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कोरोना: मानसिक आघात की महामारी से कैसे निपटेगा भारत !

पूरी दुनिया में इस बात पर रिसर्च जारी है कि कोरोना महामारी के दौरान और उसके बाद, मानव मन पर जो गहरा आघात पहुंच रहा है या पहुंचेगा, उससे कैसे निपटा जाए। भारत में इस तरह का कोई अध्ययन हो रहा हो, इस पर कोई ठोस चर्चा होती नहीं दिख रही है।
 मानसिक आघात
'प्रतीकात्मक तस्वीर' साभार : CNN

कोरोना महामारी की वजह से जीवन में आ रहे परिवर्तनों को मानना और अपनाना आवश्यक है, लेकिन इसके कई साइड इफेक्ट्स भी दिखने शुरू हो गए हैं। पूरी दुनिया में इस बात पर रिसर्च जारी है कि कोरोना महामारी के दौरान और उसके बाद, मानव मन पर जो गहरा आघात पहुंच रहा है या पहुंचेगा, उससे कैसे निपटा जाए। भारत में इस तरह का कोई अध्ययन हो रहा हो, इस पर कोई ठोस चर्चा होती नहीं दिख रही है। हां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समय-समय पर लोगों से अपनी सामूहिकता और एकजुटता प्रदर्शित करने का आह्वान ज़रूर करते दिखते हैं। लेकिन, क्या ये काफी होगा?

हाल ही में लैंसेंट साइकियाट्री जर्नल में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर एक रिपोर्ट छपी है। यूनिवर्सिटी के साइकियाट्री डिपार्टमेंट के हेड प्रोफेसर इड बुलमोर और उनकी टीम ने इंग्लैंड में कोविड-19 संक्रमण के बीच आयोजित एक सर्वे के आधार पर इस रिपोर्ट को तैयार किया है। बुलमोर कहते हैं कि सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यही है कि अभी और भविष्य में भी कोरोना महामारी का मानसिक स्वास्थ्य पर बड़ा और विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

उनका सुझाव है कि आम लोगों, जोखिम समूहों और यहां तक कि हेल्थ केयर प्रोफेशनल्स के मानसिक स्वास्थ्य की रीयल टाइम मॉनिटरिंग किए जाने की सख्त जरूरत है। रिसर्च के मुताबिक, कोरोना महामारी के कारण बढ़ती बेरोजगारी या रोजगार छिनने का डर, परिवार से दूर होना, अर्थव्यवस्था की खराब हालत, क्वरंटाइन या आइसोलेशन में रहने के कारण आम लोगों पर दीर्घकालिक नकारात्मक मानसिक असर होगा। इसके लिए वैज्ञानिक पूर्व के कुछ उदाहरण बताते हैं। मसलन, 2003 में आए सार्स महामारी या सिएरा लियोन में इबोला वायरस से प्रभावित हुए लोगों में निराशा, चिंता या पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर (पीटीएसडी) के लक्षण पाए गए।

यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लास्गो के प्रोफेसर रोरी ऑ’कॉनर तो ये भी निष्कर्ष देते हैं कि सार्स महामारी के बाद 65 साल से ऊपर के लोगों में आत्महत्या की दर 30 प्रतिशत से भी अधिक बढ़ गई थी।

इस टीम ने बताया कि उन नीतियों के प्रभाव की भी समीक्षा करने की जरूरत है जो कोरोना महामारी को प्रबन्धित करने के लिए बनाई गई हैं। मसलन, बेरोजगारी, वित्तीय सुरक्षा और गरीबी ऐसे पहलू हैं, जो लोगों की मानसिक स्वास्थ्य दशा को बहुत हद तक प्रभावित करते हैं। इसलिए, इन पहलुओं पर बनी नीतियों की समीक्षा भी की जानी चाहिए।

अमेरिका की ग्लोबल पॉलिसी थिंक टैंक रैंड कॉरपोरेशन की बिहेविरल साइंटिस्ट लीजा मेरडिथ ने आपदा की तैयारी पर काफी काम किया है, उनके मुताबिक, कोरोना महामारी की वजह से जो नाटकीय परिवर्तन आए हैं, उससे ऐसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं उभरेंगी जो लंबे समय तक लोगों को प्रभावित करेंगी। वो इसकी तुलना अतीत में कैटरीना तूफान की वजह से अमेरिकन लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर आए असर से तुलना भी करती है।

