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आईएलओ फाॅर सोशल जस्टिस’ : नई परिस्थिति में श्रम अधिकार और काम का भविष्य

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन शताब्दी वर्ष पर ‘आईएलओ फाॅर सोशल जस्टिस’ नाम से विशेष ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। यह विश्व भर में श्रम न्याय-विज्ञान (लेबर जूरिसप्रूडेंस) के विकासक्रम पर एक अनोखा संकलन है।
ILO
फोटो साभार : modern diplomacy

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने इस साल सौ वर्ष पूरे किये। उसने इस अवसर पर 1034 पृष्ठ का संग्रहणीय ग्रन्थ प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक है ‘आईएलओ-लाॅ फाॅर सोशल जस्टिस’। यह विश्व भर में श्रम न्याय-विज्ञान (लेबर जूरिसप्रूडेंस) के विकासक्रम पर एक अनोखा संकलन है। इस द्विभाषीय ग्रन्थ में कुल 48 बेहतरीन लेख हैं-40 अंग्रेज़ी में और 8 फ्रेंच में, जो 58 ऐसे लेखकों द्वारा लिखे गए हैं जो श्रम शोधकर्ता हैं, कानूनविद हैं व अलग-अलग सरकारों या ओईसीडी अथवा आईएलओ में श्रम अधिकारी हैं।

यद्यपि लेखों का फोकस अंतर्राष्ट्रीय श्रम कानून और उसकी बारीकियों पर है, इन मुद्दों को सामाजिक न्याय और श्रम आंदोलन के संकट के संदर्भ में उठाया गया है, और इसके लिए परोक्ष रूप से विश्वव्यापी (ग्लोबल) दक्षिणपंथी उभार को ज़िम्मेदार माना गया है।

कुछ प्रमुख विषय, जिनपर चर्चा की गई है इस प्रकार हैं-नई परिस्थिति में श्रम अधिकार, सम्मानजनक काम, त्रिपक्षीयता (ट्राईपार्टिज़्म) को मजबूत करना, श्रम ट्रिब्यूनलों जैसी संस्थाओं की स्वतंत्रता का सवाल, महिला श्रमिकों के हक़, वैश्वीकरण के दौर में ग्लोबल सप्लाई चेन में श्रम के मापदंड सुनिश्चित करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय श्रम संहिता और सबसे महत्वपूर्ण, स्वयं काम का भविष्य।

आईएलओ का फ्रेमवर्क तीन प्रमुख प्रस्तावों में निहित हैः डिक्लरेशन ऑफ फिलडेल्फिया 1944, डिक्लरेशन ऑन फन्डामेंटल प्रिंसिपल्स ऐण्ड राइट्स ऐट वर्क 1998 और डिक्लरेशन ऑन सोशल जस्टिस फाॅर अ फेयर ग्लोबलाइज़ेशन। पर विडम्बना यह है कि इन तीनों में से किसी में भी हड़ताल के अधिकार का उल्लेख नहीं है। जैसा कि जैनिस आर. बेलेस ने अपने लेख में दर्शाया है त्रिपक्षीयता आईएलओ के लिए विश्वास से जुड़ा मामला रहा है, और आईएलओ मालिक व श्रमिक प्रतिनिधियों की सर्वसम्मति के बिना कुछ भी नहीं करता।

लेख में आगे कहा गया है कि यद्यपि उक्त तीनों प्रस्तावों में प्रत्यक्ष रूप से हड़ताल का अधिकार उल्लिखित नहीं है, वह कन्वेशन 87 में अंतरनिहित है। पर 2012 के अंतराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में मालिकों की ओर से आपत्ति उठाई गई और वे दबाव डालकर आईएलओ को मनवाने में सफल रहे कि हड़ताल के अधिकार को कन्वेंशन 87 में अंतरनिहित नहीं माना जा सकता; यही स्थिति आज भी बरकरार है। आईएलओ की भूमिका अधिकतर सलाहकार की रही है और उसके कोई भी कन्वेंशन सदस्य-सरकारों पर बाध्यकारी नहीं होते।

ऐसा इसलिये था कि आईएलओ को वर्ग संघर्ष के हथियार के रूप में नहीं देखा गया था, बल्कि वर्ग शांति के यंत्र के रूप में ही देखा-समझा गया था। यह प्रथम विश्व युद्ध के अंत में, पेरिस शांति सम्मेलन में, वर्सेलीज़ शांति संधि 1919 के जरिये जन्मा था। यह दौर था रूस और जर्मनी की क्रांतियों सहित तमाम क्रांतियों का दौर। अपने सीमित फ्रेमवर्क और संकीर्ण एजेंडा के बावजूद आईएलओ तमाम उथल-पुथल के दौर में भी श्रमिक हितों को आगे बढ़ाने की कोशिश करता रहा। 

अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि दक्षिणपंथ के विश्वव्यापी लहर के संदर्भ में उसका विशेष एजेंडा क्या होगा? यह अभी तक स्पष्ट नहीं है, और श्रमिकों के अधिकारों पर दक्षिणपंथी हमले को उक्त ग्रन्थ के विषयवस्तु में प्रमुखता के साथ उल्लेख नहीं किया गया।

