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भाड़े के माल और साम्राज्यवाद

‘भाड़े का माल’ किसी ऐसे माल को कहा जाता है जिसकी आपूर्ति, सिर्फ़ उसके उत्पादन में निवेश बढ़ाने के जरिए, अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ नहीं बढ़ायी जा सकती है। पूंजीवादी अर्थशास्त्र श्रम को ही एक भाड़ा माल के रूप में देखता है।
Capitalist

आर्थिक सिद्धांत में भाड़े के मालों या ‘‘रेंट गुड्स’’ को काफी महत्व दिया जाता है। ‘भाड़े का माल’ किसी ऐसे माल को कहा जाता है जिसकी आपूर्ति, सिर्फ उसके उत्पादन में निवेश बढ़ाने के जरिए, अपनी मर्जी के मुताबिक नहीं बढ़ायी जा सकती है। ये तो ऐसे माल होते हैं, जिनकी आपूर्ति प्रकृति द्वारा लगायी जाने वाली सीमाओं से तय होती है।

जमीन: भाड़े का माल और वृद्घि दर की सीमा

इसके चलते, दीर्घावधि वृद्घि की एक निश्चित अधिकतम दर होती है, जो निवेश से इतर कारकों से तय होती है और जिसे इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता है। और अगर यह भाड़े का माल, दूसरे मालों के उत्पादन में एक आवश्यक लागत के रूप में इस्तेमाल होता हो, तो इन दूसरे मालों के उत्पादन की दीर्घावधि वृद्धि दर भी, इस भाड़े के माल की इस बाहरी कारकों के चलते तयशुदा, अधिकतम दर के साथ बंध जाती है। उस सूरत में समूची उत्पादन प्रणाली की वृद्धि दर ही, इस भाड़े के माल की बाहरी कारकों से तयशुदा वृद्घि दर से निर्धारित होने लगती है और इसीलिए इन मालों को ‘भाड़े का माल’ कहा जाता है। भाड़े के माल के उपयोग में बचत करने वाली प्रौद्योगिकीय प्रगति से, ऐसे माल के आपूर्ति की अधिकतम दर के पूर्व-निर्धारण की कड़ाई में कुछ ढील तो आ सकती है, फिर भी इससे समग्रता में आर्थिक व्यवस्था की वृद्धि पर भाड़े के माल की उपलब्धता को लेकर लगने वाली बुनियादी सीमाओं में, शायद ही बदलाव हो सकता है।

डेविड रिकार्डो ने, जो क्लासिकल राजनीतिक अर्थशास्त्र की परंपरा में आने वाले जाने-माने अर्थशास्त्री थे, बड़े चर्चित तरीके से जमीन को ऐसे ही एक भाड़े के माल का दर्जा दिया था। जमीन, मकई की पैदावार करने के लिए आवश्यक थी, जो कि मजदूरों के भोजन का मुख्य आधार थी। और जाहिर है कि मजदूरों के बिना तो कोई उत्पादन हो ही नहीं सकता था। लेकिन जमीन, जिस पर कि मकई पैदा हो सकती थी, वह तो तयशुदा या सीमित थी। और अगर जमीन पूर्णत: पूर्व-निर्धारित भी नहीं थी, तब भी जमीन की मांग में बढ़ोतरी कम से कम यह तो जरूरी बना ही देती थी कि मकई के उत्पादन के लिए, ज्यादा से ज्यादा कम उपजाऊ जमीन की ओर खिसकते रहा जाए। और यह खिसकना भी वहीं तक संभव है, जहां तक जमीन की उत्पादकता इतनी बुरी नहीं हो जाती है कि उस जमीन से मकई की कोई अतिरिक्त पैदावार हो ही नहीं सकती हो क्योंकि सारी पैदावार तो, उसे पैदा करने वाले किसानों के पेट भरने में ही खप जाने वाली हो। इस तरह, उत्पादन के लिए जमीन के सीमित होने चलते लगने वाली सीमा इस बिंदु से लागू हो जाएगी और इस बिंदु से आगे पूंजी का कोई संचय संभव ही नहीं होगा। रिकार्डो ने इस अवस्था को एक ‘अचल अवस्था’ का नाम दिया था, जिसमें पूंजी संचय शून्य हो जाएगा और इसलिए वृद्घि भी शून्य हो जाएगी। उनका कहना था कि भाड़े के माल के रूप में जमीन, पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को एक अचल अवस्था की ओर धकेलती और इस अवस्था के आने को ज्यादा से ज्यादा टाला ही जा सकता है, लेकिन आने से रोका नहीं जा सकता है।

