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अगर हमें कचरे के पहाड़ दिखाई देते हैं, तो कचरा बीनने वाले क्यों नहीं?

यह विश्वास करना असंभव है कि कचरा प्रबंधन में भारी विफलता के जिंदा सबूत होते हुए भी सरकार इनसे अपनी आंखें मूंदे हुई है। 
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कचरा चुनने वाला 

आपने गौर किया कि दिल्ली के बीचोबीच में पहाड़ हैं। नहीं, ये वे नहीं हैं, जिन्हें दिल्ली के लोग छोड़कर गए थे, जब कभी कोरोना वायरस लॉकडाउन में ढील दी गई थी। न ही वे 'ताज़ा' हवा का उत्पादन करते हैं, जिसकी तलाश में दिल्ली शहर के निवासी अपने घरों से बाहर निकलते हैं। इनमें से सबसे ऊंचे गाजीपुर में कचरे के पहाड़ हैं। न्यूज़लॉन्ड्री की एक रिपोर्ट के अनुसार, यह "कचरा निष्पादन स्थल (डंप साइट) की वर्ष 2019 में ऊंचाई कुतुब मीनार (73 मीटर) से कुछ ही मीटर कम यानी 65 मीटर थी।" 

क्या इसे हमारी सरकार के कचरा प्रबंधन की भारी विफलता का जिंदा सबूत नहीं माना जा सकता है? क्या हमारे डंप साइट्स हर दिन इंच दर इंच नहीं बढ़ रहे हैं? और अगर ऐसी साइटों से दुर्गंध आती रहती है, और कचरा स्थल पर इन कचरों की प्रतिक्रियास्वरूप जहरीली गैसें निकलती रहती हैं, और कभी-कभार तो वह पूरा कचरा स्थल ही धधक उठता है, तो इससे बने भयंकर प्रदूषण और मानव जीवन पर बन आए इस जोखिम के लिए कौन जिम्मेदार है? 

मुंबई स्थित पत्रकार-कार्यकर्ता और वंदना फाउंडेशन की सह-संस्थापक सौम्या रॉय जो सूक्ष्म-उद्यमों का समर्थन करती है, उन्होंने अपनी पुस्तक, माउंटेन टेल्स: लव एंड लॉस इन द म्युनिसिपैलिटी ऑफ कास्टअवे बिलॉन्गिंग्स (प्रोफाइल पुस्तकें, 2021) में देवनार शहर के ट्रैश टाउनशिप का समग्र विवरण प्रदान किया है। वे प्रभावी रूप से एक के बाद एक आने वाली सरकारों की इनके प्रति उपेक्षा, भू-माफियाओं की गुंडागर्दी और लैंडफिल टाउनशिप में कूड़ा बीनने वालों के जोखिम भरी जीवन स्थितियों को दर्शाती है, जिसका वे रोजाना सामना कर रहे हैं। 

रॉय सबसे पहले 2013 में देवनार के कूड़ा बीनने वालों से मिली थीं। माइक्रो-फाइनेंस फर्म चलाने के दौरान, जिस संस्था ने उन्हें पैसे उधार दिए थे, उन्होंने उनके जीवन के अन्य पहलुओं में रुचि लेना शुरू किया। तभी सौम्या ने गौर किया कि मुंबई की झुग्गियों में कहीं भी, जहां उनका फर्म काम करता था, "भुगतान उसी तरह बिना नागा किए आता था, जैसा कि देवनार पहाड़ों के आसपास के लोग कर्ज का सधान करते थे।" हालाँकि, यह पैटर्न अचानक बदल गया, क्योंकि लोगों को सरकारी अधिकारियों की तरफ से गंभीर अड़चनें आने लगीं और उन्हें प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा, जिसके चलते उनका कचरा उठाना, उस काम से पैसा कमाना कठिन हो गया, और इस तरह उनके लिए कर्ज का सधान करना असंभव हो गया।

यह फरजाना की कहानी है, जो पहाड़ की कहानी में सबसे अलग है। हालांकि यह किताब उसके बारे में और भी बहुत कुछ कहती है। यह एक गहन शोध कार्य है, जिसमें देवनार के डंपिंग ग्राउंड में 1980 के दशक से आने वाली 'कचरा गाड़ियों' का उल्लेख मिलता है। हालांकि शोध कार्य अपने विषय में पूर्ण अधिकार का प्रदर्शन कर सकता है,पर रॉय इसे अपने समानुभूतिपूर्ण स्वर के साथ संतुलित करती हैं। वे कूड़ा-कचरा बीनने वालों के परिवारों की कहानियां सुनाती हैं और ऐसा करती हुईं वे दशकों से अनुत्तरित किंतु अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को हमारे सामने रखती हैं। उदाहरण के लिए, जो कचरा साफ कर दिया जाता है,उसका मालिक कौन है? कूड़ा बीनने वाले अपने लिए पहचान पत्र की मांग क्यों करते हैं और इस मांग की मौजूदा स्थिति क्या? क्या कूड़ा बीनने वालों के मौजूदा निम्न हालात बेहतर जीवन जीने के उनके अधिकार के प्रति विश्वासघात नहीं होता?

