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इतिहास प्रकाश सिंह बादल को कैसे याद करेगा ?

असल में प्रकाश सिंह बादल ने अकाली राजनीति को जिस तरह अपने निजी और पारिवारिक स्वार्थों के लिए आगे बढ़ाया उसका अंजाम भी उन्होंने अपने रहते ही देख लिया।
Parkash Singh Badal
फ़ोटो साभार : PTI

साल 2008 में प्रकाश सिंह बादल लुधियाना ज़िले में एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए थे। जब पत्रकारों के सवालों का सेशन शुरू हुआ तो मैंने उनसे सवाल किया कि जैसे कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने पब्लिक सेक्टर का निजीकरण किया और उसे ठेके पर दिया, उसी राह पर आप हो? बादल ने मेरे सवाल का जवाब देते हुए कहा, “काका जी, सरकार के लिए सभी संस्थान चलाने मुश्किल होते हैं। इसलिए कुछ महकमों का निजीकरण या उन्हें ठेके पर दिया जाता है। इसमें कोई बुराई नहीं है।” मैंने व्यंग भरे लहज़े में बादल से फिर सवाल किया, “आप के तर्क मुताबिक जो भी पब्लिक सेक्टर सरकार से नहीं चलता उसका निजीकरण किया जाता है या उसे ठेके पर दिया जाता है। इस हिसाब से तो यदि सरकार से राज नहीं चलता तो उसे अपना राज भी 3-4 साल के लिए किसी निजी कंपनी को ठेके पर दे देना चाहिये?’’

मेरे सवाल पर बादल तो कुछ नहीं बोले पर अकाली नेता और समर्थक हमलावर रुख अख्तियार कर मुझसे बोलने लगे और पत्रकारों में से भी कुछ अकाली पक्षीय झुकाव रखने वाले मुझे कुछ-कुछ सुनाने लगे। इतने में प्रकाश सिंह बादल बोले, “ना भई ना! इसके साथ न उलझो, यह उम्र ही ऐसी होती है, जोशीली।” इतने में बादल दूसरे पत्रकारों के सवाल लेने लगे। मैंने देखा बादल बिल्कुल नार्मल थे पर उन्होंने मेरे सवाल को भी एक कम उम्र  के नौजवान का ‘जवानी के जोश में पूछा सवाल’ बना कर टाल दिया।

गत 25 अप्रैल 2023 को अपनी आखिरी साँस लेने वाले देश के बड़े नेता और सात दशक से भी ज्यादा समय राजनीति में सक्रिय रहे प्रकाश सिंह बादल के विशेष गुणों में यह खास गुण था कि वह कभी भी तल्खी में नजर नहीं आते थे। जिन सवालों में वह फंसते नजर आते, उनके जवाब नहीं देते थे। हर एक को उसके सर नेम से बुलाना, छोटे को प्यार से ‘काका जी’ कहना, समय और हालात के मुताबिक अपनी रणनीति को बदल लेना, लोगों से लगातार सम्पर्क में रहना, हर एक की बात आराम से सुनना यह उनके व्यक्तित्व के अहम गुण थे। बादल के विधानसभा क्षेत्र लंबी के लोगों का कहना है कि बादल इस क्षेत्र के 90 प्रतिशत लोगों के नाम जुबानी जानते थे।

8 दिसंबर 1927 को माता सुन्दरी कौर पिता रघुराज सिंह के घर जन्में प्रकाश सिंह बादल ने स्कूली शिक्षा लंबी और फिरोज़पुर से ग्रहण कर कॉलेज की पढ़ाई के लिए सिख कॉलेज लाहौर दाखिला लिया, बाद में माईग्रेशन लेकर वह फोरमन क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिल हुए और यहाँ से ही उन्होंने स्नातक किया। वह पीसीएस अफसर बनना चाहते थे लेकिन अपने चाचा तेजा सिंह और अकाली नेता ज्ञानी करतार सिंह की प्रेरणा से वह राजनीति में आए।

बादल के राजनैतिक जीवन की शुरुआत 1947 से हुई। वह पहले अपने गाँव बादल के सरपंच बने फिर ब्लाक समिति के चेयरमैन बने। 1956 में जब पैप्सू स्टेट पंजाब में शामिल हुई तो कांग्रेस और अकाली दल ने मिल कर चुनाव लड़ा। 1957 में बादल कांग्रेस की टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ कर पहली बार विधायक बने। 1967 में वह 100 से भी कम मतों के फर्क से चुनाव हार गये। 1969 के विधानसभा चुनाव में वह फिर जीतते हैं और जस्टिस गुरनाम सिंह के मंत्रिमंडल में मंत्री बनते हैं। उन्हें पंचायती राज, पशुपालन, मछली पालन और डेयरी विकास विभाग मिला। 1970 में जब अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष संत फतेह सिंह उस समय के मुख्यमंत्री जस्टिस गुरनाम सिंह को पद से निष्कासित कर देते हैं तो प्रकाश सिंह बादल 43 साल की उम्र में सब से कम उम्र का मुख्यमंत्री होने का मान हासिल करते हैं। बादल के इसी शासन में नक्सली लहर को दबाने के नाम पर फर्जी पुलिस मुकाबले हुए। सबसे पहला पुलिस मुकाबला ग़दर लहर से जुड़े वामपंथी विचारों के स्वतंत्रता संग्रामी बजुर्ग बाबा बूझा सिंह का हुआ उस समय उनकी उम्र 80 वर्ष थी।

