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श्रम मोलभावों के लिए आईआरसी एक ग़ैरज़रूरी कानून है

औद्योगिक संबंध संहिता (इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड-आईआरसी) औद्योगिक प्रतिष्ठानों द्वारा मोलभाव के लिए बनाई गई परिषदों/संघों और कर्मचारियों के बीच सेवा-शर्तों से संबंधित बातचीत/मोलभावों के ऊपर नियम बना रहा है, जबकि इसकी कोई ज़रूरत ही नहीं थी।
श्रम मोलभावों के लिए आईआरसी एक ग़ैरज़रूरी कानून है

औद्योगिक संबंध संहिता (इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड-आईआरसी) औद्योगिक प्रतिष्ठानों द्वारा मोलभाव के लिए बनाई गई परिषदों/संघों और कर्मचारियों के बीच सेवा-शर्तों से संबंधित बातचीत/मोलभावों के ऊपर नियम बना रहा है, जबकि इसकी कोई जरूरत ही नहीं थी। श्रम सुधार की नई संहिता पर दो हिस्सों वाली श्रंखला के इस आखिरी हिस्से में के आर श्याम सुंदर बता रहे हैं कि कैसे इस संहिता ने राज्यों को अपने नियम बनाने की छूट देकर पूरे मामले को और बदतर बना दिया है। 

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आईआरसी का नियोक्ता और उससे मोलभाव करने वाले संघ/परिषद के बीच होने वाले मोलभाव से जुड़े मुद्दों पर नियम (धारा 14(1)) बनाने की कोशिश गैरजरूरी है। पहले की तरह, यह नियम बनाने की शक्ति वक़्त वास्तविकताओं की जरूरत के हिसाब से संबंधित पक्षों पर छोड़ दी जानी चाहिए थी। 

बदतर यह कि संहिता में "मामलों" की व्याख्या, "नियम बनाने वाली कानूनी प्रक्रिया" पर छोड़ दी गई है। मतलब अब हमारे पास केंद्रीय नियम हैं, जो नियोक्ता और कर्मचारियों के मोलभाव पर 9 विशेष और एक विविध मामले की व्याख्या करते हैं। नतीज़तन राज्य सरकारों ने इस विषय में व्यापक व्याख्या की है। 

केंद्र का दायरा: केंद्र ने इन "मामलों" को मोलभाव के लिए सूचीबद्ध किया है। 1) कामग़ारों के वर्ग और पदक्रम का वर्गीकरण 2) किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान में लागू आदेशों के संबंध में नियोक्ता द्वारा जारी किए गए आदेश 3) कामग़ारों का भत्ता, जिसमें उनकी भत्ता अवधि, बोनस, बढ़ोत्तरी, छूट या विशेषाधिकार, मुआवज़ा और दूसरे भत्ते शामिल हैं। 4) काम के घंटे और आराम के दिन, एक हफ़्ते में काम के दिन, आराम के दिनों में अंतर, शिफ्ट का काम 5) भत्ते के साथ अवकाश और छुट्टियां 6) पदोन्नति औऱ हस्तांतरण नीति व अनुशासनात्मक प्रक्रियाएं 7) कामग़ारों के लिए आवास आवंटन नीति 8) सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम की जगह का स्तर 9) ऐसे मामले जो सेवा की स्थितियों, मौजूदा उपबंधों में शामिल नहीं की गईं रोज़गार की शर्तों से संबंधित हैं 10) कोई भी दूसरा मामला जिसके ऊपर कर्मचारी और मोलभाव करने वाले संघ या परिषद के बीच सहमति बनी है। 

बिहार: औद्योगिक ईकाई के संघ या परिषद "रोज़गार या कामगारों की स्थिति से जुड़े मुद्दे पर मोलभाव कर सकता है।"

गुजरात: राज्य ने औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में दी गई "औद्योगिक विवाद" की परिभाषा को दोहराया है: "... नियोक्ता और कर्मचारियों के बीच किसी तरह का विवाद या मतांतर, जो नियुक्ति, गैर नियुक्ति, सेवा शर्तों या श्रमिकों की स्थितियों से संबंधित हैं,... उसमें वह विवाद शामिल हैं, जो संबंधित कर्मचारी के निलंबन, छंटनी और मुक्ति से संबंधित हैं।"

