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बिलक़ीस बानो मामले में रिहाई पर श्वेत पत्र की आवश्यकता है: न्यायमूर्ति मदन लोकुर

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश का कहना है कि रिहाई कैसे हुई इसकी बारीकी से जांच की जानी चाहिए।
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पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने इस बात की गहन जांच करने की बात कही है कि किस तरह गुजरात सरकार की एक समिति ने हाल ही में बिलक़ीस बानो मामले में सामूहिक हत्या और सामूहिक बलात्कार के दोषी ग्यारह लोगों को छोड़ने को मंज़ूरी दे दी। न्यूज़़क्लिक से बात करते हुए जस्टिस लोकुर ने कहा कि उन्होंने इस मामले में छूट को बेहद चौंकाने वाले मामले के रूप में देखा। पूर्व न्यायाधीश ने कहा, "मुझे लगता है कि हमें इस पूरे मामले में एक श्वेत पत्र की आवश्यकता है।"

2002में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान क्रूर आपराधिक हमलों के दोषी लोगों को दी गई छूट भारत में महिलाओं के अधिकारों के लिए एक अग्निपरीक्षा बन गई है। इसने लोगों को भी आश्चर्यचकित कर दिया है कि क्या न्यायपालिका इन अधिकारों को सरकार के अतिरेक से बचा सकती है। सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात ये है कि स्वतंत्रता दिवस के ही दिन इन क्रूर सामूहिक हत्यारों और बलात्कारियों को रिहा कर दिया गया।

यह ध्यान देना बेहद महत्वपूर्ण है कि न्यायमूर्ति लोकुर ही एकमात्र पूर्व न्यायाधीश नहीं हैं जो दोषियों की रिहाई के ख़िलाफ़ मुखर हैं। इसको लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस यूडी साल्वी ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी है। वे सीबीआई की उस अदालत में थें जिसने इन ग्यारह लोगों को दोषी ठहराया था। उन्होंने कहा कि ये माफ़ी "न्यायिक तंत्र के ख़िलाफ़ विद्रोह" जैसा है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने भी इस माफ़ी को अनैतिक, अनुचित और अन्यायपूर्ण क़रार दिया है। साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए जस्टिस लोकुर ने पहले कहा था कि इस रिहाई की ख़बर चौंकाने वाली है।

न्यूज़़क्लिक ने जस्टिस लोकुर से पूछा कि क्या सुप्रीम कोर्ट बिलक़ीस बानो के साथ हुए अन्याय को दूर कर सकता है। उन्होंने जवाब दिया कि "इस रिहाई को रद्द करने के पक्ष में" क़ानून है। उन्होंने यह भी कहा, "मुझे पूरी उम्मीद है कि न्याय होगा।" हालांकि, चूंकि रिहाई का आदेश पब्लिक डोमेन में नहीं है इसलिए उन्होंने समिति द्वारा रिहाई की अनुमति देने के आधार पर टिप्पणी नहीं की। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि, "प्रथम दृष्टया, सभी ग्यारह दोषियों को माफ़ी देने के लिए सशक्त प्रमाणिकता की आवश्यकता होगी। इस रिहाई के आदेश को निश्चित रूप से देखा जाना चाहिए।"

इस मामले में एक अहम सवाल ये है कि इसने महिलाओं को क्या संदेश दिया है। जस्टिस लोकुर ने कहा, 'इस रिहाई के आदेश से यह संदेश जाता है कि दोषसिद्धि का मतलब यह नहीं है कि न्याय हो गया है। लैंगिक न्याय को अभी लंबा रास्ता तय करना है।"

इस रिहाई के सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव भी हैं। उदाहरण के लिए, सिख समुदाय के धार्मिक मामलों पर नज़र रखने वाली संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) की मांग है कि उन सिख क़ैदियों को रिहा की जाए जो उम्र क़ैद की सज़ा काट चुके हैं। इस मांग को दोहराते हुए एसजीपीसी के सदस्यों ने बिलक़ीस बानो मामले में रिहाई के बाद हरमंदिर साहिब में धरना दिया। कुछ क़ैदी जिनकी रिहाई की मांग एसजीपीसी करती है उन्हें पंजाब में उग्रवाद के दौरान गिरफ़्तार किया गया था।

जस्टिस लोकुर कहते हैं, "बेशक, यह [बिलक़ीस बानो मामले में रिहाई] जघन्य अपराधों के मामले में भी छूट देने के लिए एक मिसाल के तौर पर सामने आ सकती है। इस रिहाई के आदेश का नतीजा बिल्कुल स्पष्ट है। मैं [एसजीपीसी] विरोध से हैरान नहीं हूं।”

