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भारत और स्वराज की रक्षा कैसे करें

मोदी शासन में स्वराज के विचार पर हमला हो रहा है। यह लोगों पर निर्भर है कि वे सरकार को जवाबदेह बनाएं और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयास करें।
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असहमति और विरोध की संस्कृति हमारे स्वतंत्रता संग्राम का परिणाम है और भारत की संवैधानिक दृष्टि का अभिन्न अंग भी है। इसने निरंतर क्रमिक सरकारों से कई चुनौतियों का सामना किया है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान औपनिवेशिक शासकों ने भारतीय दंड संहिता के राजद्रोह प्रावधान और सरकार की आलोचना करने वालों के ख़िलाफ़ अन्य कठोर दंडात्मक क़ानूनों को लागू किया। महात्मा गांधी ने 7 सितंबर 1924 को नवजीवन में "दादाभाई नौरोजी की जयंती" लेख में लिखा, "ऐसे समय में जब सरकार की आलोचना को देशद्रोह माना जाता था और शायद ही किसी ने सच बोलने की हिम्मत की तो वैसे समय में दादाभाई ने सरकार की कठोर शब्दों में आलोचना की और साहस के साथ प्रशासन की कमियों की ओर इशारा किया।”

आज़ादी के बाद से सरकारें चाहे वे कांग्रेस, भाजपा या किसी अन्य राजनीतिक दल की हों उसने विरोध की आवाज़ को शांत करने के लिए राजद्रोह का इस्तेमाल किया है। Article14.com डेटाबेस के अनुसार 2014 और 2020 के बीच विशेष रूप से असंतुष्टों और आलोचकों के ख़िलाफ़ राजद्रोह के मामलों में 28% की वृद्धि पाई गई। इंडियन एक्सप्रेस ने हाल ही में अठारह वर्षों तक कांग्रेस और भाजपा के शासन में राजनेताओं के ख़िलाफ़ केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय का इस्तेमाल को लेकर लिखा है। इसने राजनेताओं के ख़िलाफ़ प्रवर्तन निदेशालय के मामलों में चार गुना वृद्धि का खुलासा किया। 2014 के बाद से प्रवर्तन निदेशालय द्वारा 125 राजनेताओं की जांच की गई जिनमें 115 विपक्षी नेता हैं। इतनी तेज़ी से वृद्धि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद हुई है। इसके विपरीत, 2004 से 2014 तक यूपीए शासन के दौरान 26 राजनेताओं की ईडी द्वारा जांच की गई थी जिनमें 14 यानी 54 प्रतिशत विपक्षी दलों से थे।

यह इस बात की ओर इशारा करता है कि सरकार की आलोचना करने से अब बड़ी संख्या में विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ दंडात्मक कार्रवाई हो रही है। उनकी शिकायत है कि वर्तमान सरकार उन्हें डराना चाहती है और आलोचना को दबाना चाहती है। इस तरह असंतोष की संस्कृति को प्रतिशोध के साथ नकारा जा रहा है जबकि यह सरकारों को जवाबदेह बनाने के लिए ज़रूरी है।

असहमति जताने वालों और सरकार पर सवाल खड़े करने वालों के ख़िलाफ़ राजद्रोह और अन्य कठोर क़ानूनों के तहत मामला दर्ज करने के कई उदाहरण हैं। इसने हमारे लोकतंत्र को अनुदार बनाने में अहम भूमिका निभाई। हम 1975 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल को बेहद दर्दनाक तरीक़े से याद करते हैं। यह उन्नीस महीने तक रहा जब लोगों के अधिकारों को कुचल दिया गया था। दुर्भाग्य से, भारत में राजनीतिक सत्ता ने अब सरकार के आलोचकों को निशाना बनाने का तरीक़ा निकाला है। इसने ऐसी स्थितियां पैदा की हैं जो लोगों की नागरिक स्वतंत्रता को दबाती हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती हैं जिसे गांधी ने वर्ष 1940 में स्वराज की नींव के रूप में उल्लेख किया था।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वराज के विचार का आह्वान किया था। इसी तरह के विचार ने उन लोगों के अधिकारों की रक्षा करने में अब काफ़ी ज़ोर पकड़ लिया है जो मौजूदा सरकार की नीतियों के कारण हमारे लोकतंत्र पर बार-बार होने वाले हमलों का सामना कर रहे हैं।

अंतर्राष्ट्रीय विचारकों द्वारा भारत को एक निर्वाचित निरंकुश और आंशिक रूप से स्वतंत्र देश के रूप में बताना यह दर्शाता है कि सरकार से सवाल करने की लोगों की मौलिक स्वतंत्रता से किस हद तक समझौता किया गया है। जब उत्तर प्रदेश में नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ बड़ी संख्या में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उनकी सरकार "बदला लेगी"। संविधान की शपथ लेने वालों के इस तरह के बयान विरोध और असंतोष के प्रति धोखा है।

महात्मा गांधी ने स्वराज को नागरिकों के अधिकारों और सरकार पर सवाल उठाने की क्षमता के नज़रिए से देखा। लगभग एक सदी पहले, वर्ष 1925 में उन्होंने कहा था, "... वास्तविक स्वराज कुछ लोगों को उनके अधिकार मिलने से नहीं आएगा, बल्कि सत्ता का दुरुपयोग होने पर सभी द्वारा इसका विरोध करने की क्षमता के प्राप्त करने से होगा। दूसरे शब्दों में, सत्ता को विनियमित और नियंत्रित करने की जनता को उनकी क्षमता की भावना के लिए सशक्त बनाकर स्वराज प्राप्त किया जा सकता है।"