झारखंड: मामलों में शामिल हैं- 1) सेवा शर्तें 2) भत्ते 3) काम के घंटे 4) ड्यूटी शिफ्ट 5) बोनस 6) छुट्टी 7) सुरक्षा 8) कल्याण 9) पदोन्नति 10) वेतन बढ़ोत्तरी 11) ऐसे मामले जो प्रतिष्ठान के किसी कामग़ार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से जुड़े हैं। 

कर्नाटक: औद्योगिक प्रतिष्ठान की परिषद इन मामलों पर कर्मचारियों के साथ विमर्श कर सकती है 1) व्यक्तिगत कर्मचारी को हटाने या छंटनी का फैसला 2) भत्ते, भुगतान के तरीके और उसकी अवधि 3) मुआवज़ा और दूसरे भत्ते 4) काम के घंटे और आराम का अंतराल 5) भत्तों के साथ छुट्टियां और अवकाश 6) शिफ्ट में काम 7) अनुशासनात्मक प्रक्रियाएं 8) ऐसा कोई भी मामला जिसके ऊपर संबंधित पक्षों द्वारा सहमति जताई गई हो। 

मध्य प्रदेश: मामलों में शामिल हैं- 1) आईआरसी की तीसरी सूची में शामिल विषय (इनमें यह चीजें शामिल हैं- (1) भत्ते, भुगतान की अवधि और तरीका (2) संबंधित समय में लागू किसी नियम के तहत किसी कर्मचारी के पेंशन कोष, प्रॉविडेंट फंड या दूसरे कल्याण कोष में नियोक्ता द्वारा ज़मा की जाने वाली राशि, (3) मुआवज़ा और दूसरे भत्ते (4) काम के घंटे और आराम का अंतराल (5) भत्तों के साथ छुट्टियां और अवकाश (6) मौजूदा आदेशों से इतर, शिफ्ट के काम करने की प्रक्रिया में बदलाव या नई शुरुआत या खात्मा (7) पदक्रम का वर्गीकरण (8) पहले से चले आ रही किसी छूट, विशेषाधिकार का खात्मा या उसमें बदलाव (9) अनुशासन से संबंधित नए नियम या मौजूदा नियमों कुछ बदलाव (10) संयंत्र या तकनीक में सुधार, स्तरीकरण, जिससे कामग़ारों में छंटनी की जाए (11) कर्मचारियों की संख्या में बढ़ोत्तरी या कमी (अनौपचारिक कर्मचारियों को छोड़कर))... 2) कर्मचारियों का निलंबन, मुक्ति या नौकरी से निकाला जाना 3) हड़ताल या लॉकआउट 4) कामग़ारों की छंटनी और बंद।

ओडिशा: यहां इन मामलों पर नियोक्ता और कर्मचारी आपसी समझौते के तहत फैसला ले सकते हैं 1) पदानुक्रम और वर्ग के हिसाब से वर्गीकरण 2) मौजूदा आदेश के तहत नियोक्ता द्वारा जारी किया गया कोई आदेश 3) भत्ते, जिसमें भुगतान की अवधि और तरीका शामिल है 4) सामाजिक सुरक्षा और कल्याण योजनाओं में बेहतरी 5) काम के घंटे, आराम का अंतराल, आराम के दिन, शिफ्ट का काम 6) भत्तों के साथ अवकाश और छुट्टियां 7) कामग़ारों की छंटनी, मुक्ति, निलंबन, पुनर्नियुक्ति या छंटनी किए गए कर्मचारी को राहत सहायता 8) आवास नीति का निर्धारण 9) संयंत्र की सुरक्षा, बेहतरी, स्तरीकरण और नई तकनीक को शामिल करने से संबंधित फ़ैसले 10) कोई भी ऐसा मामला, जो काम की स्थितियों, सेवा शर्तों और सेवा की स्थितियों से संबंधित हो, जिसे ऊपर की सूची में शामिल ना किया गया हो।