भाड़ा माल के रूप में श्रम

दूसरी ओर, रिकार्डो का मानना था कि श्रम कभी भी इस तरह का भाड़े का माल नहीं होता है। उनके हिसाब से इसकी वजह यह थी कि जैसे ही मजदूरों की वास्तविक मजदूरी, गुजारे के स्तर से ऊपर उठती है, मजदूर तेजी से नये मजदूर पैदा करने लगते हैं। इस तरह, श्रम की तंगी के पहले इशारे मिलते ही, चूंकि मजदूरियां गुजारे के स्तर से ऊपर उठ जाती हैं, श्रम की आपूर्ति में पर्याप्त रूप से बढ़ोतरी हो जाती है। इसलिए, श्रम कभी भी भाड़े का माल हो ही नहीं सकता है। बेशक, श्रम के ऐसे विस्तार में कुछ समय तो लगता है, लेकिन श्रम की उपलब्धता सीमा बनकर दीर्घावधि में, पूंजी के संचय को कभी रोक नहीं सकती है।

इसके विपरीत, पूंजीवादी अर्थशास्त्र श्रम को ही एक भाड़ा माल के रूप में देखता है। उसका मानना है कि आबादी, उस तरह से संचालित नहीं होती है, जैसा कि रिकार्डो का दावा था। हालांकि, रिकार्डो ने यह दावा उस कुख्यात माल्थसवादी सिद्धांत का अनुसरण करते हुए किया था, जिसे मार्क्स ने ‘मानव जाति पर एक कलंक’ कहा था। पूंजीवादी अर्थशास्त्र की धारणा के अनुसार, आबादी स्वतंत्र रूप से, अनेकानेक कारकों से निर्धारित होती है। और उसका यह स्वतंत्र रूप से निर्धारित होना ही है जो श्रम को एक भाड़ा माल बना देता है। समूूची अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर, श्रम शक्ति की वृद्धि दर से बंध जाती है, जो खुद इतर रूप से निर्धारित आबादी की वृद्धि दर पर निर्भर होती है।

प्रौद्योगिकीय प्रगति, श्रम की उत्पादकता में वृद्धि आदि से इस निर्भरता में कुछ ढील तो आ सकती है, लेकिन इससे पूरी तरह से उबरा नहीं जा सकता है। अगर आबादी की और इसलिए कार्य बल की वृद्धि दर 3 फीसद सालाना हो और श्रम उत्पादकता की वृद्धि दर 2 फीसद सालाना हो, तो संबंधित अर्थव्यवस्था में दीर्घावधि वृद्घि की अधिकतम दर 5 फीसद ही हो सकती है, उससे ज्यादा नहीं।

इस तरह, चाहे हम क्लासिकल राजनीतिक अर्थशास्त्र को देखें या आधुनिक नव-क्लासिकीय अर्थशास्त्र को, पूंजीवादी अर्थशास्त्र की सभी धाराएं किसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में दीर्घावधि वृद्धि दर को व्याख्यायित करने के लिए, भाड़ा माल की धारणा का सहारा जरूर लेती हैं। लेकिन, इस समूचे रुख के साथ समस्या यह है कि यह साम्राज्यवाद को हिसाब में ही नहीं लेता है। अगर भाड़ा माल की अवधारणा के सहारे इसी की व्याख्या करने की कोशिश की जा रही हो कि अगर साम्राज्यवाद बीच में ही नहीं आता, तो किसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ क्या होता, तब तो फिर भी इस तरह से व्याख्या करने का कुछ तर्क होता। लेकिन, ये सभी पूंजीवादी सिद्धांत तो इस अवधारणा का सहारा लेकर, पूंजीवाद में वास्तव में जो कुछ होता है, उसे ही व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं। यह इन सिद्धांतों को ही पूरी तरह से बेतुका बना देता है।