बादल एक साल यानी 1971 तक मुख्यमंत्री रहे। 1977 में जब अकाली दल जनता पार्टी से मिल कर सरकार बनाता है तो प्रकाश सिंह बादल दूसरी बार मुख्यमंत्री बनते हैं। इसी समय निरंकारी कांड होता है। अपने इस शासन में बादल किसानों को कुछ सहूलतें देते हैं जैसे कि मंडियों के नजदीक फोकल पॉइंट्स बनाना, सेम की मार वाले इलाकों की समस्या सुलझाना। यह सरकार करीब ढाई साल चलती है। बादल कुछ समय के लिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल में कृषि मंत्री भी रहे।

अकाली दल मोर्चों और संघर्षों से निकली हुई पार्टी है। राज्यों को ज्यादा अधिकार देना, संघीय ढांचा मजबूत करना और भाषा के मुद्दे पर अकाली दल ने बड़े आंदोलन खड़े किये हैं। अकाली दल ने केंद्र की कांग्रेस सरकार के विरुद्ध ‘पंजाबी सूबा मोर्चा’ से लेकर ‘धर्म युद्ध मोर्चा’ जैसी तगड़ी लड़ाई लड़ीं जिसमें प्रकाश सिंह बादल ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। प्रकाश सिंह बादल ने ‘पंजाबी सूबा मोर्चा’, ‘कपूरी मोर्चा’ और ‘धर्म युद्ध मोर्चों’ में सरगर्म भूमिका निभाई। 1983 में संविधान के अनुच्छेद 25 में संशोधन की मांग को लेकर संविधान की कापियां भी जलाई थीं। जब 1975 में इमरजेंसी लगाई गई तो अकाली दल ने इसका व्यापक तौर पर विरोध किया। अकाली दल के कई नेता गिरफ्तार हुए, बादल ने भी 19 महीने जेल काटी थी। अकाली दल के कई नेता दावा करते हैं कि श्री बादल ने ज़िन्दगी के 17 साल जेल काटी है। लेकिन कई राजनैतिक विशेषज्ञ इसे बढा-चढ़ा कर पेश की गई बात कहते हैं। आतंकवाद के समय प्रकाश सिंह बादल अपने सियासी चालों को बदलते भी रहे।

लंबे समय से पंजाब की राजनीति को कवर करने वाले सीनियर पत्रकार जगतार सिंह कहते हैं, “प्रकाश सिंह बादल ने हमेशा हवा के रुख के साथ चलना सीखा। वह कभी भी रुख के उलट नहीं गए। 1989 में उनकी पार्टी किनारे लग गई थी और उग्र सिख राजनीति ताकतवर हो रही थी। उस समय बादल इस हद तक चले गये कि उन्होंने खालिस्तान के मांग पत्र पर दस्तखत किये, जोकि यूनाइटेड नेशन को सौंपा गया था। बादल साहब के इन पक्षों पर कभी बात नहीं होती।” उस समय बादल पुलिस द्वारा मारे जाने वाले खालिस्तानी नौजवानों के भोगों (अंतिम अरदास) पर भी जाते रहे।

पंजाब के राजनैतिक इतिहास की समझ रखने वाले प्रोफेसर हरजेश्वर पाल सिंह कहते हैं, “बादल ’50 और ’60 के दशक में एक वफादार ‘पंथक’ अकाली वालंटियर, ’70 के दशक में किसानों और राज्य के अधिकारों के लिए लड़ने वाला जुझारू नेता, ’80 के दशक में ‘सिख राष्ट्रवादी’, ’90 के दशक में ‘हिंदू-सिख एकता’ के प्रतीक नेता के तौर पर उभर कर सामने आते हैं। बादल इक्कीसवीं सदी में किसानों को मुफ्त बिजली देने वाले और गरीबों को मुफ्त आटा-दाल स्कीम देने वाले नेता के तौर पर उभरते हैं।”

