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भारत का लोकतंत्र अराजक हो रहा है?

देश में फैलता सांस्थानिक संकट डर और अराजकता की स्थिति पैदा कर रहा है।
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mage Courtesy : The Indian Express

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने हाल में लिखा कि भारत की मौजूदा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थितियां फ़्रांस की क्रांति से बिलकुल पहले जैसी हैं। उन्होंने लिखा, ''मैं लंबे समय से कह रहा हूं कि फ़्रांस की क्रांति जैसी कुछ घटनाएं भारत में होने वाली हैं, लेकिन मेरी बात का मज़ाक़ बनाकर उसे गंभीरता से नहीं लिया गया। 'मुझे भेड़िया आया, भेड़िया आया' चिल्लाने वाले बच्चे की तरह चित्रित किया गया, लेकिन अब भेड़िया आपके दरवाज़े पर ही खड़ा है...''

यह सब उस वक़्त हो रहा है जब महत्वाकांक्षी युवा जनसंख्या बढ़ रही है। यह जनसंख्या अभी अपने राजनीतिक विचारों को गढ़ रही है। यह युवा आबादी सोवियत काल के बाद पैदा हुई है, जब शीत काल के बाद एक नया राजनीतिक ढाँचा उभर कर सामने आया था, जिसमें बाज़ार ही हर तरह की वास्तविकता है। ऐसी स्थितियों से कई नतीजे निकल सकते हैं और हर किसी का नई पीढ़ी पर लंबा असर पड़ेगा। इसलिए एक बड़ा सवाल उठता है जो छात्र मुझसे पूछते रहते हैं कि 'अब आगे क्या होगा?'

मैं अपने जवाब में, मार्कंडेय काटजू से मतभिन्नता की बात कहता हूं।

अगर कोई मान ले कि आज की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों से बहुत बड़े ढाँचागत बदलाव आ सकते हैं, तो मौजूदा दौर में दो तरह की तस्वीर उभर सकती है। जैसा जस्टिस काटजू ने अनुमान लगाया, फ़्रांस की तरह क्रांति हो सकती है या फिर मध्य-पूर्व और पूर्वी यूरोप की तरह 'रंगीन क्रांति' हो सकती है।

लेकिन भारत में किसी बड़े ढाँचागत बदलाव की स्थिति नहीं दिखती है।

इसके लिए दो कारण ज़िम्मेदार हैं। पहला, भारत में चुनावी लोकतंत्र का बहुत मज़्बूत आधार है। अपनी तमाम ख़ामियों के बावजूद, लोगों का इस प्रणाली में बहुत भरोसा है। आगे भी इसके बने रहने की संभावना है। जेएनयू के सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ के छात्रों द्वारा किए गए सर्वे में ज़्यादातर लोगों ने बताया कि चुनाव में भागीदार बनना और वोट देना उनका कर्तव्य है। भारत में कोई भी राजनीतिक ताकत लोगों की इस मजबूत राजनीतिक भावना को हिला पाने की स्थिति में नहीं है।

घरेलू और वैश्विक बाज़ारू ताक़तें ऐसी दूसरी वजह हैं, जिनके चलते किसी भी क्रांतिकारी बदलाव की संभावना ख़त्म हो जाती है। स्थिर राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के बने रहने से इनके बहुत सारे हित जुड़े हुए हैं। मौजूदा सरकार की कोर्पोरेट हितैषी नीतियों के चलते, लोगों के भले की कीमत पर भी यह ताक़तें मौजूदा हालात को बनाए रखना चाहेंगी।

वैश्विक आर्थिक स्थितियाँ भी बाज़ारू ताक़तों के भारतीय बाज़ार को खोने की संभावना को मुश्किल बनाती हैं।

