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‘INDIA’ की बैठक: लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई में आज का दिन बेहद अहम

INDIA गठबंधन को नरम हिंदुत्व के अवसरवाद को पूरी तरह ख़ारिज करते हुए लोककल्याण एवं लोकतांत्रिक राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के एक  सुसंगत सेकुलर प्लेटफार्म के बतौर सामने आना होगा।
india alliance
फाइल फ़ोटो।

पूरे देश की निगाहें आज दिल्ली में हो रही INDIA गठबंधन की बैठक की ओर लगी हुई हैं।

31 अगस्त-1 सितम्बर को मुम्बई में हुई उत्साहपूर्ण बैठक के साढ़े तीन महीने के लंबे अंतराल के बाद होने जा रही यह बैठक 3 राज्यों में भाजपा की अप्रत्याशित जीत के साये में हो रही है। सत्तापक्ष ने आक्रामक राजनीतिक offensive और मनोवैज्ञानिक प्रचार-युद्ध छेड़ दिया है। उसकी आक्रामकता का आलम यह है कि कल, सोमवार, 18 दिसंबर को एक अभूतपूर्व घटनाक्रम में विपक्ष के 78 सांसदों को सदन से निलंबित कर दिया गया।( अब तक इस प्रकरण में कुल 92 सांसद निलम्बित हो चुके हैं! )

INDIA की बैठक के ठीक पहले विपक्ष को provoke करने की इस कार्रवाई के पीछे के असली मन्तव्य का खुलासा होना बाकी है। क्या यह आज की बैठक के मूल एजेंडा को derail करने का खेल है ? देखना है विपक्ष इससे कैसे निपटता है।

जाहिर है देश का राजनीतिक माहौल पूरी तरह बदल चुका है। आम चुनाव सामने हैं और परिस्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण है। आज की बैठक में INDIA गठबंधन के नेताओं को इस माहौल को बदलने और जोरदार राजनीतिक प्रत्याक्रमण छेड़ने के लिये सीट बंटवारे से लेकर साझा कार्यक्रम-एजेंडा-नारे और संयुक्त अभियान के  ठोस रोडमैप का एलान करना होगा।

कई विश्लेषकों का मानना है कि भले ही विधानसभा चुनावों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस-भाजपा के बीच ही था, पर अगर इन्हें INDIA के बैनर को आगे कर के लड़ा गया होता-तीनों चुनावी राज्यों में छोटे बड़े जो भी दल साथ आ सकते थे, उनके साथ चुनावी तालमेल बनाया गया होता, भोपाल में होने वाली INDIA की रैली कैंसिल न की गई होती, बल्कि वैसी रैलियां और संयुक्त चुनाव-अभियान सभी चुनावी राज्यों में हुआ होता, तो चुनावों का नतीजा शायद अलग होता।

यह गौरतलब है कि तीनों राज्यों में कांग्रेस के मतों की कीमत पर भाजपा नहीं बढ़ी है। कांग्रेस के वोट तो पिछले चुनाव के 40% के आसपास ही बरकरार रहे, पर ' अन्य दलों " के मत भाजपा समेट ले गयी और अपना मत प्रतिशत तथा सीटें बढ़ाने में सफल हुई।

प्रो. प्रभात पटनायक ने नोट किया है कि, ' इन चुनावों नतीजों का कांग्रेस के लिए बड़ा सबक यह है कि वह INDIA के पार्टनर्स के साथ अपने गठजोड़ को सुदृढ़ करे। अगर उसने ऐसा किया होता तो ' अन्य " को मिले मतों का एक हिस्सा भाजपा की बजाय गैर-भाजपा गठबंधन को मिला होता। "

राजस्थान जहाँ शहरी रोजगार गारंटी और चिरंजीवी जैसी बुनियादी महत्व की योजनाओं के बल पर कांग्रेस एन्टी-इनकम्बेंसी को मात देते हुए अपना वोट पहले की तुलना में बढ़ाने में सफल हुई थी, और भाजपा से मात्र 2% वोट से पिछड़ गयी, अगर आदिवासी दलों, CPIM तथा हनुमान बेनीवाल की पार्टी RLP से, जिसका UP के दलित नेता चन्द्रशेखर आज़ाद ने भी समर्थन किया था, कांग्रेस तालमेल कर पाती, तो वहां गहलोत की पुनर्वापसी हो सकती थी।

