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ख़बरों के आगे-पीछे: भाजपा में नंबर दो की लड़ाई से लेकर दिल्ली के सरकारी बंगलों की राजनीति

हर हफ़्ते की प्रमुख ख़बरों को लेकर फिर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
Yogi
फ़ाइल फ़ोटो- अमित शाह और योगी आदित्यनाथ

लगता है भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार अपने विभाजनकारी राजनीतिक एजेंडा को धर्म और संप्रदाय के साथ-साथ अब भाषायी आधार पर भी आगे बढ़ाना चाहती है। उसके इस इरादे की झलक गृह मंत्री अमित शाह के उस बयान से मिलती है जो उन्होंने आठ अप्रैल को संसदीय राजभाषा समिति की बैठक में दिया है। उन्होंने कहा है कि राजभाषा हिंदी को अब देश की एकता का एक महत्वपूर्ण आधार बनाने का समय आ गया है, इसलिए अलग-अलग राज्यों के लोगों को अंग्रेजी के बजाय हिंदी में बात करना चाहिए। शाह ने 2019 में भी हिंदी दिवस के मौके पर 'एक राष्ट्र-एक भाषा’ की बात करते हुए कहा था कि पूरे देश के लिए एक भाषा होना बहुत जरूरी है। अब यही बात फिर से दोहरा कर उन्होंने गैर हिंदी भाषी राज्यों को हिंदी सीखने की नसीहत दी है, लेकिन शाह और उनकी पार्टी को याद रखना चाहिए कि देश की आजादी के बाद राज्यों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर ही हुआ था। दक्षिण के राज्यों में हिंदी थोपने की कोशिशों का 1960 के दशक में भी तीव्र विरोध हो चुका है और अभी शाह के ताजा बयान पर भी पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और कर्नाटक की ओर से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा गया है कि हिंदी थोपने का यह प्रयास देश की अखंडता और बहुलवाद के खिलाफ है। कहने की आवश्यकता नहीं कि 'एक राष्ट्र-एक भाषा’ का फितूर देश के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। गृह मंत्री और उनकी पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि पांच दशक पहले पाकिस्तान से टूट कर बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के मूल में यही भाषायी अस्मिता का मुद्दा था। सवाल यह भी है कि देश की एकता को मजबूत करने लिए हिंदी भाषियों से क्यों नहीं कहा जाता कि वे तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, गुजराती या उत्तर-पूर्वी राज्यों की कम से कम एक भाषा बोलना सीखें।

सरकारी बंगलों को लेकर यह कैसी मारामारी?

दिल्ली में पिछले आठ साल से सरकारी बंगलों की अभूतपूर्व मारामारी मची हुई है। मनमोहन सिंह की अगुवाई में 10 साल यूपीए की सरकार थी लेकिन एकाध अपवाद के अलावा कभी किसी से बंगला खाली कराने या सामान निकाल कर सड़क पर फेंकने की घटनाएं देखने को नहीं मिली। लेकिन अब आए दिन ऐसी घटनाएं हो रही हैं। पिछले दिनों दिवंगत रामविलास पासवान का 12, जनपथ का बंगला खाली कराया गया। उनका सामान निकाल कर बाहर फेंक दिया गया। गौरतलब है कि 2009 कांग्रेस को ठोकर मार कर रामविलास पासवान चले गए थे और चुनाव हार गए थे। इसके बावजूद कांग्रेस की सरकार ने वह बंगला खाली नहीं कराया। 2010 में वे राज्यसभा पहुंचे लेकिन राज्यसभा सांसद के नाते भी वे टाइप आठ के बंगले के हकदार नहीं थे फिर भी वह बंगला उनके पास ही रहा। इसी तरह 2004 से 2014 के बीच भाजपा के किसी नेता का बंगला खाली कराए जाने की खबर नहीं आई। लालकृष्ण आडवाणी से लेकर मौजूदा उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू, मुरली मनोहर जोशी, रविशंकर प्रसाद, और शाहनवाज हुसैन तक भाजपा के कई नेताओं को मंत्री रहते हुए जो बंगले आबंटित हुए थे, वे मंत्री नहीं रहने पर भी उन्हीं बंगलों में डटे रहे। लेकिन भाजपा की सरकार बनने के बाद कांग्रेस के जितने पूर्व मंत्री टाइप आठ के बंगले में थे, सबसे बंगला खाली कराया गया। भाजपा के भी कुछ नेताओं से मंत्री नहीं रहने पर बंगला खाली कराया गया या खाली कराया जा रहा है। अलबत्ता आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी अभी टाइप आठ के बंगले में बने हुए हैं।

आनंदी बेन ने बताया मोदी के बाद कौन?

