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भारत का कोविड के भविष्य से नाता

देश में कोविड के 30 लाख केस हो गए हैं और रोज़ नए मामलों में हम दुनिया भर में सबसे आगे हैं, क्या अब लोगों को यह कहकर आश्वस्त किया जा सकता है कि संक्रमण अपने चरम या 'चोटी' पर पहुँच रहा है?
भारत का कोविड के भविष्य से नाता

अखबारों की सुर्खियां एक भयंकर पागलपन की गिरफ्त में हैं। वे कोविड से प्रति दिन कितनी रिकवरी हो रही है के बारे में बात करते हैं, इन रिकवरी को रिकॉर्ड बताया जाता है, और कहा जा रहा है देश में रिकवरी दर लगभग 75 प्रतिशत तक पहुंच गई है, और 22 लाख लोग अब तक ठीक हो चुके हैं, देश अब एक दिन में दस लाख जांच कर रहा है, और वैक्सीन की व्यवस्था में तेज़ी लाई जा रही है और 50 लाख खुराक (जिस वैक्सीन का अभी उत्पादन होना है) आदेश दे दिया गया है आदि। यह 'सकारात्मक' सोच का उज्ज्वल पक्ष है।

वही समाचार पत्र अनिच्छा से यह भी रिपोर्ट करते हैं कि: महामारी के बाद से अब तक कुल मामले लगभग 30 लाख हो चुके हैं, और नए मामले लगभग 70,000 प्रति दिन मँडरा रहे हैं (नीचे चार्ट देखें), जो दुनिया में सबसे अधिक है और पिछले दस लाख मामले सिर्फ 16 दिनों में रिपोर्ट हुए हैं....इत्यादि।

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क्या मामलों का ‘चोटी’ पर पहुंचना मदद करेगा?

समय-समय पर 'सकारात्मक' सोच का एक नया गुब्बारा हवा में उड़ा दिया जाता है। इस श्रृंखला में नवीनतम भारतीय स्टेट बैंक (SBI) की रिपोर्ट है जिसके अनुमान के अनुसार, जब रिकवरी दर 75 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी तो भारत में महामारी अपने चरम पर पहुंच सकती है, यानि हम इसके काफी नजदीक हैं। इसका मतलब है कि दैनिक आने वाले नए मामले अपने चरम पर पहुंच जाएंगे और फिर गिरावट शुरू हो जाएगी। हालांकि रिकवरी दर और दैनिक बढ़ते नए मामलों के बीच का संबंध स्पष्ट नहीं किया गया है, और यह 'कारण और प्रभाव' का अपासी संबंध नहीं प्रतीत होता है। यह केवल एक सांख्यिकीय सहसंबंध है, जिसकी कि बैंक के अर्थशास्त्रियों से अपेक्षा की जा सकती है। क्योंकि वे महामारी के विज्ञानी या जानकार तो है नहीं।

रिकवरी दर और महामारी के प्रसार के बीच कोई कारण और प्रभाव संबंध नहीं है। ब्राजील जोकि दुनिया का दूसरा सबसे अधिक प्रभावित देश है, वहाँ 29 जुलाई को रिकवरी दर 69.9 प्रतिशत थी, जब अधिकतम दैनिक नए मामले (70,869) पाए गए थे। मलेशिया में, रिकवरी दर 79.5 प्रतिशत है जब वहाँ 4 जून को नए केस अपने चरम पर थे। चीन में 12 फरवरी को केस अपने चरम पर थे जबकि रिकवरी दर 71.5 प्रतिशत थी। लेकिन बिना सांस लिए अटकलें चल रही हैं, जैसे कि मामलों का चरम पर पहुंचना ही महामारी का अंत है।

ब्राजील में, जुलाई के अंत में मामलों के 'चोटी' पर पहुंचने के बाद भी 9.8 लाख केस सामने आए हैं। इसलिए, किसी भी मामले में 'चरम' पर पहुंचना कोई बहुत बड़ी सांत्वना की बात तो है नहीं। बीमारी बदस्तूर बढ़ रही और उसका प्रसार जारी है, शायद इसके चोटी पर पहुँचने की तुलना में धीमी गति से ही सही, लेकिन यह प्रसार जारी है।

एसबीआई मूल्यांकन के अनुसार भारत में, 27 में से 22 राज्यों को अभी भी अपने चोटी पर पहुंचना हैऔर 54 प्रतिशत मामले अब ग्रामीण क्षेत्रों से हैं, जिसकी जिलेवार आंकड़ों के आधार पर गणना की गई हैं, मामलों के 'चोटी' पर पहुंचने के बाद भी महामारी संभवतः कई महीनों तक जारी रहेगी।

दैनिक मामलों में चोटीके बीच के सहसंबंध को जानने में कमी और वायरस के प्रसार को समझना मुश्किल नहीं है। वास्तव में, इसमें एक सहसंबंध खोजने की कोशिश करना ही गलत है। यदि प्रति दिन 80,000 मामले को चोटी कहते हैं, तो प्रतिदिन 50,000 मामलों की निरंतर रिपोर्ट भी सफलता या राहत का कोई बड़ा उपाय नहीं है, खासकर अगर 50 हज़ार की कम संख्या एक महीने तक जारी रहती है।