मुंबई की अदालतों में कई मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें कचरा-डंपिंग ग्राउंड को 'समाशोधन' में शामिल नगरपालिकाओं और एजेंसियों की जांच करने और उन्हें जिम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन उनके परिणामों ने कोई टिकाऊ समाधान देने की तुलना में अधिक समस्याएं पैदा की हैं। ऐसी ही एक संस्था थी,तत्त्व, जिसने बस्ती में मरम्मत कार्य करने की तुलना में उसका नुकसान ही अधिक किया। 

जस्टिस ओका, जिन्होंने ज्यादातर कचरा टाउनशिप मामलों से संबंधित मामलों की सुनवाई की अगुवाई की, और तत्त्व की कड़ी निंदा की थी। जस्टिस ओका ने पाया कि 2016 में "नगरपालिका ने कचरे के बढ़ते प्रवाह और रीचिंग टाउनशिप में इसे खाली करने के बारे में सोचे बिना, मुंबई में लापरवाह निर्माण और विकास की इजाजत दी थी।" [सौम्या लिखती हैं, एक तरफ, उसी वर्ष नवम्बर में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 एवं 1000 रुपये के नोटों के चलन को अवैध घोषित कर दिया था और इधर, इस बस्ती में उन नोटों का जैसे अम्बार लग गया!" इससे पहले कि गार्ड और पुलिसकर्मी नोटों के पहाड़ बनने से रोक पाते, कचरा बीनने वालों ने उन नोटों को मुद्रित राशि से भी कम रेट पर बेच दिया था।]

लेकिन कचरा टाउनशिप भारत के लिए कोई अनोखी समस्या नहीं है। पुस्तक के अंत में, रॉय ने न्यूयॉर्क में फ्रेश किल्स कचरा टाउनशिप का दौरा करने का उल्लेख किया है। वे लिखती हैं, "यह एक कचरे का इतना विशाल शहर था कि जहां आने वाले कचरे वाली गाड़ियों के काफिले को निर्देशित करने के लिए ट्रैफिक लाइटें तक लगीं थीं।" 

विशेषाधिकार प्राप्त लोग हालांकि कचरा अपने 'घरों' के बाहर रखते हैं, कुछ लोगों के घरों में ऐसे डंपिंग ग्राउंड होते हैं, जो अदृश्य होते हैं। देवनार में कूड़ा बीनने वालों को एहसास हुआ (हालांकि फरजाना के साथ हुई एक बेहद भीषण त्रासदी के बाद ही) कि अगर वे बहुत लंबे समय तक सरकारी रडार से ओझल रहे, तो उनके जीवन पर कोई सकारात्मक फर्क नहीं पड़ेगा। रॉय लिखती हैं, "अब, कचरा बीनने वाले... चाहते थे कि उनका पहचान पत्र उन्हें आधिकारिक रूप से अस्तित्ववान बनाए।" इस बीच, बस्ती से जुड़े अदालती मामलों का अंबार लगता रहा। विशेष रूप से, जस्टिस ओका ने बताया कि "हमारी कानूनी प्रणाली के सामने वास्तविक चुनौती डॉकेट [कानूनी मामलों की फाइल] विस्फोट की नहीं है, बल्कि डॉकेट बहिष्करण की है।"ओका ने पूछा, हालांकि कचरे के पहाड़ों को नंगी आंखों से देखा जा सकता है, पर क्या "फरजाना और करवाले [पालघर जिले के एक गांव] जैसे लोगों को" अदालतों में उसी तरह से देखा जा सकता है। 

लगभग हर साल कोई न कोई नई खोज या रिपोर्ट भारत के कचरा डंपिंग ग्राउंड के बारे में चौंकाने वाले आंकड़े पेश करती है। इन्हीं में से एक रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें से कुछ तो पहाड़ 120 फीट की ऊंचाई तक बढ़ गए हैं और उनसे निकलने वाली "हाइड्रोजन सल्फाइड, एक जहरीली ज्वलनशील गैस, जो सड़े हुए अंडे जैसी तीव्र दुर्गंध के लिए जानी जाती है, वह वर्ष 2010 से 2015 के बीच तीन गुनी से अधिक बढ़ गई थी। जबकि मीथेन गैस हमेशा आग जलती ही रहती है। कार्बन मोनोऑक्साइड लोगों को पांच गुना अधिक सिरदर्द और चक्कर दे सकता है।” एक अन्य रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि "शहर [दिल्ली का] में हर दिन लगभग 9,000 टन कचरा उत्पन्न होता है।" हैरानी की बात यह है कि ऐसी किसी भी रिपोर्ट में इन टाउनशिप में रहने वाले लोगों की जीवन-दशा का कोई उल्लेख नहीं किया गया है और न ही उनके जीवन और अधिकारों में गहरी दिलचस्पी दिखाई गई है। और यही वह फांक है, जिसे सौम्या रॉय पहाड़ों की अपनी कहानियों से भरती हैं। 

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

If We Can See Trash Mountains, Why Are Waste-Pickers Invisible?

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