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इन पहरेदारों की पहरेदारी कौन करेगा ?

भारत और अमेरिका बहुसंख्यकवाद के रोग से पीड़ित हैं और इनके लक्षण बेहद संक्रामक होते जा रहे हैं।
Trump and Modi

मिनियापोलिस (मिनेसोटा) पुलिस विभाग द्वारा एक अफ़्रीकी-अमेरिकी, जॉर्ज फ़्लॉयड की निर्मम हत्या ने मुझे उस सवाल को लेकर फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है,जिसे मेरे दिवंगत सहयोगी निर्मल मुखर्जी ने कुछ तीस साल पहले, अक्टूबर 1990 में सेमिनार के एक विषय में उठाया था, उन्होंने सवाल किया था कि " इन पहरेदारों की सुरक्षा कौन करेगा? ” मुखर्जी भारत के अंतिम आईसीएस अधिकारी थे और 1980 में कैबिनेट सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे।

अस्सी के दशक की शुरुआत की बात है। जब हम दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फ़ेलो थे, तो हम दोनों की बातचीत के दौरान मुझे भारतीय पुलिसिंग के बिगड़ते मानकों और राजनीतिक वर्ग के लिए सेवा की उनकी लगातार अधीनता के बारे में उनकी गहरी चिंता आज भी याद है। यूंकि मैं उनसे लगभग तीस साल छोटा था, इसलिए उनके शब्द मेरे कानों में वेदों के किसी सत्य वाक्य की तरह गूंजने लगे। मैं इस बात से परेशान हूं कि अगर आज वह ज़िंदा होते, तो चीज़ों को वो किस तरह देख रहे होते।

राजनीति में तीस साल का समय लंबा होता है। और चाहे वह भारत हो या संयुक्त राज्य अमेरिका हो, इस बीच बहस में थोड़ा बदलाव भी आया है। 1997 में सीबीआई के पूर्व निदेशक, जोगिंदर सिंह ने किसी सीबीआई बुलेटिन में कहा था, “पुलिसकर्मियों से इस तरह के माहौल में स्वर्गदूतों की उम्मीद करना और देश में हो रहे सभी तरह की घटनाओं के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराना न्याय का एक उपहास होगा। पुलिस हिंसक इसलिए है,क्योंकि समाज इसे ऐसा करने देता है और यहां तक कि समाज चाहता है कि पुलिस भी हिंसा को हिंसा से ही दबाये।”

अब ज़रा संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के शब्दों पर विचार कीजिए। जॉर्ज फ़्लॉयड वाली घटना के ख़िलाफ़ अमेरिका के व्यापक विरोध के सिलसिले में उन्होंने गवर्नरों और क़ानून को लागू करने वाले अफ़सरों  के साथ 1 जून की वीडियो कॉन्फ़्रेंस में बिना किसी लाग-लपेट के निम्नलिखित सिफ़ारिश की थी: “आपको हावी होना होगा। यदि आप हावी नहीं हो पाते हैं, तो आप अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। वे आपके ऊपर से गुज़र रहे हैं, आप लागातर झटके पर झटके खाते हुए दिख रहे हैं।” फिर उन्होंने कथित तौर पर गवर्नरों को डांटा और हड़काते हुए कहा कि यदि आपके पास अधिकार है, तो बिना किसी झिझक के आपको अपने-अपने राज्यों में इस पर विचार करना चाहिए। लेकिन उनका संदेश स्पष्ट था: "हमें सख़्ती के साथ गिरफ्तारी करनी चाहिए हैं, हमें बहुत सख़्त क़दम उठाने चाहिए।”

चूंकि भारत में हाल ही में भारत-अमेरिकी रिश्तों, खास़कर देश के सबसे ऊंचे स्तर पर बैठे लोगों के बीच के रिश्तों के बारे में बहुत चर्चा होती रही है, तो ऐसे में यह जानना जानकारी के लिहाज से ज़रूरी होगा कि आख़िर दोनों देशों के बीच वास्तव में तुलना की भी जा सकती है या नहीं।

क्या यह तुलना उनके नेताओं के आपसी गले लगाने तक ही सीमित है, या ये दोनों नेता बहुसंख्यकवादी राजनीति के चलते सामाजिक सद्भाव सुनिश्चित करने की नाकामियों की होड़ से पैदा हुए हैं; ट्रम्प के मामले में यह होड़ श्वेत वर्चस्ववाद है, तो वहीं भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के मामले में यह आक्रामक हिंदू मर्दवाद है? दोनों राष्ट्रों के बीच की जाने वाली एक ज़्यादा व्यापक तुलना हमारे नज़रिये को धुंधला देने वाले कई रुकावटों को दूर करने में हमारी मदद कर सकती है।