फिर, वायरस के वापस आने का सवाल भी है। कोई देश चोटी पर पहुंच सकता है, बाद में एक सुखद गिरावट देख सकता है, लेकिन वायरस फिर वापस आ सकता है, जिसे की संकर्मण की दूसरी लहर कहा जाता है। ऐसा कई देशों में हुआ है, जैसे कि अमेरिका, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, आदि। तो, किसी भी मामले में, आज की चोटी अर्थहीन है।

भारत का बुरी तरह से प्रभावित होना जारी 

इस बीच, जैसे हालात दिख रहे हैं, भारत में बड़ा तूफान जारी है जो इस महामारी ने फैलाया है। युवा आबादी की वजह से मृत्यु दर बहुत अधिक नहीं है। लेकिन जो संक्रमित हुए हैं या हो रहे हैं वे अन्य बीमारियों से गंभीर रूप से पीड़ित हो रहे हैं-उन्हे शरीर में दर्द और शारीरिक पीड़ा के अलावा, यह बीमारी पारिवारिक बजट और आजीविका के विनाश का कारण भी बन रही है।

इसकी भी संभावना है कि जो लोग एक बार संक्रमित हो जाते हैं वे लोग हफ्तों तक नहीं बल्कि महीनों तक इसके साइड इफेक्ट से पीड़ित रहेंगे। इन साइड इफेक्ट में यादाश्त का खोना, समन्वय में शिथिलता का आना, गुर्दे, मस्तिष्क और अन्य अंगों को नुकसान होने की संभावना शामिल है। यह अब अच्छी तरह से स्थापित हो चुका है कि कोविड​​-19 जिसे सांस को प्रभावित करने के लिए जाना जाता है वह अब जठरांत्र, तंत्रिका संबंधी, गुर्दे, हृदय और अन्य जटिलताओं का कारण भी बनता है।

लेकिन महामारी का दूसरा प्रभाव अगर अधिक नहीं है लेकिन है उतना ही विनाशकारी है। यह अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव है। नवीनतम सीएमआईई आंकड़ों के अनुसार, आज बेरोजगारी 8 प्रतिशत से अधिक है। एसबीआई की रिपोर्ट में ही सकल घरेलू उत्पाद में दोहरे अंकों के संकुचन की भविष्यवाणी की गई है। आयात और निर्यात नीचे चला गया हैं। बैंक क्रेडिट में ठहराव बना हुआ है। औद्योगिक उत्पादन में तेजी से संकुचन आया है। हालांकि कृषि उत्पादन रिकॉर्ड स्तर पर है, लेकिन किसानों को इसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है, जबकि बेतहाशा अनाज सरकारी गोदामों में जमा हैं। मजदूरी स्थिर है या उसमें गिरावट है। इस सबने भारतीय अर्थव्यवस्था को एक ऐसे शून्य में धकेल दिया है जिसका लोगों के जीवन स्तर पर अत्यंत विनाशकारी प्रभाव पड़ा है।

अब जो सबसे निराशाजनक बात है, वह यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार महामारी से लोगों की पर्याप्त निजात दिलाने और उनकी देखभाल करने में विफल रही है। इसने पहले तो मार्च के तीसरे सप्ताह में एक कठोर और बिना किसी योजना के लॉकडाउन लगा दिया, इसने पहले से डूबती अर्थव्यवस्था को  नीचे की ओर धकेल दिया। फिर मोदी सरकार ने लॉकडाउन को अव्यवस्थित ढंग से खोलने का काम किया खासकर जब महामारी के मामले तेज़ी से बढ़ रहे थे।

मोदी सरकार उन लोगों को बुनियादी आय सहायता प्रदान करने में विफल रही जिनकी आजीविका और मजदूरी लॉकडाउन की वजह से समाप्त हो गई थी। परिणामस्वरूप, उनके हाथ में कोई क्रय शक्ति नहीं होने के कारण, लोग भोजन सहित उपभोग खर्च में कटौती कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था दोनों का सामना कर रही है, एक तरफ मांग में कमी और दूसरी तरफ आपूर्ति में मंदी। लेकिन, सरकार लोगों के हाथों में पैसा देकर अर्थव्यवस्था ओ बढ़ावा देने के बजाय संकटग्रस्त कॉरपोरेट संस्थाओं की मदद कर रही है जो अपने मुनाफे को लेकर चिंतित हैं। यह रणनीति आपदा के लिए एक नुस्खा थी जो अब भारत में चल रही है।

अन्यथा इस निराशाजनक स्थिति में एक अच्छी बात यह है कि पिछले दो महीनों में, किसानों और कृषि मजदूरों से लेकर कारखाने के मजदूर और सेवा क्षेत्र के कर्मचारियों की बीच एकता बढ़ रही है और बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों की एक लहर सामने आई है, जो लोगों को लामबंद कर रही है। इन आंदोलनों के माध्यम से बेहतर आय समर्थन, अधिक रोजगार, अधिक खाद्यान्न, और कॉर्पोरेट समर्थक नीतियों को पलटने की मांग की जा रही है। वामपंथियों के नेतृत्व में शुरू होने वाले इन विरोध प्रदर्शनों को अन्य राजनीतिक धाराओं से जुडी ट्रेड यूनियनों ने भी हिस्सा लिया है। यह एकता सरकार को अपनी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने और लोगों पर बेहतर ध्यान देने की ओर अग्रसर होने का मार्ग प्रशस्त करेगी।

[न्यूज़क्लिक डेटा एनालिटिक्स टीम के पुलकित शर्मा ने डेटा का संग्रह किया है]

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