उत्तराखंड: औद्योगिक प्रतिष्ठान की ईकाई, कर्मचारियों के साथ समझौतों के तहत इन मामलों पर फ़ैसले ले सकती है, "सेवा शर्तों से संबंधित सभी मामले और कामग़ारों की ऐसी मांग, जिसके ऊपर पंजीकृत ट्रेड यूनियन ना होने की स्थिति में कुल श्रमशक्ति के 20 फ़ीससदी हिस्से ने हस्ताक्षर किए हों या ट्रेड यूनियन होने की स्थिति में इन मांगों को कार्यकारी समिति द्वारा प्रतिष्ठान के सामने रखा गया हो।"

उत्तर प्रदेश: यहां "औद्योगिक प्रतिष्ठान के संघ या परिषद को संहिता के प्रावधानों के तहत, ऐसे किसी भी मामले पर फ़ैसले लेने का अधिकार है, जो एक से ज़्यादा कर्मचारियों को प्रभावित कर रहा हो।" मतलब यहां "व्यक्तिगत विवाद" के मुद्दे जैसे, पदोन्नती, स्थानांतरण, निलंबन, छंटनी, निकासी समेत दूसरे विषयों को शामिल नहीं किया गया है और सिर्फ़ सामूहिक मुद्दों को लिया गया है। अब तक यह साफ़ नहीं है कि आईआरसी में कौन से प्रावधान किसी "मुद्दे" पर मोलभाव/बातचीत से संबंधित हैं। 

पंजाब में "मामलों" पर मोलभाव से संबंधित उपबंध का प्रवाधन नहीं है, वहीं दूसरे राज्यों में परेशान करने वाले बदलाव हैं, भले ही इन राज्यों को इन मामलों पर अपने हिसाब से शर्तें तय करने की छूट मिली हुई है।

कानून बनाने वालों ने मोलभाव, हड़ताल और लॉकआउट जैसे सामूहिक संस्थानों, "सामूहिक मोलभाव के क्षेत्र की व्यापकता को बांधकर" औद्योगिक संबंधों की प्रक्रिया के साथ बहुत अन्याय किया है।

श्रम कानून सुधार का पूरा विमर्श ही इस तर्क पर गढ़ा गया था कि श्रम कामून, बहुत ज़्यादा कठोर हैं, जिनके चलते बाज़ार की ताकतों के मुक्त काम करने में बहुत सारी बाधाएं आती हैं और नियोक्ता की स्वतंत्रता कम होती है। आईआरसी ने भी यही किया है। "अन्य मामले" वाले उपबंध से निश्चित तौर पर नियोक्ता और कर्मचारियों की तरफ़ से मुकदमेबाजी में इज़ाफा होगा। इस कानूनी पृष्ठभूमि में औद्योगिक संबंध बदतर ही होंगे। ऊपर से उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में संक्षिप्त या अस्पष्ट कानूनी व्याख्याओं के चलते स्थिति और भी खराब हुई है। 

सुविधाएं

बिहार (धारा 16(2)) और उत्तराखंड (16(7)) के नियम कहते हैं कि नियोक्ता को मोलभाव करने वाली प्रतिष्ठान की परिषद या संघ को "युक्तियुक्त/पर्याप्त जगह देनी चाहिए।" उत्तर प्रदेश के नियम कहते हैं कि परिषद/संघ को दी जाने वाली सुविधाएं, सरकार द्वारा सामान्य या विशेष आदेश जारी कर संसूचित की जाएंगी। गुजरात के नियम कहते हैं कि परिषद या संघ को दी जाने वाली सुविधाएं मान्यता प्राप्त यूनियनों और नियोक्ताओं के बीच आपस में तय किए जाएंगे। (नियम 64)

टेबल 1 में नियोक्ता द्वारा इन मोलभाव करने वाली परिषदों या संघों को दी जाने वाली सुविधाओं की तुलना की गई है।

कर्नाटक और मध्य प्रदेश यह सुविधाएं कुछ शर्तों के साथ उपलब्ध करवाते हैं। सुविधाओं और अधिकार के बीच अंतर करना मुश्किल हो जाता है। बल्कि मध्य प्रदेश में परिषद या संघ और कर्मचारियों के बीच होने वाली बातचीत को अधिकार के तौर पर लिया जाता है। इन्हें "सुविधाएं और अधिकार" कहना सही होगा।

