कोरोना के इस बुरे वक़्त में डॉक्टरी की महंगी पढ़ाई पर भी सोचिए!
आप सबने महसूस किया होगा कि बीमारी आपके शरीर को तोड़ रही होती है और डॉक्टर महज 3- 4 मिनट देखता है और दवा देकर आपको लौटा देता है। डॉक्टर इसके बदले में 500 से लेकर ₹1000 तक की फीस लेता है।
अगर आप किसी गांव से हैं तो आप 1,2 ऐसी घटनाओं को जरूर जानते होंगे जहां पर 25 से 30 किलोमीटर दूर किसी हॉस्पिटल तक पहुंचते-पहुंचते कोई गर्भवती महिला मर गई या किसी की स्थिति बहुत खराब थी तो उसने अपने शरीर का साथ छोड़ दिया।
अखबारों में छपी उन खबरों को भी आपने बड़े चाव से पढ़ा होगा, जिन खबरों में यह लिखा होता है कि चार-पांच दिन के इलाज में लाखों रुपए खर्च हो गए। एक व्यक्ति जिंदगी भर के लिए कर्जदार बन गया। कोरोना के समय में एक डर आपको हमेशा सताता होगा कि अगर खुदा न खस्ता आप कोरोना की चपेट में आ गए हैं तो क्या आपको सही समय पर डॉक्टर मिल पाएगा?
लेकिन इन सारे अनुभव और एहसासों से गुजरने के बाद भी आप यह नहीं सोचते हैं कि आखिरकार ऐसा क्यों होता है? ऐसा होने के पीछे बहुत सारी वजह है। लेकिन इनमें एक सबसे बड़ी वजह यह है कि हमारे देश में डॉक्टरी की पढ़ाई बहुत महंगी है। इतनी महंगी कि भारत की 80 फ़ीसदी से अधिक आबादी की आमदनी इतनी अधिक नहीं है की वह अपने बच्चों को डॉक्टर बनाने के बारे में सोचे?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हर एक हजार की आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए। इस लिहाज से देश में डॉक्टरों की भारी कमी है। फिलहाल देश में 11,082 की आबादी पर मात्र एक डॉक्टर है। इस लिहाज से देखें तो यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है। केवल बिहार की बात करें तो एक एक अनुमान के मुताबिक 43 हजार की आबादी पर एक डॉक्टर है। 27 फ़ीसदी मरीजों की मौत डॉक्टर की कमी की वजह से होती है।
डॉक्टर के पेशे से जुड़े एक सजग नागरिक कहते हैं कि भारत की स्थिति को थोड़े से भी कुरेद कर देखा जाए तो यह बात सबको नजर आती है कि भारत में डॉक्टरों की बहुत अधिक कमी है। बड़ी संख्या में डॉक्टर चाहिए। इस लिहाज से असल नीति तो यह होती कि इस संख्या को भरने की कोशिश की जाती। इससे डॉक्टरों की संख्या पूरी होती और बेरोजगारी की तरफ बढ़ रहे भारतीय नौजवानों को एक गरिमा पूर्ण रोजगार भी मिलता। लेकिन सोचने वाली बात है कि ऐसा क्यों नहीं होता है?
