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नए कृषि क़ानून लागू हुए तो क्या बढ़ेंगी किसानों की आत्महत्याएं?

पहले 'अच्छे दिन' और अब 'देश बदल रहा है' के नारों के बीच देश भर में किसान आत्महत्याओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।
नए कृषि क़ानून लागू हुए तो क्या बढ़ेंगी किसानों की आत्महत्याएं?
विदर्भ के कपास उत्पादक। कृषि कानून लागू होने की स्थिति में बुंदेलखंड और विदर्भ जैसे किसान आत्महत्याओं के मामले में संवेदनशील क्षेत्रों में खेतीबाड़ी का संकट गहरा सकता है। फोटो साभार: सोशल मीडिया

प्रकरण-1

(बुंदेलखंड)

उत्तर-प्रदेश में बुंदेलखंड अंचल के महोबा जिले के किसान अशोक रिछारिया (58 वर्ष) ने गत 17 जनवरी को ट्रेन के आगे छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। उनकी पत्नी अहिल्या बाई ने पुलिस को बताया कि उनके परिवार के पास दो बीघा जमीन है और उनके पति ने 15 हजार का ऋण लिया था। 

प्रकरण-2

(विदर्भ)

महाराष्ट्र में अमरावती जिले के दापोरी खुर्द में बीती 15 जनवरी को एक खेतीहर मजदूर दिनेश उइके (40 वर्ष) ने जहर पीकर आत्महत्या कर ली। बताते हैं कि दिनेश उइके ने बढ़ती महंगाई और हाथ में कोई काम न होने से घबराकर ऐसा किया। हालांकि, उनके परिजन गंभीर स्थिति में उन्हें अमरावती जिला अस्पताल लाए थे। लेकिन, उपचार के दौरान ही उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके परिवार में बूढ़े माता-पिता, पत्नी और दो बच्चे हैं।

पहले 'अच्छे दिन' और अब 'देश बदल रहा है' के नारों के बीच देश भर में किसान आत्महत्याओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। मौसम की अनिश्चितता, मंहगाई की मार, बढ़ता कर्ज और कोई दूसरा काम नहीं होने के कारण बुंदेलखड से लेकर विदर्भ तक बड़ी संख्या में किसान मौत को गले लगाने के लिए मजबूर हो रहे हैं।

मध्य-प्रदेश और उत्तर-प्रदेश के 13 जिलों से बने बुंदेलखंड में दोनों राज्य सरकारों पर आरोप लगते रहे हैं कि वे फसल नुकसान, कर्ज से लेकर किसान आत्महत्याओं की बातों को आसानी से नहीं स्वीकार करती हैं। दूसरी तरफ, महाराष्ट्र का विदर्भ है जहां पिछले साल अकेले यवतमाल जिले में सबसे अधिक 295 किसानों की आत्महत्या के प्रकरण सामने आए।

महाराष्ट्र में हर साल औसतन तीन हज़ार किसान आत्महत्याएं होती हैं। एक आरटीआई के तहत पूछी गई जानकारी में राज्य सरकार के राहत व पुर्नवास विभाग ने बताया कि वर्ष 2020 में 2,270 किसानों ने आत्महत्याएं कीं।

मराठवाड़ा के गन्ना किसान। फोटो: शिरीष खरे

सवाल है कि इस तरह के क्षेत्र जहां खेती का संकट पहले से विकट दौर से गुज़र रहा है वहां यदि केंद्र की मोदी सरकार के नए कृषि कानून यदि लागू होते हैं तो किसानों पर उनका क्या असर हो सकता है। इस बारे में कई विशेषज्ञों की अपनी-अपनी राय है।

कुछ जानकर मानते हैं कि ऐसी स्थिति में संभव है कि किसानों पर कोई तात्कालिक प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं दे। लेकिन, कुछ वर्षों के बाद जब कॉर्पोरेट का एग्रीकल्चर सेक्टर पर अधिकार स्थापित हो जाएगा तो ऐसे क्षेत्रों में ख़ासकर छोटे किसानों की स्थिति बद से बदतर हो सकती है।

इस बारे में किसान नेता राजकुमार गुप्ता बताते हैं कि एक किसान परिवार में यदि औसतन चार से छह सदस्य ही मानें तो हर सदस्य पर महीने में पांच से दस हजार रुपये का खर्च पड़ता है। इस तरह, यदि आपातकालीन स्थितियों को छोड़ भी दें तो एक किसान परिवार को न्यूनतम बीस से तीस हजार महीने का खर्च उठाना पड़ता है। बुंदेलखंड, विदर्भ, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जैसे क्षेत्रों की बात करें तो किसानों के पास आजीविका का कोई दूसरा बड़ा ज़रिया नहीं है और इसलिए यह खर्च वह खेती से ही उठाने की कोशिश करता है। सवाल है कि ऐसी जगहों पर एक से डेढ़ एकड़ के छोटे किसान सालाना दो-ढाई लाख रुपये से अधिक आमदनी कैसे पा सकते हैं। इन ज़गहों पर दूसरी समस्या यह है कि यहां न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कई फ़सलों की सरकारी ख़रीदी नहीं होती है। इसलिए, किसान औने-पौने दाम पर अपनी फ़सल को बेच देते हैं। वहीं, मोदी सरकार के नए कानूनों को लेकर कहा जा रहा है कि इससे बिना लाइसेंस और मंदी कर दिए बगैर व्यापरियों को पूरे देश में फ़सलों की ख़रीदी की छूट मिल जाएगी। ऐसे में सवाल है कि जो ख़रीदार अभी आधी कीमत पर जब किसानों से उनका माल ख़रीद रहे हैं, वे कानून लागू होने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक कीमत पर किसानों से उनका माल क्यों ख़रीदेंगे।