और, अंतर्राष्ट्रीय श्रम आंदोलन में उभरते मुद्दों के बारे में यहां क्या कहा जा रहा? आईएलओ में श्रम मापदण्डों पर विशेषज्ञ, मारिया मार्टा ट्रावीसो, तथा संगठन के सामाजिक सुरक्षा नीति विशेषज्ञ क्रोम मार्कोव कहते हैं, ‘‘तकनीकी विकास के साथ काम सचमुच सरहदों को पार कर रहा है, देशों के बाहर संभावित श्रमिकों तक पहुंच रहा है, यहां तक कि सीधे उनके घरों के आरामदेह वातावरण तक भी।’’ वे कहते हैं कि इसकी वजह से भारी पैमाने पर नौकरी जाने का खतरा बढ़ गया है। पर वे आईएलओ के निर्देशक की बात भी दोहराते हैं कि, ‘‘हमें प्रौद्योगिकीय निर्णायकतावाद (टेक्नोलाॅजिकल डिटर्मिनिज़्म) के जाल में नहीं फंसना चाहिये। सरकारें, श्रमिक और मालिक ही वे लोग हैं जो काम के भविष्य को तय करेंगे।’’

वे आशान्वित हैं कि नई तकनीक का उपयोग सम्मानजनक काम निर्मित करने के लिए हो सकता है और ब्लाॅकचेन व आर्टिफिसियल इंटेलीजेंस (ए आई) तथा अन्य डिजिटल तकनीक न्यूनतम वेतन भुग्तान की गारंटी करने में मददगार साबित होंगे; साथ ही वे प्रवासी श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने या डिजिटल प्लेटफार्म कार्य करने वालों की सामाजिक सुरक्षा गारंटी करने में भी मददगार होंगे।

2018 में एक और आईएलओ रिपोर्ट ‘वर्ल्ड एम्प्लाॅयमेंट ऐंड सोशल आउटलुक’ प्रकाशित हुई, जिसके अनुसार ग्लोबल आर्थिक मंदी के कारण जो नौकरियां गईं, उनकी वजह से विकासशील देशों में बेरोज़गारी 2018 में 4 लाख से बढ़कर 2019 में 12 लाख तक होगी। आश्चर्य है कि लेखक तकनीकी परिवर्तन के कारण रोजगार पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभाव के बारे में चर्चा ही नहीं करते।

नेशनल लाॅ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी में श्रम कानून के अध्येता, बाबू मैथ्यू कहते हैं, ‘‘तमाम विकासशील देशों के बीच, भारत में श्रम संबंधी न्याय-विज्ञान का विकास, खासकर सामाजिक सुरक्षा और वेतन जैसे विषयों पर, बहुत ही विलक्षण रहा है। यह गलती से नहीं हुआ बल्कि नेहरू-माॅडल के सामाजिक-जनवाद की अवधारणा का फल रहा, जिसकी वजह से ईएसआई और ईपीएफ जैसे सामाजिक सुरक्षा के कदम लाए गए।

इन दोनों में आईएलओ के सामाजिक सुरक्षा फ्रेमवर्क के 9 पहलू समाहित हैं। और यह भी उल्लेखनीय है कि ईएसआई और ईपीएफ दोनों सरकार के संसाधनों पर निर्भर न होकर, यानि आत्मनिर्भर ढंग से लाभ में चल रहे हैं। सामाजिक सुरक्षा पर मोदी के हमलों से भी ये प्रभावित नहीं हुए, हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन्हें संगठित श्रमिकों तक सीमित रखा गया और असंगठित क्षेत्र को पूरी तरह इनसे वंचित रखा गया। केंद्रीय बोर्डों को छोड़ दिया जाए तो श्रम कानूनों को बेहतर बनाने और समय के अनुसार संशोधित करने के मामले में ट्रेड यूनियनों की भूमिका कमज़ोर और नगण्य रही है।’’

बाबू मैथ्यू ने समीक्षा करते हुए कहा कि काम का स्वरूप उभरते परिदृष्य में जैसे बदल रहा है, प्रस्तावित सामाजिक सुरक्षा संहिता गिग वर्कर को भी बाहर रखता है। यानी इसमें डिजिटल अर्थव्यवस्था में काम करने वाले अनाम, अदृष्य प्लेटफाॅर्म वर्कर, या ज़ोमैटो जैसे ई-व्यवसाय के डिलिवरी बाॅयज़, अथवा उबर-ओला जैसे श्रमिक भी संहिता से बाहर हैं। ग्लोबल टेक्नोलॉजी कम्पनियां और ऐमेजा़ॅन टर्क जैसी प्लेटफाॅर्म वर्क कराने वाली कम्पनियां हज़ारों तरकीब इजाद कर चुकी हैं जिससे काम के बदले पेमेंट करते हुए भी वे काम करने वाले को श्रमिक का दर्ज़ा नहीं देतीं। 

इन्होंने ऐसी वेतन अराजकता को जन्म दिया है कि कानून द्वारा किसी भी प्रकार के नियमितीकरण को वे बाईपास कर सकते हैं। केवल कर्नाटक सरकार ने कानूनी फ्रेमवर्क तैयार किया है, पर इसमें काफी सुधार की गुंजाइश है। श्रमिक आन्दोलन और टेेक-वर्करों के संगठनकर्ताओं को बहुत कुछ करना बाकी है, ताकि वे मोदी के दौर के हिसाब से नेहरू माॅडल के सामाजिक जनवादी श्रम न्याय-विज्ञान को समयानुकूल बना सकें।

(लेखक श्रम मामलों के जानकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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