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श्रम कानून-विहीन जंगलराज की ओर बढ़ता भारत

आप देखते जाएं कैसे एक के बाद दूसरे राज्य में श्रम कानून-संबंधी मजदूर-विरोधी कदमों की झड़ी लग गई है। यह भारत को श्रम संबंधों के मामले में एक नए कानून-विहीन व्यवस्था की ओर धकेलने का निर्लज्ज प्रयास है।
श्रम कानून
Image courtesy: National Herald

श्रम कानूनों पर बढ़ रहे कुठाराघात में इस बार एक नया गुणात्मक पहलू जुड़ा है। ऐसा नहीं है कि कुछ चुनिन्दा अतिउत्साही दक्षिणपंथी भाजपा सरकारें श्रम कानूनों के किन्हीं प्रावधानों को खत्म कर रही हैं, बल्कि आज राज्यों में श्रम कानूनों पर जो हमला है वह मोदी द्वारा नेहरू-युग के औद्योगिक संबंधों की जगह एक नए औद्योगिक संबंध व्यवस्था लाने के प्रयास को भी पीछे छोड़ रहा है। यह भारत को श्रम संबंधों के मामले में एक नए कानून-विहीन व्यवस्था की ओर धकेलने का निर्लज्ज प्रयास है।

आप देखते जाएं कैसे एक के बाद दूसरे राज्य में श्रम कानून-संबंधी मजदूर-विरोधी कदमों की झड़ी लग गई है। उत्तर प्रदेश को लें, तो यहां एक आर्डिनेंस के जरिये 3 साल तक के लिए 3 कानूनों, और चौथे कानून का एक प्रावधान छोड़कर, बाकी सभी कानूनों को मुअत्तल कर दिया गया है। यह सच है कि यह योगी आदित्यनाथ के अतिउत्साह का नतीजा हो सकता है, जिन्हें लोग शासन के मामले में भी कानून का दायरा लांघकर काम करने के लिए जानते हैं; पर बात यहीं नहीं रुकती। मध्यप्रदेश में इनके ही प्रतिरूप, यानी शिवराज सिंह चैहान, जो गैरकानूनी तरीके से ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ के माध्यम से सत्ता हथियाने में सफल रहे, ने सभी श्रम कानूनों को 1000 दिनों के लिए रद्द कर दिया है-पहले तो कुछ निवेशकों के लिए, पर बाद में सभी उद्योगों के लिए।

फिर गुजरात, जो भाजपा की कार्यशाला है, इस बाबत कैसे चूक सकती थी? उसने तो श्रम कानूनों को 1200 दिनों, यानी 3 साल से भी अधिक के लिए खत्म कर दिया।

दूसरी ओर असम की भाजपा सरकार ने निश्चित अवधि रोजगार व्यवस्था चालू कर दी है, जबकि इससे मिलती-जुलती सिफारिश औद्योगिक संबंध श्रम संहिता के मसौदे (Draft Labour Code on Industrial Relations) में पहले से सम्मिलित है और उसे संसदीय समिति ने संस्तुति भी दी है; पर इसपर केंद्र सरकार का निर्णय अभी बाकी ही है। मध्य प्रदेश और गुजरात की भांति असम की भाजपा सरकार ने फैक्ट्री कानून के मूल प्रावधान-8 घंटे काम की जगह बिना ओवरटाइम 12 घंटे काम का प्रावधान रख दिया है। उन्होंने 8 घंटे काम के कानून को कार्यकारी आदेश के जरिये निष्प्रभावी बना दिया!

गोवा की भाजपा सरकार ने भी इसी तरह सभी उद्योगों, दुकानों और संस्थाओं के लिए 12 घंटे के कार्यदिवस को अनिवार्य बना दिया है।

1 मई 1886 के हे मार्केट श्रमिक प्रतिरोध ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति को बाध्य किया था कि वे 1889 में 8 घंटे कार्यदिवस की घोषणा करें, पर भाजपा सरकार ने 150 साल पुरानी इस विजय पर बिना किसी हिचकिचाहट पानी फेर दिया। इससे स्पष्ट होता है कि आरएसएस-भाजपा का मूल दर्शन ही मजदूर-विरोधी है। विश्व के किसी और सभ्य देश ने कोरोना वायरस महामारी के बहाने श्रम कानूनों को पूरी तरह खारिज नहीं किया है, खासकर तब जब मजदूर वैसे ही तबाही झेल रहा है। सच कहा जाए तो कोविड-19 एक बहाना भर था भाजपा की असली मंशा को पूरा करने के लिए। यही है ‘आपदा को अवसर’ बनाने की रणनीति। श्रम कानूनों को रद्द करने की इस आंधी ने औद्योगिक संबंधों में नेहरूवादी उदारवाद को बहुत पीछे छोड़ दिया, यहां तक कि संविधान के बुनियादी उसूलों को तिलांजलि भी दे दी। कानूनों और उनके प्रवधानों को केवल श्रम विभाग के आदेशों के जरिये खत्म कर देना यह भी साबित करता है कि हमारे कानून कितने कमजोर हैं। हमारे महान गणतंत्र के पुरोद्धाओं ने संविधान सभा में जो अथक प्रयास किये थे, आज आरएसएस-भाजपा ने उनका माखौल बना दिया है-अब न्यायपालिका का कार्यपालिका पर वर्चस्व समाप्त हो गया।