भाजपा में नंबर दो की पोजिशन को लेकर चर्चा तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान ही शुरू हो गई थी। चर्चा थी कि अमित शाह उत्तर प्रदेश में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। यह चर्चा निराधार भी नहीं थी, क्योंकि 2014 के बाद उत्तर प्रदेश में यह पहला ऐसा चुनाव था जिसमें शाह ने बहुत कम रैलियां कीं। हालांकि चुनाव के बाद इस तरह की कई रोपी हुई कहानियां मीडिया में आईं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत में अमित शाह ने अहम भूमिका निभाई है जिससे पार्टी में उनका कद पहले से ज्यादा ऊंचा हो गया है। शीर्ष पर मोदी के बाद योगी के आ जाने के प्रचार की काट के लिए यह दलील भी खबरों में परोसी गई कि योगी तो अभी पार्टी के सात सदस्यीय सर्वोच्च निकाय यानी संसदीय बोर्ड के सदस्य भी नहीं हैं, इसलिए तकनीकी रूप से उनकी हैसियत संसदीय बोर्ड के मौजूदा सात सदस्यों के बाद ही आंकी जा सकती है। लेकिन चुनाव के बाद शाह का कद बढ़ने और योगी के संसदीय बोर्ड का सदस्य न होने की चर्चा को उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने हाल ही में अपनी गुजरात यात्रा के दौरान अपने एक बयान के माध्यम से फालतू करार दे दिया। राज्यपाल के रूप में आनंदी बेन का राजनीतिक बयानबाजी करना क्या उचित है, यह सवाल बेमतलब है, क्योंकि पिछले आठ वर्षों के दौरान राज्यपाल और सत्तारूढ़ पार्टी के नेता का अंतर पूरी तरह खत्म हो गया है। आनंदी बेन पटेल ने उत्तर प्रदेश में दोबारा भाजपा की सरकार बनने के बाद गुजरात यात्रा के दौरान सूरत में एक निजी मेडिकल कॉलेज के भूमिपूजन कार्यक्रम में भाषण देते हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव के संदर्भ में नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की जोड़ी का जिक्र किया। उन्होंने कहा, ''मोदी और योगी की जोड़ी का कोई तोड़ नहीं है। इस जोड़ी को कोई नहीं तोड़ सकता।’’ भाजपा की अंदरूनी राजनीति के लिहाज से आनंदी बेन के इस बयान के गहरे मायने हैं। उन्होंने जब कहा कि मोदी-योगी की जोड़ी को कोई नहीं तोड़ सकता, तो सवाल है कि वह कौन है जो मोदी-योगी की जोड़ी को तोड़ना चाहता है? यह कहना गैर जरूरी है कि आनंदी बेन ने विशुद्ध राजनीतिक बयान दिया है, जिससे भाजपा के अंदर का सत्ता-संघर्ष उजागर होता है। गुजरात की राजनीति जानने वाले जानते हैं कि आनंदी बेन और अमित शाह दोनों का आपसी रिश्ता छत्तीस जैसा है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आनंदी बेन का गुजरात का मुख्यमंत्री बनने और हटने, फिर उनकी जगह अमित शाह के करीबी विजय रूपानी के मुख्यमंत्री बनने और फिर उनको हटाए जाने के बाद आनंदी बेन के करीबी भूपेंद्र पटेल के मुख्यमंत्री बनने की राजनीति शाह और आनंदी बेन के राजनीतिक अहम के टकराव की कहानी है। इसलिए आज आनंदी बेन अगर मोदी-योगी की जोड़ी के अटूट होने की बात कर रही हैं तो यह भाजपा में नंबर दो की पोजिशन के लिए सत्ता-संघर्ष शुरू होने का स्पष्ट संकेत हैं।

पीएम के साथ सचिवों की बैठक का हासिल 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ केंद्र सरकार के सचिवों की बैठक को लेकर कई तरह की खबरें आईं, लेकिन मुख्य रूप से ध्यान खींचने वाली दो खबरें रहीं। पहली यह कि सचिवों ने राज्यों में पार्टियों की ओर से मुफ्त में वस्तुएं, सेवाएं और नकदी बांटने की योजनाओं पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि राज्यों की आर्थिक स्थिति के लिहाज से यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है और आगे चल कर इससे राज्यों की आर्थिक सेहत बिगड़ेगी। सचिवों की इस चिंता के हवाले से खबर बनी कि भारत में श्रीलंका जैसे हालात बन सकते हैं। चूंकि केंद्र सरकार भी मुफ्त में वस्तुएं, सेवाएं दे रही है और नकदी बांट रही है, इसलिए लगता नहीं कि किसी सचिव में इतनी हिम्मत रही होगी कि उसने प्रधानमंत्री के सामने यह सब बोला होगा। यह सब बोलने के लिए जरूरी है कि दामन पाक-साफ हो, जो कि आज के नौकरशाहों के लिए असंभव है। दागदार दामन वाले नौकरशाह चापलूस होते हैं और वे वही बोलते हैं जो प्रधानमंत्री सुनना पसंद करते हैं। नौकरशाहों का यही हाल राज्यों के स्तर पर भी है। बहरहाल दूसरी खबर यह थी कि प्रधानमंत्री मोदी ने सचिवों से कहा है कि वे गरीबी का बहाना न बनाएं और सुधारों के लिए नए और मौलिक सुझाव दें। खैर जो भी हो, सचिवों ने बैठक में मुफ्त बांटने की योजनाओं पर भले ही सवाल उठाए हो या न उठाए हो, पर इस बैठक से कम से कम इतना तो हुआ कि मुफ्त बांटने की योजनाओं पर मीडिया और सोशल मीडिया में इस पर थोड़ी बहुत चर्चा हुई।