यह बहुत चिंता की बात है कि केंद्रीय विधि निर्माताओं ने क्षेत्रीय श्रम कानून और ट्रेड यूनियनों से संबंधित अनुशासन संहिताओं को पूरी तरह नज़रंदाज कर दिया। 

राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों में अंतर होना बिल्कुल सुविधायुक्त होता है और इसकी अनुमति भी होती है। लेकिन इनमें स्पष्टता की कमी और खामियां नहीं होना चाहिए। ऊपर किए गए विश्लेषण में कुछ राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए नियमों में स्पष्टता की कमी, अपारदर्शिता और खामियां साफ़ नज़र आ रही हैं।

खराब संहिता से बढ़ेगी मुकदमेबाजी

केंद्र सरकार ने 6 साल लेने और संसद की स्थायी समिति के कुछ शानदार सुझावों के बावजूद एक अपर्याप्त और अक्षम कोड बनाया है। बता दें आईआरसी का पहले मसौदे की घोषणा अप्रैल, 2015 में कर दी गई थी। यहां ट्रेड यूनियन मान्यता (नियोक्ता और सरकार द्वारा), मोलभाव/बातचीत के मामले, मान्यता प्राप्त यूनियनों के अधिकार (जिन्हें कोड में गलत तरीके से "सुविधा" कहा गया है) और पंजीकृत यूनियनों द्वारा सामान्य और राजनीतिक कोष के खर्च के उद्देश्यों को निय बनाने वाली प्रक्रिया पर छोड़ दिया गया है। 

खराब कोड इसी मुख्य गलती का नतीज़ा है। संसद में सीमित विमर्श और बहस के साथ इस कोड को पास कर दिया गया क्योंकि कमजोर विपक्ष अपनी संसदीय जिम्मेदारियों को नहीं निभा पाया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि क्यों भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने संसद में पिछले कुछ दिनों में अच्छी बहस ना होने की बात कही थी।  

ऊपर से ऐसी खराब कानून बनाने की प्रक्रिया से मुकदमेबाजी बढ़ेगी और न्यायपालिका का भार बढ़ेगा। यहां गौर करना जरूरी है कि आईआरसी ने श्रम न्यायालयों को खत्म कर दिया है और इसकी जगह न्यायाधिकरणों की एक जटिल व्यवस्था को स्थापित कर दिया है। ऊपर से इन न्यायाधिकरणों द्वारा ट्रेड यूनियन के विवादों को भी सुना जाएगा। पहले इन मुकदमों को सिविल कोर्ट में सुना जाता था। 

तमाम खामियों और अकुशलताओं वाले नियमों के चलते आईआरसी और भी बदतर दिखाई पड़ती है। यह नियम कई राज्यों में काम करने वाले ट्रेड यूनियनों के लिए काम जटिल कर देंगे। ऊपर से क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सामूहिक मोलभाव को "सुविधा" और मोलभाव के "मामले" बताने से भी चीजें जटिल होंगी।

अगर केंद्र नियम बनाने वाली क्षेत्रीय प्रक्रिया के साथ समन्वय बनाता, तो इन खामियों से बचा जा सकता था। ना ही केंद्र ने त्रिपक्षीय सुझावों को पुनर्जीवित करने की मंशा दिखाई है। 

ट्रेड यूनियनों के पास राज्य का विरोध करने के लिए कोई ठोस और सुसंगत रणनीति नहीं है, वहीं राजनीतिक पार्टियां विरोध के लिए बहुत कमजोर हैं या विधानसभा चुनावों में व्यवस्त हैं, फिर नियोक्ता धीमे आर्थिक विकास और कीमत प्रबंधन के चलते मजबूर हैं, यह सब विधायिका में एक निर्वात के निर्माण में सहायता कर रहे हैं।

(डॉ के आर श्याम सुंदर ज़ेवियर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, जमशेदपुर में प्रोफ़ेसर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।) 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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