दुर्लभ से दुर्लभ या क्रूरता और समाज के लिए ख़तरे रूप में देखे जाने वाले अपराधों की माफ़ी अन्य अपराधियों और दोषियों को प्रोत्साहित कर सकती है।

दोषी भी विशिष्ट आधार पर रिहाई की बात कर सकते हैं क्योंकि बिलक़ीस बानो मामले में माफ़ी देने वाली समिति के सदस्य ने दोषियों का बचाव करते हुए कहा कि वे कुलीन ब्राह्मण जाति के थे।

बिलक़ीस बानो मामले में रिहाई में एक और सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि ग्यारह दोषियों में से किसी ने भी बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में अपील क्यों नहीं की। आम तौर पर यह समझा जाता है कि जब भी क़ानून के तहत दोषियों के पास विकल्प उपलब्ध होता है तो वे रिहाई की मांग करते हैं। जस्टिस लोकुर ने इस मामले के इस बिंदु पर आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने कहा, "सच कहूं, तो मुझे यह काफी आश्चर्यजनक लगता है। ऐसे ज़्यादातर मामलों में [जघन्य अपराधों के लिए दोषसिद्धि], जहां आजीवन कारावास की सजा दी जाती है ऐसे में दोषी उच्चतम न्यायालय में अपील दायर करता है लेकिन यह उन ग्यारह लोगों में से किसी ने अपील नहीं की जिन्हें दोषी ठहराया गया था।” उन्होंने कहा कि इस पूरे मामले में एक श्वेत पत्र की आवश्यकता है।

सवाल यह उठता है कि क्या गुजरात में समिति द्वारा माफ़ी दिए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट कोई क़दम उठा सकता है? कथित तौर पर, इन ग्यारह लोगों को दोषी ठहराने वाले सीबीआई अदालत के न्यायाधीश की सहमति क़ानून द्वारा आवश्यक है, लेकिन उनकी सहमति नहीं ली गई। हालांकि, किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पब्लिक डोमेन में पर्याप्त विवरण नहीं हैं।

न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा, "क़ानून का उद्देश्य लोगों की रक्षा करना और उन्हें एक व्यवस्थित जीवन जीने में सक्षम बनाना है।" उन्होंने आगे कहा, “दुर्भाग्य से, क़ानून को अब लोगों पर मुक़दमा चलाने और उन्हें सताने के लिए हथियार बनाया जा रहा है। दुख की बात है कि हम इस दौर से गुज़र रहे हैं।" उन्होंने खेद व्यक्त किया कि चीजें इस स्थिति में पहुंच गई हैं क्योंकि हमारे देश में "कुछ लोग दूसरे लोगों की तुलना में अधिक योग्य हैं"।

न्यायमूर्ति लोकुर ने पुरज़ोर तरीक़े से कहा कि बिलक़ीस बानो मामले में माफ़ी सरकार के मौन समर्थन के साथ बहुसंख्यकवादी शासन का एक लक्षण है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि बिलक़ीस बानो मामले में कुछ दोषियों को कई जघन्य अपराध मामले में दोषी पाया गया था। उन्होंने कहा, "ग्यारह में से कुछ (यदि सभी नहीं) लोगों को एक से ज़्यादा आजीवन कारावास की सजा दी गई है। कम से कम दो आजीवन कारावास की तो है ही और शायद अधिक भी हो सकती है। यदि ऐसे लोगों की रिहाई की जाती है तो हमें आत्मनिरीक्षण करने और गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है कि हम कहां जा रहे हैं।”

सबसे अहम बात यह है जो कि न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा, “महिलाओं के सामने घरेलू हिंसा, दहेज की मांग, यौन उत्पीड़न आदि जैसे अपराधों से निपटने के लिए कठिन समय है। यौन अपराधों से निपटना हमेशा से एक समस्या रही है।"

कोई आश्चर्य नहीं कि ग्यारह दोषियों की रिहाई की बात सामने आने पर बिलक़ीस बानो ने कहा, "क्या यह न्याय का अंत है?" भारतीय महिलाओं के सामने सवाल यह है कि अगर न्याय निष्पक्ष नहीं दिया जाता है तो आख़िर वे कहां जाएं।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

‘Astonishing’, Need White Paper on Remission in Bilkis Bano: Justice Madan Lokur

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