शुरुआत हम इस बात से कर सकते हैं कि हम अपने अतीत के साये में रहकर उसका चाहे जितना भी महिमा गान कर लें, मगर सच्चाई तो यही है कि न तो हम विश्वगुरु (दुनिया का ज्ञान देने वाले) हैं और ना ही हम कोई महाशक्ति हैं। जितना ही ज़्यादा हम अपने प्राचीन "अजूबों" का राग अलापते हैं, उतना ही हम ख़ुद का उपहास उड़ाते हैं। हम जब कभी अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में आते हैं, तो इसकी वजह आमतौर पर ग़लत कारण ही होते हैं।

जॉर्ज फ़्लॉयड प्रकरण ने दुनिया को एक बार फिर अमेरिका के साथ-साथ हमारी ख़ुद की नाकामियों को भी समझने का एक और मौक़ा दे दिया है, इस प्रक्रिया में हम अन्य लोकतांत्रिक समाजों की तरह ही पीड़ित हैं। अंतर्नस्लीय कड़वाहट अगर अमेरिका के लिए एक लानत है, तो भारत के लिए भी अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक संघर्ष किसी शाप से कम नहीं हैं।

इन स्याह समानता को छोड़कर भारत और अमेरिका के बीच और किसी भी तरह की कोई बराबरी नहीं है। भारत की प्रति व्यक्ति आय 2,200 डॉलर है, अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय 65,000 डॉलर है। भारत का जनसंख्या घनत्व 412 प्रति वर्ग किमी है। अमेरिका का जनसंख्या घनत्व 34 है। जीडीपी के हिसाब से बात करें, तो भारत की जीडीपी 2.9 ट्रिलियन डॉलर की है,तो अमेरिकी जीडीपी 21.5 ट्रिलियन डॉलर की है। दोनों देशों के रक्षा ख़र्च क्रमश: 71 बिलियन डॉलर और 732 बिलियन डॉलर है।

इन तमाम भौतिक मापदंडों से अलग, लोकतांत्रिक अनुभव के मामले में भी भारत के पास महज यह 73 साल का अनुभव है, जबकि अमेरिका का लोकतांत्रिक अनुभव 233 का है। और शायद खुलकर साफ़-साफ़ कहा जाय, तो यह भारतीय ही हैं, जो अमेरिका में नौकरी और वहां की नागरिकता हासिल करने के लिए, न कि किसी और कारण से अमेरिका जाने के लिए बेताब रहते हैं। हममें से जो कोई भी भारत आने वाले ग़रीब बांग्लादेशी प्रवासियों का उपहास उन्हें "दीमक" कहते हुए उड़ाते हैं, उन्हें इस पर ग़ौर करना चाहिए।

दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक विरोधाभास भी कम नहीं हैं। 1776 में जब अमेरिकियों ने ब्रिटेन से स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी, तो उस समय वह ब्रिटेन ही था, जो भारतीयों पर अगले 190 साल के लिए आधिपत्य स्थापित करने जा रहा था। प्लासी की लड़ाई अमेरिकी स्वतंत्रता से महज उन्नीस साल पहले ही लड़ी गयी थी। 1787 तक जब अमेरिकी दुनिया में पहला लिखित संविधान तैयार कर रहे थे, उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले ही मैसूर के ख़िलाफ़ दो औपनिवेशिक युद्ध लड़ लिये थे। सदी के अंत तक दो और मुकाबले लड़ने और जीतने थे। आने वाले सौ वर्षों में पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और इसके बाद यूनाइटेड किंगडम को पूरे दक्षिण एशिया पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित करना था। इसी अवधि में अमेरिका ने अपनी संघीय समस्या को एक स्थायी महासंघ के पक्ष में हल कर लिया था।

एक लंबे ऐतिहासिक वृत्तखंड पर अमेरिकी अनुभव बेशक अतुलनीय है। भारत का इतिहास हज़ारों साल का रहा है, जबकि अमेरिकी इतिहास मुश्किल से पांच सौ साल पुराना है। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि संघीय प्रयोग के मामले में अमेरिका के उलट भारत की विविधता अद्भुत और हैरतअंगेज है। यह विविधता पिछले दो हज़ार सालों की बाहरी और आंतरिक दोनों ही प्रवृत्तियों का नतीजा रही है। राजनीतिक वैज्ञानिक, सुसैन और लॉयड रूडोल्फ़ ने भारत को "इलाक़ों का देश" कहा था। इसके ठीक विपरीत, अमेरिका का अनुभव काफ़ी हद तक पश्चिम की ओर विस्तार से फैले अपने बदलते मोर्चे की बदौलत है, यह एक ऐसी परिघटना है, जिसका दुनिया में कोई सानी नहीं है।