चाहे फ़्रांस, रूस या पूर्वी यूरोप हो, जब इन देशों में बड़े बदलाव आए, तब वहां लोकतंत्र और वैश्विक बाज़ारू ताक़तें मौजूद नहीं थीं। जब लगातार क्रांतियां हुईं, उस वक्त बाज़ारू ताक़तें तो थीं, लेकिन वे वैश्विक तौर पर जुड़ी हुई नहीं थीं, जैसी आज भारत में हैं।

दूसरी तरफ़ रंगीन क्रांति ने उदारवादी चुनावी लोकतांत्रिक ढांचे की मांग की थी। भले ही इसके साथ हमारे देश में कितनी भी दिक़्क़तें हों, पर भारत में पहले से ही यह व्यवस्था मौजूद है।

जिन देशों में रंगीन क्रांत हुई, वहां या तो कम्युनिस्ट शासन था या फिर तानाशाही। इस वजह ने लोगों को क्रांति की तरफ़ ढकेलने में बड़ी भूमिका निभाई। भारत में मौजूदा और ऐतिहासिक स्थितियाँ गुणवत्ता के स्तर पर काफ़ी अलग रही हैं। इस तरह की तस्वीर भी भारत में उभरने की संभावना कम ही है।

इसकी बजाए भारत में एक तीसरी तस्वीर बन रही है।

राजनीतिक स्थितियाँ बस घटिया कानून-व्यवस्था की ओर मुड़ रही हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो यह कोई बहुत बड़ा ढाँचागत बदलाव नहीं है। इसके लिए दो कारण हैं: पहला, बिगड़ती सामाजिक स्थितियाँ, जो मौजूदा सामाजिक ढांचे में लगातार गिरावट के लिए ज़िम्मेदार हैं। दूसरा कारण है कि अब एक राजनीतिक उथल-पुथल की स्थिति बन रही है, जो संवैधानिक-संस्थागत ढांचो को ख़त्म कर रही है। ऊपर से इस वक़्त वैकल्पिक राजनीतिक विचार और संगठन युक्त विपक्ष की मौजूदगी भी नहीं है।

भारत में सिर्फ़ आर्थिक आधार पर ही स्थितियाँ ख़राब नहीं हैं, बल्कि एक सामाजिक संकट भी धीरे-धीरे रूप ले रहा है। 'नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो' की तरफ़ से हाल ही में जारी किए गए आपराधिक आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं। इन आंकड़ों में एक खास तरह के अपराधों की प्रवृत्ति बढ़ती हुई नज़र आती है।

उदाहरण के लिए 2014 में पूरे भारत में 3,30,754 हिंसक अपराध दर्ज किए गए। तीन साल में ही इनकी तादाद तीस फ़ीसदी बढ़कर 4,26,825 पहुंच गई। 2017 में 2014 की तुलना में, अपहरण के बीस फ़ीसदी ज्यादा मामले दर्ज हुए। यह 77,237 से बढ़कर 95,893 हो गए। वहीं महिलाओं, बुज़ुर्गों, बच्चों और साइबर क्राइम में भी पिछले पांच सालों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है।

2014 में महिलाओं के खिलाफ 3,37,900 अपराध दर्ज हुए थे, जो 2017 में बढ़कर 3,59,840 पहुंच गए। बच्चों के खिलाफ अपराध 89,423 से बढ़कर 1,29,032 हो गए। इनमें तीस फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ। बुजुर्गों के ख़िलाफ़ 2015 में 20,532 केस दाख़िल किए गए थे, जो 2017 में बढ़कर 22,727 हो गए। वहीं साइबर क्राइम में सबसे ज़्यादा वृद्धि देखी गई। 2013 में इस तरह के अपराधों के 5,693 मामले सामने आए, जो 2017 तक पांच गुना बढ़कर 21,796 पहुंच गए।

इन आंकड़े से सिर्फ़ अपराधों में वृद्धि पता नहीं चलती, बल्कि इनकी प्रवृत्ति में हो रहे बदलाव भी दिखाई देते हैं।