स्वराज की उनकी धारणा असंतोष की संस्कृति को स्वीकार करती है और सरकार से उनकी मांग डॉ. बीआर अंबेडकर के 1941 के नारे "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो!" से बहुत अलग नहीं है। सत्ता को विनियमित करने के लिए जन आंदोलन और विरोध को दबाने का कोई भी प्रयास स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शुरू किए गए स्वराज के विचार को कुचलने का एक प्रयास है। हाल ही में, क़ानून बनाने की परामर्शी प्रक्रिया को समाप्त करके बनाए गए क़ानूनों के ख़िलाफ़ आंदोलन करने वाले लोगों का उपहास किया गया और उन्हें "आंदोलनजीवी" कहा गया। इस तरह के प्रयास स्वराज के विचार का ही उपहास करते हैं।

दुख की बात है कि जब देश अपनी आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है तो लोगों के विरोध करने के मौलिक अधिकार का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। स्वतंत्रता दिवस पर एक तरफ जहां प्रधानमंत्री ने नारी शक्ति पर बात की वहीं दूसरी तरफ गुजरात की भाजपा सरकार ने बिलकिस बानो से सामूहिक दुष्कर्म और उनके परिवार समेत 14 सदस्यों की हत्या करने वाले आरोपियों को छोड़ दिया जिन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। उन्हें माफ़ करते हुए छोड़ दिया गया। इस तरह उस प्रावधान की अवहेलना की गई जिसका राज्य को बलात्कार एवं हत्या के जघन्य अपराध करने के लिए अदालतों द्वारा दोषी ठहराए गए लोगों को रिहा नहीं करना चाहिए। गुजरात की भाजपा सरकार ने जहां असहमति और विरोध को अपराध की श्रेणी में रखा है, वहीं गंभीर अपराध करने वालों को रिहा कर रही है। यह पीड़ादायक है कि प्रधानमंत्री मोदी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं।

हमारे देश में गंभीर समस्या स्वराज के विचार का उल्लंघन है, जिसका मूल अर्थ गांधी ने कई दृष्टिकोणों से बताया था। इनमें एक था महिलाओं की सुरक्षा और रक्षा। 14 अगस्त 1921 को नवजीवन में लिखते हुए उन्होंने स्वराज को इस तरह परिभाषित किया: "स्वराज का अर्थ होगा कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, पारसी, ईसाई और यहूदी सभी को अपनी आस्था का पालन कर सकें और एक-दूसरे का सम्मान करें।" उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें "कोई युवती, बिना किसी ख़तरे के रात के अंधेरे में भी अकेले घूम सकती है"।

20 अक्टूबर 1929 को नवजीवन में लिखते हुए गांधी ने कहा कि स्वराज का मतलब अंग्रेज़ों से भारतीय के हाथों में सत्ता के हस्तांतरण से कहीं अधिक है। उन्होंने कहा, "मेरे विचार से स्वराज का अर्थ तीस करोड़ लोगों के हाथों में विनियमित सत्ता है। जहां ऐसा शासन होगा वहां छोटी बच्ची भी ख़ुद को सुरक्षित महसूस करेगी।"

भारत में महिलाओं के लिए सुरक्षा और रक्षा की भावना के अभाव का मतलब स्वराज के विचार के लिए ख़तरा है। यह दुख की बात है कि मोदी सरकार का बार बार "न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन" की बात करना क्या यह स्वतंत्रता दिवस पर बलात्कार और हत्या के दोषियों को रिहा करने के लिए "अधिकतम शासन" है? भारतीय अपने वास्तविक अर्थों में स्वराज चाहते हैं। यह गांधी का विचार था जिन्हें लगा कि स्वराज राष्ट्र निर्माण के लिए महत्वपूर्ण होगा। स्वराज को नकारने वाली सरकार अब ज़ोर-शोर से नागरिकों के कर्तव्यों की बात करती है! मौलिक अधिकारों पर शायद ही चर्चा की जाती है। इसके बजाय, उनके अधिकारों की अवहेलना में लोगों के अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है। अधिकारों और कर्तव्यों की पूरकता को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। राज पथ का नाम बदलकर कार्तव्य पथ रखने का मामला अधिकारों पर कर्तव्यों को अधिक ज़ोर देने के लिए सत्ताधारी नेतृत्व की मानसिकता को दिखाता है।

जब लोग केंद्र से सवाल पूछते हैं तो उन्हें देशद्रोही क़रार दिया जाता है। सरकार से पूछने के उनके साहस के लिए उन्हें कठोर कार्रवाई का सामना करना पड़ता है। परामर्शी क़ानून बनाने की प्रक्रिया के बिना अधिनियमित तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ साल भर चले किसान आंदोलन ने केंद्र को ये क़ानून रद्द करने के लिए मजबूर किया। केंद्र सरकार द्वारा उस आंदोलन को डराने-धमकाने की कार्रवाई के ज़रिए कुचलने के प्रयासों के बावजूद इसने ये उम्मीद जगाई की कि लोग राजनीतिक शक्ति को नियंत्रित कर सकते हैं और सरकार को जवाबदेह बना सकते हैं।

स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर हमें स्वराज के अपने विचार के रूप में राजनीतिक सत्ता को विनियमित करने की इस क्षमता का आह्वान करना चाहिए। यह तरीक़ा भारत और उसके स्वराज के विचार को मदद कर सकता है, जो लगातार हमलों का सामना करता है।

लेखक भारत के पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के विशेष कार्य अधिकारी (ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) थे। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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