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मणिपुर के बारे में हम कितना जानते हैं?

मणिपुर और समूचे उत्तर पूर्व के बारे में हिन्दीभाषी प्रदेश के लोगों को बहुत ही कम जानकारी है। जब मणिपुर जैसी बड़ी हिंसा की घटना होती है तब मीडिया और लोगों का ध्यान इन प्रदेशों की ओर जाता है। 
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फ़ोटो साभार: PTI

मणिपुर में पिछले दिनों लगातार जारी हिंसा के कारण वहाँ हालात अत्यंत गंभीर हो गए हैं।‌ यह हिंसा इतनी भयानक है कि इसमें ‌व्यापक आगजनी और तोड़-फोड़ के साथ ही साथ अनेक लोगों की हत्याएँ कर दी गईं, जिसमें सीआरपीएफ के जवान भी शामिल हैं। यहाँ तक कि एक भाजपा विधायक पर भी हमला किया गया, जो गंभीर रूप से घायल हो गए। शान्ति की लगातार अपीलों के बावजूद यह हिंसा अभी तक‌ जारी है और लगातार भयानक होती जा रही है। वास्तव में इस हिंसा के पीछे जितना महत्वपूर्ण आर्थिक पक्ष है, उतना सांस्कृतिक अस्मिता और पहचान का पक्ष भी है।‌ मणिपुर और समूचे उत्तर पूर्व के बारे में हिन्दीभाषी प्रदेश के लोगों को बहुत ही कम जानकारी है। जब मणिपुर जैसी बड़ी हिंसा की घटना होती है तब मीडिया और लोगों का ध्यान इन प्रदेशों की ओर जाता है। 

करीब दो दशक पहले इतिहासकार,लेखक और एक्टिविस्ट 'डॉ० लाल बहादुर वर्मा' ; जो लंबे समय तक मणिपुर में इंफाल विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्रोफेसर थे, उन्होंने मणिपुर की संस्कृति, अस्मिता और इतिहास पर केन्द्रित एक उपन्यास 'उत्तर पूर्व' लिखा‌ था। आज के संदर्भों में यह उपन्यास बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें बतलाया गया है कि समूचा उत्तर पूर्व ; जिसमें मणिपुर भी शामिल है, उसे देश का शेष भाग अपना उपनिवेश समझता है। दिल्ली में पढ़ रहे उत्तर पूर्व के छात्रों को लोग चीनी समझते हैं तथा उन्हें नस्लीहिंसा से भी दो-चार होना पड़ता है।‌ लोग उन्हें अपमानसूचक शब्द 'चिंकी' कहकर भी पुकारते हैं। इसलिए मणिपुर की हिंसा के पीछे के इन कारणों को भी देखना चाहिए। इस बेकाबू होती हिंसा का मुख्य कारण 'इंफाल घाटी' में स्थित 'मैतेई और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले कुकी समुदाय' के बीच होने वाली हिंसा का एक बड़ा कारण सांस्कृतिक पहचान का संकट है। मणिपुर में 'सोलह जिले' हैं। राज्य की ज़मीन इंफाल घाटी और पहाड़ी जिलों के तौर पर बँटी हुई है। इंफाल घाटी मैतेई बहुल है। मैतेई जाति के लोग हिन्दू समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। पहाड़ी जिलों में नागा और कुकी जनजातियों का वर्चस्व है। इस  समय हो रही हिंसा 'चुराचाँदपुर' पहाड़ी जिलों में ज्यादा देखी गई। यहाँ पर रहने वाले लोग कुकी और नागा ईसाई हैं। जैसा कि ज्ञात है,चार पहाड़ी जिलों में कुकी जाति का प्रभुत्व है। मणिपुर की आबादी 28 लाख है, इसमें मैतेई समुदाय के लोग लगभग 53% हैं,मणिपुर के भूमि क्षेत्र का लगभग 10% हिस्सा इन्हीं लोगों के कब्ज़े में है,ये लोग मुख्य रूप से इंफाल घाटी में बसे हुए हैं। कुकी जातीय समूह मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्ज़ा देने का विरोध कर रहा है।

