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अमेरिका में नागरिक शिक्षा क़ानूनों से जुड़े सुधार को हम भारतीय कैसे देखें?

"यह सुनिश्चित करना अति महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने बच्चों को पढ़ाएं कि वे कैसे ज़िम्मेदार नागरिक बन सकें।" अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य के गवर्नर रॉन डेसेंटिस ने पिछले दिनों वहां के एक मिडिल स्कूल में यह बात कही।
अमेरिका में नागरिक शिक्षा क़ानूनों से जुड़े सुधार को हम भारतीय कैसे देखें?
फ्लोरिडा राज्य के गवर्नर रॉन डेसेंटिस स्कूली बच्चों के लिए नागरिक शिक्षा से जुड़े निर्णय को लेकर चर्चा में रहे। (फोटो साभार: फ्लोरिडा राज्य जनसंपर्क पोर्टल)

"यह सुनिश्चित करना अति महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने बच्चों को पढ़ाएं कि वे कैसे जिम्मेदार नागरिक बन सकें।" अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य के गवर्नर रॉन डेसेंटिस ने पिछले दिनों वहां के एक मिडिल स्कूल में यह बात कही। साथ ही, इस मौके पर उन्होंने फ्लोरिडा को नागरिक शिक्षा के क्षेत्र में अमेरिका का नंबर एक राज्य बनाने की इच्छा भी जाहिर की।

दरअसल, अमेरिका में रिपब्लिक पार्टी का प्रतिनिधित्व करने वाले रॉन डेसेंटिस फ्लोरिडा राज्य के स्कूलों में नागरिक शिक्षा से जुड़े सुधार के लिए बनाए गए कानूनों को लेकर आयोजित एक व्याख्यान के दौरान बोल रहे थे। नागरिक शिक्षा में कानूनी सुधार के बारे में उनकी दलील थी कि "छात्रों को अमेरिकी इतिहास, अमेरिकी सरकार और अमेरिकी संवैधानिक अधिकारों से संबंधित सिद्धांतों के बारे में अच्छा ज्ञान होना चाहिए।"

प्रश्न है कि नई आर्थिक नीतियों और उन पर आधारित व्यवस्थाओं के कारण दुनिया भर में नये किस्म के भेदभाव भी पैदा हो रहे हैं तो अमेरिका के नागरिक शिक्षा कानूनों में सुधारों को लेकर हम भारतीयों का क्या नजरिया होना चाहिए?

भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था के संदर्भ में नागरिक शिक्षा से जुड़े हर तरह के सुधारों को यहां हम मुख्यत: दो स्तरों पर समझने की कोशिश कर सकते हैं। पहले तो यह कि नागरिक शिक्षा में होने वाले सुधार कहीं बच्चों को एक विशेष राजनीतिक विचारधारा या उसके इर्द-गिर्द केंद्रित रहने का आग्रह तो नहीं कर रहे हैं। दूसरा, नागरिक शास्त्र के बरक्स समाज-विज्ञान से जुड़ी बुनियादी अवधारणाओं को कहीं काट-छांट या उन्हें घटा कर तो नहीं देखा जा रहा है।

इस बारे में महावीर वाल्मीकि कॉलेज ऑफ एजुकेशन (दिल्ली यूनिवर्सिटी) में असिस्टेंट प्रोफेसर राघवेंद्र प्रपन्ना बताते हैं कि भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था में एनसीईआरटी (राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद) के प्रयासों से पिछले कुछ दशकों के दौरान अलग-अलग जगहों के बच्चों पर समाज-विज्ञान के अनुशासन का अच्छा प्रभाव भी देखने को मिल रहा है। दरअसल, समाज-विज्ञान नागरिक-शास्त्र का एक्सटेंशन है जिसकी समझ बच्चों को अच्छा नागरिक बनाने के लिए उनमें समालोचनात्मक तरीके से सोचने के लिए प्रेरित करती है।

वह कहते हैं, "हमारे देश में समाज-विज्ञान से जुड़ी सामग्री संवैधानिक मूल्यों और नागरिकता से जुड़े अधिकारों के प्रति बच्चों को सचेत बनाती है। इसके पीछे सोच यह रही है कि बच्चों को एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए सिर्फ नागरिक-शास्त्र काफी नहीं है। लेकिन, किसी देश में यदि नागरिक शिक्षा में सुधारों के नाम पर समाज-विज्ञान के सर्वव्यापी दृष्टिकोण को काटकर बच्चों को महज मूलभूत कर्तव्य और अधिकारों के बारे में ही पढ़ाए जाने की योजना है तो भारत जैसे विविधतापूर्ण और जटिल समाज के लिए इसका कोई मतलब नहीं है।"