साम्राज्यवादी के चलते श्रम नहीं बना भाड़ा माल

सचाई यह है कि जिस तरह कोई पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अब चुपचाप अपने अंदरूनी बाजार तक ही सीमित नहीं रहती है, उसी प्रकार वह संसाधनों की अपनी सीमाओं में उपलब्धता तक ही सीमित नहीं रहती है। वह तो दुनिया भर में निर्ममता से संसाधनों को लूटती फिरती है, जिसमें श्रम शक्ति भी शामिल है, ताकि घरेलू तौर पर उपलब्ध संसाधनों को बढ़ाया जा सके। इसलिए, भाड़ा मालों के किसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की दीर्घावधि वृद्घि दर को ही तय कर देने की धारणा ही, पूरी तरह से बेतुकी है।

श्रम का ही मामला ले लीजिए। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में 2 करोड़ से ज्यादा लोगों को जबरन दास बनाकर अफ्रीका से ढोकर ‘‘न्यू वल्र्ड’’ में, खदानों तथा बागानों में काम करने के लिए ले जाया गया था, जिनके उत्पादों की पूंजीवाद के गढ़ों को जरूरत थी, जिससे वे पूंजी के संचय की प्रक्रिया को जारी रख पाते। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में, दास प्रथा का औपचारिक रूप से अंत होने के बाद और पहले विश्व युद्घ तक, 5 करोड़ भारतीय तथा चीनी मजदूरों को ढोकर, उसी काम के लिए ऊष्ण तथा सम-शीतोष्ण इलाकों में ले जाया जा चुका था। भारत के गिरमिटिया मजदूरों को वेस्ट इंडीज, फिजी, मॉरीशस तथा पूर्वी व दक्षिणी अफ्रीका में मजदूरी में लगाया गया था, जबकि चीनी कुली मजदूरों को प्रशांत सागरीय क्षेत्र में विभिन्न ठिकानों पर लगाया गया था। श्रम के इस पलायन में समूची प्रवासी श्रमिक आबादी अपनी नयी बसाहटों में ही बसी रह गयी हो ऐसा भी नहीं था, हालांकि उनमें से काफी संख्या वहीं बस भी गयी थी।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद, जब पूंजीवाद अपने तब तक के सबसे बड़े उछाल से गुजर रहा था, उसके उछाल को इस तथ्य ने जरा भी बाधित नहीं किया था कि विकसित पूंजीवादी दुनिया में आबादी की वृद्धि की स्वाभाविक दर, करीब-करीब शून्य पर पहुंच चुकी थी। उसने अपने पहले के उपनिवेशों तथा निर्भर देशों से, अपने यहां श्रम के पलायन का सहारा लिया। भारतीय, पाकिस्तानी तथा वेस्ट इंडियन श्रमिक ब्रिटेन में आए। अल्जीरियाई, ट्यूनीशियाई तथा मोरक्की श्रमिक, फ्रांस में आए और तुर्क श्रमिक, जर्मनी में आए। इस उछाल में, श्रम की किसी तंगी की कोई बाधा नहीं आयी। श्रम की अगर कोई तंगी पैदा भी हुई होती तो, उसका रास्ता बड़े पैमाने पर श्रम के विकसित दुनिया में पलायन ने रोक दिया। जाहिर है कि श्रम का यह पलायन भी कोई मुक्त नहीं था बल्कि बहुत ही कड़ाई से नियंत्रित किया जा रहा था। और आज भी पूर्वी-यूरोपीय देशों से, लिथुआनिया से लेकर यूक्रेन तक के समूचे इलाके से, पश्चिमी यूरोप में स्थित पूंजी के महानगरों में श्रम का पलायन हो रहा है, जिससे पूंजी के संचय को चलाए रखने के लिए, वहां सस्ता श्रम उपलब्ध हो सके।

इस तरह पूंजी के आसन के तले, दुनिया भर से करोड़ों लोगों को हजारों मील दूर खींच कर ले जाया जा रहा होता है ताकि पूंजी के संचय की जरूरतों को पूरा कर सकें। जाहिर है कि इस तरह का संचय, कोई संबंधित विकसित पूंजी के गढ़ में उपलब्ध श्रम शक्ति की, अपने से इतर कारकों से तय हो रही सीमाओं से बंधा नहीं रहता है, जैसाकि पूंजीवादी अर्थशास्त्र बताने की कोशिश करता है। संक्षेप में यह कि संचय ही धुरी होता है और किराया माल की अवधारणा से जो अर्थ निकलता है उसके विपरीत, श्रम की उपलब्धता ही संचय की जरूरतों के हिसाब से खुद को समायोजित करती है।