मैतेई जनजाति के लोग हिन्दू हैं। ऐसा माना जाता है कि चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल से आकर इन्हें हिन्दू धर्म में दीक्षित किया था। वहाँ‌ पर आदिवासी समूहों के बीच हिंसा आम बात है। करीब तीन दशक पहले 1993 में मैतेई पंगलों (मुसलमानों),नागा और कुकियों के बीच भयानक हिंसा हुई थी, जिसमें एक ही दिन में सौ से अधिक कुकियों की हत्या कर दी गई थी और हज़ारों को खदेड़ दिया गया था। मणिपुर के सोलह जिलों के राज्य को आमतौर पर से पहाड़ी और घाटी ‌में विभाजित माना जाता है। इंफाल ईस्ट और इंफाल वेस्ट, थौबल,बिष्णुपुर और काकिंग की आज की घाटी के जिले ; निंगथौजा‌ राजवंश के अनधिकृत कांगलीपाक के पूर्व राज्य का‌ हिस्सा थे। कई इतिहासकारों का यह भी मानना है कि घाटी के बाहर के आदिवासी क्षेत्र भी राज्य ही का हिस्सा हैं। मणिपुर के पहाड़ी ‌क्षेत्रों में पन्द्रह नागा जनजातियाँ और चिन-कुकी-मिज़ो-ज़ोमी समूह रहते हैं।

कांगलीपाक साम्राज्य: जो कि एक ब्रिटिश संरक्षित राज्य था। उसके ऊपर उत्तरी पहाड़ियों से आए नागा जनजाति का आक्रमण होता रहता था। यह माना जाता है कि ब्रिटिश राजनीतिक एजेंट ने इन हमलों से बचाव के लिए बर्मा के कुकी-चिन पहाड़ियों से लाकर ‌कुकी जनजाति के लोगों को बसाया। कुकी भी नागाओं की एक लड़ाकू जनजाति थी, इसीलिए महाराजा ने उन्हें चोटियों के पास ज़मीनें दीं, जिससे वे इंफाल घाटी में एक ढाल के रूप में काम कर सकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि कुकी और मैतेई समुदाय के लोगों के बीच जातीय तनाव कांगलीपाक के साम्राज्य के समय से ही मौज़ूद है, लेकिन 1990 के दशक में जब नागालैण्ड में नागा जनजाति के लोगों ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए अलगाववादी आंदोलन शुरू किया, तब इस नागा विद्रोह के मुकाबले में मैतेई, कुकी और ज़ोमी ने भी अपना सैन्यीकरण शुरू कर दिया तथा कुकी जनजाति ने भी कुकीलैण्ड के लिए अपना आंदोलन शुरू किया, परन्तु नागा आंदोलन के विपरीत कुकी-ज़ोमी की माँग  

भारत अपने एक अलग राज्य के लिए थी,न कि नागाओं की तरह एक अलग राष्ट्र की। भले ही कुकी लोगों को मैतेई समुदाय के रक्षक के रूप में माना जाता रहा है, लेकिन कुकीलैण्ड की माँग ने दोनों समुदायों के बीच एक दरार पैदा कर दी। 1993 के नागा-कुकी संघर्षों के दौरान नागाओं के संगठन 'नेशनल सोशलिस्ट ऑफ नागालैण्ड(एनएससीएनआईएम)' के कैडर्स उन इलाकों के गाँव-गाँव में गए जहाँ नागा जनजाति का बहुमत था। वहाँ उन्होंने वहाँ रहने वाले कुकियों को उन इलाकों को ख़ाली करने को कहा,इसके कारण उन इलाकों से भारी पैमाने पर विस्थापन हुआ और वे बड़ी संख्या में चुराचाँदपुर जिले में चले गए, जिस जिले में कुकी-ज़ोमी जनजाति का बहुमत था,इस कारण उनमें असुरक्षा की भावना बढ़ गई।

नागा और कुकियों ने मैतेई राष्ट्रवाद को हवा दी,इस कारण से मैतेई जनजाति में भी कई हिंसक समूह उभरकर सामने आए। 1970 के दशक में जनसांख्यिकीय परिवर्तन और पारंपरिक मैतेई क्षेत्रों के  दायरे कम होने पर मैतेई लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा देने की माँग उठने लगी थी,हालंँकि उस समय यह माँग काफी उग्र नहीं थी। 2001 में नागालैण्ड के अलावा अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में आई‌एम के साथ अपने युद्धविराम के फ़ैसले को बढ़ाने के भारत सरकार के फ़ैसले से मणिपुर में व्यापक हिंसा हुई। इंफाल में प्रदर्शनकारियों ने विधानसभा भवन में आग लगा दी। उस समय अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा देने की माँग एक व्यापक जन आंदोलन बन गई, क्योंकि मैतेई समुदाय को डर था कि 'ग्रेटर नागलिंग' के निर्माण से मणिपुर की भौगोलिक स्थिति में कमी आएगी। 

