकारी कमेटियां और योजनाएं हैं उन्हें लागू करवाने से जुड़े संगठन में महिलाओं की भागीदारी केवल 2.3 फ़ीसदी है। अगर आप इस समय किसी गांव में है तो खुद जांच कीजिए की कृषि सहायक के पद पर आपके पंचायत और आसपास के इलाके में कितनी महिलाएं काम कर रही है।

इस तरह की लैंगिक भेदभाव वाली संरचना होने के चलते केवल जमीन से जुड़े अधिकारों के मामले में ही नहीं बल्कि दूसरी सरकारी योजनाओं की पहुंच भी महिलाओं तक बहुत कम हो पाती है। बहुत सारी मंडियों में महिलाएं घंटों अपना अनाज बेचने के लिए खड़ी रहती हैं लेकिन मंडियों में महिला शौचालय की व्यवस्था नहीं।

साल 2018-19 का इकोनॉमिक सर्वे कहता है कि बहुत अधिक प्रवास की वजह से कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पहले की अपेक्षा अधिक हुई है। इसका मतलब है कि रोजगार की तलाश में गांव से शहरों की तरफ नौजवानों की पलायन की वजह से घर की खेती किसानी को संभालने की जिम्मेदारी महिलाएं अधिक निभा रही हैं। फिर भी किसानी का नाम आते ही उनकी कोई पूछ नहीं है।

किसान में दर्ज न होने की वजह से किसानों को मिलने वाली सरकारी योजनाओं का फायदा औरतों को नहीं मिलता है। अगर औरतों को भी किसान माना जाता तो फसल बीमा योजना, फसल के लिए मिलने वाला कर्ज, कर्ज माफी, सरकारी मदद और दुर्भाग्य से किसी महिला किसान की आत्महत्या कर लेने पर परिवार को मिलने वाली मदद भी महिला किसानों को मिलती। लेकिन ऐसा नहीं होता है।

लेकिन कहीं से इसका यह मतलब नहीं है कि नए कृषि कानूनों की वापसी से जुड़ा मुद्दा महिला किसानों से जुड़ा हुआ मुद्दा नहीं है। बल्कि असलियत यह है कि यह मुद्दा जितना मर्द किसान का हो उतना ही महिला किसानों का। या यह कह लीजिए कि मर्द किसानों से ज्यादा यह मुद्दा महिला किसानों का है। उदाहरण के तौर पर अगर एमएसपी की लीगल गारंटी मिलती है तो आमदनी बढ़ेगी। तभी जीवन स्तर सुधरेगा तभी मर्द और औरत दोनों खेती किसानी के क्षेत्र में महिलाओं के साथ हो रही नाइंसाफी को भी देख पाएंगे।

यही वजह है कि दिल्ली की सीमाओं पर हो रहे किसान आंदोलन में बहुत बड़ी तादाद महिला किसानों की है। और सभी किसान संगठन उनकी अहमियत समझते हैं, तभी तो इस आंदोलन के दौरान 18 जनवरी का दिन महिला किसान दिवस के रूप में मनाया जाएगा।  

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