मध्यप्रदेश में तालमेल करना तो दूर, कमलनाथ ने घोर अहंकार और उपेक्षा-भाव से जिस तरह ' अखिलेश-वखिलेश' बोला, उसका बेहद नुकसानदेह राजनीतिक सन्देश गया। उससे हुए नुकसान का आकलन वहां सपा को मिले वोटों से नहीं हो सकता। यह भी सम्भव है कि UP से लगी चम्बल-ग्वालियर पट्टी में कांग्रेस-सपा के एक साथ लड़ने पर जो वोट गठबंधन को मिलता, वह कमलनाथ के अपमानजनक व्यवहार से क्षुब्ध होकर भाजपा में चला गया हो।

नरम हिंदुत्व की लाइन pursue करने को लेकर कमलनाथ इतने desperate थे कि सनातन पर  DMK के एक बयान से डर कर उन्होंने भोपाल में होने वाली INDIA की रैली ही रद्द करवा दी। सच्चाई यह है कि मोदी जिस तरह स्थानीय नेताओं को दरकिनार करके अपने चेहरे और योजनाओं के नाम पर चुनाव लड़ रहे थे, उसमें  अगर INDIA गठबंधन के नेता भी मैदान में एक साथ उतरते तो लड़ाई  अधिक राजनीतिक और कांटे की होती, विपक्ष मोदी-भाजपा को घेरने में अधिक सफल होता।

चुनावों का परिणाम जो भी होता, INDIA का प्रोजेक्शन और राजनीतिक अभियान की निरंतरता बनी रहती और भाजपा तथा गोदी मीडिया को INDIA के बिखराव का नैरेटिव बनाने का मौका न मिलता।

जाहिर है मुख्य विपक्षी दल के कतिपय नेताओं की राजनीतिक संकीर्णता और "चालाकी" की विपक्ष को भारी कीमत चुकानी पड़ी है।

दरअसल, कांग्रेस के नेता छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में अपने नरम हिंदुत्व की रणनीति को लेकर पूरी तरह निश्चिन्त थे, हिंदुत्व से मुकाबले के लिए उसे सबसे सटीक मॉडल समझ रहे थे। बहरहाल वह रणनीति औंधे मुँह धराशायी हो चुकी है। तमाम विश्लेषक pragmatic ढंग से इसकी तारीफ करते रहते थे कि कांग्रेस पर भाजपा जो ' हिन्दू विरोधी ' होने का टैग लगाती है, उसकी काट के लिए यह tactics बिल्कुल सही है। जिस छत्तीसगढ़ में भाजपा के 15 साल के राज में कभी UP जैसी उग्र साम्प्रदायिक राजनीति नहीं हुई थी, वहाँ बघेल सरकार के राम पथ गमन और कौशल्या मन्दिर जैसे demonstrative हिन्दू धार्मिक कार्यकलाप लगातार चर्चा में रहे।

हिंदुत्व की काट के मुग़ालते में बघेल दरअसल संघ-भाजपा की जमीन ही मजबूत कर रहे थे। धीरे धीरे हिंदुत्ववादी संगठनों ने महौल गरमाना शुरू किया। रायपुर में hate speech का एक बड़ा मामला सामने आया था। बात वहीं तक नहीं रही। जब ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर हमले हुए, तब क्या आम हिंदुओं के बीच अपनी goodwill का इस्तेमाल करके बघेल सरकार अल्पसंख्यकों के पक्ष में खड़ी हुई? जी नहीं, उसने ऐसा करने से कन्नी काट ली। यही नरम हिंदुत्व की तार्किक परिणति थी। इसी तरह मध्यप्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान कमलनाथ ने तब हद ही कर दी जब भाजपा की मन्दिर पिच का मुकाबला करने के लिए उन्होंने ताला खुलवाने और मन्दिर-निर्माण का श्रेय लेने की कोशिश की।

दरअसल, हिंदुत्व का मूल तर्क यह नहीं है कि विपक्ष हिन्दू-विरोधी है, बल्कि यह है कि वह 'हिन्दू-हित की रक्षा' के लिए संघ-भाजपा की तरह अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमलावर क्यों नहीं है! इसी को वे तुष्टीकरण कहते हैं ! 

अर्थात इस पिच पर भाजपा का मुकाबला आप तभी कर पाएंगे जब अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हमले में आप उनसे प्रतिस्पर्धा कर सकें ! 

अगर आप यह नहीं कर सकते तो चाहे जितना हिन्दू-हिन्दू कर लें, आप अपना भला करने की बजाय भाजपा की सेवा कर रहे है !