2006 से 2012 की अवधि के दौरान मणिपुर में एक 'इनर लाइन परमिट (आईएलपी)' माँग की गई,जो बाहरी लोगों को बिना अनुमति के राज्य में प्रवेश करने से रोकेगा। म्यांमार के साथ मणिपुर की झरझरा सीमा के आरपार ओमी-ज़ोमी जनजातियों की मुक्त आवाजाही थी। ये जनजातियाँ म्यांमार की जनजातियों से समान रीति-रिवाज,भाषाऔर संस्कृति के कारण एक-दूसरे के इलाकों में मुक्त आवागमन‌ करते थे,इस कारण से 'फेडरेशन ऑफ रीजनल  इंडीजिनस सोसायटीज' में 2006 में आईएलपी की माँग को अपना समर्थन दिया और दावा किया कि 'मणिपुर की जनसंख्या की वृद्धि दर 1941-51 की अवधि में 12.8% से बढ़कर 1951-61 के दौरान 35.04% और 1961-71 में

37.56% हो गई थी।' इसका कारण यह था कि परमिट प्रणाली को समाप्त कर दिया गया था। 

मैतेई लोगों का तर्क था कि राज्य सरकार ही यहाँ पर नौकरी देने वाली सबसे बड़ी इकाई है। अनुसूचित जनजाति का‌ दर्जा मिल जाने के कारण उन्हें सरकारी नौकरियाँ मिल सकती हैं, क्योंकि मणिपुर में प्राइवेट नौकरियों की सम्भावना बहुत ही कम है, इसके अलावा मैतेई लोगों का यह भी कहना था कि पहाड़ी लोग तो घाटी ‌में ज़मीन खरीद सकते हैं, लेकिन घाटी के लोग पहाड़ पर नहीं। राज्य के दक्षिणी पश्चिमी कोने में कुकी-ज़ोमी बहुल चुराचाँदपुर 4,750 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ है,जिसकी आबादी 2011की जनगणना के अनुसार 2,71,274 है '(जो कि अधिकांशतः ईसाई हैं। 

2006 में पंचायती राज मंत्रालय ने इसे देश के सबसे ग़रीब नेटवर्क में नामित किया)' और बेहद गरीब बना हुआ है, 'वन संरक्षण अधिनियम' के कारण कुकी जनजाति की वनों से बेदख़ली तथा उनके ऊपर लगे विदेशी होने के टैग ने इस आंदोलन को और हिंसक बना दिया। एक दूसरी महत्वपूर्ण बात है, उत्तर पूर्व के आंदोलनों में साम्प्रदायिकता का प्रवेश। यह सही है कि 'स्वतंत्र नागा राष्ट्र आंदोलन' के पीछे चर्च की भी भूमिका थी, क्योंकि इसका 'प्रमुख नेता स्काॅट' एक ब्रिटिश पादरी था, लेकिन वे लोग एक धर्मनिरपेक्ष नागालैण्ड की बात करते थे तथा एनएसीएल आज भी अपने को समाजवादी मानता है। 

उत्तर पूर्व में साम्प्रदायिकता की शुरुआत भाजपा ने की, उन्होंने यही खेल असम में खेला,जहाँ‌ उन्होंने बंगला देश से आए हिन्दू और मुस्लिम शरणार्थियों में स्पष्ट विभाजन किया तथा केवल हिन्दू शरणार्थियों को ही देश की नागरिकता देने की बात की, जिसके कारण उन्हें असम की सत्ता भी हासिल हुई। यही खेल मणिपुर में भी खेला गया,जो आज तक जारी है। बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय; जो हिन्दू है, जिनके बल पर भाजपा ने वहाँ पर जोड़-तोड़कर सरकार बनाई, जिसके कारण कुकी जैसे जनजाति समूह; जो ईसाई हैं उनमें भी असुरक्षा की भावना पैदा हुई। मणिपुर सहित समूचे उत्तर पूर्व में जनजातियों के बीच अस्मिता का संकट पहले ही से था। वहाँ सांस्कृतीकरण की प्रक्रिया बहुत धीमी है, इसमें साम्प्रदायिकता के प्रवेश ने सारे परिदृश्य को और भी जटिल बना दिया है।

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