सवाल है कि नए कृषि कानूनों के लागू होने के बाद आत्महत्या के लिहाज़ से इन संवेदनशील क्षेत्रों में किसानों की हालत बदतर कैसे हो सकती है। इस बारे में कई कृषि विशेषज्ञों का मत है कि उदाहरण के लिए विदर्भ के कपास उत्पादक किसान मध्य-प्रदेश के मालवा के किसानों के मुकाबले यदि थोड़ी ऊंची दर पर अपनी उपज बेच रहे हैं तो कोई भी व्यापारी विदर्भ के किसानों से कपास क्यों ख़रीदेगा। क्योंकि, कानून में व्यापारी तो कहीं से भी माल ख़रीदने के लिए स्वतंत्र है और इसके लिए उसे न लाइसेंस चाहिए और न मंडी कर देना है। ऐसे में विदर्भ के किसानों को पहले से भी सस्ती दर पर अपना कपास बेचना पड़ सकता है। 

लेकिन, यह स्थिति अकेले विदर्भ तक सीमित नहीं रहेगी। इसी तरह, छत्तीसगढ़ का किसान आज करीब 1,300 रुपये प्रति क्विंटल पर अपना धान बेच रहा है, लेकिन बिहार का किसान 900 रुपये प्रति क्विंटल पर अपना धान बेचने के लिए मजबूर है। ऐसी स्थिति में जब व्यापारी को सबसे कम दर पर जो माल खुले बाज़ार में उपलब्ध होगा वह वहीं ख़रीदेगा। तब यदि छत्तीसगढ़ के किसानों को भी उनकी फ़सल का उचित दाम नहीं मिला तो उनकी माली हालत भी बिगड़ेगी और जिन क्षेत्रों में किसान कम आत्महत्याएं करते हैं वहां भी इस तरह के प्रकरणों में बढ़ोतरी की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है।

हालांकि, कृषि कानूनों के पक्ष में यह दलील दी जा रही है कि किसानों को देश में कहीं भी अपनी फ़सल बेचने का अधिकार मिल जाएगा। ख़ासकर बुंदेलखंड के किसानों की दृष्टि से इस दलील पर विचार करें तो यह बात छिपा दी जा रही है कि सरकारी मंडी में न्यूनतम समर्थन मूल्य ख़रीद का एक आधार बनता है। यदि पूरा देश ख़ुला बाज़ार बन गया है तो ललितपुर जिले के एक एकड़ वाले मामूली किसान की क्या हैसियत है जो वह अपना सोयाबीन बेचने दिल्ली, मुंबई या नागपुर जाएगा।

इस बारे में किसान आंदोलन से जुड़े नेता डॉक्टर सुनीलम बताते हैं कि नए कानून में किसानों को अपनी फ़सल का अधिकतम मूल्य मिलेगा, ऐसी तो कोई गारंटी दी नहीं गई है। किसान आत्महत्या इसलिए करता है कि खेती घाटे का सौदा हो गई है। वहीं, मोदी सरकार ने किसानों की आय दो गुनी करने का वादा किया था। लेकिन, वह न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात तो दूर उल्टा मंडी व्यवस्था ही ख़त्म करने का इरादा बना रही है। मध्य-प्रदेश में आधे से अधिक सरकारी मंडियां ख़त्म कर दी गई हैं। यही वजह है कि किसानों के लिए मक्का और बाज़रा जैसी उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचनी मुश्किल होती जा रही है। जबकि, सरकारी मंडियों में पारदर्शिता और विश्वसनीयता होती थी। वहां निर्वाचित व्यवस्था और प्रशासन का हस्तक्षेप होने से किसानों के साथ अन्याय होने की आशंका कम रहती थी। लेकिन, निजी मंडियों पर तो ऐसा कोई दबाव नहीं होता। इसलिए बैतूल जैसे कई जिलों में व्यापारियों की तरफ से दिए गए चेक बाउंस होने जैसे धोखाधड़ी से जुड़े कई प्रकरण सामने आ रहे हैं। ऐसे में क्या गारंटी है कि किसानों को अवसाद के दौर से नहीं गुज़रना पड़ेगा।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि घरेलू खर्च और अन्य आपातकालीन स्थितियों में किसान ऊंची ब्याज़ दर पर ऋण उठाता है। यह भी आत्महत्या के पीछे की एक वजह है। ऐसे में राजकुमार गुप्ता का मानना है कि केंद्र सरकार नए किसान कानूनों को वापस लेते हुए छत्तीसगढ़ सरकार की राजीव गांधी किसान न्याय योजना से सबक ले। इस योजना की तर्ज़ पर यदि केंद्र सरकार कृषि प्रोत्साहन के लिए किसान परिवारों को प्रति एकड़ दस हज़ार रुपये की सहायता राशि दे तो ख़ासकर छोटे किसानों को इससे राहत मिलेगी और आत्महत्या के प्रकरण भी कम होंगे। लेकिन, वस्तुस्थिति यही है कि किसानों के पक्ष में केंद्र सरकार ऐसी कोई भी योजना को बनाने से बच रही है।