केवल भाजपा सरकारों की बात क्यों करें? भाजपा के योगी आदित्यनाथ ने पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को भी रास्ता दिखा दिया है। पिछले हफ्ते मंत्रीमंडल की बैठक में पंजाब सरकार ने तय कर लिया कि श्रम कानून में ऐसा ही बदलाव करेंगे-यानी 8 घंटे के बजाय 12 घंटे काम और श्रम कानूनों को 3 साल के लिए मुअत्तल करना। और तो और, उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले महाराष्ट्र सरकार, जो कांग्रेस के कन्धों पर सवार होकर सत्ता चला रही है और जिसकी हाल के समय कई मामलों में तारीफ हुई, ने भी 12 घंटे का कार्यदिवस लागू कर दिया। जहां तक कांग्रेस नेतृत्व की बात है, तो सोनिया और राहुल ने इस मामले में लेशमात्र भी विरोध नहीं जताया।

ओडिशा के नवीन पटनायक सरकार ने भी 12 घंटे की पाली को मंजूरी दी है, अलबत्ते 3 महीने के लिए। केवल एक ही सरकार है-केरल की पिनरई विजयन की सरकार, जिसने साफ-साफ घोषित किया है कि श्रम कानूनों में कोई परिवर्तन नहीं होगा।

जो सरकारें श्रम कानून बदल रही हैं उनका तर्क है कि कोविड-19 ने देश को एक गहरी मंदी की ओर धकेल दिया है और श्रम कानूनों व श्रम अधिकारों को रद्द करना ही देश की अर्थव्यवस्था और निवेश को बढ़ाने का एकमात्र रास्ता है।

सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग के सीईओ, अमिताभ कान्त ने कहा है, ‘‘अब तक भारत के श्रम बाज़ार अधिनियम सबसे कम लचीले रहे, जिसकी वजह से बड़े निवेशों, उत्पादन और वृद्धि, प्रौद्योगिकी अवशोषण और भारतीय मैनुफैक्चरिंग में रोजगार की अधिक वृद्धि में बाधा उत्पन्न हुई।’’ श्री कान्त ने शायद अपने से यह प्रश्न कभी नहीं पूछा कि इतने सारे श्रम कानूनों के बावजूद भारत एक प्रमुख औद्योगिक शक्ति कैसे बना? उन्हें शायद यह भी बताना चाहिये कि ऐसे ही विकृत तर्कों के बल पर भाजपा शासित राज्यसरकारों ने 3-4 सालों से श्रम कानूनों में तमाम सुधार किये, फिर भी उनके राज्यों में क्यों कोई ठोस निवेश नहीं आए?

राष्ट्रीय श्रम संस्थान (National Labour Institute) के डॉ. संजय उपाध्याय और पंकज कुमार ने 2107 में एक महत्वपूर्ण अध्ययन किया है जिसका शीर्षक है- Amendments in Labour Laws and Other Labour Reform Initiatives Undertaken by State Governments of Rajasthan, Andhra Pradesh, Haryana and Uttar Pradesh-an Analytical Impact Assessment. काफी विस्तृत और सूक्ष्म अध्ययन और शोध के बाद उन्होंने अंत में निष्कर्श निकाला है कि ‘‘इन सुधारों के असल प्रभाव की दृष्टि से समग्र स्थिति की समझ यह बतलाती है कि ऐसे सुधार दरअसल स्वभाव में सांकेतिक ही होते हैं तथा ये एक ऐसे मकसद से किये जाते हैं कि उद्योग-पक्षधर दृष्टिकोण ही उजागर हो और यह छवि प्रस्तुत की जाए कि सत्ता चलाने वाले उद्योगों की समस्याओं से भी रू-ब-रू हैं।

‘‘अपने बलबूते, ये सुधार न ही बड़े निवेश आकर्षित करने में, न ही उद्योगों को बढ़ावा देने में और न ही रोजगार बढ़ाने में, या फिर श्रम के शोषण की वृद्धि अथवा श्रमिकों के कार्य व सेवा की स्थितियों की गिरावट के कारण रहे हैं’’। इस निश्कर्ष ने उनके और विभिन्न राज्यों में उनके प्रधानों के झूठ का खुलासा कर दिया है।