दरअसल, बीते कुछ वर्षों के दौरान खुद अमेरिका में कई सामाजिक-आर्थिक वजहों से भेदभाव और गंदी राजनीति का उभार दिखाई दे रहा है। ऐसे में शिक्षा क्षेत्र से जुड़े कई जानकारों को यह संदेह भी होता है कि वहां का राज्य नागरिक शिक्षा में सुधार के नाम पर कहीं बच्चों से यह अपेक्षा तो नहीं कर रहा है कि वे सिर्फ स्टेट के संदेशों को मानने और उसकी नीतियों का पालन करें। जबकि, सरकार के नजरिए से स्कूलों में बच्चों को नागरिक-शास्त्र से आगे समाज-विज्ञान की शिक्षा देने के कारण आमतौर पर एक समस्या यह आती है कि बच्चे भेदभाव और गंदी राजनीति के उभार के प्रति अपने समालोचनात्मक दृष्टिकोण भी तैयार कर सकते हैं।

नागरिक-शास्त्र से समाज-विज्ञान की तरफ भारतीय शिक्षा

अपने यहां एनसीईआरटी ने कक्षा छठी से स्कूल के पाठ्यक्रमों में समाज-विज्ञान, राजनीति-विज्ञान और इतिहास जैसे विषयों के लिए पुस्तकें तैयार की हैं। कहने का अर्थ है कि भारत में एक लंबे विमर्श के बाद नागरिक-शास्त्र का विस्तार करके समाज-विज्ञान आदि विषयों की सामग्री बच्चों तक पहुंचाई गई है। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य यह रखा गया है कि ऐसे पाठ्यक्रम के माध्यम से बच्चे समालोचक और हस्तक्षेपकारी नागरिक बन सकें। एनसीईआरटी के इस मॉडल को कई राज्यों ने भी अपनाया है।

इसी तरह, एनसीईआरटी में हर कक्षा की हर विषय की पुस्तक के कवर पेज को यदि आप पलटेंगे तो उस पर प्रत्येक नागरिक के लिए कर्तव्यों के साथ मौलिक अधिकार भी लिखे गए हैं। इसका मतलब यह है कि स्कूली पाठ्यक्रम में बच्चों के लिए नागरिक के कर्तव्यों को जिस प्रमुखता से बताया गया है, ठीक उसी प्रमुखता से नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थान दिया गया है। इसी तरह, हर विषय की पुस्तक में संविधान की उद्देशिका रखी गई है। साथ ही, हर विषय से संबंधित सामग्री में स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुत्व जैसे चार संवैधानिक मूल्यों को समान रुप से जगह दी गई है। उदाहरण के लिए, यदि इतिहास के विषय में समता को जगह दी गई है तो राजनीतिक-विज्ञान जैसे विषयों में भी समता को उतनी ही तरजीह दी गई है।

दरअसल, नागरिक-शास्त्र की अपनी सीमाएं होती हैं। जैसे कि वह बच्चों को समता के बारे में तो बताएगा, लेकिन संविधान में इस शब्द की आवश्यकता क्यों पड़ी तो ऐसे में समाज-विज्ञान इसके कारणों से जुड़ी जानकारियां देते हुए व्याख्या करेगा। इस बारे में दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में शिक्षक आलोक कुमार मिश्रा बताते हैं कि बच्चे समता का अर्थ अच्छी तरह से तब समझेंगे जब उन्हें असमानता और टकरावों पर आधारित समाज के बारे में भी पढ़ाया जाएगा। वह कहते हैं, "असमानता और टकरावों को अनदेखा करने की बजाय उन्हें कक्षा की चर्चा का मुख्य विषय बनाने से बच्चे बेहतर ढंग से सीखेंगे और भविष्य में हर तरह की विषमता या वैमनस्यता के खिलाफ मुखर होंगे।"

वहीं, दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर विकास गुप्ता के मुताबिक, "बच्चों को कंस्टीटूशनल एजुकेशन देने और उन्हें एक संवेदनशील नागरिक बनाने के लिए ड्यूटीज और राइट्स से जुड़े प्वाइंट्स रटाने भर से कुछ नहीं होगा, बल्कि इसके लिए सोशल साइंस की लेंथ में जाना पड़ेगा, जिससे बच्चे अच्छे सिविलियन की तरह व्यवहार कर सकें।" लेकिन, प्रश्न है कि क्या हमारे यहां बच्चों में संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात कराने के लिए किए गए प्रयास काफी है? ऐसा इसलिए कि बड़ी संख्या में वंचित समुदाय के बच्चे अब भी स्कूली शिक्षा से बेदखल हैं। प्रश्न है कि कोरोना महामारी ने ऐसे बच्चों के लिए शिक्षा की खाई को पहले से ज्यादा चौड़ा कर दिया है तब इस तबके के बच्चों के लिए संवैधानिक शिक्षा के क्या मायने हैं?