संयुक्त राज्य अमेरिका की मुख्यतः एकभाषी होने की हक़ीक़त के मुक़ाबले भारत की भाषाई विविधता भी बदहवास कर देने वाली रही है। अंग्रेज़ी अमेरिका की भाषा है, हालांकि अमेरिका ने अंग्रेज़ी को कभी भी अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में घोषित नहीं किया है। हाल के वर्षों में कुछ राज्यों में स्पेनिश को दूसरी भाषा घोषित किये जाने की मांग ज़रूर उठी है, लेकिन यह सब ऐसे ही है। संयुक्त राज्य अमेरिका के शुरू होने से पहले जर्मन भाषा को पेंसिल्वेनिया की आधिकारिक भाषा घोषित करने की चर्चा थी। लेकिन, यह मांग बहुत दबाव नहीं बना पायी। असल में इस प्रस्ताव ने केवल पेंसिल्वेनिया के जर्मन-भाषियों के बड़े समुदाय को समायोजित करने के लिए सभी सरकारी दस्तावेज़ों के जर्मन अनुवाद के लिए था।

अपने सभी असमानताओं के बीच भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच जो महत्वपूर्ण साझी ख़ासियत है,वह हमें एक दूसरे से तुलना करने और सीखने के लिए मजबूर करती है। असल में समावेशी समाजों के निर्माण को लेकर यह साझी ख़ासियत ही उनकी कमज़ोरी भी है। दोनों ही देश बहुसंख्यकवाद के रोग से पीड़ित हैं और इसके लक्षण बहुत ही ज़्यादा संक्रामक होते जा रहे हैं। अमेरिका में यह लक्षण श्वेत वर्चस्ववाद में व्यक्त हो रहा है; वहीं भारत में यह हिंदुत्ववाद के ज़रिये सामने आ रहा है। अमेरिका में इसका शिकार अफ़्रीकी-अमेरिकी हैं; तो भारत में अनुसूचित जातियां (दलित) और अनुसूचित जनजातियों के साथ-साथ धार्मिक अल्पसंख्यक, ख़ास तौर पर मुसलमान हैं।

कोई शक नहीं कि समस्यायें इनके अपने-अपने संविधानों में नहीं हैं, बल्कि संविधान में तो इस तरह के भेदभाव के ख़िलाफ़ पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं, समस्या उन प्रावधानों में भी नहीं है,जिनमें सकारात्मक कार्रवाई या सकारात्मक तरफ़दारी की बातें की गयी हैं। इसके बजाय, समस्या इन दोनों देशों की नस्लवादी-धार्मिक राजनीति के उस तरीक़े में है, जिसे इस समय अपनाया जा रहा है। मौजूदा वैश्विक रूढ़िवादी प्रधानता ही अपनाये जा रहे इस तरीक़े की खुराक है। इससे छुटकारे का एकमात्र तरीक़ा अब यही है कि दोनों समाजों के उदार तबके (भारत में अब कुछ वर्गों के बीच यह एक अपमानजनक शब्द) सार्वजनिक रूप से बदलाव लाने, ख़ास तौर पर क़ानून और व्यवस्था मशीनरी में संरचनात्मक सुधारों को लेकर दबाव डालने की अपनी लड़ाई को जारी रखें।

अमेरिका में तो सार्वजनिक दबाव अब इस क़दर मजबूत दिखायी देने लगा है कि पुलिस फ़ंडिंग को लेकर गंभीर सवाल पूछे जा रहे हैं। सेना के लिए बेकार हो चुके हथियारों के साथ पुलिस को सुसज्जित किये जाने की मौजूदा हालत सवालों के घेरे में है, क्योंकि इसने अमेरिकी पुलिस को दुनिया का सबसे भारी हथियारबंद पुलिस बल बना दिया है। बड़े संदर्भ में बंदूक लॉबी को वश में किया जाना भी अब इस एजेंडे का हिस्सा है। निश्चित रूप से यह सब अब इस बात पर निर्भर करेगा कि आगे आने वाले राष्ट्रपति चुनाव की बहस में इन मांगों को किस तरह से रखा जाता है और आख़िरकार जीतता कौन है, और जीतने वाला किस तरह के वादे करता है।

भारत में पुलिस सुधार की मांगों का एक लंबा इतिहास रहा है। उन्हें लगातार उन पुलिस आयोग की रिपोर्टों के ज़रिये संस्थागत बनाया जाता रहा है, जिनमें उपचारात्मक सुझावों की कोई कमी नहीं है। लेकिन, किसी एकमुश्त विरोध के बावजूद राजनीतिक उदासीनता हमेशा इसके रास्ते में आड़े आती रही है। 1981 की शुरुआत में ही एक पुलिस आयोग की रिपोर्ट में भारतीय पुलिस बल में आयी सांप्रदायिकता की समस्या की गंभीरता को उजागर कर दिया गया था। 1969 में महाराष्ट्र के भिवंडी, जलगांव और महाड में हुए सांप्रदायिक दंगों की जांच करने वाली उस रिपोर्ट में इन दंगों के दौरान हुए अपराधों की जांच के लिए गठित विशेष जांच दस्तों के ख़िलाफ़ सख्त से सख़्त क़ानून बनाने की बात कही गयी थी। ऐसा पाया गया था कि इन दस्तों ने "एक समुदाय [मुसलमानों] के ख़िलाफ़ आंशिक और पक्षपातपूर्ण तरीक़े से काम किया था।"