प्रधानमंत्री से पवार की क्या बात हुई?

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और फिर खुद मीडिया को बताया कि उन्होंने प्रधानमंत्री से शिव सेना के सांसद संजय राउत के बारे में बात की और कहा कि केंद्रीय एजेंसियां अन्याय कर रही हैं। लेकिन जो लोग पवार को जानते हैं उन्हें पवार की इस बात पर यकीन नहीं है। उनका मानना है कि पवार ने जितनी बातें मीडिया को बताईं उनको छोड़ कर बाकी दूसरे मसलों पर बात होने की ज्यादा संभावना है। प्रधानमंत्री से मिलने के बाद शरद पवार ने मीडिया को बताया कि उन्होंने संजय राउत के खिलाफ हुई ईडी की कार्रवाई और विधान परिषद की मनोनयन कोटे की खाली सीटों के बारे में प्रधानमंत्री से बात की, जिसकी मंजूरी राज्यपाल ने पिछले एक साल से रोके रखी है। संभव है कि विधान परिषद की खाली सीटों के बारे में बात हुई हो क्योंकि मनोनयन के लिए जो नाम राज्य सरकार की ओर से भेजे गए हैं उनमें चार नाम पवार की पार्टी के भी हैं। लेकिन संजय राउत के बारे में बात होने की संभावना कम है। प्रेस कांफ्रेन्स में किसी ने पवार से पूछा नहीं लेकिन पूछा जाना चाहिए था कि अगर उन्होंने राउत के परिवार पर हुई कार्रवाई को अन्याय कहा है तो अपने परिवार पर हुई कार्रवाई के बारे में उनका क्या कहना है? ध्यान रहे पिछले साल आयकर विभाग ने अक्टूबर और नवंबर में शरद पवार के भतीजे अजीत पवार और उनके दूसरे रिश्तेदारों पर बड़ी कार्रवाई की थी। अजीत पवार की एक हजार करोड़ रुपए की संपत्ति जब्त होने की खबर है। उनके बेटे पार्थ पवार से जुड़े लोगों और उनकी बहनों के यहां भी कार्रवाई हुई थी। क्या शरद पवार ने इस बारे में प्रधानंमत्री से बात की? जाहिर है संजय राउत का जिक्र इसलिए किया गया ताकि पवार के प्रधानमंत्री से मिलने के असली मकसद के बारे में शिव सेना की ओर से सवाल न उठाया जाए या कोई अटकल न लगे।

ठेके पर होगी सैनिकों की नियुक्ति

देश में दिन-रात सेना का गुणगान करने वाली सरकार होने के बावजूद पिछले दो-तीन साल से सेना में नई भर्तियां नहीं हो रही हैं। एक अनुमान के मुताबिक पिछले दो साल में सैन्य क्षमता एक लाख कम हो गई है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान कई जगह युवाओं ने सेना में भर्ती का मुद्दा उठाया था। हाल ही में उत्तराखंड के एक युवक का आधी रात को नोएडा की सड़क पर दौड़ने का वीडिया वायरल हुआ, जिसमें उसने बताया कि सेना में भर्ती होने की तैयारी कर रहा है। इसी तरह एक युवक कई सौ किलोमीटर दौड़ कर दिल्ली पहुंचा ताकि सेना मे भर्ती के मुद्दे पर सरकार का ध्यान खींचा जा सके। हालांकि अभी तक सेना मे भर्ती की कोई खबर नहीं है लेकिन अब सरकार सेना में स्थायी नौकरी देने की बजाय तीन-तीन साल के ठेके पर सैनिकों की नियुक्ति के प्रस्ताव पर विचार कर रही है। इस प्रस्ताव के मुताबिक तीन-तीन साल के लिए ठेके पर सैनिक नियुक्त होंगे। तीन साल के बाद उनको सेवा-मुक्त कर दिया जाएगा। उन्हें पेंशन नहीं मिलेगी लेकिन कुछ समय तक स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती रहेंगी। इसके अलावा उनको अर्धसैनिक बलों में नियुक्ति में प्राथमिकता दी जाएगी। यह विचार दो साल पहले सामने आया था लेकिन तब इसका प्रस्ताव सिर्फ सैन्य अधिकारियों के लिए था। लेकिन अब जवानों की इसी तरह से नियुक्ति पर विचार किया जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि युवाओं में बढ़ती नाराजगी और निराशा को काबू करने के लिए सरकार यह रास्ता निकाल रही है। 