हाल ही में, न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में एक रिसर्च पेपर प्रकाशित हुआ है। यूनिवर्सिटी ऑफ ओक्लाहोमा के साइकियाट्री प्रोफेसर बेट्टी पेफरबॉम ने अपने रिसर्च पेपर में कुछ ऐसे कारकों की पहचान की हैं, जो लोगों में तनाव और निराशा बढ़ाने का काम करते हैं। उन्होंने बताया हैं कि महामारी की अनिश्चितता, परीक्षण और उपचार के संबंध में संसाधनों में आने वाली भारी कमी और इससे आम लोगों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की सुरक्षा से खिलवाड़, ऐसे सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा उपायों का इस्तेमाल जो अब तक लोगों के लिए अपरिचित रहे हो (भारत के सन्दर्भ में क्वारंटाइन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्द) और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित करते हो, लगातार होता वित्तीय नुकसान और सरकारी प्राधिकारों की तरफ से आने वाले परस्पर विरोधी बयान ऐसे ही तनाव पैदा करने वाले कारक हैं। और ये निश्चित रूप से कोविड-19 संबधी भावनात्मक निराशा और मनोविकारों को तीव्र करने में योगदान देंगे। वो ये सुझाव भी देते है कि कोविड-19 मरीजों का उपचार करते वक्त हेल्थ केयर वर्कर्स को इन भावनात्मक पक्षों का भी निदान करना होगा, अन्यथा नतीजे बहुत भयवाह हो सकते हैं।

स्थिति कितनी भयावह हो सकती है, इसका अन्दाजा चीन के डॉक्टरों पर हुए एक ताजा अध्ययन नतीजों से भी लगाया जा सकता है। अभी चीन में कोविड-19 मरीजों का इलाज कर रहे हेल्थ केयर वर्कर्स पर भी अध्ययन किया गया। ये अध्ययन बताता है कि इन हेल्थ केयर वर्कर्स ने अपने साथ चिंता, निराशा, नींद न आने जैसे लक्षण की बात स्वीकारी हैं। अब भारत में हेल्थ केयर वर्कर्स को लेकर इस तरह का कोई अध्ययन हुआ हो, इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं है। लेकिन, वैश्विक महामारी के दौर में वैश्विक चिंताओं और समस्याओं से क्या हम अछूते रह सकते है? शायद नहीं।

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भारत के सन्दर्भ में यदि हम देखें तो लॉकडाउन के दौरान महानगरों से भारी संख्या में प्रवासी मजदूरों का पलायन हुआ। इसकी कई वजहें थी। लेकिन, मुख्य रूप से ये रोजगार छिनने का डर और परिवार से दूर होने या परिवार चलाने की काल्पनिक आशंका से चालित थी। दूसरी तरफ, कृषि व्यवस्था पर निर्भर लोग भी ऊहापोह की स्थिति में हैं। सरकारें भले ही उनके लिए आर्थिक उपायों की घोषणा कर रही हैं, लेकिन इस सब के बीच, देश की तकरीबन आधी आबादी से भी अधिक (यदि इसमें गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को शामिल कर ले) आर्थिक कारणों की वजह से एक नकारात्मक मानसिक स्वास्थ्य अवस्था में जा सकती हैं।

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तो सवाल है कि क्या कोरोना महामारी से सिर्फ आर्थिक-सामाजिक उपायों के जरिए ही लड़ा जा सकता है? लड़ा तो जा सकता है, लेकिन इसकी कीमत यदि खराब मेंटल हेल्थ हो तो फिर ये घाटे का सौदा बन जाएगा। इसलिए आवश्यक है कि इस मसले पर एक तत्काल एक राष्ट्रव्यापी नीति बनाई जाए। भारत में अभी तक ऐसा कोई राष्ट्रव्यापी अध्ययन नहीं हुआ है, जो कोविड-10 के दौरान लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर आ रहे असर का मूल्यांकन कर सके। जाहिर है, इस समस्या के निदान के लिए एक मजबूत पॉलिसी रेस्पॉंस की जरूरत है।