तकरीबन 13 से 14 लाख विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज में एंट्री पाने के लिए नीट परीक्षा के लिए आवेदन करते हैं। तकरीबन 70 से 80 हजार सीटें भरी जाती हैं। यानी एक बहुत बड़ी आबादी जो मेडिकल में दिलचस्पी लेते हुए उसकी पढ़ाई के लिए किसी कॉलेज में दाखिला लेना चाहती है, उस आबादी की छटनी हो जाती है। एक कायदे का सिस्टम तो वही होता है जहां पर कुछ बुनियादी योग्यताओं की जांच परख कर के सबको वह पढ़ाने की व्यवस्था की जाए जो वह पढ़ना चाहते हैं। लेकिन ऐसी व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था छंटनी वाली है।
70 हजार सीटों में से 30 हजार सरकारी मेडिकल कॉलेजों के जरिए भरी जाती है। इसमें से सरकारी मेडिकल कॉलेजों की 5 साल की अधिकतम फीस तकरीबन चार लाख के आसपास होती है। दिल्ली के एम्स जैसे कॉलेज तो ऐसे हैं जहां पर पांच साल में पांच - छह हजार के खर्चे पर एमबीबीएस की डिग्री मिल जाती है। बाकी NEET की परीक्षा क्वालीफाई करने वाले 5 लाख से अधिक उम्मीदवार होते हैं। यानी इनका दाखिला प्राइवेट कॉलेज में होता है। और प्राइवेट कॉलेज की 1 साल की फीस ₹3 लाख से लेकर ₹20 लाख तक होती हैं। यानी 5 साल की पढ़ाई के लिए एक करोड़ से अधिक का खर्चा आ सकता है।
इसके अलावा डोनेशन, कोचिंग की फीस, स्कूल की पढ़ाई सब जोड़ लीजिए तो आप इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि भारत की बहुत बड़ी आबादी अपने बच्चों को डॉक्टर बनवाने के बारे में नहीं सोच सकती है।
इतनी महंगी पढ़ाई के बाद क्या किसी डॉक्टर से सेवा भाव के तहत काम करने की अपेक्षा की जा सकती है? क्या किसी डॉक्टर से अपेक्षा की जा सकती है कि वह सस्ता इलाज करेगा? क्या किसी डॉक्टर से अपेक्षा की जा सकती है कि वह गांव देहात में जाकर अपनी क्लीनिक खोलेगा, जहां पर लोगों को दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए शहरों की तरह भागना पड़ता है? क्या कोई डॉक्टर भ्रष्टाचार के हथकंडों से दूर रह पाएगा?
कहने का मतलब यह है कि डॉक्टरी की पढ़ाई का सिस्टम ही ऐसा है, जिसे भेदते हुए अगर कोई बाहर निकले तो वह सेवा भाव के साथ डॉक्टरी का पेशा अपनाए इसकी बहुत कम संभावना है।
मशहूर डॉ देवी शेट्टी इंडियन एक्सप्रेस के अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं कि भारत को जितने मेडिकल स्टाफ की जरूरत है उसका केवल 20 फ़ीसदी हिस्सा काम कर रहा है। डॉक्टरों की घनघोर कमी है। इस परेशानी की जड़ यही है कि जितने डॉक्टर चाहिए उतने सीट नहीं हैं। इसी वजह से मेडिकल एजुकेशन में भ्रष्टाचार भी जमकर होता है। 60 से 70 हजार मेडिकल सीट के लिए अगर 10 लाख से अधिक बच्चे फॉर्म भर रहे हैं तो भ्रष्टाचार स्वभाविक है। यह बात समझ से बाहर है कि भारत में एक मेडिकल कॉलेज बनाने के लिए ₹400 करोड़ खर्चा क्यों होता है? 140 सदस्य वाले मेडिकल कॉलेज 100 लोगों को पढ़ाए तो यह घटिया व्यवस्था है। जरूरत यह है कि 140 सदस्य वाले मेडिकल कॉलेज 1000 से अधिक विद्यार्थियों को पढ़ाएं। पूरी दुनिया बदल रही है लेकिन पता नहीं क्यों हम नहीं बदलना चाहते हैं।
हमारी डॉक्टरी की पढ़ाई अभिजात्य वर्गीय है। गरीब घर के लड़के डॉक्टर नहीं बनना चाहते। इसके बहुत बुरे परिणाम झेलने पड़ते हैं। डॉक्टरी की पढ़ाई लिखाई पर इतना खर्चा क्यों होता है? जबकि दुनिया के अधिकतर मुल्कों में डॉक्टरी की पढ़ाई लिखाई मुफ्त में होती है। यह सरकार की कमी नहीं है। बल्कि भारत के विशेषाधिकार हासिल किए हुए वर्ग की भी कमी है जो सरकार से सही सवाल नहीं पूछती।
यह सारी बातें हमारे जीवन की बुनियादी बातें है। बुनियादी परेशानियों का हल इन सारी बातों में है। इन सारी बातों का हल इसमें है कि लोगों को इन सब बातों पर सोचने के लिए हर वक्त मजबूर किया जाए। बार-बार उन्हें हकीकत से रूबरू करवाया जाए। ताकि वह यह तय कर पाएं कि उन्हें अपने समाज को नियंत्रित करने के लिए कैसी सरकार चाहिए?
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