सिंधिया को 'वही’ बंगला क्यों मिलना चाहिए?

पूर्व केंद्रीय मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक से सरकारी बंगला खाली करा लिया गया है। केंद्र मे मंत्री बनने पर उनको 27, सफदरजंग रोड का बंगला आबंटित हुआ था। पिछले साल जुलाई में उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद से हटा दिया गया था और उसी समय ज्योतिरादित्य सिंधिया को केंद्र में मंत्री बनाया गया था। तभी से उस बंगले को खाली कराने की मुहिम चल रही है। वह भी सिर्फ इसलिए क्योंकि सिंधिया के पिता माधवराव सिंधिया उस बंगले में रहते थे और बाद में ज्योतिरादित्य भी उसी बंगले में रहे। क्या यह हैरान करने वाली बात नहीं है कि परिवारवाद और वंशवाद का विरोध करने वाले प्रधानमंत्री की सरकार चाहती है कि एक परिवारवादी नेता को वह बंगला मिले, जिसमें उसके पिता रहा करते थे? बहरहाल, निशंक अगर केंद्रीय मंत्री नहीं हैं, तब भी वे लोकसभा के सदस्य हैं और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भी रहे हैं। इस नाते उनको दिल्ली मे बंगला आबंटित होगा। मुख्यमंत्री रहे सांसदों को कैबिनेट मंत्री की तरह बंगला आबंटित होता है। उत्तर प्रदेश में महज एक दिन के लिए मुख्यमंत्री रहे जगदंबिका पाल को भी बंगला आबंटित हुआ है। सो, निशंक भी केंद्रीय मंत्रियों को मिलने वाले बंगले के हकदार है। इस लिहाज से उनको दो, तुगलक लेन का बंगला आबंटित हुआ है। सवाल है कि दो, तुगलक लेन का बंगला ज्योतिरादित्य सिंधिया को क्यों नहीं दे दिया गया? निशंक से 27, सफदरजंग रोड का बंगला खाली करा कर उसे सिंधिया को देने के पीछे सरकार और भाजपा की क्या मजबूरी है?

हर-हर ईडी, घर-घर ईडी 

महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ शिव सेना ने इस नारे का जिक्र अपने मुखपत्र में किया है। शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस के कई नेताओं, महाराष्ट्र के बिल्डरों, सरकारी अधिकारियों आदि के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की कार्रवाई के बाद शिव सेना ने अपने मुखपत्र सामना में लिखा है, ''हर हर मोदी, घर घर मोदी के नारे से जोड़ कर कोई हर हर ईडी, घर घर ईडी का नारा दे रहा है तो लोगों को बगावत करनी ही पड़ेगी।’’ शिव सेना का इशारा भाजपा नेताओं की ओर से दी जाने वाली धमकियों की ओर है। महाराष्ट्र में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल और केंद्रीय मंत्री नारायण राणे से लेकर पश्चिम बंगाल में सुवेंदु अधिकारी तक भाजपा के कई नेता विपक्षी नेताओं को केंद्रीय एजेंसी की जांच की धमकी देते रहे हैं। विपक्षी पार्टियों के नेताओं के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों से जुड़े लोगों के खिलाफ भी ईडी की कार्रवाई होने लगी है। ईडी ने नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर के खिलाफ धन शोधन का मामला दर्ज किया है। उनके खाते में 2005 यानी कोई 17 साल पहले हुए लेन-देन को लेकर एजेंसी ने मुकदमा दर्ज किया है। जब 17 साल पुराने किसी मामले में मेधा पाटकर पर एफआईआर दर्ज हो गई तो घर-घर ईडी पहुंचने मे क्या संदेह रह जाता है। ध्यान रहे आयकर और सीबीआई के मुकाबले ईडी की कार्रवाई ज्यादा आसान है और इसमें बड़ी सजा का प्रावधान भी है। इसे सीबीआई की तरह मंजूरी की जरूरत नहीं होती है और आयकर विभाग से उलट उसके पास गिरफ्तारी का भी अधिकार है।

(लेखक अनिल जैन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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