खेती की जमीन भी नहीं बनी भाड़ा माल

इसी प्रकार, पूंजी संचय कभी भी, विकसित पूंजीवादी देशों की अपनी सीमित जमीन पर पैदा होने वाली सामग्रियों के प्रसंस्करण तक ही सीमित नहीं रहा। औद्योगिक पूंजीवाद ने, सूती कपड़ा उद्योग में औद्योगिक क्रांति के साथ अपना आपा पाया था। लेकिन, जिन ठंडे खुश्क इलाकों में यह औद्योगिक क्रांति हुई थी, वहां तो कभी कपास पैदा हो ही नहीं सकता था। इसलिए, अपनी शुरूआत से ही पूंजीवाद, अन्य क्षेत्रों में पैदा होने वाले कच्चे मालों तथा खाद्यान्नों पर निर्भर था, जो वह साम्राजी व्यवस्था के जरिए हासिल करता था। विकसित पूंजीवादी देशों की सीमित जमीन की उसे, पूंजी के संचय के सिलसिले में चिंता करने की कभी भी जरूरत नहीं पड़ी।

औपनिवेशिक दौर में, खाद्यान्नों तथा कच्चे मालों का बड़ा हिस्सा, उपनिवेशों से मुफ्त में ही वसूल कर लिया जाता था। निरुपनिवेशीकरण के बाद भी, पूर्व-उपनिवेशों से, पूंजी के विकसित केंद्रों की ओर, अतिरिक्त मूल्य का यह प्रवाह, तरह-तरह के बहानों से जारी तो रहा है फिर भी, इस तरह के इकतरफा हस्तांतरणों का पैमाना घट गया है। लेकिन, यहां तक पहुंचते-पहुंंचते पूर्व-उपनिवेशों में पैदा होने खाद्यान्नों तथा कच्चे मालों की कीमतों को इतना सिकोड़ा जा चुका है कि इस तरह के आयातों का दाम चुकाने के लिए भी, विकसित पूंजीवादी दुनिया को ज्यादा परवाह करने की जरूरत नहीं होती है।

यहीं हम रिकार्डो के तर्क का प्रत्यक्ष रूप से खंडन होते हुए देखते हैं। रिकार्डो का यह मानना था कि चूंकि एक भाड़ा माल के रूप में जमीन की उपलब्धता सीमित है, व्यापार की शर्तें इस सीमित जमीन के उत्पादों यानी कृषि उत्पादों के पक्ष में और विनिर्मित मालों के खिलाफ झुकती जाएंगी। लेकिन, अपवाद के रूप में युद्ध जैसे असामान्य काल खंडों को छोड़ दिया जाए तो पूंजीवाद के पूरे इतिहास में तो हम व्यापार की शर्तों को, प्राथमिक मालों के खिलाफ और विनिर्मित मालों के खिलाफ ही झुकते देखते आए हैं, जो रिकार्डो की धारणा से इतर कारकों के काम कर रहे होने को ही दिखाता है।

साम्राज्यवाद नहीं छोड़ता कोई भाड़ा माल

कटिबंधीय तथा उप-कटिबंधीय क्षेत्रों में जमीनों का सीमित होना तब तक कोई मानी नहीं रखता है, जब तक विकसित दुनिया अपनी जरूरत के कृषि उत्पादों की पर्याप्त आपूर्तियां, जमीन के सीमित होने के चलते, कुल उत्पाद के सीमित होने के बावजूद, इन क्षेत्रों की स्थानीय आबादियों के अपने उपभोग को निचोडऩे के जरिए हासिल करती रह सकती है। समकालीन साम्राज्यवाद, इन उत्पादों को निचोडऩे का काम इन देशों पर सीधे राजनीतिक नियंत्रण के जरिए नहीं करता है बल्कि इन देशों पर नवउदारवादी नीतियां थोपने के जरिए करता है। इन नीतियों में ऐसा तंत्र अंतर्निहित ही रहता है कि जो किसी कृषि उत्पाद की मांग फालतू हो तो, इन उत्पादों की स्थानीय खपत को ‘कमखर्ची’ थोपने के जरिए, सिकोडऩे का काम करता है। इसलिए, विकसित पूंजीवादी दुनिया के लिए इस तरह के माल, रिकार्डो की संकल्पना के विपरीत, भाड़ा माल रहते ही नहीं हैं। साम्राज्यवाद यही सुनिश्चित करने का साधन है कि पूंजीवाद के लिए, किसी तरह का कोई भाड़ा माल रहे ही नहीं।

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