1994-96 तक आते-आते बादल अकाली दल को पंथक पार्टी से पंजाबी पार्टी में तब्दील करते हैं। 1996 में वह लोकसभा चुनाव में बसपा से किया गठबंधन तोड़ कर भाजपा से नाता जोड़ते हैं और केंद्र में भाजपा को बिना शर्त समर्थन देते हैं। इस गठबंधन को बादल, अकाली दल और भाजपा ‘हिन्दू-सिख एकता’ का नाम देते हैं। कुछ राजनैतिक विचारक कहते हैं कि बादल ने ऐसा कर सिख राजनीति को मुख्य धारा से फिर से जोड़ा। कुछ का मानना है कि यह दोनों पार्टियों के स्वार्थ पर आधारित गठबंधन था। कुछ सिख तबके इसे सिखों में आर.एस.एस के दखल की शुरुआत के रूप में भी देखते हैं।

1997 के विधानसभा चुनाव में अकाली-भाजपा गठबंधन ने 117 में से 93 सीटें जीतीं (अकाली दल 75, भाजपा 18)। बादल तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। इस समय प्रकाश सिंह बादल ने पूरे पांच साल राज किया। किसानों को मुफ्त बिजली की सहूलत दी गई। चुनाव के समय किया गए फर्जी पुलिस मुकाबलों की जाँच का वायदा अकाली दल ने सत्ता मिलते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया। पंजाब के पानी का मसला, पंजाबी बोलते इलाकों का मसला और चंडीगढ़ का मसला भी भुला दिया गया।

सत्ता के शुरूआती दिनों में भ्रष्टाचार विरोधी होने का जो नाटक किया था वही भ्रष्टाचार अकाली विधायकों और मंत्रियों से होता हुआ प्रकाश सिंह बादल के घर तक जा पहुंचा था। इसी समय गुरचरन सिंह टोहरा प्रकाश सिंह बादल से अलग हो जाते हैं (1999 में) और आगे चलकर 2003 में फिर हाथ मिलाते हैं। 2002 में अकाली-भाजपा गठबंधन की हार होती है और  कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार बनती है।

2007 में बादल चौथी बार राज्य के मुख्यमंत्री बनते हैं। सत्ता में आई अकाली-भाजपा सरकार ने कैप्टन सरकार की औद्योगीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को आगे बढ़ाना जारी रखा और 10 साल [2007 से 2017 तक के समय में (अकाली-भाजपा गठबंधन 2012 का चुनाव भी जीता था और बादल पांचवीं बार मुख्यमंत्री बने थे)] यह काम और ज़ोर-शोर से होता गया। खेती और किसानी सरकारी एजेंडे से दूर होते चले गये। बादल परिवार और उनके रिश्तेदारों का कारोबार फलने-फूलने लगा। बादल के मंत्रिमंडल में परिवारिक सदस्यों और रिश्तेदारों की गिनती बढ़ गई। प्रकाश सिंह बादल पर परिवारवाद के दोष लगने लगे। 2008 में सुखबीर बादल अकाली दल के अध्यक्ष बने (पहले 1996 से खुद प्रकाश बादल अध्यक्ष थे)। बाद में सुखबीर को उप-मुख्यमंत्री बनाया जाता है। 2009 में हरसिमरत कौर बादल लोकसभा सदस्य बनती है और मोदी सरकार में उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया जाता है।

पंथक मुद्दे और पंजाब की लंबे समय से चली आ रही मांगें अकाली दल के एजेंडे से पूरी तरह दूर होती चली गई। बादल सरकार ने जो मुफ्त आटा-दाल स्कीम और शगुन स्कीम शुरू की थी उसमें भी धांधलियां सामने आने लगी। इसी समय बादल कई धार्मिक और विरासती इमारतें बनाते हैं।

जन-विरोधी सरकारी नीतियों से पंजाब के हर वर्ग में गुस्सा दिखने लगा। अपने रौब को बनाए रखने के लिए सत्ताधारियों ने गुंडा टोलों का सहारा लिया। राज्य में गुंडा तत्त्वों ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए। फरीदकोट में हुआ लड़की का अपहरण कांड और तरनतारन के पास छेहरटा में हुई छेड़खानी की घटना ने यह साबित कर दिया कि अकाली राज्य में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं।

इसी दौर में पंजाब के हताश हुए नौजवानों ने बड़े स्तर पर विदेशों की ओर रुख किया। शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के अध्यक्ष और अकाल तख्त के जत्थेदार का चुनाव बादल परिवार के इशारे पर होने के आरोप लगने शुरू हो गये थे। इसी 10 साल के समय में डेरा सिरसा विवाद भी पैदा हुआ और उभरा था। 2015 में गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी भी बादल शासन में हुई जिसने अकाली दल को हाशिये पर ला खड़ा कर दिया।

