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हैदराबाद एनकाउंटर : पुलिस ख़ुद को निर्दोष क्यों नहीं बता सकती

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी नतीजों से ज़्यादा उन्हें हासिल करने के लिए अपनाया जाने वाला रास्ता मायने रखता है।
hyderabad
Image Courtesy : The Indian Express

हैदराबाद में वेटनरी डॉक्टर के बलात्कार और हत्या ने महिला सुरक्षा के विमर्श को फिर केंद्र में ला दिया है। लोग सड़कों पर उतर गए और उन्होंने देश की पुलिसिया व्यवस्था पर सवाल उठाए। एक दिन के भीतर पुलिस ने आरोपियों को गिरफ़्तार कर लिया। इसके बाद 5 और 6 दिसंबर के बीच की रात में तीन बजे उन्हें मौत के घाट उतार दिया। पुलिस ने दावा किया कि यह एक एनकाउंटर है।

पुलिस का कहना है कि आरोपियों को घटनास्थल पर जांच में ज़रूरी 'आपराधिक तथ्यों के पुनर्निर्माण' करने के लिए ले जाया गया था। उसी दौरान आरोपियों ने भागने की कोशिश की। हत्याओं पर मिली-जुली प्रतिक्रिया सामने आई है। बहुत सारे लोग पुलिस की मनमर्ज़ी पर ख़ुशी ज़ाहिर कर रहे हैं। वहीं दूसरे लोगों ने गोलीबारी पर सवाल खड़े करते हुए इन्हें खौफ़नाक हत्याएं क़रार दिया है। पुलिस की कार्रवाई से आरोपियों के मानवाधिकारों, फ़र्ज़ी एनकाउंटर में पुलिस अधिकारियों के सजा से बचने और इस मामले में रहस्यमयी एनकाउंटर पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। 

पहली बात, क़ानून के मुताबिक़ आरोपियों को हथकड़ी लगाकर जेल से बाहर ले जाना चाहिए। इस दौरान ऊचित संख्या में गार्ड भी होने ज़रूरी हैं। इसके बाद भी कैसे सभी चार आरोपी पुलिस कस्टडी से भागने में कामयाब रहे? अगर उन्हें हथकड़ी नहीं लगाई गई थी, तो दोष पुलिस का है। उनसे इसपर स्पष्टीकरण मांगा जाना चाहिए। दूसरा सवाल कि घटनास्थल की पुनर्निर्माण के लिए सुबह तीन बजे का वक़्त क्यों चुना गया? ऐसे मामलों में जहां आरोपी हथियारबंद नहीं हैं, वहां पुलिस उनकी हत्याओं को कैसे सही ठहरा सकती है? अभी तक हम यह भी नहीं जानते कि आरोपियों पर जब गोलियां चलाई गईं, तो उसके पहले वह कितनी दूर तक भाग चुके थे? इसकी संभावना कम ही है कि आरोपी इतनी दूर भागे होंगे कि पुलिस के पास गोली चलाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा होगा।

अगर मान भी लें कि आरोपी बहुत दूर भाग चुके थे, तो भी सवाल उठता है कि जब उन्होंने भागने की कोशिश की, तब पुलिस क्या कर रही थी? तीसरा, फिर मानते हैं कि आरोपियों ने भागने की कोशिश की, क़ानून के मुताबिक़ ऐसी स्थिति में पुलिस वालों को हथियार चलाने की अनुमति है। लेकिन तब भी शरीर के निचले हिस्से को निशाना बनाया जाता है। ताकि हथियार छीनकर उन्हें रोका जा सके। इसका मक़सद उनकी हत्या करना तो क़तई नहीं होता।

केवल आत्मरक्षा को छोड़कर पुलिस ''एनकाउंटर'' के नाम पर हत्याएं नहीं कर सकती। सीआरपीसी के सेक्शन 46(3) से पुलिस को किसी शख़्स को गिरफ़्तार करने की ताक़त मिलती है, लेकिन अगर आरोपियों के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोपों की सज़ा मृत्युदंड या उम्रक़ैद नहीं है तो क़ानून हत्या करने की शक्ति नहीं देता। अगर एनकाउंटर में मौत होती है, तो कोर्ट तथ्यों की जांच करेगा। 

इस केस में पुलिस की कहानी को अगर सच मान भी लिया जाए, तो भी कहीं से पुलिस की गोलीबारी और उससे आरोपियों की मौत को सही नहीं ठहराया जा सकता। यह तथ्य और स्थितियां राज्य सरकार को मजबूर करती हैं कि वे 'एनकाउंटर' में शामिल पुलिसवालों को गिरफ़्तार करें। 'पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीज़ बनाम् महाराष्ट्र सरकार' में कोर्ट ने ऐसे एनकाउंटर जिनमें मौते हुई हैं, उनकी जांच के लिए 16 गाइडलाइन दी हैं। इन गाइडलाइन के ज़रिये एक स्वतंत्र और प्रभावी जांच होती है।