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हेल्थ सर्विस के साथ ही क्राइसिस काउंसलर और मानसिक स्वास्थ्य सलाहकारों की व्यवस्था भी बड़े पैमाने पर किए जाने की जरूरत होगी। क्राइसिस काउंसलर और मानसिक स्वास्थ्य सलाहकारों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, इसे एक डेटा से समझा जा सकता है। लॉस एंजल्स टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, कैलिफोर्निया स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था के क्राइसिस काउंसलर्स को मार्च महीने में 1800 कॉल्स प्राप्त हुए जबकि फरवरी महीने में ये संख्या महज 20 थी। अमेरिका में ट्रंप प्रशासन ने ये घोषणा की है कि मेडिकल इंश्योरेंस देने वाली कंपनियां मेंटल हेल्थ केयर भी कवर करेंगी।

टेलीमेडिसिन के जरिये लोग इस स्वास्थ्य सुविधा का इस्तेमाल करेंगे। अब यहां सवाल है कि क्या भारत में इस तरह के प्रयोग हो सकते है? अच्छी बात ये है कि आयुष्मान भारत योजना के तहत करोडों लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा मौजूद है। तो क्या उस बीमा में मेंटल हेल्थ को कवर नहीं किया जा सकता है, खास कर इस वक्त जब देश महामारी की गिरफ्त में है। ये संभव है, बशर्ते इसके लिए कुछ नीतिगत निर्णय ले लिए जाए और एक खास अवधि के लिए गैर सरकारी संस्थाओं की सेवा लेने की कोशिश की जाए। और बकायदा ये काम सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन करते हुए, टेलीमेडिसिन या ऑडियो-वीडियो कॉल के जरिए भी की जा सकती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस मुद्दे को संबोधित करते हुए कुछ गाइडलाइंस जारी किए हैं, जिनका पालन किया जा सकता है। मसलन, क्वारंटाइन में रखे गए लोगों के साथ किस तरह से पेश आना है या कोविड-19 मरीजों का इलाज करते वक्त किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।

अंतिम, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात। भारत के सन्दर्भ में देखें तो पॉलिटिकल क्लास को भी अपना व्यवहार परिवर्तन करने की आवश्यकता है। ये जरूरी है कि पक्ष-विपक्ष के नेता राजनीति करते हुए भी आम लोगों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाएं। जाति-धर्म-वर्ग से परे जा कर बार-बार लोगों (खासकर जो सबसे अधिक वित्तीय नुकसान झेल रहे हैं) से संवाद बनाए रखें और उन्हें आश्वस्त करें कि चाहे जो हो जाए, उनके रोजी-रोटी की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार उठाएगी। और सबसे बढ कर अपने निर्णयों और कृत्यों में सरकारों को अधिक से अधिक पारदर्शी होने की जरूरत है।

मसलन, यूपी सरकार यदि कोटा में फंसे बच्चों को लाने के लिए बसें भेज सकती है, तो बिहार के लोग भी ये आशा करेंगे कि यहां की सरकार भी वैसा ही निर्णय ले। वो भी तब जब सत्ताधारी दल का एक विधायक अपने बच्चे को कोटा से वापस लाने के लिए स्पेशल पास बनवा कर चला जाता है। ऐसी स्थिति में उन लोगों की मानसिक दशा का अन्दाजा लगाया जा सकता है, जिनके बच्चे कहीं बाहर फंसे हुए हैं और वे उन्हें वापस ला पाने में खुद को असहाय महसूस कर रहे हो। ऐसी हालत में, राजनैतिक नेतृत्व को आगे आ कर लोगों के बीच भरोसे का वातावरण पैदा करना होगा, अन्यथा ये स्थिति लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर निश्चित ही बुरा असर डालेंगी।

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तात्कालिक तौर पर भी और दीर्घकालिक तौर पर भी। लोगों में आशा, उत्साह का संचार करने में मीडिया का बडा योगदान हो सकता है। बशर्ते, मीडिया ऐसे मुद्दों की पहचान कर सके और उन पर काम कर सके। आज दुनिया अपनी अर्थव्यवस्था बचाने के जद्दोजहद में उलझी हुई है। लेकिन, मानसिक तौर पर एक कमजोर और निराश समाज के साथ हम अपनी अर्थव्यवस्था बचा भी ले तो अंतत:, हमारे हाथ कुछ आने को है नहीं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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