2017 के विधानसभा चुनाव में अकाली दल को करारी हार नसीब हुई। उसे महज़ 15 सीटें हासिल हुई। प्रकाश सिंह बादल ने अपने पार्टी नेताओं समेत बेअदबी मसले पर अकाल तख्त पर पेश हो भूल भी बख्शाई पर पंजाब के लोगों को यकीन नहीं आया ।

जब कृषि कानूनों के विरुद्ध पंजाब से किसान संघर्ष उठने लगा तो अकाली दल ने शुरुआत में मोदी सरकार का समर्थन किया और कानूनों के पक्ष में प्रकाश सिंह बादल से बयान दिलाया गया। जब पंजाब के लोगों ने कानूनों के विरोध में भाजपा के साथ-साथ अकाली दल को भी घेरा तब मजबूरी में अकाली दल ने भाजपा से अपना नाता तोड़ा और हरसिमरत कौर बादल ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया। 2022 के विधानसभा चुनाव में जहाँ आम आदमी पार्टी ने शानदार जीत हासिल कर पंजाब में सत्ता प्राप्त की वहीं अकाली दल को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा। अकाली दल महज़ 3 सीटें प्राप्त कर सका। सुखबीर बादल 30 हजार से अधिक मतों के फर्क से चुनाव हारे, प्रकाश सिंह बादल खुद ‘आप’ के उम्मीदवार से 12 हजार से अधिक मतों से हार गए। यह बादल की राजनीतिक जीवन की दूसरी हार थी और आखिरी चुनाव था। इस हार ने बादल को काफी धक्का पहुंचाया।

पंजाब की राजनीति और समाज पर पैनी नजर रखने वाले प्रो. बावा सिंह का मानना है, “अकाली दल पंजाब के लोगों के मन से पूरी तरह उतर चुका है जिसका कारण बादल परिवार है। प्रकाश सिंह बादल की अगुवाई में अकाली दल ने अपने पुराने सिद्धांतों जैसे अल्पसंख्यकों के लिए खड़े होना, संघीय ढांचे की रक्षा आदि को छोड़ दिया। अकाली दल के समय बादल परिवार ने सत्ता माफिया की तरह चलाई। गैर-कानूनी माइनिंग और केबल माफिया ने अपने पैर पसारे। बादल परिवार ने धर्म और सत्ता को अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल किया। मोदी सरकार में सत्ता का सुख भोगने के लिए मुसलमानों और दलितों पर हुए अत्याचारों पर अकाली दल खामोश रहा। अनुच्छेद 370 पर भी अकाली दल खामोश रहा।”

भले ही आखिरी समय में बादल को अवाम की नाराजगी सहनी पड़ी हो पर सीनियर पत्रकार जगतार सिंह कहते हैं, “एक क्षेत्रीय पार्टी के नेता का राष्ट्रीय स्तर का कद होना कोई साधारण बात नहीं है। वह उन चंद नेताओं में शुमार हैं जो क्षेत्रीय स्तर पर सक्रिय रहे लेकिन उनका कद नेशनल लेवल के नेताओं का था।”

पांच बार मुख्यमंत्री बने प्रकाश सिंह बादल ने 13 बार चुनाव लड़ा और 11 बार चुनाव जीता। इस जीत में एक लोकसभा की जीत भी शामिल है।

प्रकाश सिंह बादल की सियासी कामयाबी के पीछे का कारण बताते हुए प्रो. हरजेश्वर पाल सिंह कहते हैं, “उनकी सफलता के कई कारणों में से एक कारण सभी को साथ लेकर चलना था। उनके पास एक कुशल राजनीतिक टीम थी। जैसे उन्हें सत्ता में बुलंदी पर ले जाने में बलविंदर सिंह भूंदड़, सुखदेव सिंह ढींडसा जैसे नेता थे, रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा और कैप्टन कंवलजीत सिंह ने पार्टी के अंदरूनी विरोधियों से उनकी रक्षा की, हरचरन सिंह बैंस और दलजीत सिंह चीमा जैसे तर्कशील व्यक्तियों ने उन्हें समय-समय पर सही सलाह दी, दियाल सिंह कोलियांवाली ने उनके विधानसभा क्षेत्र में पहरा दिया।” लेकिन वह समय भी आया जब अकाली दल पर सुखबीर बादल का दबदबा हुआ तो उन्होंने सभी पुराने विश्वासपात्र नेताओं को किनारे लगा दिया, ढींडसा जैसों ने पार्टी को अलविदा कह दी ।

असल में प्रकाश सिंह बादल ने अकाली राजनीति को जिस तरह अपने निजी और पारिवारिक स्वार्थों के लिए आगे बढ़ाया उसका अंजाम भी उन्होंने अपने रहते ही देख लिया था।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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