वर्षों बाद वरिष्ठ पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय द्वारा किये गये 1999 के एक अध्ययन से पता चला कि दंगे की स्थितियों में पुलिस के हस्तक्षेप पर भारतीय मुसलमानों को बहुत कम भरोसा था; उन्होंने इसके बजाय सेना को प्राथमिकता दी थी। आज के भारत का भी यही सच है। कुछ मायने में यह ख़तरा स्थानीय है, पुलिस बल के सांप्रदायिकरण के साथ-साथ इसके राजनीतिकरण के भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। इस बात को लेकर पर्याप्त संदेह और आशंका है कि इसी तरह की समस्या भारतीय सशस्त्र बलों में भी सामने आ रही है। यह आशंका पूरी तरह सच्चाई में न बदल जाये, इससे भगवान ही बचा सकते हैं।

ऐसे में भारत एक बार फिर उसी बिन्दु पर पहुंच जायेगा, जहां से वापसी मुश्किल होगी। पाकिस्तान का जो अनुभव है,उससे हम अपने लिए एक गंभीर चेतावनी के तौर पर देख सकते है। सत्ता के इस तरह के भगोड़े एकीकरण के ख़िलाफ़ हमारी एकमात्र आशा अब भी सार्वजनिक क्षेत्र में घेरेबंदी के शिकार और मुट्ठी भर वह स्टैंड-अप कॉमेडियन ही हैं,जो बहादुरी के साथ अनैतिक रूप से क्रूर सत्ता के ख़िलाफ़ हास्य सत्य बोलते हैं।

एक बार फिर हम पिछली बातों पर लौटते हैं। तीस साल पहले रॉडने किंग असल में जॉर्ज फ़्लॉयड अग्रगामी था। लॉस एंजिल्स पुलिस बल के हाथों उसकी क्रूरता की ख़बर से सिनसिनाटी, क्लीवलैंड, डेट्रायट और नेवार्क में बड़े पैमाने पर नस्लीय दंगे हुए थे। समकालीन भारत ने इसी तरह से हिंदू-मुस्लिम दंगों का सामना किया है। उत्तर प्रदेश के प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (PAC) और बिहार सैन्य पुलिस (BMP) पर हिंदू दंगाइयों का साथ देने का आरोप लगाया गया है। कई मामलों में तो लगने वाली कर्फ़्यू “तुलनात्मक कर्फ़्यू” निकली, जिसका अर्थ है मुसलमानों का आगे और उत्पीड़न। 1989 के भागलपुर दंगों में पाया गया था कि हिंदू पुलिस ने न केवल हिंसा को भड़काया था, बल्कि वास्तव में इसमें भाग भी लिया था। कथित तौर पर उन्होंने अपने मुस्लिम सहयोगियों के परिवारों को भी नहीं छोड़ा था।

हालात अब भी बदतर हैं, जैसा कि इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडे ने बिहार के मामले में उल्लेख करते हुए कहा है कि भविष्य में किसी भी जांच को स्थायी रूप से नाकाम करने के लिए पुलिस रिकॉर्ड को सावधानीपूर्वक नष्ट कर दिया जाता है। भारतीय राजनीति की मौजूदा सांप्रदायिक हक़ीक़त को देखते हुए किसी को इस बात से आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि पुलिस अगर फ़रवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों की जांच करती है, तो यह ढकोसले से ज़्यादा कुछ नहीं होगा।

हम यह भी नहीं भूलें कि ट्रंप की आधिकारिक भारत यात्रा के बीच में हुई भीषण आगज़नी और 50 से ज़्यादा लोगों की गयी चली जाने के बाद भी डोनाल्ड ट्रम्प के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। लेकिन, अब भी ट्रंप अंतर्नस्लीय सौहार्द को लेकर किसी तरह की माफ़ी मांगने वाले नहीं हैं, चाहे वह सौहार्द्र उनके अपने ही देश में टूटा-बिखरा हो या किसी और देश में उस सौहार्द को चोट पहुंची हो।

लेखक नई दिल्ली स्थिति सोशल साइंस इंस्टिट्युशन में वरिष्ठ फेलो हैं। वह इससे पहले ICSSR नेशनल फ़ेलो थे और जेएनयू में साउथ एशियन स्टडीज के प्रोफ़ेसर थे। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को भी आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-

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