इनमें अहम है, कि मामले में एफ़आईआर दर्ज कर, आईपीसी के सेक्शन 157 के तहत बिना देर किए कोर्ट को भेजी जानी चाहिए। जब इसे कोर्ट को बढ़ाया जा रहा हो, तब सेक्शन 158 में दी गई प्रक्रिया का पालन किया जाएगा। दूसरी अहम बात है कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की देखरेख में (जो एनकाउंटर करने वाले अधिकारी से वरिष्ठ होगा), सीआईडी या पुलिस द्वारा किए गए एनकाउंटर की जांच, एक दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम द्वारा की जानी चाहिए। 

तीसरी बात, सेक्शन 176 के मुताबिक़, पुलिस फ़ायरिंग में अगर मौतें हुई हैं, तो न्यायिक जांच ज़रूरी है। सेक्शन 190 में क्षेत्राधिकार प्राप्त ज्यूडीशियल मजिस्ट्रेट के पास जांच की रिपोर्ट भेजी जानी चाहिए। चौथी बात कि यह तय किया जाना चाहिए कि एफ़आईआर, डायरी एंट्री, पंचनामा, चित्र और दूसरी चीजें भेजने में कोई देर न हो। पांचवी बात, एनकाउंटर से जुड़े पुलिस अधिकारी को सेवा शर्तों से बाहर किसी भी तरह का प्रमोशन या वीरता पुरस्कार नहीं दिया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है ऐसे पुरस्कार तभी दिए जाने चाहिए, जब संबंधित अफ़सर की वीरता बिना किसी शक के प्रमाणित हो चुकी हो।

अब ज़रूरी वक़्त है कि भारत दशकों से लंबित पड़े पुलिस सुधारों की बात करे। कोई भी क़ानूनी एजेंसियों या तंत्र पर भारत में कुछ नहीं बोल रहा है। सवाल उठता है कि कैसे ज्यूडीशियल सिस्टम में लोगों के भरोसे को बनाए रखा जाए। इसके लिए सुधार ज़रूरी हैं। फ़िलहाल पुलिस सिस्टम में बड़ी ख़ामियां हैं। पुलिस संगठन से जुड़ी समस्याएं, इंफ्रास्ट्रक्चर और पर्यावरण की दिक़्क़तें, हथियारों की कमी और गुप्त सूचनाएं जुटाने के लिए ज़रूरी तकनीक का न होना इनमें से कुछ हैं। पुलिस में व्यापक भ्रष्टाचार है। देश की पुलिस फ़िलहाल बेहद बुरी स्थिति में है।

पुलिस इंफ्रास्ट्रक्चर भी फ़ोर्स की ताक़त के लिए पर्याप्त नहीं है। पूरे देश में पुलिस विभागों में लोगों की बहुत कमी है। इसके चलते पुलिस वालों पर काम का बहुत दबाव होता है। यह एक बड़ी चुनौती है। ज़्यादा काम का दबाव पुलिस के प्रभाव के साथ-साथ पुलिसकर्मियों के मानसिक संतुलन पर भी असर करता है। इसके चलते कई बार पुलिसकर्मी बहुत सारे अपराध कर बैठते हैं।

2006 में सुप्रीम कोर्ट ने बहुचर्चित ''प्रकाश सिंह फ़ैसला'' दिया। इसमें केंद्र और राज्य सरकारों को सात बिंदुओं का निर्देश दिया गया। विडंबना है कि अभी तक इन्हें लागू नहीं किया गया। इससे पता चलता है कि पुलिस सुधारों के लिए भारत में राजनीतिक शक्ति की कितनी कमी है और प्रशासन इस फ़ैसले को लागू न करने के लिए कितना अड़ियल है।

जैसे हैदराबाद में पीड़ित के रेप और हत्या से हम सिहर उठे थे, वैसे ही हमें गुमनाम परिस्थितियों में किए गए इस एनकाउंटर पर भी चिंतित होने की ज़रूरत है। 2018 में उत्तरप्रदेश पुलिस ने एनकाउंटर की जो स्थिति बनाई थी, उसे देखते हुए बिना आलोचना के इन्हें बढ़ावा देने की फ़ितरत बेहद डराने वाली है। उस साल औसत तौर पर हर दिन प्रदेश में चार एनकाउंटर हुए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की तरफ़ से खुली आलोचना के बावजूद पुलिसिया बल का बहुत दुरुपयोग हुआ, जिसे सरकार की तरफ़ से भी बहुत-कुछ बढ़ावा मिला। 

नागरिकों को इस अतिराष्ट्रवादी अवधारणा की आलोचना करनी चाहिए, जिसके तहत राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नतीजों को हासिल करने के लिए कोई भी रास्ता अपनाया जा रहा है।

प्रणव धवन और भास्कर कुमार NLSIU बेंगलुरू के छात्र हैं। धवन लॉ स्कूल पॉलिसी रिव्यू के फ़ाउंडिंग एडिटर भी हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Hyd Encounter: Why Police Cannot Give Itself a Clean Chit

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