संवैधानिक शिक्षा की राह में रोड़ा और समाधान

प्रश्न है कि स्कूली पाठ्यक्रमों में जो संवैधानिक मूल्य पिरोए गए हैं उन्हें बच्चों में आत्मसात कराएं तो कैसे? इस दिशा में पहला बिंदु यह है कि किसी शिक्षक को संवैधानिक मूल्यों में विश्वास है या नहीं। इसका कारण यह है कि वह भी समाज से ही आता है और हो सकता है कुछेक जगहों पर उसे यह लगे कि यहां स्वतंत्रता या समता की बात करना ठीक नहीं है।

इस बारे में राघवेंद्र प्रपन्ना मानते हैं कि ऐसी स्थिति में वह समानता की बातों को पढ़ाएगा भी तो बिना चर्चा के। इसलिए बौद्धिक और भावनात्मक तौर पर यदि शिक्षक संवैधानिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं तभी वे बच्चों को स्वतंत्रता और समता जैसे मूल्यों के प्रति संवेदनशील बना सकते हैं।

इस कड़ी में दूसरी बड़ी बाधा है पढ़ाई जाने वाली चीजों का शिक्षक, परिजन या समुदाय के वयस्क व्यक्तियों द्वारा व्यवहार में न उतरना। उदाहरण के लिए, एक शिक्षक पाठ्यक्रम के मुताबिक समानता से जुड़ी बातों को पढ़ा रहा है, लेकिन वह स्कूल परिसर में सफाईकर्मी के साथ बुरा व्यवहार करता है तो बच्चे समझने लगेंगे कि पढ़ाई और व्यवहार दो एकदम उलट बातें हैं और पुस्तकों में लिखी बातों का संबंध परीक्षा में आए प्रश्नों के उत्तर देने तक सीमित है।

वहीं, वर्ष 2018 में रिचर्स के तहत दो महीने के लिए अमेरिका में वहां के स्कूल का अध्ययन करने गए दिल्ली के शिक्षक मुरारी झा अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि हमारे यहां शिक्षक मशीन के एक मामूली पुर्जे की तरह संचालित हो रहा है, जबकि शिक्षा क्षेत्र में वह एक बड़े परिपेक्ष्य का हिस्सा हो सकता है। मुरारी झा कहते हैं, "शिक्षक जब तक संवैधानिक मूल्यों को बच्चों में अच्छी तरह से हस्तांतरित नहीं करेगा, तब तक चीजें नहीं बदलेंगी। इसलिए पाठ्यक्रमों को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक मूल्यों के प्रति शिक्षकों को संवेदनशील बनाने के प्रयासों में तेजी लाने की जरूरत है।"

इन बाधाओं को तोड़ने के लिए कई स्कूलों ने बाल केंद्रित शैक्षिक अवधारणा के तहत कई गतिविधियां ईजाद की हैं। राघवेंद्र प्रपन्ना कहते हैं कि इसके लिए कक्षा, स्कूल परिसर या उसके बाहर कुछ गतिविधियां आयोजित कराई जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, किसी खेत में जाकर यदि बच्चे किसान से कृषि-कर्म का ज्ञान ले सकें तो इससे उनके मन में श्रम के प्रति सम्मान जागेगा और दूसरी बात यह है कि इससे बच्चे बचपन से ही मेहनतकश समुदायों के प्रति समान दृष्टिकोण अपनाएंगे। इसी तरह, यदि किसी मैकेनिकल से उसके कौशल को समझने के लिए यदि स्कूल में आमंत्रित और उसके कार्य का महत्त्व स्पष्ट किया जाता है तो बच्चों को अलग से समता पर व्याख्यान देने की जरूरत नहीं रह जाएगी। बच्चे बिना बताए समानता के अध्याय सीख लेंगे।

(शिरीष खरे पुणे स्थित स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
 

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