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हम भारत के लोग : हम कहां-से-कहां पहुंच गये हैं

भारत गणराज्य एक भंवर में फंस गया है। भंवर से उसे कैसे उबारा जाये, यह विकट प्रश्न है।
hum bharat ke log

‘हम, भारत के लोग’ 70 साल बीतते-न-बीतते कहां-से-कहां पहुंच गये हैं!

26 जनवरी 1950 को भारत को लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष गणराज्य घोषित किया गया और देश का संविधान लागू हुआ (संविधान में ही भारत को लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बताया गया है।)

तब क्या किसी ने सोचा होगा कि एक वक़्त ऐसा भी आ सकता है, जब इसी गणराज्य में और इसी संविधान की नाक के नीचे देश के मुसलमानों का सफ़ाया/क़त्ल-ए-आम (जेनोसाइड) करने की अपील सार्वजनिक तौर पर जारी होगी और देश का प्रधानमंत्री इस पर पूरी तरह ख़ामोश रहेगा?

क्या ऐसी ख़तरनाक अपील पर एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के प्रधानमंत्री को ख़ामोश रहने का अधिकार है? यहां तक कि देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इस मसले पर अपनी ओर से हस्तक्षेप नहीं किया।

यही नहीं। जिन लोगों ने यह अपील जारी की है, उन्हें केंद्र और कुछ राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी (भारतीय जनता पार्टी) का खुल्लमखुल्ला समर्थन मिला हुआ है—ऐसा दिखायी दे रहा है। वाम को छोड़ दिया जाये, तो कांग्रेस-समेत किसी भी विपक्षी पार्टी ने इस अपील का विरोध व निंदा नहीं की, न इसे कुछ दिनों में शुरू होने वाले विधानसभा चुनावों में मुद्दा बनाया। कुछ प्रबुद्ध नागरिक समूहों को अगर छोड़ दिया जाये, जिन्होंने इस अपील के मद्देनज़र अपने स्तर पर ज़रूरी विरोध कार्रवाई की, और जिसकी वजह से एक या दो गिरफ़्तारियां हुईं, तो इस मसले पर आम तौर पर सन्नाटा पसरा रहा।

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क्या हमारे संविधान निर्माताओं ने (इनमें स्त्री-पुरुष दोनों शामिल हैं) ऐसी स्थिति की उम्मीद की होगी? हालांकि यह काल्पनिक सवाल है, लेकिन इस पर सोचा जाना चाहिए।

आइये, अब एक और मसले पर बात करें, जहां हमारा गणराज्य पूरी तरह विफ़ल नज़र आता है।

क्या किसी ने सोचा होगा कि एक वक़्त ऐसा भी आ सकता है, जब इसी गणराज्य में और इसी संविधान की नाक के नीचे कश्मीर को—हमारे प्यारे कश्मीर को—एक खुली, भयानक जेल में तब्दील कर दिया जायेगा, जहां सिर्फ़ बाड़ाबंदी-नाकाबंदी होगी, जिस्म-ओ-जां को लहूलुहान करते कंटीले तार होंगे, लोगों की निशानदेही और उनकी गुमशुदगी होगी, सेना की बंदूकें होंगी, गिरती हुई लाशें होंगी, और कुकुरमुत्ते की तरह उग आते गुमनाम क़ब्रिस्तान होंगे?

जब हम कहते हैं, ‘हम भारत के लोग’, तो क्या उस दायरे में कश्मीर व कश्मीर की जनता आती है? क्या हमें इस बात पर गहरी चिंता—रंज-ओ-ग़म—है कि वर्ष 2018, 2019, 2020 और 2021 के चार सालों में भारतीय सेना के साथ तथाकथित मुठभेड़ों में क़रीब 1000 कश्मीरी नौजवान मार डाले गये? (यह सरकारी आंकड़ा है। मारे गये लोग सरकारी आंकड़े में ‘आतंकवादी’ बताये जाते हैं। ) ये सिर्फ़ हत्याएं थीं, मुसलमानों की निशाना बना कर की गयीं क्रूर हत्याएं।

क्या यह चीज हमें—भारत के लोगों को—विचलित करती है? यह कश्मीर के लिए—और पूरे भारत के लिए—कितनी बड़ी आपदा है, जन-धन का अपार नुकसान! क्या इस पर हम सोचते हैं? इस पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है कि जिस तरह कश्मीर को सेना-आधारित राज्य (garrison state) बना दिया गया है, कमोबेश वही स्थिति बाक़ी देश की भी हो रही है। हरिद्वार (उत्तराखंड) में पिछले दिनों मुसलमानों के क़त्ल-एःआम की जो अपील जारी की गयी, उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

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ध्यान दीजिये, ये सारी चीज़ें इसी गणराज्य व संविधान के तहत हो रही हैं। इसी संविधान के तहत कश्मीर में सारे राजनीतिक, लोकतांत्रिक व नागरिक अधिकारों और गतिविधियों/आंदोलनों पर पाबंदी लगी हुई है, अभिव्यक्ति व प्रेस की आज़ादी पर रोक है, और सिर्फ़ गिरफ़्तारियों व तथाकथित मुठभेड़ों का दौर चलता रहता है।

इस्लामोफ़ोबिया (इस्लाम से ख़ौफ़) ने हमारे गणराज्य को घेर लिया है। इसने मुसलमानों पर हर तरह की हिंसा को, जो सरकार-समर्थित होती है, आम चलन बना दिया है। इसने ईसाईफ़ोबिया (ईसाइयों से ख़ौफ), स्त्री-द्वेष, दलित-विरोध व आदिवासी-संहार, को सामाजिक स्वीकृति दिलायी है, और ग़रीब-वंचित समूहों व भिन्न यौन रूझान वालों के प्रति हिंसात्मक व्यवहार को बढ़ावा दिया है। इसने हमारे देश को क़रीब-क़रीब हिंदू राष्ट्र बना दिया है।

भारत गणराज्य एक भंवर में फंस गया है। भंवर से उसे कैसे उबारा जाये, यह विकट प्रश्न है।

लेखक कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। 

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