यह गौरतलब है कि नरम हिंदुत्व पर अमल करते बघेल और कमलनाथ की तुलना में गहलोत अपनी उल्लेखनीय जनकल्याण योजनाओं के बल पर मोदी द्वारा कन्हैयालाल प्रकरण के बहाने छेड़े गए तीखे ध्रुवीकरण के अभियान का अधिक कारगर ढंग से मुकाबला कर पाए।

जाहिर है, INDIA गठबंधन को नरम हिंदुत्व के अवसरवाद को पूरी तरह खारिज करते हुए लोककल्याण एवं लोकतांत्रिक राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के एक  सुसंगत सेकुलर प्लेटफार्म के बतौर सामने आना होगा।

इन चुनावों ने यह भी साबित किया कि एक ऐसे दौर में जब पूरा समाज भारी बेरोजगारी, सरकारी नौकरियों व गुणवत्तापूर्ण सस्ती सरकारी शिक्षा के अवसरों के खात्मे, अंधाधुंध निजीकरण, महँगाई, चौतरफा आर्थिक तबाही से बेहाल है, उस समय इनके समाधान के लिए विपक्ष को ठोस कार्यक्रम और रोडमैप लेकर सामने आना चाहिए। 

इसके बिना जाति जनगणना का एकसूत्रीय नारा हाशिये के तबकों को भी convincing और आकर्षक नहीं लगा। तीनों राज्यों में ओबीसी के बीच भाजपा को कांग्रेस की तुलना में 10 से 20% तक अधिक मत मिले हैं। यह तब हुआ जब राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के ओबीसी मुख्यमंत्री थे और राहुल गांधी जाति-जनगणना और ओबीसी आरक्षण के सवाल को अपना एक प्रमुख चुनावी plank बनाये हुए थे।

दरअसल, जाति जनगणना तथा सुसंगत सामाजिक न्याय का सवाल बेशक आवश्यक है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। ओबीसी समुदाय मूलतः किसान-मेहनतकश समुदाय है। नव उदारवादी अर्थनीति ने जिस तरह की तबाही मचाई है, उनकी विराट बहुसंख्या उसकी चपेट में है। आखिर बिहार में जाति जनगणना के आधार पर जो 36% परिवार 6000 मासिक (गरीबी रेखा के नीचे ) और 63% परिवार 10 हजार की बेहद कम मासिक आय से भी कम पर जीने को मजबूर हैं, उसमें दलितों के अलावा  पिछड़ों की ही तो सबसे बड़ी आबादी होगी। यही हाल सभी राज्यों में है।

जाहिर है महज जाति-जनगणना और आरक्षण का नारा अब मंडल के पुराने दौर की तरह पिछड़ों को आकर्षित नहीं कर सकता, विशेषकर ऐसे समय में जब सरकारी नौकरियां और सरकारी शिक्षा ही खत्म हो रही है। उन्हें चाहिए रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य, चौतरफा कृषि विकास की गारंटी, अपने आर्थिक विकास का ठोस आश्वासन।

दरअसल, मोदी राज में अर्थव्यवस्था का जो चौतरफ़ा ध्वंस हुआ है, उससे समाज के हर वर्ग के मेहनतकश तबके-किसान, कर्मचारी-मजदूर, छोटे व्यापारी, छात्र-युवा सब गहरे संकट में हैं। द हिन्दू की रिपोर्ट के अनुसार संसद के अंदर और बाहर पीली गैस छोड़ने और प्रदर्शन करने वाले चारों युवा या तो बेरोजगार थे या अपने रोजगार को लेकर परेशान थे। उन्होंने पुलिस को बताया कि वे बेरोजगारी से निपटने में सरकार की विफलता के खिलाफ अपना विरोध जताना चाहते थे। कथित 'मास्टर-माइंड' बताये जा रहे ललित झा के पुजारी पिता ने गुहार लगाई है, " बेरोजगारी के खिलाफ आवाज उठाना राष्ट्रद्रोह नहीं है। मेरा बेटा निर्दोष है। "

आज देश में रोजगार के सवाल पर स्थिति कितनी विस्फोटक है, इसे इस घटनाक्रम से समझा जा सकता है।

प्रो. प्रभात पटनायक के शब्दों में , ' INDIA गठबंधन को अपने संश्रय को सुदृढ़ करने के साथ जनता की जीवन स्थितियों पर फोकस करते हुए अधिक सुस्पष्ठ विचारधारात्मक स्टैंड लेना होगा।....उसे एक ऐसा सर्वसमावेशी, व्यापक (overarching ) एजेंडा लेकर आना होगा जो जनता को galvanise कर सके, जैसे कभी इंदिरा गाँधी ने अपने ' गरीबी हटाओ '  नारे से किया था।...ऐसा एक नारा, मसलन सबके लिए मूलभूत आर्थिक अधिकारों को मौलिक संवैधानिक अधिकार बनाने का सवाल-पूरे समाज पर असर डालेगा। "

क्या विपक्ष जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा? हमारे लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई में आज का दिन बेहद अहम है। INDIA की आज की बैठक से निकलने वाला सन्देश बहुत दूर तक जाएगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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