वहीं, बुंदेलखंड और विदर्भ जैसे क्षेत्रों में मौसम की अनिश्चितता, जल-संकट और सिंचाई सुविधाएं न होने के कारण धान और गेहूं कम उगाया जाता है। ऐसे में यहां के किसान जो व्यवसायिक फ़सल उगाते हैं, उन पर न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलता। यही कारण है कि इन क्षेत्रों के किसानों को सरकारी सुरक्षा नहीं मिल पाती है। ऐसे में यदि किसी साल बंपर फ़सल आई तो उपज का दाम गिर जाता है, यदि फ़सल ख़राब हुई तो यह नुकसान भी किसानों का ही माना जाता है। इसलिए, विदर्भ में जहां कपास जैसी व्यवसायिक उपज के लिए बहुत महंगी खेती की जाती है वहां समर्थन तंत्र काम नहीं करने से किसान का शोषण होता है। लिहाज़ा, ऐसी ज़गहों से किसान आत्महत्याओं के अधिक प्रकरण सामने आते हैं। यही वजह है कि इन क्षेत्रों में भी केंद्र सरकार से सरकारी मंडियों को मज़बूत बनाते हुए अन्य फ़सलों पर भी बड़ी मात्रा में न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की मांग की जाती रही है।

दूसरी तरफ़, किसानों पर दूसरी बड़ी मार अनुबंध खेती से होगी। इसमें दलील है कि किसानों को एक निश्चित आय मिलेगी। मध्य-प्रदेश के निमाड़ अंचल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता नीलेश देसाई मानते हैं कि अनुबंध खेती में कुछ शर्ते हैं तभी किसान को आमदनी होगी। इसमें किसान पर फ़सल के आकार, भार, रंग और समय तक की शर्ते लागू हैं। अब यदि कोई भी शर्त बिगड़ गई तो अनुबंध अपने-आप निरस्त हो जाएगा। जबकि, आत्महत्या न हो इसलिए किसान को सुरक्षा चाहिए। लेकिन, ऐसे में छोटा किसान कानूनी पचड़े में पड़ जाएगा। वर्षों मुकदमा चला तो जिस किसान के पास खाने तक को पैसे नहीं है वह वकील को फ़ीस कहां से देता रहेगा। ऐसे में उसने कर्ज़ लिया तो वह इस कुचक्र में और अधिक उलझकर दम तोड़ सकता है।

इसी तरह, किसानों पर तीसरी मार आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन दे पड़ेगी। राजकुमार गुप्ता बताते हैं कि जब किसी फ़सल का उत्पादन होता है तो उसका दाम अपेक्षाकृत कम होता है। तब बड़े कॉर्पोरेट उन फ़सलों की जमाख़ोरी कर लेंगे और इसके लिए वे कानूनी तौर पर स्वतंत्र भी होंगे। उदाहरण के लिए, उत्तर महाराष्ट्र में यदि आलू बहुत अधिक होता है तो जब आलू की फ़सल तैयार होगी तो कॉर्पोरेट फ़सल को सस्ते दामों पर ख़रीदकर अपने विशालकाय भंडार-गृहों में ज़मा कर लेंगे। बाद में उसी को दोगुने दामों पर बेच देंगे। उत्तर महाराष्ट्र के बाहर का किसान तो आलू जैसी चीज़ों को उपभोक्ता भी है। यदि बुंदेलखंड या विदर्भ का किसान जो पहले से ही तमाम तरह के अभावों से जूझ रहा है वह मंहगे दामों पर वस्तुएं ख़रीदेगा तो उसका घर चलाना पहले से अधिक मुश्किल होगा।

कुल मिलाकर, किसान आत्महत्या न करे, इसके लिए उसे अपनी फ़सल के उचित मूल्य पर बिकने की सुरक्षा चाहिए। लेकिन, नए कानूनों को किसानों पर लादने वाली केंद्र की मोदी सरकार सरकार किसानों को उनकी फ़सल के उचित मूल्य पर बिकने की यही सुरक्षा की गारंटी देने में आनाकानी कर रही हैं।

(शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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