श्रम कानूनों को ताक पर रखने का परिणाम आखिर क्या होगा? पहली बात तो श्रमिक सामूहिक सौदेबाज़ी (collective bargaining) के अपने अधिकार को खो बैठेंगे। 3 साल तक वे कोई मांगपत्र तैयार नहीं कर सकेंगे न ही मालिकों को उनके साथ बात करने के लिए दबाव बना सकेंगे। वे समस्त कानूनी सुरक्षा के साथ हड़ताल पर नहीं जा सकेंगे। वे यूनियन नहीं बना सकेंगे न ही सरकार से उनके पंजीकरण की मांग कर सकेंगे। क्योंकि औद्योगिक विवाद कानून लागू नहीं होगा, उनके मालिक hire and fire की नीति पर चलेंगे। श्रम निरीक्षक द्वारा कोई जांच भी नहीं होगी। श्रमिकों की सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं होगा क्योंकि Factories Act लागू नहीं होगा। निर्मला सीतारमण एक आडम्बरपूर्ण घोषणा करती हैं कि न्यूनतम मज़दूरी सभी के लिए आम बना दी जाएगी और अपने आप सब पर लागू होगी। क्या वह नहीं जानतीं कि उनके साथी अपने-अपने राज्यों में ऐसी स्थिति ला रहे हैं कि न्यूनतम वेतन कानून पर ही संकट छा जाएगा अैर श्रमिक उसके लिए संघर्ष भी न कर सकेंगे? सचमुच यह जंगल राज होगा।

ट्रेड यूनियन इस समय पंगु हो गए हैं। इस दमनचक्र के विरोध में और उसे कड़ी टक्कर देने लायक किसी देशव्यापी पहलकदमी के बारे में उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा। इस किस्म की औद्योगिक संबंध व्यवस्था को हमने स्वतंत्र भारत के 73 वर्षों में नहीं देखा था, यहां तक कि 1850 में पहले श्रम कानून के पारित होने के बाद औपनिवेशिक भारत तक में इसकी मिसाल नहीं मिलती। पर यह जंगल राज दुधारी तलवार है। श्रम कानून औद्योगिक उत्पादन और कार्यवाहियों को एक हद तक की स्थिरता प्रदान करते हैं। और, जंगल राज में तो केवल और भी अधिक हिंसक विद्रोह की आशा की जा सकती है, जैसा कि मारुति और प्रिकॉल उद्योगों में हुआ था जब श्रमिकों के धैर्य को बेइंतेहां उकसाया गया और कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ीं। नेहरू युग के व्यवस्थित ट्रेड यूनियनवाद ने जिन ट्रेड यूनियनों को जन्म दिया था, वे अब पुराने दौर की तरह काम नहीं कर सकते। उन्हें चौंकाने वाले फ्लैश संघर्षों के युग की तैयारी के साथ व्यापकतम एकजुटता की ओर बढ़ना होगा।

संघर्ष की एक मिसाल के रूप में है तमिलनाडू के श्रमिक। वरिष्ठ पत्रकार टी एस एस मणि ने मिन्नमबलम न्यूज़ पोर्टल पर रिपार्टों की एक श्रृंखला में बताया है कि 4000 ठेका मज़दूरों ने डीएई-एनपीसीआईएल और लारसेन ऐण्ड ट्युब्रो की संयुक्त ताकत और उसके गुण्डे ठेकेदारों को अपने क्रान्तिकारी संघर्ष के बल पर झुका दिया, और तमिलनाडु सरकार को उन्हें घर भेजने पर बाध्य कराया। वे अपने संघर्ष में सफल रहे, यद्यपि दो श्रमिक नेताओं पर ठेकेदार माफिया ने गरम तेल उड़ेलकर उन्हें बुरी तरह जला दिया। दूसरी ओर सूरत और मुम्बई में प्रवासी मज़दूर पुलिस के साथ सड़कों पर रोज़ जंग लड़ रहे हैं। बंगलुरु के पीनिया औद्योगिक क्षेत्र की महिला श्रमिक भी अपनी नौकरी और वेतन को बचाने हेतु अचानक लड़ाई में उतर पड़ीं।

एमजीआर पर फिल्माया गया एक लोकप्रिय गीत, ‘‘कानून वह है जो विद्रोह से उपजता है......’’ आज प्रासंगिक लगता है। जंगल राज या कानून का राज, वर्ग संघर्ष का कोई अंत नहीं है और श्रमिक अग्रणी भूमिका में आ रहे हैं। अब बारी है कि ट्रेड यूनियन भी नए सिरे से अपना व्यूह तैयार करें।

(लेखक श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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