कठिन आर्थिक स्थितियाँ, रोज़गार की कमी, ऊपर से सार्वजनिक और सामुदायिक स्तर पर बढ़ती सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण इन बदलावों के मूल में हैं।

पहले बड़े शहर की अपराध का केंद्र हुआ करते थे। लेकिन अब छोटे कस्बों और हैदराबाद, लखनऊ, जोधपुर जैसे उभरते शहरों में अपराध का ग्राफ़ तेज़ी से उछाल मार रहा है। तुलनात्मक स्तर पर, बड़े शहरों में बेहतर तकनीक, राज्य की मज़बूत पकड़ और बाज़ार के बड़े खिलाड़ियों की मौजूदगी की वजह से अपराध दर नियंत्रण में है। साथ ही बड़े शहरों में राज्य की नीति मौजूदा स्थितियाँ बनाए रखने और राज्य के उपकरणों की सुरक्षा की भी होती हैं।

इन स्थितियों के चलते एक ऐसा सामाजिक ढाँचा बनने जा रहा है, जिसमें डर, आतंक और असुरक्षा का भारी माहौल होगा। संस्थान, जिनसे निरपेक्ष रहने की आशा की जाती थी, ताकि ऐसे वक़्त में न्यायपूर्ण और सही प्रक्रियाओं का पालन करवाया जा सके, उन्हें मौजूदा सत्ता ने अमान्य बना दिया है।

संविधान निर्माताओं और आज़ादी की लड़ाई के नेताओं ने स्वतंत्र भारत के लिए संघीय ढांचे का सपना देखा था, ताकि सांस्कृतिक बहुलता के साथ-साथ राजनीतिक और आर्थिक विविधता को भी संरक्षण दिया जा सके। बढ़ते केंद्रीयकरण और एकरूपता से संघवाद का यह ढांचा आज गंभीर खतरे में है।

सत्ताधारी पार्टी अपने किसी भी तरह के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक विपक्ष को लगातार खत्म करने की कोशिश कर रही है।

सबसे बड़ी बात कि संवैधानिक शासन के मानकों जैसे समता, न्याय, सहिष्णुता और लोकतंत्र को असमानता, जातिगत-धार्मिक सर्वोच्चता, उदारवाद विरोधी भावनाओं के ज़रिए हटाया जा रहा है। संपन्नता के नाम पर सत्ताधारी नेता असमानता का जश्न मना रहे हैं। 'नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीज़्न्स' जैसी नीतियां इस बात का उदाहरण हैं कि कैसे राज्य, नीति का इस्तेमाल अविश्वास पैदा करने कर रहा है। इसका सामूहिक प्रभाव यह हुआ है कि अलग-अलग राजनीतिक समूहों में एक उलझन की स्थिति पैदा हो गई है।

संस्थानों में अविश्वास की भावना और गहराता भावनात्मक निर्वात भारतीय जनमानस की मन में पैठ बना चुका है। मॉब लिंचिंग के बढ़ते मामले और दूसरे जघन्य अपराधों से इन स्थितियों की पुष्टि भी हो जाती है। अपने प्रोपोगेंडा के ज़रिए टीवी चैनलों ने इस ख़तरनाक प्रवृत्ति में इज़ाफ़ा किया है। इस तरह की बनावट में लोग ''दूसरों'' को ''अपने अस्तित्व के लिए चुनौती'' मानेंगे।

सांस्थानिक गिरावट और राजनीतिक विकल्पों का अभाव है, उस पर भी राज्य यह नहीं मानता की लोगों में ग़ुस्सा है। यह माहौल भारत को अराजकता की स्थिति में पहुंचा देगा। यूरोप के संदर्भ में इसे ''हॉबिशियन स्टेट ऑफ़ एनार्की'' कहा जाता है, जहां अराजकता और उथल-पुथल होती है, जिसमें हर आदमी को दूसरे से डर लगता है। अंत में इससे एक प्रशासनिक संकट खड़ा हो जाता है।

लेखक जेएनयू में सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ में पढ़ाते हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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